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मुझे पढ़ने का शौक है. विभिन्न विधाओं में लिखती भी हूं .
"कोई होड़ नहीं" स्त्रियां कब चाहती हैं बराबरी , स्त्रियां कब होना चाहती हैं पुरुष सी ! बस खुल कर जीना चाहती हैं, भर भर लेना चाहती है सांस खुली हवा में। उसकी कलसी पर जो ताला मारा है पितृसत्ता ने , वह कलसी वापस चाहती है। मांगती है कड़ी मेहनत का पूरा मेहताना अपनी क्षमताओं के कमल खिलाना चाहती है। स्त्री चाहती है सबको मिले धूप, मिले छांव , स्त्री चाहती है हर एक के लिए प्रेम भाव ! चाहती है विकास के निर्णय में बढ़चढ़ कर भाग लेना , ताकि बचा सके जंगल, छलनी ना हों पर्वत, ताकि नदियां रहे सदानीरा, ताकि झूम कर नाचे राधा,मीरा ! वह चाहती है पोंछना हर आंसू, वह चाहती है जी भर कर हँसते हुए फफक कर रो लेना ! वह नहीं चाहती किसी युद्ध में, किसी अहम में किसी अपने को खोना ! पुरुष की होड़ करना नहीं चाहती, स्त्री नहीं होना चाहती पुरुष सी ! मुखर
वह बिना अलार्म के उठती है रोज, सूरज और चिड़िया के संग । काम पर जाने से पहले बहुत सारा काम निपटाना होता है। घर का निपटाने के बाद और नौकरी पर पहुंचने के दरमायन भी उसके हिस्से हैं कुछ महत्ती काम । रास्ते में मुन्नी को बस स्टैंड छोड़ना, स्कूल बस रवाना हो जाने तक रुकना। फिर दौड़ते भागते ऑफिस पहुंचना ! साढ़े सात बजे तो रजिस्टर हटा लिया जाता है। ये फोन भी उसकी जान को खाने खाता है। चाय ब्रेक, लंच ब्रेक में परिवार, रिश्तेदार, दोस्तों को वर्षगांठ की शुभकामनाएं, तबियत पानी पूछना ... दुनियादारी निभाने की जिम्मेदारी उसी की है। ऑफिस से लौटते हुए सब्जी, कुछ राशन, कोई स्टेशनरी, दवाई ही लाना होता है। काम से लौट कर उसे काम पर लग जाना है ! रसोई समेटते, बच्चों का होमवर्क चेक करते, मां जी को संभालते, साथी को समय देते अभी आज सिमटा भी नहीं है और वह मन ही मन कल के काम की फेहरिस्त पर डाल रही है नज़र। बत्ती बुझाते बुझाते याद आ गया है उसे मांजी का डॉक्टर से अपॉइंटमेंट, और हां दही भी तो जमाना है! स्त्री काम से कब लौटती है ! स्त्री काम पर कब जाती है ! मुखर 1/5/22 #मजदूर_दिवस
"मृगमरिचिका" मैं भागी हूं उसके पीछे कई बार उल्लास में कभी प्यास में ! जानती बूझती कभी, कभी अनजाने में ! ठेठ मरुथल में धोरों के पार कभी सीधी सपाट काली सड़क पर कभी, कभी सूखे गले, फिर रुआंसी धीर बांधती, कभी तर गले मुस्कुराती एक्सीलेटर दबाती, उसकी छाती पर से सर्रर गुजर जाती ! मृग मरीचिका ! कभी सताती ! कभी बहुत भाती ! मैं भागी हूं उसके पीछे , भागती हूं उसके पीछे पीछे ! 27/4/22 मुखर
कभी यूं भी तो हो, ढल रही हो शाम और आंखों में उजाले भर जाए, कभी यूं भी तो हो, मैं झांकू अपनी खिड़की से और तू नज़र आए ! कभी यूं भी तो हो, उठ कर क्षितिज से सूरज मेरी गली में आए ! कभी यूं हुई तो हो … #मन_सतरंगी
" मन सतरंगी" मन के ताल में छिपी हैं सीपियां , गर्भा सीपियां ...झील की सतह पर खिलते हैं कमल... शब्दों के फ़ूल ! कभी किनारे बैठ जो फेंके थे कंकर , सोच में डूबे , उठी थी लहरें बहुत देर तलक , इस झील में, उस हृदय में …आज चुग रहे हैं कुछ किशोर हाथ छोटे छोटे, गोल गोल, सफ़ेद काले पत्थर ... पत्थर हृदय में , प्रेम है मूल ! नयनों से झरते हैं अश्रु ... मन के ताल में छिपी हैं सीपियां , गर्भा सीपियां ! #मन_सतरंगी #खयाल
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