Mre ankahe jajbaat - Mrutyu - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरे अनकहे जज्बात। - मृत्यु कुण्ड - 2

देख बारूद की महग है फैली आज चहुँओर हर दिशाओं में।
दूर दूर तक जल रही है चिताएँ  नवयौवन लिए शमशानों में।
यह महाकाल का हवन कुंड है जो बनी मानवता की बलि वेेेदी।
मत कर प्रलाप तू ना कर पश्चाताप कर ले इसका तू प्रतिकार।

यह मृत्युपथ है , यह है विकृत पथभ्रष्ट मानव विकास की मधुुुशाला।
है यह विनाश की वह गाथा जिसको हमने स्वयं ही है लिखा।
घनघोर तिमिर है, सब हृदय व्याकुल और हर मन अधीर है।
विरह की गहरी अनचाही वेदना हर मन विह्वल करती रहती है।

कभी प्रकृति का भयावह ताण्डव, कभी मानवकृत विध्वंस विनाशक।
बन गयी धरा यह प्रचण्ड रूप धर ज्यों मानव तन का मृत्यु कुण्ड है।
कृतघ्न पतीत शठ कुटिल और लोभी आत्मघाती हम
प्राणी अज्ञानी।
बुद्धि विवेक त्याग आज तड़प रहें हैं जैसे मछली तड़पे बिनु पानी।

अतिशय लिप्सा से ग्रस्त हुए हम प्रकृति का दोहन करते यूँ हम अभिमानी।
जैसे चढ़ किसी वृक्ष की डाल को स्वंय काट रहा है कोई जीव अज्ञानी।
अब रोक इसे मत कर अतिरेक तू है बहुत क्षुद्र यह तू अब  मान ले।
वह विशाल है विकराल है हर तरह से वह सक्षम करने में तेरा संहार है।

अपने इच्छाओं के महाकुण्ड को अब तो अभिमान की समिधा मत दे।
अपने विवेक के प्रकाश में जाग उस भविष्य का आधार अब रख दे।
शान्ति समृद्धि की मंद मंद बयार में नयी पीढ़ी की तरुणाई झूमे।
हर्षित प्रफुल्लित मानव समाज हो हाथ जोड़ सब चलना सीखे।

रार न कर तूँ तकरार न कर तूँ एक दूसरे पर यूँ प्रहार मत कर तूँ।
मत कर अन्वेषण नित नव संहार के विध्वंसक हथियार का।
अपनी लिप्सा को दे विराम अब अपने अभिमान को दे आराम तूँ।
ये धरा किसी की कभी हुई नही है कर जोड़ इसको कर प्रणाम तूँ।

अब जाग जा , जरा आँखें तू खोल, और देख ले अपनी दुर्दशा।
मानव मानव को मार रहा अपने ही स्वार्थ में सब है मस्त हुआ।
कब तक स्वविवेक की चिता जला कर तू यूँ अंधकार में भटकेगा।
जन्म से लेकर मरण तक तूँ घुट घुट कर कब तक मरता रहेगा।

अब दे विराम अपने मन के उद्वेग को समझ ले जीवन के उद्देश्य को।
मानव जीवन बड़े भाग्य से मिलता है मत कर नष्ट इसे क्षुत्र स्वार्थ में।
सार्थक कर अपने जीवन को बना धरा को हरित जीवित और मनोहर।
आने वाली पीढ़ी जहाँ प्रेम से रह सके गर्व करे हम उनके हैं पूर्वज।

मानव जीवन का मूल जरूरत यह हथियारों की होड़ नही है ।
न ही यह विनाश की महायुद्ध किसी के जीवन को सुगम करती है ।
अपने विनाश की नित नव गाथा कब किसको हर्षित करती है ।
रोक इसे अब यह महाकाल का प्रलय चक्र अब तेरे द्वार खड़ी है ।

खत्म हो रहे मानव मूल्यों का अब फिर से उत्थान तो कर ले ।
विनाश के पथ पथिक बना तू अब तो अपने ज्ञान की दीप जला ले ।
समय की अब नाजुकता को तो समझ तूँ बहुत तेजी से भाग रहा है ।
आज न संभला तो फिर आगे चल कर लौटने का कोई राह न होगा ।

मत बना तूँ अब क्रीड़ा भूमि इस धरती को अपने निजी स्वार्थ का।
बन रही नित्य यह मरुभूमि अब तेरे कर्मों की प्रयोगशाला बनकर।
मत बुला महा तांडव करने अपने हवन कुंड में उस महाकाल को।
मत भड़का और अधिक अब मृत्यु कुंड के इस विकराल आग को ।