I am still waiting for you, Shachi - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 2

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 2

अभिषेक, एक पत्रिका में कोई रिपोर्ट लिखने के उद्देश्य से एक कस्बे में आता है. पर वहाँ की धीमी गति से गुजरते जन जीवन से एक दिन में ही बहुत ऊब जाता है. तभी एक दुकान पर उसे एक नारी कंठ सुनायी देता है. वह चेहरा नहीं देख पाता. उसे शची की आवाज़ लगती है और वह परेशान हो उठता है. अपने गेस्ट हाउस में लौट वह पुरानी यादों में खो जाता है कि कैसे कॉलेज में भी शची कि आवाज सुन चौंक गया था, वह. )

गतांक से आगे.

आम लड़कियों से कुछ अलग सी थी, शची. फिर आने के साथ ही क्लास में जबाब देने और अपनी डाउट रखने से उसकी साख जम गयी. और उस दिन सबसे बेहतर निबंध लिखने पर डा. देशपांडे की प्रशंसा के बाद तो शची का सिक्का मान लिया, सबने. वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ भी काफी हैं उसकी. यह सुन उसे आश्चर्य जरूर हुआ था कि 'मॉर्निंग स्टार' में एक कॉलम लिखती है. लेकिन सोचा हुहँ, अखबार में लिखने को रहता ही क्या है. जरा इधर की, जरा उधर की और थोड़ा मिर्च मसाला बस. पढ़ा था उसने भी, शैली अच्छी भी लगी थी, पर विषय वही घिसे पिटे थे. लड़कियों की समस्याएं, उनपर लादी गयी बंदिशें, उनकी राह में रुकावटें. देखता आया है, हर लिखने पढने वाली लड़की थोड़ी सी फेमिनिस्ट हो ही जाती है. हमेशा अपनी जाति के लिए सतर्क. कहीं कोई उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ना कर दे. शची भी अलग नहीं थी, इन सब से. इसीलिए वह उसके आर्टिकल देख भर लेता... पढता कम ही. उसपर कॉलेज की लड़कियों का हुजूम.. ओह! पूरे दिन बस शची के कॉलम की चर्चा.

तो... जब सारा क्लास ही शची की रट लगाए बैठा है तो उसे क्या पड़ी है.... यूँ भी कहाँ, कभी खुद आगे बढ़कर किसी से बातें की हैं, उसने. और वह भी लड़कियों से? उसकी स्मार्टनेस और वाक्पटुता ने तो कितनी ही लड़कियों को बात करने के बहाने ढूँढने में उलझाए रखा है. बेचारी छुई मुई सी शांत लडकियां तो उसके सामने भी नहीं पड़तीं, कतरा कर निकल जाती हैं. और ये 'हलो'' और 'हाय' वालियां. पढ़ाई को एक टाइम पास की तरह लेनेवालियों को तो दूर से ही नमस्कार. हालांकि सबसे ज्यादा परेशान वह इन्हीं लोगों से था. अपना अधिकार समझता था, उस पर यह ग्रुप. अपनी ही बिरादरी का होकर उसका यूँ छिटके रहना कतई नापसंद था, उन्हें. उन सबकी यही मान्यता थी. आखिर नौकरी तो उन्हें करनी नहीं. फिर क्यूँ किताबों में सर खपाया जाए. एन्जॉय करने को जब ज़िन्दगी में इतना कुछ है. प्रतिष्ठा के लिए बस एक डिग्री चाहिए और वो मिल ही जाएगी.

लेकिन अभिषेक निरपेक्ष था, इन सब से. क्लास में खूब दिलचस्पी लेता. सबसे बातें करता और सबकी फिरकी लेने में तो वह माहिर था. फिर भी आभिजात्य की झलक उसके व्यक्तित्व से मिल ही जाती थी. वह बोले तो लोग सुनते जरूर थे. और उसकी बात काटने से पहले एक बार सोच जरूर लेते. आखिर क्यूँ ना हो, क्लास का सबसे तेज छात्र. एक बड़े उद्योग पति का इकलौता सुपुत्र और व्यवहार में बेतकल्लुफी, सबने मिलकर एक प्रभावशाली व्यक्तित्व बना दिया था उसका.

तो क्या इस नयी छात्रा पर इसका कोई असर नहीं हुआ?? सबकी प्रशंसात्मक निगाहों का आदी अभिषेक, शची की अपने प्रति उदासीनता को अपनी उपेक्षा समझ बैठा. जबकि शची का व्यवहार सबसे समान था. हाँ, खुद आगे बढ़कर बातें करने वालों से वह काफी खुल गयी थी. और शची की हंसी तो अब क्लास का अनिवार्य अंग बन चुकी थी. प्रोफेसर्स के आने के पहले और जाने के बाद किसी ना किसी बात पर गूँज ही उठती.

आज भी उसके क्लास में कदम रखते ही जोर से खिलखिला पड़ी, "क्यूँ अभिषेक जी, आपने वह किताब गुम कर दी है, जो पूछने पर इस तरह घबरा गए. भई आराम से घर में ढूंढ लीजियेगा. कहीं ऐसा ना हो तीन महीने की सोच कल खरीद कर ही ला दें "

वह उसके 'जी' और 'आप' बोलने पर झुंझला गया था. मनीष, रितेश, अजय वगैरह से तो उसकी तुम चलती है. भारी स्वर में बोला, "लाइब्रेरी की किताब मैं गुम नहीं करता. आल्मीरे में रखी है, कल ला दूंगा"

अपनी आवाज़ की रुक्षता पर खुद ही चौंक गया. शची का मुस्कुराता चेहरा भी पल भर को म्लान हो गया. क्या हो गया है उसे? क्यूँ डपट दिया इस तरह? पता नहीं किस अर्थ में ले शची इसे. वैसे उसे डर शची का नहीं बल्कि अन्य लड़के लड़कियों का था. उनकी कल्पनाशक्ति तो ताड़ खजूर जैसी है. इसे ही नींव बना अपने अपने मनानुसार महल खड़े कर लेंगे. बात को बदलने की गरज से उसने पूछा, "आपको भी शौक है, किताबों का?... लेटेस्ट किताबों में से कौन कौन सी पढ़ लीन, आपने?"

शची नाम गिनाने लगी. साथ ही कौन सी किताब क्यूँ अच्छी लगी और किसमे क्या ख़ामी नज़र आई यह भी बताती जाती. आस पास के झुण्ड कुछ देर तो विमुग्ध से सुनते रहें पर जिस क्षेत्र की जानकारी ना हो, उसे कब तक झेल सकते थे. जल्द ही उबासियाँ लेने लगे सब. उसने लक्ष्य किया, इसे और शची ने भी इसे भांप बड़ी खूबसूरती से प्रख्यात किताब पर बनी एक फिल्म की चर्चा कर, बात को फिल्मों की तरफ मोड़ दिया. फिर तो कई चेहरे चहकने लगे. मन ही मन दाद दी उसने. 'तो यही राज़ है इसकी लोकप्रियता का, किसी पर छाने की चेष्टा नहीं करती और शायद इसीलिए छा जाती है'. प्रो. चंद्रेश के क्लास में कदम रखते ही वार्ता भंग हो गयी और सबने अपनी अपनी जगह ली.

***

बेकार ही, कतराता फिर रहा था वह. झूठमूठ की वैनिटी बना ली थी, उसने. शची एक निहायत जिंदादिल लड़की थी. क्लास में सबके साथ एक सा व्यवहार था, उसका. पूरे क्लास के आकर्षण का केंद्र तो वह, अब भी था. हाँ, शची समकक्ष जरूर नज़र आ रही थी. लेकिन परवाह नहीं उसे. ये तो नयी नयी आई है जबकि वर्षों की मेहनत है उसकी अपनी इमेज के पीछे. पुराने सहपाठी हैं, सब उसके. उसका मान अब भी बरकरार था.

क्लास में तो खैर बातें होती हीं. कभी कभी लाइब्रेरी में भी बातचीत हो जाती. लेकिन शची दो-चार बातों से आगे नहीं बढती. वह खड़ा रह जाता और शची की आँखें, किताबों में क़ैद हो जातीं. फिर क्लास में सबके सामने बड़ी सहजता से कह देती, "अरे, अभिषेक तुम खड़े रह गए और मैं किताब में खो गयी. असल में थी ही बड़ी इंटरेस्टिंग. तुम भी पढ़ कर देखना "

और वह खिसियाया सा बस इतना बोल पाता, "कोई बात नहीं"

गौर किया था, उसने. एक लक्ष्मणरेखा सी खींच रखी थी. शची ने अपनी चारों तरफ. ना उस परिधि से वह बाहर निकलती, ना ही किसी का अंदर आना ही उसे पसंद था. सबने इसे महसूस किया. फलतः किसी ने इसका अतिक्रमण करने की कोशिश भी नहीं की. शची ने भी अपना ये मनोभाव छुपाने की कतई चेष्टा नहीं की. एक वह ही था, जो घुसपैठ करता और अपमानित होकर लौटता. वह भी इस तरह कि ऊपर से तो खरोंच तक ना पर भीतर भीतर ही दंश देता रहें. धीरे धीरे उसने भी शची को अकेले में टोकना छोड़ दिया. क्लास से बाहर, शची से परिचय, हलो तक ही सीमित रहा.

फिर भी क्लास में घुसते ही उसकी निगाहें, शची को जरूर ढूंढ लेतीं. अनजाने ही उसने भी हलके रंग के कपड़ों को तरजीह देनी शुरू कर दी. वो तो एक दिन मनीष ने टोका तो उसका ध्यान गया, "क्यूँ यार, वो अपनी लाल पिली नारंगी रंग वाली टी शर्ट्स कहीं बाँट आए क्या ??"

दूसरे दिन, मनीष का मुहँ बंद करने को वह मैरून कलर की टी शर्ट पहन कर आया. (हालांकि लाख चाहने के बावजूद लाल रंग वाली नहीं पहन पाया)

बैठते ही मनीष से बोला, "देख लो, यहाँ किसी की नक़ल नहीं करते. वो तो बहुत दिनों तक गहरे रंगों को पहनने से जी उब गया था. " मनीष जोर से ठहाका लगा, हंस पड़ा. सारे क्लास की प्रश्नसूचक निगाहें उन दोनों की तरफ घूम गयीं. एकदम से घबरा गया. धीरे से मनीष का हाथ दबा कर बोला, "प्लीज़ यार, यहाँ कुछ मत बोलना. "

लेकिन खुद ही सोचने लगा. मनीष ने तो कभी नहीं कहा कुछ ऐसा? फिर ये नक़ल वाली बात कहाँ से सोच बैठा वह?. फिर सर झटक दिया उसने. यूँ खामख्वाह परेशान होने की कोई जरूरत नहीं. कोई भी सोच सकता है, ऐसा. एक शची ही तो आती है, हलके रंग के कपड़े पहन. लड़कियों के शोख चटख रंगों के कपड़ों के बीच एक अलग ही पहचान रखती हैं उसकी पोशाकें और आँखों को सुकून सा देती हैं.

गहरे रंग की शर्ट पहन तो आया था वह. लेकिन कुछ अजीब सा महसूस कर रहा था. लगता था, सारी नज़रें उस पर ही टिकी हैं. बार बार कभी कॉलर ठीक करता तो कभी क्रीज़. बेतरह कॉन्शस हो उठा, था वह. पूरे दिन शची से कतराता रहा. जब भी सामने पड़ता. लगता शची की आँखें, उसका मजाक उड़ा रही हैं. फिर दृढ़ता से सोच लिया, उसने. सारे गहरे रंग के कपड़े आल्मीरे में सबसे पीछे रख देगा. और पहनेगा, वही जो उसका जी चाहे. क्यूँ किसी के कहने की परवाह करे? कोई कुछ सोचे तो उसकी बला से?

दूसरे दिन उसे ग्रे कलर की शर्ट में देख, मनीष ने एक तरफ ले जाकर कहा, "क्यूँ जनाब, ठीक कहा है ना...

"कौन कहता है, एल. एम. पी. की जुबाँ होती है
ये हकीकत तो तेरे कपड़ों से बयाँ होती है"

एल. एम. पी. ??? वाट डू यू मीन बाय एल. एम. पी??... आँख सिकोड़ पूछा उसने तो शरारत से मुस्कुरा दिया, मनीष, "यानि हिंदी, उर्दू, इंग्लिश.... सबमे एक ही मीनिंग... बता दूँ??"

"आखिर समझते क्यूँ नही यार, मैंने इस तरफ कभी सोचा है?"..... झुंझला उठा वह.

"अरे! इसमें सोचने समझने की कोई जरूरत नहीं, बस आँखें मूँद आगे बढ़ते रहो "... बीच में ही टपक पड़ा, मनीष.

अभिषेक ने बिना ध्यान दिए कहना जारी रखा, "तुमलोग सोचते हो कॉलेज में कदम रखते ही किसी ना किसी के साथ, नाम जुड़ना ही चाहिए"

"ऑफ कोर्स, ये तो अनिवार्य शर्त है. यू आर टू लेट"

"तो मुझे इन सबसे दूर रखो. सबको अपने जैसा समझ रखा है, क्या? हर किसी को तेरे जैसा कैसानोवा बनने का शौक नहीं चढ़ा रहता. "

"रहना भी नहीं चाहिए, वरना क्या साख रह जायेगी, हमारी?" अभिषेक की झुंझलाहट का मजा लेते मंद मंद मुस्का रहा था, मनीष.

उसने भी इसे भांप, पैंतरा बदला, " देखो, अब हमलोग 'मास्टर ऑफ आर्ट्स' की डिग्री लेने जा रहें हैं. गंभीरता आनी चाहिए या नहीं. भला 'शेक्सपियर' और' मॉम' में डूबे रहने वालों को ये चटख रंग शोभा देते हैं. कल को हम कहीं औफिसर या प्रोफ़ेसर बन कर जायेंगे तो यूँ छैल छबीले बने देख कोई रौब मानेगा?"

मनीष ऊब गया, " बस बस रहने दे अपनी ये फिलॉसफी. ये साहित्य साहित्य जो रट रहें हो. मैं पूछता हूँ, एक महीने पहले तक आपको अपनी साहित्यिक अभिरुचि की खबर नहीं थी. और अब एकाएक दिव्यज्ञान प्राप्त हो गया. "---फिर मुस्करा कर अभिषेक का कन्धा थपथपा दिया, "क्यूँ खुद को झुठलाने की कोशिश कर रहें हो, यार. आखिर कब तक धोखा देते रहोगे, खुद को. आई बेट दैट यू आर हेड ओवर हील्स इन लव विद.... "

मनीष बात पूरी कर पाता कि इसके पहले ही उसने डपट दिया, "हे शट अप यार... जो मुहँ में आ रहा है बोले चला जा रहा है... ऐसा कुछ नहीं है, ओके... आज सुबह से कोई बनाने को नहीं मिला, तो मुझे ही शिकार समझ बैठा, छोड़ ये सब.... चल देखते हैं कॉलेज फेस्टिवल में कौन कौन से प्रोग्राम रखे गए हैं. "

"सीधे से कह, ना शची के पास चलना है. अच्छा यार एक बात बता, इस बार तू 'प्ले' में कोई रोल क्यूँ नहीं कर रहा? डरता है ना, क्यूंकि शची भी प्ले कर रही है, कहीं एक्टिंग में बाजी ना मार ले, तुझसे? और शरारत से एक आँख दबा दी, "मैं तो कहूँगा, गोल्डेन औपर्चुंनिटी छोड़ रहा है. "

"मुझे नहीं करना कोई प्ले व्ले बोर हो गया हूँ यार.. स्कूल से ही, ये सब चल रहा है... अच्छा है ना... नए लोगों को मौका मिले"

"अहा... अहा तो ये त्याग है.... कहाँ कहाँ से भागेगा अभिषेक, गाना भी बहुत अच्छा गाती है और स्टेज पर भी गाएगी"

तनाव से चेहरा तन गया, उसका. अभी तक तो अपना, एकछत्र राज समझता था, यहाँ.. लेकिन बात टालने की गरज से बोल उठा, "बड़ी शची शची लगा रखी है तूने. चल आज ही विंशी से शिकायत करता हूँ... दुपट्टे से बाँध कर रखो और शची को भी बताता हूँ. कि मनीष बुक्ड है. वह ज्यादा आगे पीछे ना करे. "

"देख अब तू झापड़ खाने का काम कर रहा है. क्या कह रहा है, कुछ होश है??... शची राखी बाँध चुकी है, मुझे. "

"अरे! कब? तू उसके घर कब हो आया?"

"अब क्या खड़े खड़े ही सारी रामायण जान लेगा. अपने तो पैर राम जबाब दे रहें हैं, अब. " और वह सीढियों पर ही धम्म से बैठ गया.

लेकिन अभिषेक ने प्रस्ताव रखा, "चल कैंटीन में चलते हैं. अभी ज्यादा भीड़ भी नहीं होगी, वहाँ. "

चाय की चुस्कियों के साथ मनीष ने बयान किया, " वह राखी का ही दिन था. तेरे घर गया तो पता चला, ऋचा अभी तक भोपाल से नहीं लौटी है और तू उसे लाने गया हुआ है. वहीँ से कॉलेज आ गया. सबके हाथों में राखी देख अजीब सी मायूसी घेर रही थी. तभी शची की नज़र मुझ पर पड़ी और वह परिहासयुक्त स्वर में बोली, "क्यूँ मनीष, राखी बाँधने से भी तुम्हारे फैशन में बट्टा लगता है क्या? आज के दिन सूनी कलाई लिए घूम रहें हो?"

बात गहरे तक छिल गयी मुझे फिर भी जबरदस्ती चेहरे पर हंसी लाकर बोला, "बहुत लड़ता था, ना अपनी छोटी सी बहन से. इसीलिए अपने पास बुला लिया, भगवान ने. अब कभी नहीं कहेगी पहले पैसे दो फिर राखी बांधुंगी. "

शची का चेहरा व्यथा से भीग उठा. अपने कहे पर ग्लानि हो आए उसे. पछताती हुई सी बोली, "आयम सॉरी मनीष... रियली वेरी सॉरी, मुझे सच में कुछ मालूम नहीं था..... पर तुम्हारी कलाई खाली क्यूँ रहेगी. आज से मैं बांधूगी तुम्हे राखी. शायद तुम्हे पता नहीं मेरा भी कोई भाई नहीं. "

और फिर कॉलेज से शची के साथ ही उसके घर गया. उसने मुझे राखी बाँधी. देर तक बातें करते रहें हम. फिर एकदम से बोला मनीष, "अच्छा अभिषेक कभी गौर किया है, तुमने शची बातें करते करते कहीं खो सी जाती है. हँसते हँसते चुप हो जाती है. अचानक बहुत गंभीर हो जाती है. "

"हाँ गौर तो किया है मैंने भी, सोचा शायद सबसे अलग, कुछ ख़ास दिखने के लिए ऐसा करती है "

हंस दिया मनीष, "यार तूने एक ही नजरिया बना लिया है, उसे देखने का, खैर" फिर बड़ी संजीदगी से बोला, "उसकी हंसती आँखों के पीछे गहरी वेदना छुपी है. खिलखिलाहटों के पार, अपार दर्द का सागर है. कितना झेला है उसने इस छोटी सी उम्र में ही. बचपन में ही माँ की ममता छीन गयी. बिजनेस की व्यस्तता ने पिता के सहज स्नेह से भी वंचित रखा. आत्मीय के नाम पर एक दादी हैं और चाचा की लड़की है. जिनके यहाँ रह कर पढ़ रही है. "

तभी घड़ी पर जो नज़र गयी तो चौंक उठा, अभिषेक, " माई गॉड.. मनीष... हमलोग दस मिनट लेट हो चुके हैं. प्रो. वत्स. आ चुके होंगे. आज तो हमें इंजन ड्राइवर का खिताब मिलेगा. " बेतहाशा दौड़ पड़े दोनों क्लास की ओर.

(क्रमशः)