Khatti Mithi yadon ka mela - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

खट्टी मीठी यादों का मेला - 11

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 11

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था और छोटा बेटा मेडिकल में. ससुर जी की छत्र छाया भी कैंसर जैसी बीमारी ने छीन ली. पीटीआई ने उनके श्राद्ध में फिर खेत गिरवी रखकर जम कर पैसा बहाया)

गतांक से आगे

पति को लेनदारों से ज्यादा फिकर अम्मा जी की हालत की थी. बाबू जी के जाने के बाद, अम्मा जी का सिर्फ बाहरी रूप ही नहीं बदला था, अंदर से भी वे बिलकुल बदल गयी थीं, ऐसा लगता था पुरानी अम्मा जी कहीं गुम हो गयी हैं.... ना वह रौबदार आवाज़, ना वह चौकस निगाह... खुद में ही खोयी सी बैठी रहतीं.

गाँव में इतने काज-प्रयोजन होते पर अब वे कहीं नहीं जातीं. हर शादी में अम्मा जी की बड़ी खोज होती थी... क्यूंकि सारे रस्मो-रिवाज उन्हें ही याद रहते थे. जबतक वे ना जाएँ रस्म शुरू नहीं होती थी. चाहे हल्दी की रस्म हो... मटकोर की या बिलोकी की. गाँव में शादी के दस दिन पहले से गीत गाने का रिवाज़ था. शुरू में पांच गीत भगवान के गाये जाते. लड़कियों को तो बस उन दिनों के चलन वाले गीत याद रहते या फिर गीतों भरी गालियाँ.. अम्मा जी ही सब याद रखती थीं.

किसी बच्चे के जनम की चिट्ठी आई गाँव में और घर घर न्योता पहुँच गया, सोहर गाने का. औरतें जमा होतीं, गीत गाने के बाद उनके बालों में तेल लगाए जाते और मांग में सिंदूर. और बताशे बांटे जाते. पर ये सब सिर्फ लड़के के जन्म पर ही होता. लेकिन स्मिता की बेटी के जनम पर उन्होंने आग्रह किया था गीत गवाने का. अम्मा जी मान गयी थीं और जब ममता के बेटे के जनम जैसा इस बार भी पति बताशे की जगह लड्डू लेकर आए तो गाँव वालों में कानाफूसी शुरू हो गयी थी, "का ज़माना आ गया है.... लरकी लोग सब कालेज जा रही है.... बेटी के जनम पर बधाई, गाई जा रही है..... नयका चाल सब... पता नहीं आगे का का देक्खे को मिले"

अम्मा जी को शादियों में जाने का भी बड़ा शौक था. सुन्दर चमकीली साड़ियाँ निकालतीं. ढेर सारे गहने पहनतीं, झुमके, हँसुली, सीता -हार, करधनी... कभी कभी तो बाजू बंद भी. लम्बी सी चोटी, माथे पर बड़ी सी टिकुली और भर मांग सिंदूर.. लम्बी चौड़ी काया थी, गोरा रंग, ऊँचा माथा, उस पर जब गर्वीले चाल से चलतीं तो किसी राजरानी सी ही लगतीं.

पर अब उनकी तरफ देखा नहीं जाता. सादी सी साड़ी, बिना किसी श्रृंगार के रूप... आभरण विहीन शरीर... चाल भी थकी थकी सी हो गयी थी. किसी भी शादी ब्याह में अब वो शामिल नहीं होतीं. लोग बुलाने आते, नमिता पीछे पड़ जाती, पर वे टाल जातीं... जबकि बड़ी बूढ़ियाँ शादी में शामिल होती थीं, पर एक किनारे बैठी होतीं. वहीँ से निर्देश दिया करती थीं. पर किसी चीज़ को हाथ नहीं लगातीं. दूर ही रहती थीं. अब तक हमेशा अम्मा जी केंद्र में रहती थीं. इस तरह हाशिये पर रहना उन्हें गवारा नहीं था.

कितनी बार अम्मा जी ने बात संभाली थी. पड़ोस के रामबिलास बाबू की लड़की की शादी में लेन देन को लेकर कुछ अनबन हो गयी, बारातियों और सरातियों के बीच. उसपर से गाँव के लड़कों ने अपनी नाराजगी दिखाने को, बारातियों के कपड़ों पर खुजली वाले पाउडर डाल दिए. लड़के के चाचा, भाई, नाराज़ होकर बारात वापस ले जाने लगे. बार बार लड़के को आवाज़ देते बाहर आने के लिए.. लड़का आँगन में मंडप में बैठ चुका था. उनकी आवाज़ सुन वह झट से खड़ा हो गया, बाहर जाने को.

पर अम्मा जी ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "चुपचाप बैठिये मंडप में... बिना फेरा लिए और लड़की की मांग में सिन्दूर भरे आप आँगन नहीं टप सकते. "

लड़का कसमसा कर रह गया, बाहर जाने को.. पर जा नहीं पाया.... और अम्मा जी ने कड़े स्वर में पंडित जी को आदेश दिया, "आप हल्ला गुल्ला पर ध्यान मत दीजिये, मंतर पढ़िए... सुभ मुहूरत नहीं बीतना चाहिए"

फिर लड़की की छोटी बहन को डांटा... "का मुहँ ताक रही है... जा, अपने बाबूजी को बुलाकर ला, रसम करना होगा. बाहर उनके भाई-भतीजा सब सलट लेंगे और रामावतार बबुआ के बाबूजी भी हैं... सब संभाल लेंगे.

फिर रोती हुई लड़की की माँ को आवाज़ दी... " अबही बेटी बिदा नहीं हो रही है... जो इतना रो रही हो... अभी समय है... बईठो, सकुन्तला के बाबूजी के बगल में और रसम करो"हर शादी -ब्याह के मौके पर इसकी चर्चा जरूर होती थी.

और अम्मा जी सिर्फ शादी ब्याह में ही बात नहीं संभालतीं. अनदिना भी कहीं कुछ झंझट हो तो एकदम मुस्तैद रहतीं. एक बार नमिता दौड़ती हुई आई कि कैलास बाबू के यहाँ बहुत रोना-पीटना मचा हुआ है. कैलास बाबू के बेटे दिलीप की दूसरी सादी की बात चल रही है और दिलीप की पत्नी धाड़ें मार कर रोते रोते बेहोस हो गयी है. हमेशा कहीं भी कंघी-चोटी कर के, साड़ी बदल कर जाने वाली अम्मा जी, ने जल्दी से पैरों में चप्पल डाला और नमिता के साथ निकल गयीं. वे विकल हो रही थीं, जानने को, वहाँ क्या हुआ? नमिता तो सारी बात बिना सुने वहाँ से टस से मस नहीं होती.

उन्होंने मीरा को बोला, "तू थोड़ी देर में आके बता, वहाँ क्या हो रहा है.

पहली बार ऐसी कोई जिम्मेवारी मिलने पर मीरा ख़ुशी से फूली नहीं समाई और दस मिनट में दौड़ती हुई आई... "माँ, दादी तो सबको डांट रही हैं... दिलीप चाचा को बोल रही हैं... तुमरे भाई के बच्चे का तुमरे बच्चे नहीं हैं जो दुसर बियाह करने चले हो... इनको ही अपना बेटा-बेटी के तरह पियार दो.. अपने माँ-बाबू से जियादा तुमको मान देंगे.. "

और मीरा ने पूछा... "फिर से जाऊं... और सुन के आके बताऊँ?"

पर उन्होंने मना कर दिया.. कैसे अपनी छोटी सी बेटी में ये आदत डालती कि दूसरों की बातें सुन कर बताये... और फिर पता था... अभी तो हफ़्तों तक गाँव में यही चर्चा रहेगी. एक एक बात दस दस बार दुहराई जाएगी. और उनके घर मे काम करने वाली सिवनाथ माएँ तो ऐसी जगहों पर जरूर मौजूद रहती. और फिर तफसील से उन्हें सारी बात बताती.

"अरे पता है दुलहिन, (दादी बन जाने के बाद भी गाँव के कुछ लोगों के लिए वे दुलहिन ही थीं ) बड़की मलकिनी ने तो कैलास बाबू को अईसा डांटा की का बताएं, बोलीं.. " "बौरा गए हैं का.. बुढापा में?... ऊ औरत पर का बीतेगी.. इसका तनको गुमान है?... कहाँ जायेगी वो.. ?"

"भौजी... वो काहे कहीं जायेगी ?.. रानी बनके रहेगी.. दिलीप के बच्चों को खेलाएगी"

"बहुत देखे हैं बबुआ... कए दिन रानी बनके रहती है... सब पता है.. ऐसा अनरथ मत करो.... भतीजा भी तो बेटा सरीखे ही होवे है और अबही कौनो उमर है... पांचे बरिस में उमीद छोर दिए? "

"अरे भगवान का दिया सब कुछ है भौजी... दुनो जन आराम से रहेंगी.. कौन तकलीफ नहीं होगी, दिलीप के दुलहिन को... तुम चिंता जनी करो.... मालकिन बड़की दुलहिन ही रहेगी.. "

"ई त नहीं होगा... आप जबरदस्ती बियाह करोगे दिलीप का.. तो गाँव का कोई सामिल नहीं होगा... जाओ सहर में कागज़ी बियाह करो... और फिर सहर में ही बसा दो उनको. ई घर में तो इहे दुलहिन मलकिनी रहेगी.... " मलकिनी ने ने फैसला सुना दिया.

फिर अंदर जाकर रोती हुई दुलहिन को बच्चे की तरह छाती से चिपका कर उसकी सास से बोलीं, "तुमको तनिको दया नहीं आती... औरत हो, औरत का दर्द समझो.. "

बड़की मलकिनी ने तो दिलीप के दुलहिन को उबार लिया, उसका रोआं रोआं मलकिनी के रिन से कभी उरिन नहीं होगा.

सिवनाथ माएँ, गर्व से फूली जा रही थी कि वह, उनके यहाँ काम करती है. और क्यूँ ना करती, अम्मा जी ने कई बार उसकी बस्ती के झगडे भी सुलझाए हैं. सास बहू के.. माँ-बेटे के... पति -पत्नी के. सिवनाथ माएँ को भी उसकी बहू ठीक से खाना नहीं देती थी. यहाँ से उसे पूरा खाना मिलता लेकिन वह यहाँ नहीं खाती. अपनी गहरी सी पीतल की थाली में दाल चावल सब्जी लेकर घर जाती और पोते पोतियों को खिला देती. उसके घर में जो साग-भात रुखा सूखा बना होता... वो भी उसकी बहू उसके लिए नहीं रखती. सिवनाथ माएँ, भूखी ही लेट जाती और फिर सिर्फ पानी पीकर चेहरे पर मुस्कान लिए शाम के काम के लिए हाज़िर हो जाती.

वो तो भला हो घर घर की बिल्ली नमिता का, उनकी बस्ती में वह थरमामीटर ले एक बीमार बहू का बुखार देखने गयी थी. नमिता एक तरह से उस बस्ती की डाक्टर थी. किसी को बुखार की, किसी को सर दर्द की.. पेट दर्द की तो जुलाब की दवा, वो ही दिया करती. अपने पापा जी से जिद कर बिस्किट के पैकेट भी मंगवाती और किसी बीमार को देकर आती. उसने ही एक दिन देखा कि सिवनाथ माएँ खाना लेकर आ रही थीं, उनके पोते पोतियाँ दौड़ते हुए उनके पास आए और सिवनाथ माएँ ने अपना सारा खाना पोते पोतियों को दे दिया. नमिता ने दबे पाँव उनकी झोपडी में कदम रखा तो देखा, चूल्हा ठंढा पड़ा है और बर्तन खाली. सिवनाथ माएँ ने घड़े से लोटे में ठंढा पानी निकाल कर पिया और चटाई पर जाकर लेट गयीं. वह दबे पाँव वापस आ गयी और दादी को सारी बात बतायी.

गुस्से से उबल रही थी, नमिता. सिवनाथ माएँ के आते ही उनपर बरस पड़ी.. " काकी सब देख लिया मैने.. जाओ तुम उधर ही रहो... अपनी पुतोह को खाना भी बना कर दो. सब काम करो उसका, उस दिन देखा था तुम उसको तेल लगा रही थी. और वो तुमको पेट भर खाना भी नहीं देती. "

"अरे तुमलोग के लिए ही करते हैं बिटिया.. ओ दिन वो छटपटा रही थी देह बत्था से... त तनका तेल लगा के देह जाँत दिए... आज हम अनकर की बेटी की सेवा करेंगे तो मेरी भी कमली, सुगनी की उसकी सास करेगी.. वईसे ही तुमरी सास भी तुमरा ख़याल रखेगी.. "

"मुझे नहीं करना सादी बियाह... माँ काकी को खाना दो पहले... इनका पेट बस बात करके ही भर जाता है. "

बाद में, अम्मा जी ने सिवनाथ और उसकी बहू को बुला कर बहुत डांटा और उन्हें उस झोपडी से निकालने की धमकी भी दी अगर उन्होंने अपनी माँ का ठीक से ख़याल नहीं रखा. बाबू जी की दी हुई जमीन पर ही पूरी बस्ती बसी हुई थी, इसलिए उनकी बातों का सब मान रखते थे.

और अब वही अम्मा जी इतनी निरीह लगतीं. पहले मनिहारिन सबसे पहले उनके घर ही आती. अपनी टोकरी का सब कुछ पहले उन्हें ही दिखाती. हर हफ्ते अम्मा जी चूड़ियाँ बदला करती थीं. टिकुली के नए पैकेट निकालतीं. अब तो मनिहारिन को देखते ही वे इशारा कर देतीं कि मत आओ आँगन में. अम्मा जी भी उसकी आहट सुनते ही कमरे में जाकर लेट जातीं. उनका कलेजा कट कर रह जाता.

पर अजीब दुविधा भी थी, उस गरीब की भी आस थी, दो पैसे कमाने की. पर उनकी ना हिम्मत होती ना ही मन होता, उसे अपने दरवाजे बुलाने का..

(क्रमशः)