Khatti Mithi yadon ka mela - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

खट्टी मीठी यादों का मेला - 14

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 14

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग और छोटा बेटा, मेडिकल पढ़ रहा था. सास-ससुर के निधन के बाद पति बिलकुल अकेले पड़ गए थे. बड़े बेटे की नौकरी के बाद, उसकी शादी के लिए रिश्ते आने लगे )

गतांक से आगे ----

आठ दिन भी नहीं बीते थे कि इक इतवार को, एक चमचमाती कार दरवाजे पर रुकी. एक सूटेड बूटेड सज्जन कार से उतरे. वे जल्दी से पति को बुलाने चली गयीं.. "अरे जरा कुरता बदल लीजिये... ये दिन भर पहने से मुचड़ गया है.. इस्त्री किया हुआ पहन लीजिये वो तो कदम सूट-बूट में डटे हुए हैं"

पति मुस्कुरा दिए.. " तो क्या हुआ... बेटा के बाप तो हम हैं.. मेरे दरवाजे पर वे आए हैं... हम तो ऐसे ही जाएंगे... तुम जाओ नाश्ता-पानी का इंतज़ाम देखो... बढ़िया नास्ता बनाना... रिश्तेदारी जुड़ने जा रही है"

उनका मन नहीं लगता चौके में... कलावती को हलुआ बनाना समझा वे दरवाजे की ओट में जाकर बात सुनने की कोशिश करतीं. फिर दूसरे ही पैर चौके में लौटतीं.

पति बड़े इत्मीनान से उनसे बातें कर रहें थे... आज उन्हें पढ़े -लिखे की कीमत समझ में आई. लड़की के बाप तो रंगीन कमीज़ में एकदम किसी फ़िल्मी हीरो जैसे लग रहें थे. पर

मैले कुरते में भी उनके पति उनसे एकदम समान स्तर पर बात कर रहें थे. शायद बेटे के बाप होने के दर्प ने भी उनका माथा ऊँचा रखा था. जब उन्होंने लेन -देन की बात छेड़ी तो पति ने एकदम कह दिया, " ना... मैं नहीं विश्वास करता दान -दहेज़ में. आप चाहें तो अपनी लड़की को दो कपड़ों में भेजें या नौलक्खा हार पहनाकर आपकी ख़ुशी. पर जो देना हो अपनी बेटी को दें... मुझे कुछ नहीं चाहिए"

"लेकिन बारात लाने का खर्चा... शादी का खर्चा.. उतना तो ले लीजिये"

"ना.. इतना दिया है भगवान ने कि मैं बेटे की शादी में एक भोज खिला सकूँ, गाँव को... आप माफ़ कीजिये हमें".. पति ने हाथ जोड़कर मना कर दिया.

वे दरवाजे के पास से कलावती और मीरा के हाथों, नाश्ता शरबत भेज रही थीं. लड़की के पिता ने आहट सुनकर कहा, "भाभी जी को भी बुलाइए, उनके भी दर्शन कर लूँ... इतने भाग्य वाली है मेरी बेटी कि ऐसा घर-वर उसे मिला है.... धन्य हो जाऊंगा मैं गृहलक्ष्मी के दर्शन करके"

"ममता की माँ... बाहर आओ... तुमसे मिलना चाहते हैं.. "

उनकी तो सांस रुक गयी... ऐसे कैसे चली जाएँ.. गैर मर्द के सामने.

"ममता की माँ ".. इस बार पति की आवाज़ में खीझ और गुस्सा था.

वे जल्दी से सर पर पल्ला संभालते, बाहर चली आयीं.

वे सज्जन एकदम हाथ जोड़ते उठ खड़े हुए. उन्हें झुक कर नमस्ते कहा. और कुर्सी पर बैठने का इशारा करने लगे.

उनकी पूरी ज़िन्दगी में किसी ने इतना सम्मान नहीं दिया था. वो भी एक गैर मर्द ने. लड़के की माँ होने का क्या इतना रुतबा होता है? किसी तरह फंसे गले से उनके नमस्ते का उत्तर दिया. और सर झुकाए ही खड़ी रहीं. कुर्सी पर तो बैठने का सवाल ही नहीं था. खड़े होने में ही उनके पैर काँप रहें थे. फिर जल्दी से बोलीं, "मैं गरम पूरियां भेजती हूँ.. आप शुरू कीजिये" इतना बोलने में ही उनका चेहरा लाल हो गया और वे हांफती हुई अंदर चली आयीं.

प्रकाश की बारात शहर में ही गयी. नमिता, स्मिता, ममता सब बारात में गयीं. पहले लड़की लोग नहीं जाती थी पर प्रकाश और बच्चों ने जिद किया. तो पति को भी उनकी बात माननी पड़ी. सारा काम प्रमोद देख रहा था. खाने नहाने की भी सुध नहीं रहती उसे. लौट कर चपर चपर करनेवाली नमिता ने बताया.. "माँ ऐसा सजा था मंडप कि गाँव वाले लोग तो आँख फाड़ कर देख रहें थे... और खाना तो बस क्या बताएं. बहुत बढ़िया इंतज़ाम था माँ. और भाभी तो किसी परी सी लग रही थी. "

बहू सचमुच अच्छी थी, अब प्रकाश ने पट्टी पढाई थी या वो ही सीधी थी. पर रस्म निबटाती रही, उनके कहे अनुसार.

जब दूसरे दिन मुहँ दिखाई की रस्म होने वाली थी तो दोनों बहनों में ही बहस हो गयी. ममता का मन था जैसा गाँव में होता है, आँखें बंद कर बहू का घूँघट उठा कर सब मुहँ देखते हैं, वैसा ही होना चाहिए. जबकि स्मिता ने कहा, :"ना दीदी अब शहर की कोई लड़की घूंघट निकालने को तैयार नहीं होती. एक कुर्सी पर भाभी को तैयार करके बिठा देते हैं. और आस-पास कुछ कुर्सी लगा देते हैं. पलंग तो है ही कमरे में. लोग आएँगी वहीँ बैठकर भाभी का मुहँ देख लेंगी"

"पर गाँव वाले बातें बनायेंगे"

"बनाने दो... वो तो वैसे भी बनायेंगे.. कोई ना कोई कमी खोज ही लेंगे.. चाहे तुम कुछ भी करो.. और हमलोग बदलाव नहीं लायेंगे तो ई सब कैसे बदलेगा... किसी को तो शुरुआत करनी पड़ेगी, ना.. अपने घर से ही शुरुआत होने दो. "

ममता भी मान गयी... और उन्हें संतोष हो आया... ऐसे ही ममता को गाँव में ब्याह कर वे थोड़ी असंतुष्ट थीं. कहीं दोनों बहनों में कोई द्वेष ना हो जाए. अब स्मिता, बंबई की दुनिया में रम गयी थी, पहले सी बीमार नहीं दिखती, चेहरे की रंगत भी लौट आई थी.

पर कुछ लोगों ने कमी निकालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. दिलीप की माँ तो वहीँ पर जोर से बोली... "इ देखो.. नईकी बहुरिया त कुर्सी डटा कर बैठी है, ना घूंघट ना पर्दा.... ई त सहर नहीं हैं... इहाँ त गाँव का रिवाज़ चलना चाहिए"

"चाची.. बढ़िया है ना... जी भर के देखो बहुरिया को... घूंघट उठा के एक पल को, बस देखने को मिलता... और इतना गर्मी है, कहीं घूंघट के चलते बेहोस हो जाती तो वो भी देखने को नहीं मिलता. " ममता ने सफाई दी.

"हाँ आखिर दादी की पोती हो ना.. उनपर ही जाओगी.. ऊ भी हमेसा गाँव में नया चाल चलाती थीं. " उनके बेटे की दूसरी शादी होने से अम्मा जी ने रोका था यह बात वे भूली नहीं थी जबकि शादी के आठ साल बाद, दिलीप की बहू के गोद में फूल सा बेटा खेला, ये बात वो याद नहीं रखतीं.

सब कुछ हंसी ख़ुशी निबट रहा था. वो एक एक रस्म याद करके करवा रहीं थीं. दूसरे दिन ही प्रकाश ने बोला, 'माँ आज शाम हम लोगों को निकलना है.. "

"हम लोगों को?".... वे बिलकुल नहीं समझीं.

"हाँ माँ, मुझे और प्रीति को वो क्या है ना.... प्रीति के पिताजी ने कश्मीर का टिकट कटवा दिया है... वहाँ घूमने जाना है... नहीं तो टिकट बेकार हो जायेगा.. "

"बस तुम और दुल्हिन?"

"हाँ माँ.. प्रकाश कुछ झेंप गया "... तो वो बडबोली, नमिता बोली.. "का माँ. तुमको तो कुछ पता ही नहीं.. भैया हनीमून पर जा रहें हैं.. "

"हनीमून.... वो कौन सी जगह है... कश्मीर तो सुना है.. "

प्रकाश उठकर बाहर चला गया. स्मिता धीरे से हाथ पकड़ उन्हें एक तरफ ले गई, "माँ आजकल लड़का -लड़की शादी के बाद घूमने जाते हैं... उसे ही हनीमून कहते हैं.. "

"अकेले??" उन्हें ये बात बिलकुल समझ नहीं आ रही थी.

नमिता फिर टपक पड़ी... "तो क्या पूरे गाँव को लेकर जाएंगे?.. दीदी तुम छोडो माँ को समझ में नहीं आएगा. "

तभी छटंकी मीरा बोल पड़ी.. "हनीमून में क्या मून को देख के हनी खाते हैं " आजकल उसे अंग्रेजी पढने का बहुत शौक चढ़ा था. पति छोटी छोटी अंग्रेजी की कहानियों की किताबें ले आते और वो उनमे से पढ़ उन्हें भी सुनाया करतीं... और शब्दों के अर्थ मोटी सी डिक्सनरी से ढूंढ कर बताया करती. पति की तरह इसे भी पढने का बड़ा शौक था. हर वक़्त किताबें थामी रहती.

पर स्मिता ने डांट दिया उसे, "भाग यहाँ से अंग्रेजी की बच्ची जब देखो... बड़ों के बीच में घुसी रहती है.. जा बाहर जा के खेल"

"पर 'चौठारी 'कैसे होगा... रोज़ ही कोई ना कोई रस्म होते... हर दिन एक रस्म का तय था"

"माँ, अब तुम अपने आप कर लेना रसम. भैया की शादी क्या आम शादी जैसी है?... जब दूसरे जात की लड़की लाने में परहेज़ नहीं की तो फिर ई सब रसम के पीछे क्यूँ पड़ी हो. ".. अपनी छोटी बेटी को कंधे पर थपकाते ममता बोल पड़ी.

"धीरे बोल.... गाँव में अभी किसी को नहीं मालूम.... "

"क्या माँ... सबको पता होगा.. ऐसी बातें नहीं छुपतीं.. तुम्हारे मुहँ पे कोई नहीं बोलता... सब काना फूसी करते होंगे"... और वे सोचने लगीं.. कितनी सयानी हो गयी हैं उनकी बेटियाँ... उन्हें ही घेर कर समझा रही हैं.

और अब उन्हें पता चला कि बहू के मायके की गाड़ी और ड्राइवर अब तक क्यूँ रुका हुआ था. इन्हें वापस ले जाने को. और बहू क्यूँ सर झुकाए सारे रसम कर रही थी. उसे तो पता था, दो दिन बाद चले ही जाना है.. चलो सुखी रहें दोनों.. जहाँ रहें, उन्हें और क्या चाहिए. सोचती पर मन ही मन उदास होती वे गाँव में बयना भेजने की तैयारी करने लगीं. हफ्ते भर में सारे मेहमान चले जाएंगे. बहू तो शाम को ही चली जाएगी. लगेगा ही नहीं इस घर में अभी अभी ब्याह हुआ है और दुल्हन उतरी है.

धीरे धीरे, ननदें, रिश्तेदार सब विदा हो गए. ममता भी ससुराल चली गयी, उसका बेटा अब स्कूल जाने लगा था और अब उसके स्कूल खुल गए थे. स्मिता भी ससुराल चली गयी, बम्बई लौटने से पहले कुछ दिन वहाँ रहना भी जरूरी था. आठ दिन कहकर प्रकाश गया था, वे रोज उसकी और बहू की बाट जोहतीं, रोज दाल भरी पूरी, खीर और पांच तरह की सब्जी बनाने का निर्देश देतीं, कलावती को. पर निराशा ही हाथ लगती और सुबह सारा बचा, खाना, गाय को डालना पड़ता.

सिवनाथ माएँ उन्हें डांट भी देतीं, "अरे जब आ जाएंगे, बनवा लेना... रोज केतना गाय के नादी में डालोगी. उसकी भी आदत हो गयी रोज खीर पूरी खाने की तो घास नहीं खाया करेगी "

सिवनाथ माएँ, अब उनकी सास की जगह पर थी, किसी भी बात पर पूरे हक़ से टोक देती. वे भी उसे पूरी इज्जत देती, आखिर वे ब्याह कर आयीं थी, तब से एक साल के सिवनाथ को गोदी में लेके सिवनाथ मायं काम पर आया करती थी.

ग्यारहवें दिन हैरान-परेशान सा प्रकाश अकेले ही आया. वे चौंक गयी... " दुल्हिन कहाँ है?"

(क्रमशः)