Khatti Mithi yadon ka mela - 23 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

खट्टी मीठी यादों का मेला - 23 - लास्ट पार्ट

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग - 23

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था, उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर, उसके विदेश चला गया. तीसरी बेटी नमिता ने दूसरी जाति के लड़के से घर से विरोध होने पर, घर से भागकर शादी कर ली. छोटी बेटी ने एम. बी. ए. कर एक बढ़िया नौकरी कर ली, गिरवी रखे बाग़ छुडा लिए )

गतांक से आगे ---

नमिता के जाने के बाद जो गम के बादल छा गए थे, वे अब धीरे धीरे छंटने लगे थे. पति ने गाँव के लोगों से मेल-जोल बिलकुल कम कर दिया था. पर अब फिर वापस मिलने-जुलने लगे थे. समारोहों में शामिल होने लगे थे. ऐसे ही जनार्दन बाबू के बेटे की बारात में शहर गए और वापस आए तो तबियत खराब हो गयी.

थोड़ा बुखार था. गाँव के डॉक्टर को बुलाया, उसने दवाएं दीं. बच्चों को फोन पर बताने ही नहीं दिया. उन्हें भी लगा मौसमी बुखार है. डॉक्टर साहब तो हर शाम आते और उन्हें आश्वस्त करते सिर्फ फ़्लू है, कमजोर हो गए हैं, उम्र का भी असर है इसलिए समय लग रहा है. पर जब एक हफ्ते तक बुखार नहीं उतरा तो उन्हें चिंता हुई. कहीं मलेरिया ना हो, वैसे तो गाँव में भी कम मच्छर नहीं थे, देर शाम तक जब पति बागबानी करते रहते तो मच्छरों का झुण्ड उनके सर के ऊपर मंडराता रहता. पर ये शहर के गंदे बजबजाते नाले पर भिनभिनाते मलेरिया वाले मच्छर नहीं थे. पति बता रहें थे कि जहाँ बारात ठहराई गयी थी... वहीँ पर एक बड़ा सा खुला, नाला भी बह रहा था.

डॉक्टर साहब से आशंका जताई, तो उन्होंने कहा, खून जांच करके पता कर लेते हैं. कम्पाउडर आया घर से ही जांच के लिए खून ले गया. फिर डॉक्टर साहब दूसरी दवाएं लेकर आए, बोले, मलेरिया नहीं टाइफायड है. टाइफायड के दवा की एक कोर्स कर लेंगे, ठीक हो जाएंगे. हर बार, उनके कुछ कहने से पहले ही पति कहते, बच्चों को मत बताना, सब नौकरी, अपने बाल-बच्चों में व्यस्त हैं. बेकार परेशान होंगे. अब उम्र हो रही है तो बीमारी-सिमारी लगी ही रहेगी. वे बहुत घबरा जातीं. पर फोन उनके सिरहाने के टेबल पर ही रहता छुप कर नहीं कर पातीं. बच्चों के फ़ोन भी आते तो कहना पड़ता, सो रहें हैं, पापाजी.

पर एक दिन बुखार की बेहोशी में वे कुछ कुछ बोलने लगे और बार-बार नमिता को बुलाने लगे तो वे एकदम घबरा गयीं और रोते -रोते प्रकाश को फोन कर दिया. पहले तो प्रकाश बहुत नाराज़ हुआ कि उसे पहले क्यूँ नहीं बताया. फिर डॉक्टर साहब का नंबर लिया. उनसे बात करने के बाद बोला, मैं गाड़ी लेकर आ रहा हूँ. पापा जी को शहर लेकर आना है. दूसरे दिन ही पहुँच गया. पति मना करते रहें. पर अब डॉक्टर भी थोड़े चिंतित लग रहें थे. उन्होंने भी मना नहीं किया वरना अब तक तो वे दावा कर रहें थे कि उनकी दवाओं से ही ठीक हो जाएंगे.

प्रकाश के आने के बाद उन्हें थोड़ी राहत हुई. उन्होंने उसे पति के पास बिठा.... फोन का तार दूर खींचकर ममता, स्मिता, मीरा सबको फोन करके बता दिया. स्मिता से कह दिया कि जरा नमिता को भी खबर कर दे, उसे पापाजी बेहोशी में याद कर रहें थे. एक प्रमोद को फोन नहीं कर पायीं. विदेश फोन करने की सुविधा इस फोन में नहीं थी.

प्रकाश से कहा, "बेटा, शहर जाकर प्रमोद को फ़ोन कर बता देना. "

"माँ, वो बिचारा इतनी दूर है... रहने दो ना... उसे क्यूँ परेशान किया जाए"

"ना बेटा, जैसे तू नाराज़ हो गया वो भी दो बात सुनाएगा.... उसे भी बता दो"

डॉक्टर साहब ने दो सूई लगाई पति को और गाड़ी से सीधा अस्पताल ही लेकर आया प्रकाश. उन्हें भरती कर लिया गया और उन्हें संतोष हो गया. अब सही जगह आ गए हैं, सही इलाज हो जायेगा. पता चला मलेरिया ही है. बुखार भी कम हो गया था. पर कमजोरी बहुत थी.

ममता, स्मिता दिन में चार बार फोन करतीं, उनके बच्चों के इम्तहान चल रहें थे. वे भी आश्वस्त करातीं, "हाँ अब पापा जी ठीक हो रहें हैं. बच्चों की पढ़ाई देखो. "

पति सो रहें थे वे पास बैठी खडकी से बाहर देख रही थीं कि तभी लगा, दवाजे पर पड़ा परदा हिला और नज़र घुमाई तो देखा, नमिता खड़ी है.

झपट कर उनके गले लग कर ऐसे बेआवाज़ रोई जैसे इस जनम में, उसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी. नरेंद्र अपराधी सा थोड़ा दूर ही खड़ा था. वे नमिता का कन्धा थपथपाते उसे लिए बाहर आयीं. हाल-चाल पूछते बार-बार माँ-बेटी की आँखें भर आतीं. नमिता ने फुसफुसाते हुए पूछा, "पापा जी की नींद खुल जाएगी तो नाराज़ तो नहीं होंगे.. "

उन्होंने आश्वस्त किया... "ना, बेहोशी में तुझे याद कर रहें थे... खुश ही होंगे देखकर. " और नमिता गीले आँखों से मुस्करा उठी. बहुत देर तक उनके पैरों की तरफ खड़े एक टक पति के चहरे पर नज़रें जमाये खड़ी रही. नरेंद्र चुपचाप पीछे कुर्सी पर बैठा हुआ था.

पति की नींद खुली और उनकी नज़र सीधी नमिता पर पड़ी... उन्होंने एक दो बार आँखें झिपझिपा कर खोलीं, जैसे पहचानने की कोशिश कर रहें हों. फिर उनकी तरफ नज़र घुमाई. एक बार तो वे डर गयीं, फिर हिम्मत कर फंसे गले से बोलीं, " नमिता है... "

पति चुप रहें, वो दो पल की चुप्पी एक युग सी लगी. फिर उन्होंने मुस्करा कर नमिता की ओर इशारा किया और नमिता दौड़ कर कुर्सी पर बैठ उनके कंधे के पास सर रख, बेसंभाल फफक पड़ी. इस बार उसे यह ख़याल भी नहीं था कि ये अस्पताल है, जोर से आवाज़ नहीं होनी चाहिए. उसका सर सहलाते पति की आँखों के कोर भी भीग आए. उन्होंने पीछे नजर की और देखा, नरेंद्र कुर्सी पर बिना हिले डुले बिलकुल सीधा सर झुकाए बैठा था. जैसे इस दृश्य का अपराधी वह ही था. दया हो आई उन्हें उस पर, जब से आया था, मुहँ नहीं खोला था, उसने.

अब स्थिति उन्हें ही संभालनी थी. नमिता को डांटा, "चुप कर अब... पापाजी की तबियत और ख़राब हो जाएगी. अभी अगर आवाज़ सुन कर नर्स आ गयी तो इनके पास बैठने भी नहीं देगी. "

पति ने भी माहौल हल्का करने के लिए, मुस्कराकर पूछा, "कहाँ है वो, तुम्हारा फटफटी वाला डरपोक?? जैसे चुपचाप फटफटी पर ले गया था वैसे ही तुम्हे यहाँ चुपचाप छोड़ गया है क्या??"

नमिता आँखे पोंछती उठ कर एक तरफ खड़ी हो गयी. उन्होंने ही नरेंद्र को बुलाया, उनके पैर छू चुपचाप सर झुकाए बिस्तर के पास खड़ा हो गया. पर पति ने शायद उसे क्षमा कर दिया था. प्यार से बोले, "क्या हाल है बाबू... ये तुम्हे परेशान तो नहीं करती... सारा गाँव डरता था इस से.... ठीक से रहती तो है तुम्हारे साथ.. ??"

नरेंद्र अपनी आवाज़ शायद बाहर ही छोड़ कर आया था, सिर्फ मुस्करा कर सर हिला दिया. उनके कलेजे से एक बोझ उतर गया. रोज इस क्षण के लिए भगवान से प्रार्थन की थी और आज वह साकार हो गया. मन ही मन धन्यवाद कहा अपने गिरधर गोपाल को.

शाम को प्रकाश और बहू आए तो नमिता को देख चौंके.... फिर साथ चलने पर जोर डालने लगे. पर नमिता नहीं मानी. उसे अस्पताल में ही रहना था. नरेंद्र को ले गए साथ. और अब नमिता ने जैसे बाबू जी की बीमारी में सारी जिम्मेवारी अपने सर ले ली थी वैसे ही यहाँ भी सारा भार उठा लिया. नर्स के साथ लगी रहती, चादर ठीक करना कपड़े बदलवाना, फल काट कर के देना, सब कुछ करती. बुखार कम हो रहा था, पर डॉक्टर कहते कुछ दिन रहना पड़ेगा अस्पताल में क्यूंकि मलेरिया बहुत ज्यादा बढ़ गया था. खून की बहुत कमी हो गयी है.

ममता, स्मिता भी आ गए. प्रमोद भी रोज फोन पर बात करता और नाराज़ होता, "कैसे डॉक्टर हैं गाँव के.. पढाई नहीं की क्या??.... खून जांच करवाया तो कैसे मलेरिया नहीं पता चला??... इनलोगों को इतना तक पता नहीं कि बुखार में ही खून जांच के लिए लेते हैं, तभी मलेरिया के कीटाणु खून में आते हैं अन्यथा नहीं. जहाँ दो गोली में पापाजी ठीक हो जाते, इतना समय लग रहा है और.. इतनी तकलीफ सहनी पड़ रही है... " फिर थोड़ा रुक कर कहता.. "मैं भी आ रहा हूँ "

उन्हें एकबारगी लगता वो अपने पिता को देखने आ रहा है या उस डॉक्टर कि खबर लेने. करने.

सारे बच्चे परेशान थे, पति एक अनुशासित दिनचर्या के आदी थे. रोज घूमने जाते, सात्विक भोजन करते. अब तक कभी दो दिन से ज्यादा बीमार नहीं रहें. और अस्पताल में भरती होने की तो यह पहली घटना थी. मीरा को छुट्टी नहीं मिल रही थी. अस्पताल में रोज फोन कर देर तक नमिता से बातें करती. और अफ़सोस करती कि सारे भाई-बहन जमा हैं और वो ही नहीं आ पा रही. सब उसे समझाते.. 'फिकर ना करो.. हम सब यहाँ हैं"

पर अब पति ठीक हो रहें थे, शारीरिक रूप से भी और मानसिक निश्चिन्तता भी फैली रहती चेहरे पर. ममता, स्मिता भी अब लौटने की तैयारी कर रहें थे. ऐसे में ही, एक रात नमिता उनकी चादर ठीक करने उठी और जोर से डॉक्टर.... डॉक्टर चिल्लाती हुई बाहर भागी. उनका किसी आशंका से मन काँप गया और जैसे काठ मार गया उन्हें. वे हिली तक नहीं. बस जड़ बनी देखती रहीं, कई डॉक्टर नर्स सब जमा हो गए... जल्दी से कुछ मशीन लाये गए पर ममता के पापाजी... नींद में ही शान्ति से इस दुनिया से विदा हो गए.

सब लूटे-पिटे से गाँव आ गए. बस प्रमोद और मीरा उनके अंतिम दर्शन नहीं कर सके. प्रमोद दो दिन बाद आया और रोता रहा, "क्या फायदा मेरे डॉक्टर बनने का, वहाँ मैं अपना सुख-चैन, नींद खोकर गैरों का इलाज़ करता हूँ और यहाँ मेरे पिता का गलत इलाज़ होता रहा. "

मीरा जैसे पत्थर की हो गयी थी. विश्वास ही नहीं कर पाती. उसे अभी अपने पापाजी के लिए कितना कुछ करना था और वे यूँ चले गए. सारे काम वही देख रही थी. ममता. स्मिता बहुत पहले ही गाँव से जा चुकी थीं, उनके समय काम करनेवाले सब बूढे हो गए थे. उनके बेटे-बेटियों को वे लोग अब नहीं पहचानती थीं. प्रकाश-प्रमोद ने तो गाँव में रहकर भी अपने पढ़ाई के सिवा और कुछ नहीं जाना. नमिता उनका साथ एक पल को नहीं छोडती. कमरे में वे बैठी होतीं और उनके एक तरफ नमिता और एक तरफ प्रमोद, सारा सारा दिन उनका हाथ पकड़ बैठे रहते. मीरा बेचारी अकेली गोपाल जी के साथ सारा इंतजाम देखती. प्रकाश भी उसकी सलाह से ही कुछ करता.

उनके लिए तो समय रुक गया सा लगता. इतने वर्षों से सुबह उठ पति को दातुन देने और चाय बनाने के साथ.. जो दिन शुरू होता वो.. रात में पानी का ग्लास रखने के साथ ही ख़त्म होता. अब वे क्या करेंगी.. अपने दिन और रात का.

फिर भी बच्चों का मुहँ देख, अपना दुख अंदर ही पी लेतीं. रात में भी नमिता और प्रकाश तो उनके साथ बने होते. प्रकाश, मीरा और गोपाल जी लालटेन की रोशनी में, किस दिन क्या करना है, भोज के लिए क्या क्या तैयारियाँ करनी हैं, सबकी रूप-रेखा बनाते रहते. दोनों ननदें, ममता, स्मिता और दोनों बहुएं बच्चों के साथ आँगन में चारपाइयों पर बैठी होतीं या फिर छत पर चटाइयाँ बिछा जमी होतीं. बातों के बीच कभी कभी उनकी हंसी भी सुनाई दे जाती. आखिर इतने दिनों बाद सब मिली थीं... कोई बात हंसी वाली भी हो जाती होगी. पति ऊपर से देख, प्रसन्न ही होते होंगे... अपने पीछे एक बहरी-पुरी हंसती-मुस्कुराती दुनिया छोड़ कर गए हैं.

सारा कुछ निबट गया, दूर के रिश्तेदार, गाँव के लोग, स्कूल के शिक्षक-छात्र, सब जमा हुए. आँसू भरी आँखों से सबने पति को याद किया. वे वैसे ही पत्थर बनी सबके शोक सन्देश स्वीकारती रहीं.

अब बच्चे अपने अपने घरौंदों में लौटने वाले थे. प्रकाश, मीरा, नमिता सब आपस में बहस कर रहें थे, माँ मेरे साथ जाएगी, नहीं मेरे साथ जायेगी. प्रमोद चुप था, बोला, "दो महीने बाद तो माँ को मैं ले जाऊंगा... अभी माँ की मर्जी, जिसके पास रहें. " और उन्होंने अपनी मर्ज़ी सुना दी कि अभी तो कुछ दिन गाँव में ही रहेंगी, फिर जबतक मीरा कि शादी नहीं हो जाती, उसके साथ ही रहेंगी.

पर मीरा नमिता ने गुपचुप प्लान बनाया और नमिता गाँव में ही रुक गयी. फिर पंद्रह दिनों बाद मीरा वापस पहुँच गयी, "माँ.. दीदी, कबतक तुम्हे अगोर कर बैठेगी. उसे अपनी गृहस्थी देखने दो और मेरे साथ चलो, मैने घर ले लिया है"

"मैने कब रोका है इसे... ये खुद अपनी मर्जी से यहाँ है..... "

"तुम्हे हम अकेला कैसे छोड़ सकते हैं... तुम मीरा के साथ जाओ.. जरा देखो लड़की कितनी दुबली हो गयी है... उसे ठीक से खाना- वाना खिलाओ.. " नमिता बोली.

वे कुछ नहीं बोलीं और मीरा के साथ शहर आ गयीं. खाना-वाना खिलाना तो एक बहाना था, यह दोनों बहनों की मिलीभगत थी, उन्हें मीरा के साथ लाने की. मीरा ने एक कामवाली रखी थी जो सारे काम किया करती. मीरा ने ऑफिस से आते ही हाथ मुहँ धोया और एक किताब जैसी बड़ी सी मशीन खोल ली. उन्होंने टोका... "सारा दिन तो काम किया करती है... अब तो आराम कर ले"

"माँ, ये काम नहीं है.... पास आओ तुम्हे कुछ दिखाती हूँ. और उनका चश्मा उठा कर ले आई, जरा इसे पहनो और देखो अपने बहू बेटे को... और सिनेमा जैसे उस छोटे से सफ़ेद परदे पर प्रमोद, पूजा और उसकी बिटिया की कई तस्वीरें देखीं. फिर मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा, "भैया की कविता सुनोगी?"

"कविता... और प्रमोद.... ??" उन्हें विश्वास नहीं हुआ.

"हाँ, माँ... भैया का एक ब्लॉग है... वह उसपर कविताएँ लिखा करता है.. " फिर हंस पड़ी... "चाहे उस बरगद के पेड़ के नीचे कभी ना बैठा हो... नहर के किनारे ना घूमा हो... कुएँ के जगत पर बैठ चाँद ना निहारा हो..... पर इन सबपर कविताएँ लिखी हैं.... गाँव का एक एक कोना उतर आया है उसकी कविता में... कभी कभी अपने मन की बातें भी लिखता है.... अपने देश की मिटटी को बहुत याद करता है, माँ... पर वहाँ का ऐशो आराम भी नहीं छोड़ना.... दोनों हाथों में लड्डू कैसे मिलेंगे..... "

मीरा और पता नहीं क्या क्या कहती रही... पर उनका मन तो एक ही बात पर अटक गया. उनका छोटे... कविताएँ लिखता है??... और उन्हें पता नहीं??. अपने बच्चे की बातें ही उन्हें नहीं पता??... इसे समझ नहीं.... अभी उम्र छोटी है इसलिए हंस रही है... अपनी मिटटी से दूर रहना क्या होता है... इसे क्या पता?

वे तो चार दिन में ही ऊब गयी थीं. सारा दिन कमरे के भीतर. खुली हवा को तरस जातीं. मीरा दिन में तीन बार फोन करती. ऑफिस से आते ही उन्हें पार्क में लेकर जाती. शनिचर -इतवार मंदिर के दर्शन के लिए ले जाती. पर वे पीली पड़ती जा रही थीं. शिकायत नहीं करतीं कुछ. आखिर बिटिया भी अकेली है... ऑफिस से आने के बाद कोई दो बात करने को तो है, उसके पास.

पर मीरा उनकी क्षीण पड़ती काया और मायूस चेहरा देख समझ गयीं... उनका यूँ सारे दिन अकेला इस शाहर में रहना मुश्किल है. खुद ही बोली... "चलो तुम कुछ दिन गाँव रह आओ.. वहाँ दिन भर लोगों का आना-जाना रहेगा तो मन लगा रहेगा.... तुम्हारा मन तो वहाँ के पेड़, पौधे, खेत खलिहान ही बहला देंगे.

"पर तू अकेले... ना मैं ठीक हूँ... तेरा अकेले रहना मुझे नहीं जमता... "

"उसकी फ़िक्र ना करो... एक अच्छी सी सहेली है... उसे बुला लेती हूँ... पर हाँ... अपना ख़याल रखना, ठीक से खाना-पीना वरना फिर ले आऊँगी यहीं. "

और मीरा उनके साथ गाँव आई.. सिवनाथ माएँ, कलावती... रामजस जी सबको समझा गयी कि उसका ख़याल कैसे रखें. रमेसर को रात में ओसारे पर सोने की ताकीद कर गयी. और दादी अम्मा रोज फोन कर सारी रिपोर्ट लेती.

रमेसर का नाम आते ही जैसे वह चौंकी.... आँगन की तरफ देखा तो पाया, चांदनी ख़तम हो, अब सुबह का उजास फ़ैल रहा था. ओह सारी रात वह बैठी ही रह गयीं? हाथ में रखे मोबाइल पर नज़र गयी और हडबडा गयीं. जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाएँ. वरना नींद खुलते ही मीरा फोन करेगी और जो नहीं उठाया तो गाँव आ धमकेगी और जिद करेगी, "मेरे साथ चलो, माँ"

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( समाप्त )