Tumne kabhi pyar kiya tha - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

तुमने कभी प्यार किया था? - 2

 
उसने उस दिन की मुलाकात में कहा था,कि वह अपने दोस्त से मिलने इलाहाबाद भी जा रहा है। कल चला जायेगा ।लेकिन वह नहीं गया। वह दूसरे दिन भी मुझसे मिलना चाह रहा था। झील के किनारे-किनारे अपनी सोच को फैलाते आ रहा था। तभी मूसलाधार बारिस होने लगी। वह एक जगह पर खड़ा हो, मेरे हास्टल की ओर देख रहा था। उसे यह प्रलय की बारिस लग रही थी,जो हमारे प्यार को बहा ले जा रही थी। बारिस कम होते ही वह मन्दिर की ओर मुड़ा और मन्दिर में जाकर आगे की बातें ईश्वर पर छोड़ दी। मुझसे मिलने का विचार छोड़ दिया। शायद निश्चित रोजगार के अभाव के कारण, वह डगमगा रहा था। उसने ७-८ माह का खालीपन और काम का अभाव देखा था। तब अपनी प्यारी जगह को छोड़,वहाँ से शीघ्र निकल जाना चाहता था।
इन्ही दिनों हमारे क्लास के एक लड़के ने उससे कहा था, " हमने कभी तुम्हारे मुँह से गाली नहीं सुनी " फिर पूछा, " तुम उससे (मेरा नाम ले) प्यार करते हो " उसने साफ शब्दों में " हाँ " कहा था। उसके वे अकेले दिन। अकेले चाय पीना, डाक की प्रतीक्षा, कि कहीं से कोई इन्टरव्यू आय । प्रेरणा व जीवटता बनाये रखना । मार्च के महिने में , एक इन्टरव्यू आया। ८-९ इंच बर्फ गिरी थी। वातावरण ठंडा,लेकिन आशा -आकांक्षा का प्रतीक था।
जब मौसम अपने लिये जगह बना लेता है,तो हम भी अपने लिये कोई पहिचान कहीं बना ही लेते हैं। जब ऊपर वाला भटकाव देता है, तो कहीं सहारा भी छोड़ जाता है। रिसर्च योजना में चयन होने के बाद वह दूर उस संस्थान में चला गया। वहीं से वह मुझसे मिलने आया,मिला और चला गया। मैं परीक्षा पास कर लखनऊ चली गयी। वहाँ उसका एक दोस्त एक बैंक परीक्षा में मुझे मिला। मैंने उसके बारे में उससे पूछा। उसका प्यार मेरे मन को बार-बार खटखटाता था। उस समय आज की तरह मोबाइल सुविधा तो थी नहीं। अत: चाह कर भी सम्पर्क नहीं कर सकते थे।
कल्पनाएँ बहुत बड़ी होती हैं। इस बीच उसे स्थायी काम मिल गया था। राजनैतिक व सामाजिक रूप से विचारशील होने के कारण, उसके मन में उथल-पुथल मची रहती थी । वह सरला देवी जो गांधी की शिष्या थी, से मिलने बागेश्वर से आगे गया था। सरला देवी समाजिक कार्यकर्ता थी, उस समय उनका कार्यक्षेत्र कुमायूँ था। उनके निवास से रमणीय हिमालय को देख, उसका मन हमारे प्यार की तरह मौन हो , सुनहरे भाव गढ़ने लगा था। सरला देवी ने उधर गाँवों में पशु बलि पर चिन्ता जताई। उन्होंने पर्यावरण और महिला शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। अब इतना बदलाव हुआ है कि कहीं-कहीं पशु बलि की जगह नारियल काटा जाता है। वह तत्कालीन सम्पूर्ण क्रान्ति के जनक जयप्रकाश नारायण से भी मिलने पटना गया था लेकिन उनके बहुत खराब स्वास्थ्य के कारण मिल नहीं सका।
संस्थान के बहुत से आन्दोलनों में वह शामिल होता रहा। भाषण भी देता था।
वह हमारे प्यार की कहानी गर्मी में हास्टल की छत पर अपने दोस्तों को सुनाता था। वे उत्सुकता से सब कुछ सुना करते थे। विवश होकर उसने मेरे घर के पते पर पत्र लिखा। कई पत्र लिखे जो मेरी माँ ने मुझे नहीं दिखाये। इसी बीच उसने मेरे घर आने की तारीख दे दी। मैं तब लखनऊ में थी ।
वह घर पहुँचा। घर पर तब कोई और भी आया था। उसका इन्टरव्यू शुरू हो गया। किस पद पर हो? कितनी तनख्वाह है? कहाँ हो? वह बताता गया। माँ ने जो हमारे यहाँ उस समय आये थे, उनसे पूछा, " आगे तो वहाँ अच्छा भविष्य होगा?” उन्होंने बेमन से हाँ कहा।शायद वे उस प्रसिद्ध संस्थान को नहीं जानते थे। फिर उसका नाम पूछा। उसने अपना पूरा नाम बताया तो सामाजिक जाति भिन्नता माँ को परेशान करने लगी। उन्होंने कहा " वहाँ पढ़ने के लिए भेजा था,यह सब करने के लिए नहीं"। उसने कहा, " माँ जी, मैं ऐसा लड़का ( आवारा) नहीं हूँ"।
माँ फिर बोली, " मैंने पत्र सेंसर कर दिये थे। उसने तुम्हारा पत्र फाड़ दिया था। यह एकतरफा प्यार है "। फिर बोली, "तुमने अपने घर वालों को बताया है। उसने कहा, "नहीं"। फिर बोली, " किसी और सुन्दर लड़की से शादी कर लो"। अंग्रेज़ी में भी बीच में माँ कुछ बोली थी।
उसने कहा, " वह एक बार मेरे से बात करके पूछना चाहता है"। लेकिन माँ ने मना कर दिया। आदमी का दुर्भाग्य लम्बे समय तक उसके साथ रहता है। मेरी माँ सामाजिक जाति अन्तर से समझौता नहीं कर पा रही थी। उसने कहा, यदि आपका उत्तर नहीं था तो आपको पत्र में लिख देना चाहिए था। माँ बोली, “तुम्हारा पता मेरे पास नहीं था”। उसने पता पत्र में होने की पुष्टि की। माँ ने कहा, नाम पूरा नहीं होता था। कुछ सोचने के बाद, वह मेरे घर को पीछे छोड़, चला गया । इसके बाद भी उसने कई संक्षिप्त पत्र लिखे, जिनका उसे कोई उत्तर नहीं मिला। उसने ₹२५ का एक मनीआर्डर भी भेजा जो उसकी पहली छपी रचना का आधा मानदेय था। वे रूपये माँ ने लिये पर जो उत्तर उसने माँगा था, वह उसे नहीं मिला। माँ के अंग्रेजी बोलने को इंगित करते हुए, उसने अपने पत्र में एक रचना जो " दिनमान" में १९८१ में छपी थी, उद्धृत की -
भारत की भाषा/संस्कृति
वह नहीं बोलता
भारत की भाषा,
कोटि-कोटि हृतंत्री लय
एकतंत्रीय,अहं से लथपथ
खड़े उसके जीवन खंडहर
हृदय में कृमि, कंकण,
काट रहे ज्योति जिह्वा
वह अकेला जनता ने पाला।
उदारता कोटि-कोटि जन मन की
क्यों करती उसकी अहं तुष्टि?
जब वह नहीं समझता
भारत की भाषा,
वह नहीं जानता
भारत की संस्कृति चिरंतन,
शोषण के डंक मारता
रख क्षुद्र आकांक्षा
जनमन से हटकर,
वृथा अभिमान की सत्ता रख
वह नहीं बोलता
भारत की भाषा,
माँ के हृदय में ममता
वह डंक मारता,
भारत माँ ने गरल ले लिया
भारत की जनता बोलेगी
भारत की भाषा।
जब वह मेरे घर गया था तो माँ ने घर में आये व्यक्ति से मेरे शोध छात्रा के रूप में लखनऊ में काम करने के बारे में बताया था। वह लखनऊ आया,उस संस्थान में जहाँ उसने मुझे शोध छात्रा समझा था, लेकिन उसे मैं वहाँ नहीं मिली। बहुत लोगों से उसने मेरे बारे में पूछताछ की। हमारी भावनायें थपेड़े खा रहीं थीं। वह वहाँ के अनजान आसमान को देख क्षुब्ध था। फिर हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों की कुछ पुस्तकें खरीद , लौट आया । जब भाग्य साथ नहीं देता है तो हर कदम न चाहते हुए भी उल्टा पड़ता है।
उनके बाद, उसने कुछ पत्र और लिखे और उनके भी उत्तर उसे नहीं मिले। उसने आवेग में हमारी सामाजिक स्थतियों, जाति प्रथा पर भी टिप्पणी की। ऐसा सब कुछ लिखा जिससे मैं अपने घर वालों की बात मान लूँ।
उसने अपने अन्तिम पत्र में क्षुब्ध होकर वाल्टेयर द्वारा महिलाओं के विषय में कहा गया उद्धरण लिखा था। जबकि वह उन विचारों से सहमत नहीं था। निराला की एक दुखान्त कविता भी पत्र में लिखी थी। वह किसी भी स्थिति में अपने स्वाभिमान को ठेस लगाना नहीं चाहता था। वह हमारे प्यार से संघर्ष कर रहा था। लेकिन यह भी मानता था कि प्यार करना चाहिए। हारता भी था और जीतने की आशा में आगे भी बढ़ता था। बाद में, बड़े पद पर उसका चयन हो गया। प्यार भूलने के लिये नहीं होता, यह वह भी जानता था, मैं भी। यादें परेशान करतीं हैं, पर जीवन तो अथाह होता है। -----।
 
*महेश रौतेला