Dorr - Rishto ka Bandhan - 11 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

डोर – रिश्तों का बंधन - 11 - अंतिम भाग

डोर – रिश्तों का बंधन

(11)

धीरे धीरे वक्त के साथ बहुत कुछ बदला नयना के जीवन में, मां अब पहले से थोड़ी कमज़ोर हो गई थीं और जोड़ों के दर्द से परेशान भी रहने लगीं थीं। सोनू बी. टेक. के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया और फिर वहीं कंपनी प्लेसमेंट में एक मल्टी नेशनल कंपनी में उसकी जॉब लग गई। उसके अमेरिका जाने के बाद प्रकाश मोसाजी और जया मोसी भी रिटायरमेंट के बाद यहीं आ गए थे। चिंटू और पूर्वी जब भी मिलने आते दोनों परिवारों में रौनक हो जाती, अब तो उनके पास एक छोटा सा गोलमटोल खिलौना निशू भी था जो अपनी मासूम बातों और शरारतों से सबका मन मोह लेता था। अब दोनों घरों के आंगन को चिंटू-पूर्वी से भी अधिक निशू का इंतज़ार रहता था, जब भी वह आता सबकी आंखों के समक्ष चिंटूऔर पूर्वी का बचपन एक बार फिर साकार हो उठता और सब उसके खूब लाड चाव करते। खुशी और निशू की भी अच्छी खासी दोस्ती थी, दोनों जम कर खेलते और खूब झगड़ा भी करते। उन दोनों को एकसाथ देख कर सबको अक्सर चिंटू और नयना का बचपन याद आ जाता। दोनों के बीच उम्र का अंतर भी तो लगभग नयना और चिंटू जितना ही था। नयना निशू के साथ खूब खेलती, और निशू भी पूरा समय नन्नी बुआ, नन्नी बुआ की रट लगाए रहता। कभी कभी तो चिंटू हंस कर कह उठता, 'मेरे बेटे ने मेरे सारे अपने छीन लिए और तो और मेरी नन्नी दीदी भी, अब यहां मुझे कोई प्यार नहीं करता।' पूर्वी भी कहती, 'मेरे घर में भी यही हाल है, जब भी जाती हूं मम्मी-पापा इसी के नखरे उठाने में लगे रहते हैं मुझसे बात करने का तो उनके पास टाइम ही नहीं है।'

नयना ने खुशहाली नाम से अपनी खुद की एनजीओ भी शुरू की थी जिसे वह प्रकाश मोसाजी और जया मोसी की मदद से संभालती थी।नयना के खुशहाली शुरू करने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है, नयना अपनी पूर्व सामाज सेवी संस्था की नीतियों से संतुष्ट नहीं थी, वहां कुछ स्वार्थी तत्व थे जो हर काम को लाभ और हानि की कसौटी पर तौला करते थे किंतु फिर भी नयना ने यह सोच कर वहां जाना नहीं छोड़ा कि जिसकी जो भी प्रवृति हो किंतु वह किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर समाज सेवा की और आकर्षित नहीं हुई है, अपितु मन का सुकून पाना उसका उद्देश्य है। यह कार्य वह अकेले नहीं कर सकती इसके लिए उसे किसी ना किसी संस्था से तो जुड़ना ही होगा और लगभग हर जगह ऐसे लोग मिल ही जाएंगे जिनके लिए अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि होगा। ऐसे लोगों के बीच भी यदि वह किसी एक जरूरतमंद की मदद कर पाई जिसे वास्तव में सहायता की आवश्यकता है तो यही सही मायनों में उसकी समाजसेवा होगी। मगर हालात कुछ ऐसे बने कि नयना का उस संस्था से और वहां के लोगों से पूरी तरह से मोह भंग हो गया।

एक दिन जब शाम का धुंधलका छाने को था तब संस्था के फोन पर एक लड़की का फोन आया। बहुत डरी सहमी सी आवाज लग रही थी, और मदद के लिए गुहार लगा रही थी। संस्था प्रधान ने एक टीम उस लड़की द्वारा बताए पते पर भेजी। जब टीम अपनी कार्रवाई पूरी करके वापस आई तो उनके साथ चार लड़कियां भी थीं। सभी लड़कियां छोटी ही थीं और बहुत अधिक डरी हुई भी थीं। नयना और प्रिया ने आगे बढ़ कर उन्हें संभाला। काफी देर बाद सभी बच्चियां कुछ सामान्य हो पाई और उन्होंने आंसुओं के बीच अपनी आपबीती सुनाई। ये सभी घरेलु सहायिका का काम करने वाली महिलाओं की बच्चियां थीं जो कि अपने अपने माता पिता के काम पर जाने के बाद अगवा कर ली गई थीं, और अब इन्हें बेचने की कोशिश की जा रही थी, इन सबको एक कमरे में बंद करके रखा गया था और डराया धमकाया भी जा रहा था।

संयोग से एक लड़की जो थोड़ी बड़ी और थोड़ी पढ़ी हुई भी थी उसने जिस अखबार में लपेट कर इन लड़कियों के लिए खाना आया था उस पर संस्था का विज्ञापन देखा जिसमें संस्था से संपर्क हेतु फोन नंबर और पता भी था। वह फोन नंबर पढ़ कर उस लड़की ने कमरे में रखे बेसिक फोन से संपर्क करने की कोशिश की थी, यह उन लड़कियों का सौभाग्य ही था कि जिन लोगों ने उन्हें अगवा किया था वो लोग उस समय वहां नहीं थे। शायद वे इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा पाए कि ये डरी सहमी सी छोटी लड़कियां जो लगातार रोए जा रही हैं वे अपने बचाव में इतना बड़ा कदम भी उठा सकती हैं इसीलिए फोन भी उन्होंने उन लड़कियों की पहुंच से बाहर नहीं किया था। या फिर यह उनसे हुई भूल थी, पर जो भी हो इस मौके का उन लड़कियों ने भरपूर फायदा उठाया।

संस्था प्रधान ने उन बच्चियों से पूछ कर उनके माता पिता से संपर्क किया। नयना ने कानूनी कार्रवाई के विषय में कहा तो संस्था प्रधान बोलीं, 'पहले इन बच्चियों को संभाल लें, अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई से यह कहीं ज्यादा जरूरी है, बच्चियां पहले ही डरी हुई हैं और ऐसे में यदि हम पुलिस को बुलाएंगे तो ये और अधिक डर जाएंगी।" उस समय नयना को संस्था प्रधान की बात सही लगी बच्चियां सच में बहुत अधिक डरी हुई थीं। कुछ देर में उनके माता पिता भी आ गए, वो लोग भी काफी समय से अपनी बेटियों को ढ़ूंढ़ रहे थे और कहीं से भी मदद ना मिलने से परेशान भी थे। अपनी बच्चियों को सुरक्षित देख उनके मुख पर राहत के भाव थे ही बच्चियां भी अपने माता पिता से मिल कर सुरक्षित महसूस कर रही थीं अब वे पहले की अपेक्षा और भी अधिक सामान्य लग रही थीं। उनके माता पिता भी अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के इच्छुक थे और इस संबंध में जानकारी चाह रहे थे किंतु संस्था प्रधान एवं अन्य लोगों ने उन्हें भी आश्वासन का झुनझुना थमा कर टरका दिया।

कई दिनों तक नयना भी इस मामले में आगे कार्रवाई करने की याद संस्था प्रधान को दिलाती रही किंतु हर बार उनके पास नयना को सुनाने के लिए कोई ना कोई बहाना तैयार ही मिलता था, नयना के लिए उनका रवैया कुछ आश्चर्यजनक था जब उसने खुद अपने स्तर पर जांच पड़ताल की तो जो सच सामने आया वह चौंकाने वाला था। अपराधी मामले को रफा दफा करने के लिए पहले ही चंदे के नाम पर संस्था को एक बड़ी रकम दे चुके थे। और इस रकम के बोझ तले दब कर मामला कबका अपने अवसान को प्राप्त हो चुका था। इतना ही नहीं उससे जुड़े सभी सबूत भी नष्ट कर दिए गए थे। यह जानकारी संस्था प्रधान के प्रति नयना के विश्वास पर किसी वज्रपात से कम नहीं थी। नयना को संस्था प्रधान की ईमानदारी पर कभी कोई शक नहीं हुआ था बल्कि सच कहे तो कुछ कुछ अंधविश्वास ही था पर अब जब उसका भ्रम टूटा तो ना सिर्फ संस्था प्रधान अपितु संस्था से भी उसका मोह भंग हो गया और वह अपने पद से इस्तीफा दे कर चली आई।

इस घटना के बाद नयना निम्न वर्ग के बच्चों की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित रहने लगी थी क्योंकि ये बच्चे अपने माता पिता के काम पर जाने के बाद काफी समय तक अकेले रहते हैं, अपनी बस्ती की गलियों में इधर उधर आवारा घूमते खेलते रहते हैं। और इस दौरान इनका अपहरण करना अथवा इन्हें बहला फुसला कर गलत रास्ते पर चलाना कोई मुश्किल काम नहीं होता। नयना इन बच्चों के आसपास एक ऐसे माहौल का निर्माण करना चाहती थी जहां वे ना केवल सुरक्षित रहें वरन उनमें एक स्वस्थ मानसिकता का भी विकास हो, और इसीलिए बहुत सोच विचार के बाद उसने अपनी समाजसेवी संस्था खुशहाली शुरू की। उन्हीं चार बच्चियों और बहुत सीमित संसाधनों के साथ शुरू हुई इस संस्था को प्रकाश मोसाजी और जया मोसी ने कुछ इस तरह संभाला कि यह निम्न वर्ग के सैंकड़ों बच्चों के लिए एक फुलवारी बन गई जहां ये बच्चे दिन भर फूलों की तरह खिलखिलाते रहते।

प्रकाश मोसाजी ने खुशहाली के बच्चों के लिए एक स्कूल भी खोला था जहां इन बच्चों को समुचित शिक्षा उपलब्ध करवाई जा रही थी। बहुत ही कम समय में खुशहाली की ऐसी पैठ बन चुकी थी कि उसे कई सम्मान भी मिल चुके थे, कुछ दिन पूर्व भी सामाजिक कार्यों के लिए खुशहाली की टीम को जिलाधीश द्वारा सम्मानित किया गया था। इस सम्मान समारोह की तस्वीर आज अखबार में छपी थी, यह तस्वीर और खबर देख कर चाचा चाची इतने खुश हुए कि उन्होंने सबको व्हाट्स एप पर सूचना दे दी। फिर तो सुबह से ही नयना का फोन टनटनाने लगा और वह बधाई स्वीकार करते करते परेशान हो गई।

आज फिर नयना को ऑफिस से निकलने में देर हो गई, उसने जल्दी से अपना लैपटॉप कार की पिछली सीट पर रखा और कार स्टार्ट की। उसे डर लग रहा था क्योंकि देर होने पर उसकी परी उससे रूठ जाती थी, शनिवार के अतिरिक्त किसी और दिन नयना का देर से घर आना खुशी पसंद नहीं करती थी। हां शनिवार को नयना खुशहाली जाती है यह उसे पता था, इतवार को तो अक्सर खुशी खुद भी नयना के साथ खुशहाली पहुंच जाती थी और दिनभर बच्चों के साथ खूब धमचौकड़ी करती। नयना ने एक मॉल के सामने गाड़ी पार्क की यहां से उसे खुशी के स्कूल में होने वाले फैंसी ड्रेस कॉम्पीटीशन के लिए एक सुंदर सी ड्रेस लेनी थी, दोपहर में ही फोन करके अपनी फरमाइश बता दी थी उसने। कई सारी ड्रेसेज़ देखने के बाद नयना को दो ड्रेस पसंद आईं एक बंजारन की और एक मदर टैरेसा की, नयना ने दोनों की पिक खुशी को व्हाट्स ऐप पर भेज दी, थोड़ी देर में ही उसका रिप्लाई भी आ गया कि उसे मदर टैरेसा की ड्रेस पसंद है। ड्रेस पैक करवा कर नयना खुशी से मिलने चल दी।

बहुत कुछ बदला था उसकी ज़िंदगी में इन बीते वर्षों में बस नहीं बदला था तो उसका खुशी के साथ रिश्ता, बल्कि अगर सच कहा जाए तो वक्त के साथ यह रिश्ता और भी मज़बूत हुआ था। रिन्नी दीदी के बगल वाले घर में हर रोज़ खुशी से मिलने जाना और उसके साथ खूब खेलना आज भी नयना की दिनचर्या का एक अनिवार्य हिस्सा था। खुशी के साथ बरसों पहले बंधी स्नेह की डोर को नयना ने इतने प्यार से सहेजा था कि उनका रिश्ता लोगों की नज़र में एक मिसाल हो गया। वह घर के सामने कार पार्क कर रही थी कि उसकी नज़र खुशी पर पड़ी, वह घर के गार्डन में दीपक के साथ बॉल से खेल रही थी।

कभी कभी नयना दीपक की हिम्मत को देखकर आश्चर्यचकित रह जाती थी, खुशी के चेहरे पर एक मुस्कान लाने के लिए वह अपने दर्द की परवाह ही नहीं करता था। खुशी ही उसकी जीने की वजह थी और खुशी ही उसकी जीने की ताकत। वह खुद अपने मुंह से कहता था, 'मुझे यह ज़िंदगी खुशी के लिए मिली है और अब मैं इसका हर पल अपनी बेटी के साथ, उसके लिए जीना चाहता हूं।' आज व्हील चेयर पर बैठा अगर दीपक ऐसा सोचता है तो कुछ गलत भी नहीं है।

अभी तो वो लोग चिंटू की शादी की खुमारी से पूरी तरह बाहर भी नहीं आए थे कि एक दिन रिन्नी दीदी का फोन आया और वो बोली, "नन्नी आज तू घर आ जाना खुशी थोड़ी उदास है, दीपक भैया की कमर में दर्द है और राहुल उन्हें दिल्ली ले गए हैं चेक अप के लिए।" नयना रिन्नी दीदी के घर पहुंची तो दीदी राहुल जीजाजी से बात कर रही थी। राहुल ने क्या कहा यह तो नयना को नहीं सुना पर रिन्नी दीदी की प्रतिक्रिया से वह इतना जरूर समझ गई कि बात थोड़ी बड़ी है जितना वह अब तक समझ रही थी शायद उससे कुछ ज्यादा ही बड़ी। फोन रख कर दीदी ने बताया कि, "दीपक भैया कुछ दिन पहले बाथरूम में फिसल गए थे और उन्हें कमर में चोट लगी, बहुत दर्द था उन्हें कमर तब से पहले तो राहुल ने यहीं अपने साथी डॉक्टर को दिखाया पर कोई खास फायदा नहीं हुआ अब वो दीपक भैया को दिल्ली ले कर गए हैं। डॉक्टर ने कहा है रीढ़ की हड्डी में चोट लगी है ऑपरेशन करना होगा।" नयना खुशी को अपने साथ घर लाना चाहती थी पर उसकी दादी ने मना कर दिया पर खुशी ने नयना को भी नहीं छोड़ा तो रिन्नी दीदी ने कुछ दिन नयना को अपने घर ही रख लिया।

बहुत मुश्किल समय था वह, उधर दीपक ऑपरेशन के बाद आई.सी.यू. में था और इधर नयना के मन में एक अनजाना सा भय समाया रहता था, हर वक्त नयना का दिल कांपता रहता कि कहीं दीपक को कुछ हो गया तो, नन्ही सी खुशी को कलेजे से लगाए वह सारी सारी रात जागती रहती, उसे खुशी के लिए बहुत डर लगता था। पिता को खो देने का दर्द क्या होता है नयना अच्छे से जानती थी, खुद भोगा था उसने यह दर्द पर फिर भी संभल गई क्योंकि सुरेश चाचा थे उसके साथ जो उसे और मां को दुख की हर धूप से बचाने के लिए खुद एक घना छायादार पेड़ हो गए, पर खुशी के पास तो ऐसा कोई सहारा भी नहीं था, दीपक अपने माता पिता की इकलौती संतान था और पहले पति और फिर बहू खो चुकी उसकी मां की हिम्मत भी बेटे के ऑपरेशन की बात सुन टुकड़े टुकड़े हुई जा रही थी।

पर खुशी नयना से अधिक किस्मत की धनी निकली सबकी कुशंकाओं को झुठला उसके पापा सही सलामत हॉस्पिटल से वापस आ गए पर इस ऑपरेशन ने दीपक को अपनी एक निशानी व्हील चेयर दे दी जो हमेशा उसके साथ रहने वाली थी। रीढ़ की हड्डी में चोट लगने के कारण दीपक की चलने फिरने की क्षमता अब बहुत कम रह गई थी। चलना तो दूर वह अब ज्यादा देर तक खड़ा भी नहीं रह पाता था। जिसका अच्छा खासा स्वस्थ बेटा व्हील चेयर पर आ गया हो उस मां के दिल पर क्या गुज़र रही होगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था पर दीपक की मां ने इस कठिन समय में भी बड़ी हिम्मत से काम लिया, उन्होंने ना सिर्फ अपना हौसला बनाए रखा वरन दीपक को भी हौसला देती रहीं। अब वे गांव से अपने खेत-घर सब बेच कर यहीं आ गई और रिन्नी दीदी के बगल में ही घर खरीद लिया। वे नौकरों के साथ मिल कर घर संभाल लेती थीं और दीपक की देखभाल के लिए उन्होंने अलग से एक लड़का शिव रख लिया था जो दीपक को उसके दैनिक कार्यों में मदद करने के साथ साथ कॉलेज लाने लेजाने का काम भी कर लेता था। फिर बगल में रिन्नी और राहुल तो थे ही उनका भी बड़ा सहारा था और खुशी! खुशी तो वैसे भी नयना के गले का हार थी, ज्यादातर उसी के साथ रहती थी।

बड़ा ही निराला रिश्ता था दोनों का, नयना खुशी की मां नहीं थी पर मां से कम भी नहीं थी। वह मासी थी खुशी की, उसकी दोस्त भी थी। खुशी ने अपना पहला कदम नयना की उंगली थाम कर उठाया था और घर से स्कूल तक की दूरी भी उसी का हाथ पकड़ कर तय की थी। खुशी के स्कूल में होने वाली पी.टी.एम. नयना अटैंड करती थी, खुशी की हर फरमाईश भी प्यार से पूरी करती पर अगर खुशी कोई गलती करती तो वह उसके कान भी पूरे हक से खींच देती। जैसे ही नयना गेट खोल कर अंदर आई खुशी, 'मासी..' कहती हुई उसकी ओर दौड़ी, नयना ने भी तेजी से आगे बढ़ कर उसे अपनी गोद में उठा लिया, अब खुशी नयना के गले में बांहें डाल कर झूल गई, नयना के प्रति प्यार जताने का उसका यही तरीका था। नयना भी खुले दिल से खुशी का यह प्रेम स्वीकार कर रही थी।

"लो शुरू हो गया मोसी बेटी का भरत मिलाप," दीपक की मां की मां ने कहा तो दीपक भी हंस दिया। "नयना खुशी बहुत देर से आपका इंतज़ार कर रही थी, वैसे खुशी आज तो आप मासी से नाराज़ थे ना, उनसे बात भी नहीं करने वाले थे। फिर अब क्या हुआ।" दीपक ने खुशी से पूछा।

"होना क्या है मासी की शक्ल दिखते ही सारी नाराज़गी खत्म, क्यों खुशी, दोनों एक ही थैली की चट्टी बट्टी हैं हमारे सामने गुस्सा और एक दूसरे से प्यार।" आंटी ने कहा, नौकरानी को चाय के लिए बोल वे भी वहीं आ बैठी। उन दोनों की बात सुन नयना भी हंस पड़ी।

"हां मैं पहले नाराज़ थी मासी से क्योंकि वो घर आने में लेट कर रही थी और मुझे उनको एक इंपोर्टेंट बात बतानी थी, पर जब मुझे पता चला मासी तो मेरी ही ड्रेस खरीदने मार्केट गई हैं और इसीलिए इन्हें देर हो रही है तो मुझे लगा अब उनसे नाराज़ होना गलत है तो फिर मैंने इनसे झगड़ा नहीं किया।" खुशी ने इतनी मासूमियत से कहा कि नयना को उस पर प्यार आ गया और उसने खुशी के गाल चूम लिए।

"थैंक्यू सो मच खुशी कि आपने मासी से झगड़ा नहीं किया पर बच्चे आपने ये तो बताया ही नहीं कि आपको मासी से कौनसी इंपोर्टेंट बात करनी थी।" नयना ने खुशी के स्टाइल में ही पलकें झपका कर पूछा तो खुशी उसकी गोद से उतर कर अंदर भागी और अखबार उठा लाई जिसमें खुशहाली को जिलाधीश द्वारा सम्मानित किए जाने की खबर आई थी और खुश हो कर नयना को दिखाने लगी। कभी वह अपनी नन्ही सी उंगली से तस्वीर में उसे प्रकाश मोसाजी और नयना को दिखाती और कभी खुद नयना के चेहरे को स्पर्श करके खुश होती।

खुशी जितने उत्साह से बता रही थी नयना भी उतनी ही आनंदविभोर हो कर उसकी बातें सुन रही थी दोनों एकदूसरे से बातें करने में इतनी मगन थीं कि उन्हें अपने आसपास किसी और के होने का अहसास ही नहीं रहा, उन दोनों के मुख पर एक दूसरे के लिए प्यार भी था और गर्व भी। उस पल नयना के मुख पर तो पूर्णता और संतुष्टि की एक अलग ही चमक थी क्योंकि चाहे दुनिया कुछ भी कहे पर नयना के जीवन का सच तो यह था कि खुशी और खुशहाली ने नयना को कुछ इस तरह से परिपूर्ण कर दिया था कि अब किसी और के लिए उसके जीवन में कोई जगह ही नहीं बची थी। दुनिया चाहे उसे अकेली, अधूरी या बेचारी कहे पर वह खुश थी, संतुष्ट भी थी और अपने आप में संपूर्ण भी।

यह तस्वीर शोभित और विवेक ने भी देखी और देखते ही रहे, नयना के इतना कामयाब होने की उम्मीद दोनों में से किसी ने भी नहीं की थी, उम्मीद करते भी कैसे इन दोनों ने नयना को ठीक से जाना ही कहां था, ना तो वक्त था बेचारों के पास, ना नज़रिया और ना ही वह पारखी नज़र जो किसी की आत्मा को पहचान ले। इनके एक इशारे पर कभी नयना अपना हर सपना न्यौछावर करने को तैयार रहती थी, पर दोनों ने ही कभी उसकी कदर नहीं की। शोभित की सोच की हैसियत तो हद से ज्यादा ऊंची थी, उसे हमेशा ऊपर देख कर चलने की ही आदत रही और हर चीज़ भी अपनी उसी ऊंची हैसियत के मुताबिक ही पसंद आई यहां तक कि जीवनसाथी भी। ना नयना उसकी इस हैसियत के बराबर पहुंच पाई और ना शोभित ही उसके लिए झुक सका और दिल के किसी कोने में एक टीस लिए दोनों अपनी अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ गए। और विवेक की तो बात ही क्या उसकी आंखों में तो हमेशा से बड़े सपने कुछ इस कदर समाए थे कि खुद के अतिरिक्त उसे कभी कुछ दिखा ही नहीं। अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीना चाहता था वह, ऊंची उड़ान भरना चाहता था, बहुत ऊंची, इसीलिए एक बड़ा दांव खेला था उसने, पर आज एक हारे हुए जुआरी की तरह सब कुछ लुटा कर बस खाली खाली आंखों से अखबार को देखे जा रहा था, इससे ज्यादा वह कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि नयना ने पारिवारिक जिम्मेदारियां और रिश्ते निभाते हुए सफलता के जो आयाम रचे थे उन तक पहुंचना अब उसके बस में भी नहीं था।

समाप्त