Prakruti Maim - Uga nahi Chandrama books and stories free download online pdf in Hindi

प्रकृति मैम- उगा नहीं चंद्रमा


8. उगा नहीं चंद्रमा
जो हुआ, उसका कसूरवार मैं ही रहा।
प्रसव के दौरान रक्तचाप बेतहाशा बढ़ गया। आनन- फानन में सिजेरियन डिलीवरी का निर्णय लिया गया। किन्तु कुदरत अपना क्रोध हमारे नसीबों पर छिड़क चुकी थी।
डॉक्टरों के दल द्वारा मुझसे पूछा गया कि मां और संतान में से किसी एक को ही बचाया जा सकेगा, मेरी रज़ा क्या है ???
संतानें दो थीं। मेरा जवाब सुनने के बाद वो दोनों इस धरा पर किसी एलियन की तरह जिस जहां से आए थे, उसी में लौट गए।
तीन दिन के बाद ढेर सारी हिदायतों के साथ मेरी पत्नी को हस्पताल से छुट्टी दे दी गई।
सब कुछ ऐसे हो गया, मानो कुछ हुआ ही न हो।
हम दो होते हुए भी अकेले- अकेले होकर घर लौट आए।
दुख में, सुख में, ख़ामोश होकर बैठ जाना हम दोनों में से किसी ने नहीं सीखा था।
हमारे सपने,हमारी कोशिशें, विफल हुए थे, हम नहीं, हमारी ज़िन्दगी नहीं।
हम फ़िर से सोचने लगे,और जब तक सोच पाने की ताक़त सलामत रहे, इंसान का कुछ नहीं बिगड़ता।
मेरी पत्नी ने कहा- आप फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट, पुणे से डायरेक्शन का कोर्स कर लीजिए।
मैंने कहा- तुम कंप्यूटर साइंस में पी एच डी कर लो। मैं कंप्यूटर साइंस के विषय में कुछ नहीं जानता था। जानता था तो केवल इतना कि बैंक में ये सुनाई देता रहता है- आने वाला समय कंप्यूटर साइंस का है, अब हर काम इसी से होगा। और ये जानता था कि मेरी पत्नी का दिमाग़ किसी कंप्यूटर की तरह तेज़ है।
मेरी पत्नी फ़िल्मों के बारे में कुछ नहीं जानती थी। जानती थी तो केवल इतना कि फ़िल्मों से मेरा गहरा लगाव है, फ़िल्मों की मुझे बहुत जानकारी है और मेरे पास सांस्कृतिक कार्यक्रमों की गहरी समझ है।
पर हमने फ़िर एक दूसरे की बात को गंभीरता से लिया।
मैंने डाक से पुणे फ़िल्म संस्थान का फॉर्म मंगाया और उसे पूरा अच्छी तरह पढ़ा। ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि ये कोर्स डाक से या नियमित पुणे न जाकर किया जा सके। प्रवेश का मतलब था, पुणे जाकर रहना। पुणे जाकर रहने का मतलब था अपनी नौकरी छोड़ना।
कहते हैं कि जब हम अपनों से दूर हो जाएं तो उनके दुख- सुख भी हमारी निगाहों से ओझल हो जाते हैं।
मेरी मां कुछ ही वर्षों में सेवा निवृत्त होने वाली थीं और अभी घर में छोटे भाई और बहन का विवाह करना शेष था। इसके अलावा रिटायर होने के बाद उनके रहने का मसला भी तय होना था कि वो स्थाई रूप से कहां रहना पसंद करेंगी।
बड़े भाई के ऊपर हम तीन भाइयों की पढ़ाई के दौरान पहले ही काफ़ी बोझ डाला जा चुका था और अब उनके अपने बढ़े हुए दायित्व थे। उनसे छोटे भाई भी कुछ निजी कारणों से इस दायित्व को उठा पाने में समर्थ नहीं थे।
ऐसे में हम दोनों पति पत्नी में से एक का वेतन कम होने का अर्थ घर की जरूरतों से मुंह मोड़ लेना ही होता। इसलिए मैंने पुणे जाने का विचार छोड़ दिया। किन्तु अपनी रुचि और क्षमता का ख्याल करके भविष्य में पत्रकारिता में हाथ आजमाने के लिए मुंबई के भारतीय विद्या भवन में शाम को चलने वाले जर्नलिज़्म के कोर्स में प्रवेश ले लिया।
शाम को साढ़े छह बजे से साढ़े आठ बजे तक चौपाटी के पास के एम मुंशी मार्ग पर क्लास होती थी। सीटें सीमित थीं, इसलिए प्रवेश की परीक्षा ली गई।
जिस दिन शाम को मेरी लिखित प्रवेश परीक्षा होनी थी, उस दिन बैंक में मेरे मित्र जयंत ने बातों- बातों में कहा- राजस्थान और मुंबई के स्टैंडर्ड में बहुत फ़र्क है, एडमिशन आसानी से नहीं होगा।
मैं ऊपर से तो मुस्कराया पर मन ही मन लगभग रूआंसा हो गया, और सोचने लगा,एक दिन लोग इस बात पर भी आंख बंद करके विश्वास कर लेते थे कि मेरा इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज में भी प्रवेश हो जाएगा। आज मेरा मित्र मेरे पत्रकारिता में प्रवेश को भी संदेह से देख रहा है। जबकि मैं पहले से कहीं ज़्यादा जी चुका हूं। तो क्या मैं अपने जीवन में उल्टा चला? ज्यों- ज्यों उम्र बढ़ती गई, त्यों- त्यों क्या मेरी समझ कम होती गई?
शाम को परीक्षा देकर मैं रात को घर पहुंचा।
दो दिन बाद प्रवेश की सूची लगी तो मेरा सूची में पहला स्थान था।पर मेरे पास खुश होने की हिम्मत नहीं बची थी।
रोज़ शाम को बैंक के बाद बस से चौपाटी जाने के बाद मैं रात को लगभग दस बजे घर पहुंचता।
पत्नी तब तक खाना बनाने के बाद अपने पी एच डी के कार्य में जुटी होती।
सुबह नौ बजे मैं निकल जाता।
जब इस बार हम घर गए तो लोगों की ज़बरदस्त सहानुभूति मिली।लेकिन कुछ लोगों को ये देख कर हैरानी भी हुई कि हम अपने दुख से इतनी जल्दी उबर कैसे गए।
पत्नी की कुछ अंतरंग मित्रों ने तो ये कह कर उसे सांत्वना दी कि तुम्हारे वो बच्चे केवल तुम्हें मिलाने अाए थे,अपना काम करके लौट गए। अब तुम दोनों एक जगह पर तो हो गए।
मैंने माहौल को समय - समय पर गमगीन होने से बचाने के लिए मित्रों को बताया कि हमारे दोनों बच्चे फ़िल्म गोरा और काला के जुड़वां राजेन्द्र कुमार की तरह जन्मे थे। हक़ीक़त ये थी कि प्रसव के समय पत्नी का रक्तचाप बढ़ जाने से एक बच्चा तो आसानी से बाहर आ गया था,किन्तु दूसरे का शरीर नीला पड़ जाने से वो बिल्कुल काला दिखाई दे रहा था।
मैंने उनके रंग - भेद को सुपुर्दे खाक करने के लिए ले जाते समय सफेद कपड़े में छिपा कर मिटा दिया था।
हमारेे जीवन का ये सियाह- सफ़ेद अब फ़िर से आंसुओं की तरह रंगहीन था।
पश्चाताप की थोड़ी सी करुणा पत्नी की दादी के मन में भी जागी थी कि - काश, मैं चली चलती तो शायद भगवान उन्हें छोड़ कर मुझे उठा लेता!
एक बार घर हो आने के बाद हम दोनों का ही मन थोड़ा बहल गया था और हम लौट कर कुछ सामान्य होने लगे थे।
पत्रकारिता की हमारी क्लास में लगभग सभी लोग अपने मिशन और प्रयोजन के लिए काफ़ी गंभीर थे और कोई क्लास नहीं छोड़ते थे। वो उस समय देश में पत्रकारिता का सबसे लोकप्रिय और प्रमुख संस्थान माना जाता था।
इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक एम वी कामथ भी हमारी क्लास लेने वहीं आया करते थे। उनसे वहां मेरा परिचय अच्छी तरह हुआ।
वहां हमारा पढ़ाई का माध्यम अंग्रेज़ी था,किन्तु केवल क्रिएटिव राइटिंग के पेपर में हमसे कहा गया कि हम रचनात्मक लेखन के रूप में लिखने के लिए अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा को चुन सकते हैं।
मैंने यहां हिंदी को चुन लिया।
लेकिन मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब कार्यालय ने मुझे बताया कि हिंदी पत्रकारिता चुनने वाला मैं अकेला हूं। एक - दो छात्रों ने मराठी भाषा चुनने की पेशकश की थी, जिसे कुछ विवाद के बाद स्वीकार कर लिया गया।
मुझे ये जानकर अचंभा हुआ कि केवल इसी साल नहीं, बल्कि उससे पहले भी कभी किसी छात्र ने हिंदी को नहीं चुना, इसलिए न तो वहां की लाइब्रेरी में हिंदी की पुस्तकें हैं, और न ही हिन्दी में पढ़ाने वालों और परीक्षा लेने वालों की कोई व्यवस्था है।
तब तक भवंस कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म के अखिल भारतीय स्तर पर दर्जन भर केंद्र थे, किन्तु हिंदी भाषी क्षेत्रों में कोई नहीं था।दिल्ली में भी केवल अंग्रेज़ी पत्रकारिता थी। राजस्थान में किसी भी केंद्र या विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की कोई पढ़ाई थी ही नहीं।
पहले कार्यालय स्तर पर तो मुझे मना ही कर दिया गया कि हिंदी की अनुमति नहीं मिलेगी,फ़िर कुछ वरिष्ठ लोगों से मिलने और उनके इस मामले में रुचि लेकर दखल देने के बाद मुझसे एक अंडर टेकिंग (स्वीकारोक्ति) लिख कर देने के लिए कहा गया जिसमें मुझे लिख कर देना था कि -
1. संस्थान में पूरी पढ़ाई अंग्रेज़ी में होगी, तथा परीक्षा के प्रश्नपत्र अंग्रेज़ी में आयेंगे, फ़िर भी मैं स्वयं अपनी तैयारी से हिंदी में रचनात्मक लेखन के लिए सहमत हूं।
2.कोर्स के दौरान होने वाले प्रायोगिक प्रशिक्षण के लिए हिंदी के समाचार पत्र में कार्य करने की ज़िम्मेदारी मेरी अपनी होगी, संस्थान न तो इसके लिए किसी अख़बार समूह को कोई पत्र देगा,न ही कोई भुगतान करेगा।
3. संस्थान द्वारा निर्धारित परीक्षक मुझे स्वीकार होंगे।(इसका सीधा आशय यही था कि मेरे परीक्षक अंग्रेज़ी के पत्रकार- प्रोफ़ेसर ही होंगे)
मरता क्या न करता, मैंने ये सब स्वीकार कर हस्ताक्षर कर दिए।
मुझे चिंता यही थी कि किसी भी कारण से संस्थान छोड़ने की स्थिति में सब यही समझेंगे कि आख़िर मुझे प्रवेश नहीं मिला,और मेरे मित्र समूह में इसे राजस्थान और मुंबई के स्तर का अंतर मान कर प्रचारित किया जाएगा।
क्लास में लेक्चर अंग्रेज़ी में होते, लाइब्रेरी से अंग्रेजी की किताबें लेकर पढ़ता किन्तु हिंदी में अपने आलेख और कुछ रचनाएं लिखता। ये मेरे लिए सहज था क्योंकि मैं हिंदी में आलेख लिखता ही रहा था।
मेरे लिए हिंदी में लिखना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना, हिंदी प्रदेशों की स्थिति और हिंदी माध्यम वाले विद्यार्थियों की समस्याओं, बाधाओं और चुनौतियों पर लिखना।
मेरे कुछ साथी कहते कि तुम अंग्रेज़ी के लिए, अंग्रेज़ी में लिखो, इससे पैसा भी मिलेगा और मान्यता भी। पर मेरा मन कहता था कि बचपन से ही हिन्दी ने मुझे सम्मान दिया है और अब यही मुझे इसे लौटाना है। लिखने से पैसा कमाने की बात मेरे दिमाग़ में कभी नहीं आई, सपने में भी नहीं।
कभी - कभी क्लास में अपने लिखे आलेखों को पढ़ना होता था,फ़िर सब उस पर प्रश्न या समीक्षा करते।
अब कभी - कभी मैं अपने आलेख और अन्य रचनाओं को छपने के लिए पत्र - पत्रिकाओं में भेजने लगा था। अख़बारों के पते अब संस्थान के पुस्तकालय में आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। वहां हिंदी की पुस्तकें या पत्रिकाएं तो नहीं होती थीं, किन्तु किसी न किसी पोस्टर, विज्ञापन या सूची पत्र आदि से उनके संपर्क ज़रूर मिल जाते थे।
अपने स्कूली दिनों में मैंने देखा था कि राजस्थान में बच्चे इंग्लिश के अख़बार नहीं पढ़ते थे, वो पत्रिकाएं भी हिंदी की ही देखते थे। अतः मन में कहीं न कहीं ये भावना होती थी कि मेरे शहर के लोग कहीं अख़बार या पत्रिका में मेरा नाम पढ़ेंगे तो उसे ज़रूर ध्यान से देखने की कोशिश करेंगे।
जब मैं क्लास में अपना आलेख पढ़ता तो कोई भी व्यक्ति कोई सवाल नहीं पूछता था। इसका एक कारण तो ये था कि तब तक मेरे आलेख हिंदी की बड़ी माने जानी वाली पत्रिकाओं - सरिता, मुक्ता, नवनीत, माधुरी और नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान जैसे अखबारों में छपने लगे थे, दूसरे अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े छात्र हिंदी बोलने में कुछ झिझकते भी थे। कुछ छात्र- छात्राएं अंग्रेजी में मुझे बधाई ज़रूर दे देते थे क्योंकि प्रवेश परीक्षा में टॉप करने के कारण वे मेरा सम्मान भी करते थे।
हमारे संस्थान की एक गृहपत्रिका भी निकलती थी, जिसमें मेरा आलेख अंग्रेज़ी में ही छापा गया। पर एक पारसी छात्र ने हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बताते हुए सम्मान देने की बात कहते हुए आलेख लिखा जो उसने मुझे गर्व से दिखा कर पत्रिका में अंग्रेज़ी में ही छपवाया। दरअसल उस समय हिंदी में मुद्रण की सुविधा हमारे कॉलेज में नहीं थी। मैंने भी उसे बधाई दी।
मैंने क्योंकि लेखन की शुरुआत विधिवत सीख कर की थी, इसलिए मैं लेखन के आधारभूत नियमों का पालन भी आसानी से कर लेता था। मसलन,एक रचना एक ही पत्रिका को भेजना, रचना की मौलिकता का ध्यान रखना, भेजने से पहले जिस पत्रिका में भेज रहे हैं, उसके किसी अंक को पहले देख लेना आदि।
मेरी रचनाओं की पहली पाठक अक्सर मेरी पत्नी ही हुआ करती थी।
जल्दी ही मेरी रचनाएं बड़ी संख्या में छपने लगीं। कई पत्रिकाएं पहले स्वीकृति भेजती थीं,कई सीधे रचना को छाप कर ही भेज देती थी। कई पत्रिकाओं से रचना का मानदेय भी आता था। कभी चैक आते, कभी मनी ऑर्डर्स।
अब मेरे आसपास रहने वाले लोग, ऑफिस के मित्र, पत्नी के ऑफिस के लोग ये जानने लगे थे कि मेरी रचनाएं बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं तो उनकी दिलचस्पी मेरे लेखों को छपने से पूर्व पढ़ने में भी रहती थी।
किन्तु इसे मैं पसंद नहीं करता था। मैं यही चाहता था कि लोग उन रचनाओं को छपने के बाद ही पढ़ें। अपने खास मित्रों को तो मैं ये कह कर समझा देता था कि तुम किसी को तैयार होने के बाद देखना चाहोगे,या तैयार होते समय,उसके चेंज रूम या ग्रीन रूम में?
शायद मेरे ऐसा चाहने के पीछे भी कुछ कारण थे।
एक कारण तो ये था कि कई बार पत्रिकाओं के संपादक रचना में शीर्षक या और किसी सामग्री का बदलाव भी कर देते थे। ऐसे में लोग लेख को पढ़ने की जगह इसी बात पर ज़्यादा चर्चा करते कि रचना में क्या बदला गया है,जिससे मुझे भारी खीज होती। क्योंकि मैं अपनी रचनाओं में कुछ ऐसे प्रयोग किया करता था, जिनमें मैं खुद ये पहले से जानता था कि ये बात या चीज़ बदली जाएगी। ये मेरी रचनात्मकता का "ट्रेड सीक्रेट" था, जिसे मैं आसानी से किसी के लिए जाहिर करना पसंद नहीं करता था।
अब आप पूछेंगे कि यदि मैं खुद ये जानता था कि ये बात बदल दी जाएगी, या हटा दी जाएगी तो मैं उसे लिखता ही क्यों था, या पहले ही बदल या हटा क्यों नहीं देता था?
इसका उत्तर भी दूंगा। लेकिन अभी नहीं, यथा समय।
इस कोर्स के दौरान या तो किसी अख़बार में डेढ़ महीने प्रशिक्षु(ट्रेनी) के रूप में काम करना पड़ता था, या किसी एक विषय पर किसी प्रोफ़ेसर, संपादक या पत्रकार की गाइडेंस में एक लघुशोध करना पड़ता था। इस कार्य का मूल्यांकन होता था और इसमें मिले मार्क्स अंतिम रूप से डिग्री के लिए जोड़े जाते थे।
हिन्दुस्तान, जनसत्ता और नवभारत टाइम्स बड़े अख़बार थे पर उनमें ट्रेनीज के लिए कोई प्रावधान नहीं था। वे केवल उन्हीं लोगों को ट्रेनी के रूप में रखते थे जिन्हें वे अपने यहां नौकरी के लिए सलेक्ट कर चुके होते थे।
मैं साथियों से जानकारी कर के "दैनिक विश्वामित्र" अख़बार में बात करने के लिए गया जहां त्रिपाठी जी संपादक थे। मैंने उनके सामने अपने कॉलेज का परिचय पत्र रखा और संक्षेप में अपनी बात कही।
उन्होंने उपेक्षा से परिचय पत्र को हटाते हुए कहा- हमारी रुचि ऐसे विद्यार्थियों को कुछ सिखाने की नहीं है जो इंग्लिश मीडियम से पढ़ते हों।
मैंने विनम्रता से कहा- सर,क्या आप बता सकते हैं कि देश में हिंदी मीडियम से चलने वाले पत्रकारिता के कॉलेज कहां - कहां हैं?
उन्होंने गहरी नज़र से मुझे देखा और कुछ नरम पड़े। फ़िर बोले- मैं जानता हूं कि हिंदी का कॉलेज कहीं नहीं है, पर अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र हिंदी को हेय समझते हैं, इसलिए हम उन्हें कुछ नहीं सिखा पाते।
मैंने उनसे कहा कि मैं इस कॉलेज का पहला छात्र हूं जिसे क्रिएटिव राइटिंग हिंदी में करने पर भी प्रवेश मिला है। मैंने कुछ बड़ी पत्रिकाओं में छपे अपने लेख भी उन्हें दिखाए।
वे बोले- अच्छा,कुछ दिन बाद आना, बात करेंगे।
पर मेरा मन उनके व्यवहार और संकीर्ण सोच से खट्टा हो चुका था। मैं वहां फ़िर नहीं गया।
मुझे ये सोच कर बुरा लगा कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है मानो मैं किसी और देश में पढ़ाई करने निकला हूं,भारत में नहीं। मुझे ये भी महसूस हुआ कि कहीं- कहीं अंग्रेज़ी वाले हिंदी को उपेक्षा से नहीं देख रहे बल्कि खुद हिंदी वाले हीन भावना से ग्रस्त हैं।
बाद में मैंने अपना लघु शोध नवनीत पत्रिका के तत्कालीन संपादक की देखरेख में "पत्रकारिता में मौलिक मेधा और प्रशिक्षित प्रतिभा का तुलनात्मक अध्ययन" विषय पर किया। मैंने इस विषय पर कुछ संपादकों से बातचीत भी की।
एक दिन मेरी पत्नी ने बताया कि उनके संस्थान से भी एक पत्रिका निकलती है जिसमें वैज्ञानिक विषयों पर आलेख रहते हैं।
मैंने कहा कि फ़िलहाल मैंने जो भी पत्रिकाएं चुनी हैं वे सभी साहित्यिक पत्रिकाएं हैं,अतः उनमें वैज्ञानिक विषयों की पत्रिका को शामिल करना न जाने परीक्षकों को कैसा लगेगा?
पत्नी ने कुछ सोचते हुए तत्काल कहा- शायद उस पत्रिका के संपादक यहां नज़दीक ही रहते हैं। वे खुद हैं तो वैज्ञानिक ही, किन्तु वो अपनी एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते हैं, मैंने उनकी पत्रिका की प्रति अपनी लाइब्रेरी में देखी है।
मैंने कहा - तो उनका पता और संपर्क नम्बर मुझे देना, मैं उनसे भी मिलूंगा और अपने शोध प्रोजेक्ट पर बात करूंगा।
अगले रविवार को ही उस पत्रिका के संपादक माधव सक्सेना अरविंद और मैं चेंबूर के एक कॉफी हाउस में आमने- सामने बैठे थे।
पत्रिका का नाम था - कथाबिंब !
मैंने उनसे पूछा- आप वैज्ञानिक होते हुए भी हिंदी साहित्य की पत्रिका निकालते हैं!
वो बोले- आप भी तो बैंकर होते हुए हिंदी साहित्य में लिखते हैं।
हमारा परिचय तेज़ी से आत्मीयता, मित्रता और सहकर्म की पायदान चढ़ता गया और उन्होंने मुझे अपनी पत्रिका का सहायक संपादक नियुक्त कर दिया।
आर के स्टूडियो के पीछे वसंत सिनेमा के पास उनकी एक प्रिंटिंग प्रेस भी थी, जहां पत्रिका छपती थी। मैं कुछ समय बाद कभी - कभी वहां जाने लगा।
उनके साथ बातचीत और कार्य करने के दौरान मैंने हिंदी के साहित्यिक लघुपत्रिका आंदोलन के बारे में काफी कुछ जाना। वो स्वयं पत्रिका के प्रधान संपादक थे और उनकी धर्मपत्नी मंजु श्री पत्रिका की संपादक थीं।
उनसे नज़दीक ही रहने के कारण घनिष्ठता बढ़ती गई जो पारिवारिक संबंधों में बदल गई।
प्रिंटिंग और संपादन के बारे में काफी जानकारी मुझे उनसे मिली।
कुछ दिन बाद पत्रकारिता पाठ्यक्रम का मेरा रिज़ल्ट आ गया। मुझे अखिल भारतीय स्तर पर स्वर्ण पदक मिला था। देखते- देखते एक नई सनद मेरे हाथ आ गई।
इस कोर्स के बाद मेरा कई प्रकाशन समूहों, पत्रिकाओं और चैनलों से संपर्क भी हुआ।
मेरे इस बैच के सब साथी लोग देखते- देखते कई अख़बारों में चले गए।
लेकिन कुछ पत्रकार- लेखक मित्रों ने मुझे ये सलाह भी दी कि जिस पेड़ के फल खाने की इच्छा हो,उस पर घोंसला कभी मत बनाना। मतलब ये, कि कोई और नौकरी करते हुए इन समूहों में लिखोगे तो ये हाथों हाथ लेंगे,पर इनके मुलाजिम बन कर कलम चलाई तो चलाते रहो... चलाते रहो... कोई नहीं पूछने वाला!