School, teacher kitaab se aage books and stories free download online pdf in Hindi

स्कूल,टीचर किताब से आगे

आज सुबह से चारों ओर कोहरा छाया हुआ था मंदिर के सामने फैले बड़े से उद्यान के एक शेड के नीचे वे शांत बैठे कुछ सोच रहे थे तभी एक दो लोग मंदिर की सीढ़ियों से उतर कर सीधे उनके पास चले आए और उनकी ओर जिज्ञासा से देखने लगे । एक सज्जन कहा ,,, महाराज ज्ञान आखिर है क्या ? क्या तथ्यों को दिमाग मे भर लेना ज्ञान है ? क्या किसी किताब को रट लेना ज्ञान है ? उनके सवालों को ध्यान से सुनकर उन्होंने बोलना शुरू किया ।

....वस्तुतः ज्ञान असीमता को जान लेना है । संस्था,शास्त्र और गुरू अर्थात स्कूल,किताब और टीचर का महत्व तो शिक्षा दीक्षा के लिए आवश्यक है किन्तु, ज्ञान की यात्रा में आगे जाने के लिए नही । शास्त्र क्या,क्यों और कैसे को बताता है पर वो किस तरह है उसे गुरू समझाता है । शास्त्र विचारों में उलझा देता है । संस्था आचार संहिता और अनुशासन तय करती है । किन्तु संस्था एक प्रबल जिज्ञासु को नियम कायदों में उलझा सकती है और यदि उसमे उलझे तो केवल आचार व्यवहार पर निर्भर हो जाएंगे ।

अब सवाल ये है कि क्या हमको शास्त्र और संस्था दोनों से बचना चाहिए तो इसका एक उत्तर है कि सामाजिक होने के कारण जीवन में दोनो की आवश्यकता है किन्तु जब समझ पैदा हो जाय तो उससे परे हो जाने में ही भलाई है । क्योंकि यदि उसके प्रभाव में भीगे रहे तो नई राहें और भी हैं इसका पता कैसे चलेगा । साथ ही जिस पूर्णता को पाना चाहते हैं वो कैसे मिलेगा ? तो कहने का मतलब ये कि इनका अवलंबन प्रारंभिक तौर पर आवश्यक है और विकल्प कोई भी अपनाए जा सकते हैं ,किन्तु ये सफर के अंत तक नही हैं । अतएव अवलंबन होना है पर चेतना पर चोट कैसे पड़े यह मुख्यबात है ।

यात्रा अध्यात्म को पाने के लिए हो और आध्यात्म मिल जाने पर शास्त्र और संस्था दोनो छूट जाते हैं । ऐसा भी है कि बिना किसी शास्त्र और संस्था के कबीर उपल्ब्ध हो जाते है क्योंकि उनका विश्वास ज्ञान की छाया है । पूर्ण उपलब्ध व्यक्ति एक आसामाजिक प्राणी होता है क्योंकि वैराग्य की स्थिति का अर्थ ही सबसे विरक्त होना है । कबीर कहते है दुनिया हुई बड़ी सयानी मै ही इक बौराना.... किन्तु करूणा और दया के कारण लोक कल्याण के लिए उनकी भूमिका निश्चित हो जाती है । वे लोक कल्याण के लिए स्वयं को नीचे लाते है पर दुखद ये भी है कि आज के तथाकथित बाबाओं के चरित्र का ताना-बाना लोक कल्याण के हेतु नही वरन स्वकल्याण के निमित्त है ।

गुरू भीतर की जिज्ञासा और प्यास को पहचान लेता है, वो उसका सही उपचार करता है और किस दिशा में जाना उचित होगा यह निश्चित करता है । किन्तु गुरू का गुरू कोई हो यह जरूरी नही । गुरू तो अपने भीतर से भी प्रकट हो सकता है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस हैं । श्री रामकष्ण स्वयं की प्रबल जिज्ञासा को गुरू बना लेते हैं उनके लिए शास्त्र और संस्था दोनो गौण है ,उन्होने एक स्थान पर कहा है कि--शास्त्रादि लेकर विचार कब तक के लिए है ? - जब तक ईश्वर के न हों । भौंरा कब तक गुंजार करता है ? जब तक वह फूल पर बैठता नहीं । फूल पर बैठकर जब वह मधु पीने लगता है तब फिर गुनगुनाता नही । वे अपनी या़त्रा इन दोनो के बगैर पूरी करते है । किन्तु , करूणा और दया से अज्ञानी और दीन - हीनों के कल्याणार्थ शास्त्र और संस्था चलाने के लिए स्वामी विवेकानंद जैसा शिष्य तैयार करते हैं । स्वामी विवेकानंद के लिए यह महत्वपूर्ण रहा कि गुरू मिल जाय । और जब गुरू मिल जाय तो शास्त्र और संस्था की क्या जरूरत है ? वे सिर्फ लोक कल्याण के लिए शास्त्र और संस्था बनाते है । वे दुनिया को बताते है कि रास्ता तो तुमसे ही शुरू होगा किन्तु उसे पहचानने की विधि गुरू बता सकता है । वो ले जाता है शास्त्र और संस्था से परे उस परिपूर्णता की ओर,उस सत्य की ओर, जिसे महसूस किया जा सकता है किन्तु अभिव्यक्त नही । गूंगा गूड़ का स्वाद क्या बताएगा । भगवान बुद्ध की भी प्रबल जिज्ञासा उनकी वैराग्य और साधना की प्रेरणा है ,वे समझ गये कि पूर्णता यहॉं नही है । बुद्ध - शास्त्र,संस्था और गुरू तीनो से परे हैं किन्तु स्वयं उपलब्ध होने के बाद वे औरो के लिए रास्ता बनाते हैं । अंततः सभी का सार संदेश यही है कि उनका अवलंबन करके उसके नही हो जाना है, स्वयंप्रकाशित होना है। यह प्रकाश समर्पण, सेवा, भक्ति, जिज्ञासा, उपासना,जप-तप और सतत खोजने के साहस जैसे खुद के प्रयासों से मिलता है।
ऐसा कहकर वे मौन हो गए आज की चर्चा के सार से तृप्त हो वे दोनों उनका चरण स्पर्श कर वहां से चले गए। सूर्य भगवान की सुनहली किरणे मंदिर के द्वार पर पड़ रही थी । वे देर तक उन किरणों को प्रभु चरणों का स्पर्श करते देखते हुए अपने आप मे खो गए ।