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मुहब्बत ज़िंदाबाद!

मुहब्बत ज़िंदाबाद!

राजकुमार सोनी के लिए

कैलाश बनवासी

कहानी शुरू हो इससे पहले ये तफ़सील ज़रूरी है...

पिछले दस बरसों में जितना बदला है यह देश उतना शायद कभी नहीं।

बदलाव एक प्रक्रिया है, चलती रहती है, चलती रहनी चाहिए। लेकिन इन सालों में देश ने जो छलांग लगाई है वह अभूतपूर्व है-इसे ही उŸार-आधुनिक स्थिति बता रहे हैं उŸार-आधुनिक चिंतक। महानगरीय संस्कृति अब सिर्फ़ महानगरों की बपौती नहीं रही, वह तमाम गाँवों-क़स्बों तक फैल चुकी है-वाया मीडिया और वाया भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाज़ारीकरण। सिर्फ़ टीवी या अख़बार रंगीन नहीं हुए, उनकी रंगीनी भारतवर्ष में चहुँ ओर बरसने लगी है-नए लोग, नए विचार, नई टेक्नालाजी, नई भाषा, नई नैतिकता... गरज कि सब कुछ में एक ऐसा नयापन भर गया है जो नए आकर्षक गिफ़्ट पैक सा हो चला है। यानी जीवन की तमाम जगहों से सादगी को मंच से धकेलकर चकाचक वैभव और ग्लैमर क़ाबिज़ हो गया है। ग्लोबलाइज़ेशन की चमक से चकाचैंध!

जब यह सारे मुल्क में हो रहा है तो ज़ाहिर है मेरे इस छोटे शहर में भी हो रहा है। इस फ़ैशन और बदलाव के तेज़ी से होने की वजह नगरवासी मीडिया वगैरह को तो मानते ही हैं, लेकिन एक और कारण मानते हैं जिसकी वजह से यह यहाँ दिन-दूनी रात चैगुनी के हिसाब से फैला। और वह है बी. आई. टी. यानी बाफना इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नालाजी का खुलना। इसका खुलना हुआ और नगर की हवा का फ़ैशन से संक्रमित हो जाना हुआ। इस प्राइवेट संस्थान की पेइंग सीट पर जगह-जगह के रईसों के बेटे-बेटियों का आ जाना हुआ। इन बेटे-बेटियों ने अपनी चुस्त पोशाक़ों से इस सुस्त शहर की चाल बदल दी। शहर एकाएक उŸार-आधुनिक होने लगा। ये अमीरज़ादे यहाँ की मंद हवा में बाज़ार की तूफ़ानी हवा लिए दाखि़ल हुए-मोबाइल, मोटरसाइकिल, जींस, टाॅप, पिज्जा, बर्गर, पेप्सी इत्यादि लिए हुए।

कुछ साल पहले खुले इस प्राइवेट इंस्टीट्यूट और उसके तथाकथित ब्रिलिएंट स्मार्ट छात्र-छात्राओं ने एक बार फिर प्रमाणित किया कि पैसा आता है तो अपनी संस्कृति भी साथ लाता है।

हुआ यह कि देखते-ही देखते इस संस्थान के चारों ओर दुकानों और विज्ञापन होर्डिेग्स की बाढ़ आ गई-बिल्कुल बदले हुए अंदाज़ में, एम. टी. वी. स्टाइल में। विज्ञापन चाहे जूते का हो, चश्मे का हो, जींस का हो या कोल्ड ड्रिंक्स का- उन सबमें एक बात समान थी कि उनमें सारे पुरूष माॅडल्स कमर तक नंगे थे, और लड़कियाँ महज़ चोली टाइप कुछ पहने थीं। अपने स्तनों की बनावट और कसावट में एक-दूसरे से होड़ लेती हुईं। आलम यह था कि देखनेवालों की नज़र उन चीज़ों या दुकानों के नामों पर नहीं, इनकी देह पर ठहर जाती थी और इन विज्ञापनों में पेश मुद्राओं की बात करें तो ये वात्सायन महाराज या खजुराहो के शिल्पियों की कल्पनाओं से भी परे थे-इस कदर हाॅट। जूते के विज्ञापन में अपनी नंगी देह पर अजगर लपेटने वाली मधु सप्रे को तो आपने देखा होगा, यहाँ उससे होड़ लेती कामुक मुद्राएँ थीं।

यह हमारे चारों तरफ नग्नता, कामुकता, विकृतियाँ और भोगवाद फैलने का समय था-दुनिया का चाहे जो हो जाय... कोका कोला एंजाॅय!

तो यह न्यू जनरेशन शहर को नई संस्कृति सिखा रही थी। लड़के-लड़कियों का पूरी आज़ादी से घूमना-फिरना, मौज-मजे करना, न्यू इयर या बर्थ डे खर्चीले ढंग से सेलिब्रेट करना, और न जाने कहाँ के संत वेलेंटाइन के नाम पर वेलेंटाइन डे मनाना-महँगे गिफ़्ट और कार्ड के साथ और उस संतक े नाम पर खुलेआम छूट लेना... ।

बी. आई. टी. की इन हरकतों पर काफी दिनों से मेरेे पत्रकार दोस्त विक्रम ठाकुर की टेढ़ी नज़र थी। ‘अपसंस्कृति फैला रहे हैं ये साले बाज़ार के ग़ुलाम! टपने भ्रष्ट माँ-बाप की हराम की कमाई पर ऐश करते ये नकारे घंट इंजीनियर-डौक्टर बनेंगे! सिर्फ़ अपना कैरिअर देखेंगे! और मौका मिलते ही उड़ जाएंगे न्यूयार्क, बोस्टन, वाशिंगटन-अपने आका के पास!’

थ्वक्रम इनकी चार्चा होने पर अक्सर भड़क जाता था। लेकिन यह भड़कना लाल कपड़ा देखकर किसी साँड़ का भड़कना नहीं था, इसके पीछे हमारा यथार्थ था और हमारा भविष्य भी।

ठसलिए जैसे ही इस पैंतीस-छŸाीस वर्षीय अनुभवी पत्रकार को इनके खि़लाफ़ कोई सबूत हाथ लगा, उसने इनकी इस संस्कृति पर हमला बोल दिया। जमके लिखा इस पर। असल में उसे बी. आई. टी. से सम्बन्घित एक धाँसू और इंटेरेस्टिंग स्टोरी मिल गई, जिसके आधार पर उसने अपने चार पेजी सांध्य दैनिक ‘कुरूक्षेत्र’ के फ्रंट पेज पर रितिक, शाहरूख, करीना के इन दीवनों, उनकी हाॅट एंड पाॅप कल्चर को जी-भरके कोसा, और उन्हें बाज़ारवाद का शिकार और उपभोक्तावाद का प्रवक्ता बताया।

स्टोरी की हेडिंग थी-‘नीना गुप्ता बनना चाहती है बी. आई. टी. की लड़की। ’

खूब बोल्ड लेटर में।

ख़बर के मुताबिक बी. आई. टी. में पढ़ रही और गल्र्स हाॅस्टल में रह रही फ़ाइनल इयर की एक स्टुडेंट(नाम उसने अपना व्यावसायिक हित साधने के लिए छुपा लिया था) ने ब्वायज हाॅस्टल के वार्डन और ्िरंसिपल को एक एप्लीकेशन दिया है, जिसमें उसने अनुरोध किया है कि उसे अमुक छात्र के साथ उसके कमरे में रहने की अनुमति प्रदान की जाय। कि वह उससे बेहद प्यार करती है तथा अपनी मर्ज़ी से उसके साथ रहना चाहती है।

यह सांध्य दैनिक अपनी इसी क़िस्म की धाँसू, सेंसेश्नल, धमाकेदार और मसालेदार ख़बरों के कारण लोकप्रिय और चर्चा में बना रहता था। बेशक जिसके पाठक बद्धिजीवी क्लास के नहीं, बल्कि बहुत साधारण लोग थे जो सुबह-शाम चाय दुकानों, पानठेलों या चैराहों में गपियाते मिल जाते है। ‘कुरूक्षेत्र’ में ख़बरें इन्हीं की माँग के मुताबिक़ होती है-यह बात विक्रम ठाकुर मुझे बता चुका है।

तो बहरहाल ख़बर। ख़बर को जायक़ेदार कैसे बनाया जाता है, इस कला में विक्रम माहिर है। लिहाजा बी. आई. टी. की लड़की वाली ख़बर ने सबको चैंकाया और मज़ा दिया। ख़बर में लड़की के होने भर से उसका स्वाद ‘टेस्टी’ हो जाता है, फिर यहाँ तो अत्यंत माॅडर्न और दुस्साहसी लड़की थी जो बिलासपुर के किसी कार्यपालन यंत्री की बेटी थी जो जबलपुर के एक प्राइवेट फ़र्म के मैनेजर के बेटे के साथ रहना चाहती है।

दूसरे दिन मेरा आॅफिस बंद था जहाँ मैं एकाउंट का काम देखता हूँ। वजह विपक्षियों द्वारा अपनी किन्हीं माँगों को लेकर प्रदेशव्यापी बंद का आयोजन। मेरी छुट्टी थी और मैं ख़ाली था इसलिए विक्रम के पास उसके प्रेस चला आया-उससे मिलने और बधाई देने।

दोपहर के लगभग दो बजे का वक़्त था। विक्रम अपनी टेबल पपर मिल गया।

इस समय दुर्ग ब्यूरो विक्रम और भिलाई ब्यूरो हरिमोहन सिन्हा टेबल पर आमने-सामने थे और बिल्कुल बच्चों की तरह झगड़ रहे थे बंद की ख़बर बनाने से बचने के लिए। उनके बीच तू बना-तू बना, तू देख-तू देख वाली लड़ाई थी।

विक्रम का कहना था अपने शहर में बंद जैसा कोई बंद नहीं है, जबकि भिलाई में बंद का अच्छा असर है, इसलिए तू बना, और हरिमोहन का मानना था कि भिलाई में भी बंद का ख़ास असर नहीं है, चूँकि दुर्ग जिला केन्द्र है और विक्रम यहाँ का ब्यूरो इसलिए यह समाचार उसे ही बनाना चाहिए।

अख़बार के मालिक और संपादक श्रीवास्तव जी अपनी केबिन से उनके झगड़े का मज़ा लेते रहे। दोनों के नोक-झोंक की आदत पुरानी है, वे जानते थे।

आखि़रकार हरिमोहन को झुकना पड़ा।

विक्रम ने सुझाया-यार, एस. पी. को फ़ोन लगाओ। वहाँ से डिटेल लो।

साँवले हरिमोहन ने अपनी अधपकी दाढ़ी खुजाई-अबे, अभी कहाँ मिलेगा साला एस. पी. ?घूम रहा होगा जायजा लेते।

‘‘अच्छा तो कंट्रोल रूम लगा। वहाँ से पूरी इनफ़र्मेशन मिल जाएगी। ’’

हरिमोहन ने कंट्रोल रूम का नंबर घुमाया। सी. एस. पी. माथुर मिल गए।

‘‘हाँ-हाँ, सर, मैं ‘कुरूक्षेत्र’से हरिमोहन सिन्हा बोल रहा हूँ। कहिए सर... क्या हाल है बंद का ?कितने गिरफ्तार हुए ? अच्छा... अच्छा... । ’’

समने रखे किसी रद्दी काग़ज़ पर वह सुनते-सुनते लिखने लगा,.. ‘‘हाँ सर... प्रदर्शनकारी कितने थे ? भीड़ उग्र-वुग्र तो नहीं थी... क्या? लाठियाँ हवा में लहरानी पड़ीं ? किधर ? इंदिरा मार्केट के पास ?कोई घायल-वायल ? नहीं... अच्छा! और कोई महत्वपूर्ण सूचना हो तो बताइए... अच्छा-अच्छा!... हरिमोहन जोर से हँस पड़ा, ‘ठीक है सर... थैंक्यू वेरी मच... !’’

‘‘क्या कह रहा था सी. एस. पी. ?’’ पूछा विक्रम ने।

‘‘विपक्षियों की माँ-बहन एक कर रहा थ और कह रहा था इसे भी छाप देना। ’’ फिर स्वतः बड़बड़ायाचलो यार, इŸाी जानकारी काफी है! कुछ तो कवर हो ही जाएगा... । और जैसे ही विक्रम से नज़र मिली, चिल्लाया-‘‘देख बेटा, तेरा काम मैं कर रहा हूँ। शाम को दारू पिलाना। ’’

‘‘अरे तू बना तो प्रभु! दारू की क्या चिंता करता है... वो भी अपन के रहते!’’

‘‘लेकिन आज तो बंद रहेगा ?’’ मैंने उसे याद दिलाया। ऽऽ

‘‘कोई बंद नहीं रहता, यार! सब चालू रहता है। धंधे का सवाल है बाबा!’’

हरिमोहन समाचार बनाने में एकदम व्यस्त हो गया। भीतर प्रेस की खटर-पटर से बेख़बर।

विक्रम ने मुझसे पूछा, ‘‘और क्या-क्या मार्केट है यार शहर में ? मुझको तो ठीक-ठीक पता नहीं। काम पड़ता है तो ही ध्यान में आता है। सिन्हा, लिख ले यार, अपना मित्र बता रहा है... । ’’

मैं यहाँ के मार्केट के नाम बताने लगा। हरिमोहन ने इन्हें भी नोट कर लिया।

विक्रम बड़बड़ाया-कमाल है! यहाँ तो पूरा शहर ही बाजार बन गया है। जिधर देखो उधर बाजार। साला अति हो गई है। यई साला बाजारवाद है!

आगे उसने हरिमोहन को सुझाया-हेडिंग डाल देना-बंद आंशिक सफल।

मैंने इस पर ऐतराज़ किया, ‘‘अबे बिना देखे ही... ?’’

‘‘और क्या ?’’वह जैसे मेरे अनाड़ीपन पर हँसा, ‘‘ऐसी खबरों में सब चलता है! कौन चूतिया गली-गली घूमकर अपना पेट्रोल जलाएगा फोकट में ?’’

हरिमोहन समाचार बनाने में व्यस्त हो गया।

मैंने विक्रम से कल की धाँसू स्टोरी और उसकी प्रतिक्रिया के बारे में पूछा।

‘‘अर्रेऽऽ मत पूछ! बी. आई. टी. में तो इसको लेकर बड़ा तमाशा हो गया!’’वह काफी उत्साह से बताने लगा, ‘‘जैसे ही वहाँ के लौंडों को पता चला उनके इंस्टीट्यूट के बारे में छपा है, वो पाँच-पाँच दस-दस कापियाँ खरीद के ले गए-कल शाम को ही! वो कह रहे थे-बहुत अच्छा किया सर आपने। हम ये प्रतियाँ काॅलेज की दीवारों पर चिपकाएंगे।

‘‘अच्छा। ’’ मैंने पूछा, ‘‘और वो लड़का-लड़की पहुँचे जिनकी न्यूज़ है ?’’

‘‘नहीं। अभी तक तो नहीं आए हैं, देखो शाम तक आ जाएँ तो आ जाएँ। वो आएँ तो अपने नोट-पानी का कुछ जुगाड़ हो!’’

तभी आॅफ़िस के बाहर एक हीरो होडा आके खड़ी हो गई। सवार आदमी वहीं खड़ा रहा धूप में यों ही।

हरिमोहन उसे देखकर मुस्कुराया और विक्रम से बोला , ‘‘देख, तेरा एक जुगाड़ तो आ गया!’’

विक्रम ने उसे देखा और तुरंत उठ गया, ‘‘अब्भी आया दो मिनट में। ’’

वक्रिम उस चालीसेक बरस के ‘जुगाड़’ के पास चला गया और उसे कुछ दूर एक पेड़ की छाँह में ले गया।

अपने केबिन से संपादक श्रीवास्तव जी तुरंत ‘कौन आया है’ की शंका ज़ाहिर करते निकल आए और सामने की चेयर पर विराजमान।

समझते देर नहीं लगी कि यह शातिर और काइयाँ बुड्ढा श्रीवास्तव विक्रम की जासूसी करने निकला है-किससे क्या कमा रहा है विक्रम ?

कुछ देर बाद विक्रम भीतर आया तो श्रीवास्तव जी ने बड़ी मुलामियत से पूछा , ‘‘कौन था विक्रम ?’’

‘‘अपना बड़ा भाई था श्रीवास्तव जी। ’’ विक्रम ने माजरा भाँपकर कुछ ऊँची आवाज़ में कहा।

स्ंपादक ने मुस्कुराने और फिर आश्वस्त होने का घटिया अभिनय किया, ‘‘अच्छा, तो वो तुम्हारा बड़ा भाई था ? तुमने बताया नहीं कभी ?’’

‘‘अलग-थलग रहता है। कभी काम हो तो मिलने आ जाता है। ’’

श्रीवास्तव जी को अब भी भरोसा नहीं था क्योंकि जानते हैं विक्रम बड़ी हरामी चीज़ है। कब सच कहता है कब झूठ-पकड़ पाना काफ़ी मुश्किल होता है। हालाँकि विक्रम अख़बार के ज़रिए जो कमाता है उसका हिस्सा देता है। लेकिन फिर भी नज़र तो रखनी ही पड़ती है।

‘‘अच्छा, कैसे आया था ?’’संपादक ने उसे और खोदा।

‘‘घरेलू काम से आया था श्रीवास्तव जी, वो छोटे भाई के लिए कल लड़की देखने भिलाई जाना है, इसी की ख़बर देने आया था। ’’

थ्वक्रम ने साफ़ झूठ कहा था जिसे संपादक भी जानते थे, मगर, प्रत्युŸार में ‘ठीक है-ठीक है’ कहा और बड़े बेमन से अपने केबिन में दाखि़ल हो गए।

‘‘क्यों, वह सच में तुम्हारा भाई था ?’’ मैंने पूछा।

‘‘हाँ, कल ही उसके फर्जी मेडिकल इंस्टीट्यूट के बारे में छापा था, इसलिए आज लेकर पहुँचा था। ’’ विक्रम ने अपनी जेब की तरफ़ इशारा किया।

मैं हँसा-साले अपने भाई तक को नहीं छोड़ता!

‘‘भाई है तो क्या हुआ ?विक्रम पहले जैसा ही गम्भीर बना रहा, ‘‘अपन एक चीज़ जानते हैं, दुनिया भ्रष्टाचार से कमा रही है और अपन भ्रष्टाचारियों से कमाते है। कहाँ लगे हो यार तुम भी भाई-वाई!’’उसने ज़रा हिकारत से कहा, ‘‘ये भ्रष्ट लोग साले किसी के नहीं होते। अपना ये भाई शास्त्री नगर में एक फालतू छाप अल्टरनेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूट चलाता है, जो बेरोज़गारों को-ख़ासकर देहात के दसवीं-बारहवीं पास लड़कों को डाॅक्टर बनाने का लालच देकर हज़ारों पीटता है। सब एकदम फर्जी!टोटल अवैध। इसकी उिग्री की कोई मान्यता नहीं है। भाई साब, आज लाखों से खेल रहा है वो!देखा नहीं कैसे ठाठ से हीरो होंडा में घूम रहा है! और अपन को देखो, अभी तक वही पुरानी लूना घसीट रहे हैं। ’’

‘‘कितना दिया ?’’ मैंने सीधे पूछ ही लिया।

‘‘आठ सौ। ’’ मैंने हज़ार माँगा था, साले ने आठ सौ टिकाया। ’’विक्रम की एक ख़ास बात है, अपने क़रीबी दोस्तों से वह कुछ भी नहीं छिपाता, मामला चाहे रूप्यों का हो या लड़की का -उसकी इसी साफ़गोई के तो हम क़ायल हैं।

लिखना छोड़कर हरिमोहन सिन्हा ने मुझे बताया, ‘‘दो मर्तबा और छाप चुका है उसके बारे में। ’’

‘‘हाँ। ’’ विक्रम ने स्वीकार किया, ‘‘तुम यक़ीन नहीं करोगे इस पर, असल में तब मेरे को किसी नौकरी के लिए अप्लाई करने के लिए कुछ रूपयों की ज़रूरत थी। मैं गया इसके पास, पर साफ़ मना कर दिया इसने-जबकि पैसे थे इसके पास। जब नहीं दिया तो अपना भी भेजा फिर गया! उठा के छाप दिया इसके इंस्टीट्यूट की असलियत। जब छापा तो भागा-भागा आया और हज़ार रूपाया दे गया। साला ये कोई भाई है! चार-छह महीने बाद फिर छाप दिया तो छह सौ दे के गया। तो अपन को जब-जब मनीराम की ज़रूरत होती है, छाप देते हैं। बड़ा सीधा मामला है। ’’

हरिमोहन ऊपरी तौर पर उसके भई के साथ सहानुभूति जताते हुए बोला, ‘‘तुम यार बड़ा परेशान करते हों उसको। अच्छा आदमी है। बिचारा... देखो इतनी तेज़ घूप में दौड़ा-दौड़ा तुम्हारे पास आया था। ’’

‘‘अरे काहे का बिचारा!’’उसने अपने भाई को गाली दी, ‘‘साला भोले-भाले गरीब बेरोजगारों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है, तुम ये नहीं देखते ? सिर्फ चार साल में उसने इतना कमा लिया है कि उसके बाल-बच्चे कुछ न करें तो भी बैठे-बैठे खा सकते हैं! हम यार ऐसे भ्रष्ट लोगों के खिलाफ है। नगर के सारे भ्रष्ट लोगों की लिस्ट अपने पास है। इनका बस चले तो साले देश को बेच खाएँ!’’बोलते-बोलते विक्रम जैसे उखड़ गया, मूड ख़राब हो गया उसका।

हम लोगों के बीच एक सख़्त चुप्पी घिर आई।

सिर्फ़ प्रेस मशीन की वही खटर-पटर वातावरण को बोझिल बना रही थी।

‘‘चल यार, ’’उसने सहसा मुझसे कहा, ‘‘चाय पीके आते हैं। बड़ी बोरियत हो गई इधर। ’’

हम निकल पड़े। चाय के लिए चैक तक हम पैदल ही गए। बमुश्किल पाँच मिनट का रास्ता था।

चैक में लगभग सभी दुकानें खुली थीं। बंद का वैसा कोई असर नहीं दिखता था। हम एक होटल में चले आए।

‘‘देखो यार’’, चाय पीते हुए वह कहने लगा, ‘‘ये बंद-वंद की न्यूज़ में कुछ नहीं धरा है। बेकार की भागा-दौड़ी है साली। कोई फायदा नहीं!’’उसका चेहरा इस काम के लिए गहरी विरक्ति से भर उठा। ‘‘तुमने देखा हरिमोहन को, ’’ उसने कहना जारी रखा, ‘‘देखा कैसे जी-प्राण एक करके लिख रहा है। मैं भी ऐसे ही लिखा करता था। आगे चलके समझ आया, इन आलतू-फालतू चीज़ों को कवर करने से तुम्हारा कुछ नहीं होने वाला। बस ऐसे ही लिखते रहोगे ज़िंदगी भर! भई, अपना विŸा मंत्रालय भी तो सुधरना चाहिए!इसलिए अब अपन ख़ाली अपने इन्ट्रेस्ट की चीज़ों पर ध्यान देते हैं-जिसमें कुछ संभावना हो, जिनसे कुछ-न-कुछ चसूला जा सके। अपन ने अब तय हर लिया है। ’’

चय के दौरान मैं उसे सिर्फ़ सुनता रहा। -चुपचाप। मैंने ध्यान दिया, उस समय उसकी आवाज़ एकदम खुली और साफ़ थी, और बिल्कुल ठोस-लोहे -सी खनकती हुई। यह आवाज आदमी के किसी फैसले पर पहुँचने से निकलने वाली आवाज़ थी-फ़ैसला सही है या ग़लत, उचित है या अनुचित-इस द्वंद्व से दूर, निर्मम और किंचित क्रूर भी।

मैंने उससे कुछ नहीं कहा। उससे कुछ भी कहना अपनी उन्हीं बातों को उसके सामने फिर से दोहराना

होता-जिनसे उसे आदर्शवा की बू आती है। और वह अपने उस फ़ैसले पर पहुँच चुका था जो उसके अपने अनुभवों ने सिखाया है।

मैं यह भी जानता था कि सारी अच्छाइयों को अपना लेने के बाद भी उसका मालिक उसकी पंद्रह सौ रूपए महीने की पगार में एक रूपया नहीं बढ़ाने वाला।

हमें लौटे हुए कुछ ही समय बीता था कि वे दोनों आ गए।

वे दोनों यानी लड़का और लड़की।

पहले दनदनाते हुए दोनों संपादक की केबिन में घुस, वहाँ से तेज़ आवाज़ में जाने क्या-क्या बातें हुईं, वे गुस्से से तमतमाए अब विक्रम की टेबल के सामने थे।

‘‘आप ही हैं विक्रम ठाकुर ?’’ लड़की की आवाज़ ही नहीं, पूरा शरीर काँप् रहा था गुस्से से।

विक्रम शांत था, जैसे उसको इसका पूर्वानुमान हो। उसने एक नज़र इन माडनर्् लड़के-लड़की को देखा-अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि।

‘‘जी हाँ, मैं ही हूँ। कहिए... मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?’’

विक्रम के संयत लहजे और ‘सेवा’ शब्द ने उन्हें तिलमिलाया।

‘‘देखिए... हम बी. आईऋटी से आए हैं... हम वही हैं जिनके बारे में आपने कल खूब ऊल-जलूल छापा है। ’’

‘‘अच्छा! तो आप हैं मिस निधि सक्सेना!’’

‘‘ओह... यू नो मी। आपने ये क्या उल्टा-सीधा छापा है हमारे बारे में ? आपकी इतनी हिम्मत कैसे हुई ? पत्रकार हो गए इसका ये मतलब नहीं कि जो जी चाहा छाप दिया!’’लड़की बिफर पड़ी।

‘‘देखिए, मैंने जो कुछ छापा है उसके मेरे पास ठोस सबूत हैं। ’’ विक्रम बोला।

‘‘कहाँ से लाए आप वो सबूत ? किसने इन्फार्म किया ?’’ लड़का भी तैश में था।

‘‘किŸाी इंसल्ट हो रही है इससे मेरी!’’ लड़की अपने कंधे तक झूलते बालों को झटककर चीखने लगी, ‘‘मैं तुमको कोर्ट में घसीटँूगी। समझ क्या रखा है तुमने अपने आपको ?सारे लड़के-बास्टर्ड- तुम्हारा पेपर काॅलेज की दीवारों पर चिपकाते घूम रहे हैं। मैं तुमको छोड़ने वाली नहीं हूँ। हाउ डेयर यू राइट दिस बकवास ?’’

‘‘तो ठीक है, जाइए आप कोर्ट में। यहाँ क्यों आई हैं ?’’

‘‘वो तो जाऊँगी ही! तुमको कोई समझ नहीं है। हम आपस में प्रेम करते हैं... यू नो... वी लव इच अदर... और तुमने इसे मज़ाक की चीज़ बना दिया!’’लड़की का सुनहरी कमानी का चश्मा नाक की नोक तक खिसक आया था।

‘‘साॅरी मैडम’’, विक्रम ने कहा, ‘‘जिसे आप अपना प्रेम कह रही हैं , मेरी नज़र में एक सौदेबाज़ी है, डीलिंग है। ’’

‘‘व्हाॅट ? व्हाॅट नानसेंस!’’

लड़की एकदम बौखला गई, ‘‘ व्हाॅट डू यू मीन बाई दिस सौदेबाज़ी ?’’

‘‘जी हाँ। ’’ विक्रम उसी तरह बोल रहा था, ‘‘आप प्रेम नहीं, सौदा करती हैं। और ये लड़का भी प्रेम नहीं सिर्फ़ सौदा करता है। आपने अपने प्रेम के लिए इस लड़के को ही क्यों चुना ? इसलिए कि यह मैनेजर का बेटा है, खूब रईस है, पैसे वाली पार्टी है! आपने किसी दूसरे को क्यों नहीं चुना... ?’’

‘‘ये हमारा पर्सनल मामला है। ’’ लड़के ने उसे टोकने की कोशिश की।

‘‘हाँ, पर्सनल है। समझ रहा हूँ और इसकी पाॅलिटिक्स भी समझ रहा हूँ। तो तुमने किसी और को क्यों नहीं चुना ?और लड़के ? ग़रीब लड़के ?लेकिन ग़रीब तो प्यार के क़ाबिल नहीं होते, क्यों ?’’

मैं विक्रम को देख ज़रूर रहा था किंतु समझ नहीं पा रहा था कि इसका कम्युनिस्ट एकाएक कैसे जाग पड़ा, और कैसे हावी हो रहा है इसका सर्वहारा का अधिनायकत्व ?

लेकिन वह अपनी रौ में था, ‘‘तो तुम प्यार भी हैसियत देखकर करती हो जिससे मिले तुमको सुखी ज़िंदगी और सुरक्षित भविष्य! ये आपका प्रेम-वेम नहीं, सोचा समझा खेल है... एक वेल प्लान्ड बिज़नेस है आपका प्रेम! समझीं ?’’

‘‘आपको प्रेम की कोई समझ नहीं। आप कुछ नहीं समझते। ’’लड़की लगभग रोने लगी, ‘‘आपको किसी की भवनाओं की कोई क़दर नहीं। ’’

‘‘छोड़ो ये प्रेम की परिभाषा। काम की बात करो। विक्रम ने अपना दाँव अब फेंका। ‘‘चाहता तो मैं तुम दोनों के नाम दे सकता था, तुम्हारे माता-पिता का नाम दे सकता था। लेकिन मैंने बहुत सोच समझ के ऐसा नहीं किया। ’’

वे दोनों उसे हैरान होकर देखने लगे।

‘‘चलिए, बाहर चलते हैं, खुली हवा में। खुली हवा में खुलकर बातें होंगी। ’’ विक्रम उठा। उसने मुझे भी साथ ले लिया।

स्चमुच भीतर काफी गर्मी और घुटन महसूस हो रही थी। बाहर जनवरी की ढलती हुई धूप थी-सुनहली, धीरे-धीरे साँझ की तरफ बढ़ती हुई।

हम चलकर फिर उसी होटल में पहुँच गए। इस बार धंधे के लिए।

हम होटल की कोने वाली टेबल पर थे। दूसरों से कुछ हटकर।

विक्रम ने यहाँ सीधे कहा, ‘‘देखो बंधु, ये क़िस्सा यहीं ख़त्म किया जा सकता है-अगर तुम चाहो। ये आपस की बात है-म्युचुअल अंडरस्टेंडिंग। और बता दूँ तुमको, उस आर्टिकल में तुम दोनों के बारे में सिर्फ़ एक पैरा लिखा है... चाहता तो बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा के, मिर्च-मसाला लगा के लिख सकता था... लेकिन मैंने ज्यादा फोकस तुम्हारे काॅलेज में पनपती नंगी आधुनिकता को किया है... वो वेलेंटाइन डे पर खुलेआम चुम्मा-चाटीकृगिफ़्ट वगैरह... इस पर ज्यादा लिखा है मैंने। ’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, सर। ’’ लड़के ने सहमति जताई।

‘‘तो मेरी तरफ से डन! आगे से नहीं छपेगा तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के बारे में। समझदारी से मामला यहीं निबटा दो। ’’ विक्रम बोला।

लड़के के चेहरे से लगा, वह किसी असमंजस में फँसा है।

‘‘कितना रूपया तुम लोग फालतू में खर्चा करते हो। हजारों फूंक देते हो। अब अपन तुम्हारे साथ सहयोग कर रहे हैं तो तुमको भी समझना चाहिए। ’’

लड़के ने एक बार लड़की की तरफ़ देखा, फिर कहा, ‘‘हम जरूर आपको सहयोग करते, सर... लेकिन अभी हम बहुत मुश्किल में हैं... । ’’

‘‘कैसी मुश्किल ?’’

‘‘आपको शायद इसका पता नहीं होगा... हम दोनों ने शादी कर ली है। अपने पैरेंट्स की मर्जी के खिलाफ। ’’

‘‘अरे ऽऽ ? कब ?’’ अब विक्रम ने मुँह फाड़ लिया।

‘‘अभी नवंबर में... दो महीने होने जा रहे हैं... । आपको इसका भी पता नहीं होगा कि हमें हमारे माता-पिता ने घर से निकाल दिया है... उन्हें ये शादी बिल्कुल पसंद नहीं। ’’

‘‘ ऐसा ?’’

‘‘हाँ, दो महीनों से हमारे पैसे नहीं आ रहे... उन्होंने भेजना बंद कर दिया है... इसलिए हम लोग इधर एकदम तंगहाल हैं। हम दोनों ही इधर ट्यूशन पढ़ा रहे हैं... और दोस्तों के भरोसे चल रहे हैं... एक दोस्त ने अपनी पुरानी स्कूटर प्रेजेंट की है... वही स्कूटर जिससे हम यहाँ आए हैं... । ’’

‘‘... और सर, वो एप्लीकेशन भी मैंने अपनी बेवकूफी में लिख डाला था, ’’ लड़की ने विक्रम को बताया, ‘‘एक्चुअली मैंने सोचा था ऐसा करने से हाॅस्टल का किराया बच जाएगा... एक आदमी का... । ’’

‘‘आप हमारी कंडीशन समझ रहे हैं न... ? वी आर वेरी साॅरी... रियली वेरी साॅरी... प्लीज़... ’’, लड़का एक तरह से गिड़गिड़ाने लगा था।

विक्रम चुप था। बिल्कुल ख़ामोश। अपने बड़बोलेपन की आदत के एकदम विपरीत। अपने भीतर ही कहीं डूब गया था वह।

और अचानक वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘ तुम लोग रूकोगे यहीं। मैं अब्भी आया। जाना नहीं कहीं!’’ और बाहर निकल गया।

पाँच मिनट के भीतर ही वह लौट आया। उसके हाथों में एक गुलदस्ता था-ख़ासा बड़ा और सुंदर।

उन्हें गुलदस्ता प्रजेंट करते हुए वह ख़ूब जोश से भरा हुआ था, ‘‘ यार, तुम दोनों ने वाक़ई प्रेम किया है... सचमुच! म्ुझे माफ़ कर देना जो मैं तुम दानों को ग़लत समझे रहा। भई मान गए! ये तुम दोनों को मेरी तरफ से!’’ और उसने खु़श होकर ‘इन्कलाब जि़्ान्दाबाद’ की स्टाइल में हाथ उठाकर नारा लगाया, ‘‘मुहब्बत जि़्ान्दाबाद!’’

लड़का-लड़की दोनों हैरान! उसे समझने की कोशिश कर रहे थे।

विक्रम सिर्फ़ इतने पर ही नहीं रूका, उसने कहा, ‘‘अभी हम लोग होटल मौर्या चल रहे हैं, वहीं सेलिब्रेट करेंगे!’’

और वह उनसे कह रहा था, ‘‘देखो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। लड़की, तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझो। और कैसी भी मदद की ज़रूरत हो- मुझसे कहना। मुझे बहुत ख़ुशी होगी... । ’’

और मित्रो, अगले पल मेरे सामने बहुत ‘इमोशलन सीन’ था।

मैंने देखा कि लड़की विक्रम के कंधे से लगकर रो रही है.. एकदम धार-धार! और लड़का उसके पैर छू रहा है... ।

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