Is Dasht me ek shahar tha - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

इस दश्‍त में एक शहर था - 15

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(15)

अब मौका है कालिका प्रसाद के सबसे छोटे बेटे यानि डाक्टर त्रिलोकीनाथ की शादी का। पिछले जमाने में होता यूं था कि पिछली पीढ़ी के यानि चाचा की शादी बाद में हो रही है और भतीजे की पहले ही हो चुकी है। उस दौरान तो यहां तक भी देख गया कि मां बेटी साथ साथ ही गर्भधारण किए हुए हैं। आज हम इन परिस्थितियों की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। बहरहाल त्रिलोकी ने शादी में काफी देर लगा दी। यह शादी कोई सामान्य शादी नहीं है। यह वह धमाका है जो इस शु्ध्‍द आर्यरक्त वाले ब्राम्हण परिवार में न पहले कभी हुआ और न ही कल्पना भी की गई थी इसके पहले। यहां कान्यकुब्जों की शादियां कान्यकुब्जों में ही होती रही है और शुद्ध आर्यरक्त का यह सिलसिला जो शुरू से चला आ रहा था वह आठ लड़कों की शादियों तक चला भी और उन आठ में से सात की शादियां ठेठ उत्तरप्रदेश के गांवों में की गई और आठवें जो डाॅक्टर हैं की शादी उत्तरप्रदेश की बजाय मध्यप्रदेश में ही हुई और वो भी शहर के पढ़े लिखे घर में पर वे भी थे कान्यकुब्ज ही बस बिस्वा एक कम था यानि कि उन्नीस बिस्वा के कनौजिया थे। पर ये परंपरा ये सिलसिला त्रिलोकी यानि टिक्कू ने तोड़ दिया। टिक्कू ने तोड़ दिया वो शुद्ध रक्त के गर्वीले भाव को जो तमाम पीढ़ियों से चला आ रहा था। इस गर्व के भाव को ठेसपहुंचाने का जघन्य कृत्य किया था हमारे त्रिलोकी बाबू ने।

त्रिलोकी बाबू का यह प्रेम विवाह था। जो उन दिनों में लगभग असंभव। लड़की ब्राम्हण थी पर कान्यकुब्ज नहीं वो मालवी ब्राम्हण थी। त्रिलोकीनाथ ने जब इस प्रेम के बारे में अपने से ठीक बड़े यानि डाॅक्टर बुद्धिनाथ यानि मुन्नू भैया और नंबर आठ भाभी को बताया तो वे लोग सकते में आ गए और जब शादी की इच्छा प्रकट की तो यह उन्हें किसी तूफान से कम नहीं लगा। हालांकि घर के सब लोग पढ़े लिखे थे पर घनघोर दकियानूसी और शादी ब्याह के मामले में तो और भी जकड़बंदी थी। इसके अलावा एक और अहम मसला था दहेज का जिससे सारा मामला बेहद संगीन हो सकता था। कान्यकुब्जों के यहां ब्याह में और वो भी डाॅक्टर लड़का और तिस पर दहेज का न मिलना यह एक ऐसी दुर्लभ घटना है जिसकी मिसाल आज भी ढूंढे से ना मिले।

त्रिलोकी आमादा थे इस शादी को करने पर। बल्कि अफवाह तो यहां तक थी कि उन्होंने कोर्ट में या आर्यसमाज के मंदिर में तो विवाह कर भी लिया है अब तो वे बस पारिवारिक स्वीकृति चाह रहे थे ताकि रचना व्यास को घर में प्रवेश मिल जाए। बहुत उठापटक के बाद घर वाले राजी हुए। दरअसल सारे लोग बड़े बूढ़ों के रुख से चिन्तित थे।

छः फुट को छूते त्रिलोकीनाथ यूं तो डाॅक्टर थे पर वे और भी बहुत कुछ हुआ करते थे। वे एक रंगआज किसम के आदमी थे और उनका दबदबा भी खासा रहा कालेज में भी और शहर में भी और सबसे बड़ी बात घर में भी। कालेज घर से दूर था तो उन्होंने वहां होस्टल में एक कमरा ले रखा था जहां वे सिर्फ सोने पहुचते थे वह भी कभी कभार वरना दिन भर धमाचौकड़ी, धींगामस्ती, दादागिरी और लड़कियों को पटाने या कहें लाइन मारने का काम। कालेज के बारह साल में वे एक किंवदंती बन चुके थे और उनके तमाम किस्से चलन में थे। उनके साथ पढ़ने वाले और बाद के भी जिनकी रैगिंग ली थी वे अब उन्हें पढ़ाने लगे थे पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। बीच में पैसों की तंगी पड़ी तो वे अपने सरदार दौस्त के कालेज में पढ़ाने लगे बल्कि उस कालेज के वाइस प्रेसीडेन्ट भी थे वे। एम एस सी करके वे मेडीकल कालेज में गए थे। डाक्टरी में बारह साल उन्हें इसलिए नहीं लगे वे मूर्ख थे या नालायक थे या नाकाबिल थे बल्कि ये जिन्दगी उन्हें रास आ रही थी। सुबह से लेकर शाम तक लड़के लड़कियों का साथ। सफेद एप्रन पहन कर शहर के सबसे बड़े अस्पताल में स्टेथेस्कोप लटका कर बिना किसी जिम्मेदारी के घूमना। साथ की लड़कियों या मरीजों के साथ आई रिश्‍तेदार लड़कियों के साथ नैनमटक्का करना मौका लगे तो और आगे बढ़ जाना। वो तो कालेज के प्रोफेसरों ने उन्हें पास कर निकाल ही दिया वरना वे तो तीसरी पंचवर्षीय योजना पूरी करने का मूड बना चुके थे। इसी दौरान उनका चक्कर रचना व्यास नाम की लड़की से चल रहा था आखिरी साल था कालेज का और रचना एम ए कर रही थी समाज विज्ञान में पर वो किसी मरीज के साथ टकराई थीं और मामला गंभीर अवस्था तक पहुंच कर अब शादी तक पहुंच चुका था।

त्रिलोकीनाथ महज एक डाक्टर नहीं थे वे बहुत कुछ थे बल्कि डाॅक्टरी के अलावा उनका दखल बहुत सी विचिध गतिविधियों में रहा। समस्या यह थी कि वे एक साथ कई काम करना चाह रहे थे पर कर ना सके कुछ तो वित्तीय स्थिति और कुछ उनका एक काम पर केन्द्रित न होना। वे गाते बहुत अच्छा थे। मजाज की नज़्म ”ऐ ग़मे दिल क्या करूं बहिष्ते दिल क्या करूं“ वे जब गाते थे तो आपको वाकई उन आवारा गलियों की सैर करा देते थे। बकाएदा हारमोनियम लेकर बिना किसी तालीम के जो वे गाते थे तो अच्छे खासे तालीमयाफ्ता भी वाह वाह कर उठते थे।

वे क्रिकेट बहुत अच्छा खेल सकते थे बल्कि खेलते भी थे पर........। उनके साथ के कुछ दोस्त तो रंजी ट्राफी और टेस्ट मैच तक खेल लिए।

वे भाषण बहुत अच्छा देते थे ढेरों वाद विवाद प्रतियोगिताएं उनके दम पर उनका कालेज जीता। वे राजनीति में जा सकते थे उनके साथ के कई उनसे कमतर साथी मंत्री संत्री वगैरा पता नहीं क्या क्या हैं।

वे व्यापार में बहुत आगे जा सकते थे उन्होंने एक फैक्ट्री डाली बकायदा गरम मसाले कनाने की पर जो काम करने वाला साथी था वो मशीन वगैरा ले कर भाग लिया और आज की तारीख में देश दुनिया में गरम मसाले बनाने में अव्वल नंबर है।

यह फेहरिष्त बहुत लंबी है क्योंकि दुनिया के सारे धतकरम वे कर सकते थे। वे एक कालेज के वाइस प्रिन्सीपल थे। ये सरदारों का कालेज था। 84 के दंगों के दौरान उन्होंने अपने घर पर तकरीबन सारे कालेज को ही अपने घर पर शरण दी थी और इसे न किसी को बताया न कभी भुनाया। ये वाकई एंसा काम था कि जिसमें दांयें हाथ को न पता चले कि बांये हाथ ने क्या किया। नतीजतन वे गुरूद्वारा समिति के आजीवन मेंबर रहे और उस दौरान उन्हें सरोपा दिया गया जो बहुत ही पवित्र आदमी को दिया जाता है। और सरदारों के वे बिलाशक सबसे बड़े डाक्टर थे। इलाज के लिए भीड़ की भीड़ लगी रहती थी सरदारों की उनके अस्पताल में।

वे एक बड़ी कंपनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर में भी रहे। और भी न जाने क्या क्या.......।

वे नौ भाई एक बहन में सबसे छोटे थे मां के बहुत लाड़ले। हर दुख तकलीफ से उन्हें उनकी माताराम निज़ात दिलातीं रहीं जिन्हें वे दादू कहते या माताराम। उनकी तमाम ज़ायज नाज़ायज मांगों को वे कैसे भी पूरा करतीं रहीं। उनकी तमाम सही गलत हरकतों से परेशान बाप भाईयों और आस पड़ौस वालों से बचाने वालीं माताराम ही थीं। वो उनकी संकटमोचक थीं। अपने आखिरी दिनों अकसर वे अपनी यादों में अपनी दादू के ही साथ थे। उनकी शादी में भी वे अकेली ही उनके लिए लड़ीं थीं। वाकई वह शादी इस घनघोर परम्परावादी कान्यकुब्ज पंडितों के घर में एक धमाका था। शुद्ध आर्यरक्त की दुहाई देने वाले इस खानदान में शादियां कान्यकुब्जों के ही यहां होती थी और वो भी ठोक बजा के। पिछली सारी शादियां उन्हीं कनौजियों के यहां हुईं जहां किसी तरह का भ्रष्टाचार नहीं हुआ था आर्यरक्त के मामले में यानि वे परिवार भी इसी तरह के दकियानूसी सोच के थे। अब ऐसे में जब तिक्कू ने कान्यकुब्जों के अलावा कहीं और शादी करने की मंषा ज़ाहिर की सबसे पहले माताराम के ही सामने तो वे कुछ समझ नहीं पाईं और पहले तो उन्हें मजाक ही लगा ” काहे सुबह सुबह से हमही मिले क्या जो हमका मूरख बना रहे हो।“ पर जब उन्हें समझ में आया कि मामला गंभीर है तो वे नाराज हो गईं और सालों आद तिक्कू की धुनाई कर दी। पर तिक्कू तो अड़ गए थे। दादू यह जानती थीं कि यह बहुत जिद्दी है और अपनी जिद पूरी किए बिना मानेगा नहीं। पर वे क्या करें । उनके सामने पूरा खानदान घूम गया। सारी शदियां घूम गईं और उन्होंने इस शादी का पता चलने पर प्रतिक्रियाओं की कल्पना भी कर ली। उन्होने तिक्कू से अपने से ठीक बड़े बुद्धिनाथ यानि मुन्नू को भेजने को कहा और उनसे कहा कि वो तनिक घूम फिर कर साम तक आएं। अम्मा ने मुन्नू के साथ उनकी दुलहिन को भी बुलवाया था। मुन्नू की दुलहिन शहर की थी और पढ़ी लिखी भी थी। शायद वो कोई रास्ता सुझाए। उन्होंने जब उन दोनों को तिक्कू के विचार के बारे में बताया तो वे दोनों भी सहम उठे। ये दुलहिन तो उनसे भी ज्यादा पिछड़ी निकली। उनसे भी ज्यादा पेंगापंथी, दकियानूसी। उसने सीधे सीधे तो नहीं कहा पर ये तो कह ही दिया कि इस तरह तो हमारे रीति रिवाजों का क्या होगा और लोग हमारे घर की लड़कियों से ब्याह नहीं करेंगे। दादू हैरान थी उस पढ़ी लिखी बहू के अनपढ़ सोच पर। उन्हें खुद कोई कहुत गलत पहीं लग रहा था ये फैसला। उन्होने कहा ”देखो अब ब्याह तो करबै पड़ी अब कईसे करना है का करना है ये तुम लोग तय करके बतावो वरना वो कोरट में या आर्यसमाज में ब्याव कर लेगा तो हम लोगों की नाक कट जाएगी“

” और इस ब्याव से जो नाक कटेगी सो“ मुन्नू की दुलहिन बोली

”अरे कऊनो नाक वाक ना कटे लड़की तो बामन ही हैं कि नई। अब कनौजिये नही ंतो न सही।“

मुन्नू इस उलटबांसी पर चकित थे। वैसे वे दादू से सहमत थे पर बीवी से आतंकित थे तो वे ऊपर से तो उसीके पक्ष में थे। दादू बोली ” तुम लागन को हल बताने बुलवाया था न कि उलझाने को। इससे तो हम नंबर तरन को बुला लेते छप्पू की दुलहिन को तो वो हमें ज्यादा नीक राय देती हालां पंचायत सब जगह हो जाती पर पंचायत में तो तुम भी कौनो कम थोड़े हो तुमहु कौन छोड़ोगी पंचायत करने से। चलो जाओ अब हम ही कुछ सोचत हैं।“

अब ये जो नौ लड़के थे उनके सब के तो घर के नाम थे परंतु दुलहिनों के संबंध में समस्या निवारण यूं किया गया कि उन्हें नंबर से जाना जाता जैसे मुन्नू की दुलहिन हुईं नंबर आठ। बच्चे उन्हें नंबर आठ चाची कहते। और इसी तरह सभी चाचियां या दुलहनंे। सो अंततः तिक्कू की शादी में नंबर तीन ने ही सबसे महत्वपूर्ण और क्रियाषील भूमिका अदा की। दादू के बाद घर में वे ही सबसे बड़ी पुरखन थीं। नंबर एक यानि जिन्हें बड़ी भाभी कहा जाता था वे ज्यादातर बाहर ही रहीं और रस्मो रिवाज में उनकी कोई रुचि नहीं थी और नंबर दो यानि जिन्हें भी इन सबसे ज्यादा लेना देना नहीं था और रीतिरिवाजों और रसमों की जितनी बारीक से आरीक जानकारी उनके पास थी वह आसपास के पंडितों को भी नहीं थी वे यक अद्भुत महिला थीं। वे चलती फिरती आकाशवाणी थी उनके पास सूचनाओं का अंबार था। जिन्हें इधर से उधर करने में भी उन्हें महारत हासिल थी जिसके कारण उन्हें नारद मुनि की मानद उपाधि प्राप्त थी। वे नौ भाइयों के इस खानदान का आधार रहीं। उनके जिम्मे रसोईघर था जो मन्दिर के ठीक सामने था। नंबर जीन और दादू के बीच ही सास बहू का पारंपरिक रिष्ता था बाकी सब बहुओं को तो दादू प्रताड़ना या बहस या सलाह के भी काबिल नहीं मानतीं थीं। सो दादू ने नंबर तीन यानि छप्पू की दुलहिन को तिक्कू की शादी की समस्या पर बात करने को बुलाया।

” तिक्कू ब्याव के लिए जिद कर रहे हैं“

” किससे वो गुड्डी से“ नंबर तीन ने अपना प्रभाव जमाने को तीर फेंका

दादू लड़खड़ा गईं ” कौन गुड्डी“

” अरे बांडे की चाल में वो पांडे की लड़की“

” पर वो तो कनौजिया हैं न“

” पर बीस बिस्वा नहीं“

अम्मा बोलीं ” बिस्वा विस्वा को जान दो भाड़ में । ऊ जिस लौडिया से सादी करना चाह रहा है ऊ तो कान्यकुब्जो नहीं है। “

नंबर तीन को अपने अर्जित ज्ञान और बपने जासूसों पर शक हो रहा था उन्हें इस चक्कर की भनक तक नहीं थी। यूं नंबर तीन का सूचना तंत्र बहुत मजबूत था पर ये लड़की पीलियाखाल से दूर की होगी। अम्मा ने भांप लिया

” अरे वो दूसरी पलटन पर की व्यास की लड़की है।“

तिक्कू के तमाम लड़कियों से संबंध थे। सामने खोली की कई लड़कियों और बांडे की चाल की कई लड़कियों से वे आशनाई कर चुके थे। उधर दादू का रिकार्ड जारी था ” वो जो दूसरी पलटन के सामने मकान नहीं है व्यास का। अरे वो अखण्डधाम के बगल से जो सरकारी अफसर रहता है न उकी भतीजी है वो बाप जानो भोपाल में है ऐसा बताते हैं “

नंबर तीन सिर पकड़ कर बैठ गई। उन्हें इस रिश्‍ते के बारे में कैसे पता नहीं चला। पर तिक्कू जे शाअी कर क्यों रहे हैं भला यह उनकी समझ से परे था।

” तो अम्मा का सौच रही हो“

” अब हम का सौंचे। हमरी तो अक्किल काम ही नहीं कर रही है। वो पढ़ी लिख्खी को बुलवाया तो वो तो हमहुं से जियादा गंवार है“

नंबर तीन सोच में पड़ गईं। वे जब ब्याह कर आईं थी तो तिक्कू बहुत छोटे थे। आठ दस साल के रहे होंगे। तब से वे सबके लाड़ के लल्ले और जिद्दी और अपने मन की करते आए हैं। भौजियों से हंसी ठिठौली जब उसका मन हो तब ही करता था वरना कब गुस्सा हो जाए कोई ठिकाना नहीं। सारा घर जब फाके कर रहा होता था तब भी तिक्कू को कोई कमी नहीं आने नहीं दी गई थी। सो यदि अब तिक्कू ने ठान ही लिया शादी का तो वो तो करेगा ही। नंबर तीन को दादू पर दया हो आई। वे दो ही लोगों पर भरोसा करतीं थीं। एक तो खुद के पति पर और दूसरा छोटे बेटे पर। अपना सब कुछ लुटा दिया था उन्होंने। पर दोनों ने उन्हें फायदा ही लिया और सिर्फ और सिर्फ धोखा ही दिया। वो तो दादू जैसियों के पास असीम धीरज होता है और वे लड़ झगड़ कर अपना जीवन जी ही लेतीं हैं। उन्होंने बाबा को तो झटक ही दिया अपने जीवन से बाहर कर दिया, बेदखल कर दिया और वे आजकल घर के बाहर कुटिया में रहते हैं। पर तिक्कू के लिय उनका लाड़ अभी भी फसफसाया करता है और वे उसके लिए कुछ भी कर सकतीं थीं।

बहरहाल नंबर तीन ने इस मसले पर दिया साथ दादू का। भाइयों में सबसे बड़े यानि विनायक, नंबर चार यानि शिवानंद और नंबर सात यानि शंकरलाल ने विरोध किया। बाप की न तो इतनी औकात थी और न ही इतनी हिम्मत कि वे इस शादी के बारे में कुछ बोल पाएं और भी कुछ बूढ़े थे विरोध में पर दादू और नंबर तीन के आगे किसी की नहीं चली और ब्याह हुआ और सो भी बकायदा रसमो रिवाज के साथ। बारात इन्दौर से भोपाल गई क्योंकि लड़की के चचा वहां पषुपालन विभाग में उच्चाधिकारी थे उन्हें वहां सहूलियत भी थी और अपना रुतबा भी गालिब करना था। तो यह शादी उस घर की आम शादी नहीं थी। यहां उस तरह की बारात भी नहीं थी हालांकि सदस्य सारे के सारे वही थे पर वो हुड़दंग नहीं था जो पीलियाखाल की शादी में होता था। हालांकि यह शादी ब्राम्हणों के बीच में ही थी पर इसे अंतर्जाजीय विवाह के बतौर लिया जा रहा था। इससे भी बढ़कर जो अजूबा था वो ये कि कान्यकुब्जों के घर का लड़का और सो भी डाॅक्टर और वो भी ठेठ कन्नौज के और पीलियाखाल के यहां बिना दहेज के, बिना वधू पक्ष को तंग किए शांतिपूर्वक ब्याह हो रहा था। यह बेहद आश्‍चर्यजनक किन्तु सत्य की तरह घटित हो रहा था इसी धराधाम पर और कोई हलचल नहीं थी। यह तो कौड़ियों के मोल ठगे जाने की बात थी। दबे स्वर में कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि हम तो भैया पैसा ले कर चल रहे हैं ताकि खाने पीने के पैसे मांग लिया तो वो कर देंगे। बताइये क्या जमाना आ गया। अब ये दिन भी देखना पड़ रहे हैं। बारात कहीं जानी नहीं थी। जनवासे तक सब लोग अपने अपने साधनों से पहुंच गए थे। एक ठो क्लब में विवाह का कार्यक्रम था। बारातियों के साथ पंडित भी गए। उनकी इस खानदान की दूसरी शादी थी बल्कि जीवन की दूसरी ही शादी करवा रहे थे वे। वे थे मन्नू पंडित। जिन्हें मन्नू बिलासिया कहा जाता था। थे वे कद में बहुत कम। शुरू शुरू में पहलवानी की कोशिश कर रहे थे वहां वे मंझले भैया यानि गन्नू भैया से भिड़ गए। तो वहां गन्नू भैया ने दोनों हाथों से ऊपर उठा कर पटक दिया और पटकते पटकते नामकरण संस्कार भी कर दिया

- ” सरऊ हो तो बिलासिया और करोगे पहलवानी। भागो अखाड़े से और दिख्ना मत आसपास नही तो इस बार इससे भी ऊपर उठाएंगे और फेंक देंगे बांडे की चाल की टीन पर। भाग बे बिलासिया।“

बिलासिया मने हाथ के बिल्लास यानि पंजा फैला लो तो अंगूठे के पोर से छोटी ऊगली के पोर तक। तो उनका नामकरण हो चुका था और वे पलक झपकते ही मन्नू बिलासिया नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे। गाते पतली तीखी आवाज में बहुत अच्छा थे तो उनके गले का इस्तेमाल गन्नू भैया ने अपनी भजन मंडली में शामिल कर किया और पंडिताई करने की सलाह दी। मन्नू बिलासिया ने कथावाचन से शुरू किया और बहुत से श्लोक रट डाले और यहीं से शादी से सिलसिला प्रारंभ हुआ। मिसिर खानदान के मुख्य पंडित एक शादी में बीमार पड़े यह थी डाॅक्टर बुद्धिनाथ यानि मुन्नू की यानि नंबर आठ की शादी सो गन्नू भैया और दादू की सिफारिश पर मन्नू पंडित को इस महत्वपूर्ण शादी में जबलपुर ले जाया गया और वहां जाने से पहले छप्पू की दुलहिन यानि नंबर तीन भाभी से मन्नू बिलासिया ने सारे रीति रिवाज रसमें समझ क्या लीं घोट ली रट डाली एकदम कंठस्थ कर डाली। तो मन्नू बिलासिया ने इस सीखे हुए ज्ञान में संस्कृत के कठिन श्लोकों का तड़का लगा दिया ठेठ वाली रसमों को गिना गिना कर जबलपुर के लोगों को भी खासा प्रभावित कर दिया बस तब से मन्नू बिलासिया की नियुक्ति मिसिर खानदान में बतौर खानदानी पंडित के हो गई। वे गन्नू भैया के कृतज्ञ थे और दादू के भगत जिन्होंने उसे ये सम्मानित काम करने के योग्य बना दिया, जिसमें बड़े बड़े लोग उनके चरण स्पर्ष करते थे और दक्षिणा भी अच्छी मिल जाती थी।

पर यहां यानि त्रिलोकी की शादी का मसला ही अलग था। दोनों जगह की बारीक रसमें एकदम अलग थीं। और उस पर त्रिलोकी ने पहले ही बोल दिया था-

” ऐ मन्नू बिलासिया मण्डप में जरा ज्यादा होषियारी मत दिखाना और जल्दी से शादी निपटाना वरना तुमहारी तो.........“ और साथ ही दस रूप्ये का एक नोट भी थमा दिया। मन्नू बिलासिया यानि मन्नू पंडित धमकी के साथ घूस पाकर गदगद थे। यह प्रेमालाप उन्हें पसंद आया।

मन्नू पंडित उस बीच में विस्तार कर चुके थे और तमाम मालवी शादियां भी करवा चुके थे इसलिए यहां उन्होंने सदभाव का काम किया और शादी की रसमें मिला जुलाकर सबको प्रसन्न कर शादी का काम निर्विघ्न संपन्न करा दिया। पर मिसिर खानदान में निराषा व्याप्त थी। न तो कच्ची हुई न वे व्यंजन मिले जो सिर्फ शादियों में ही उपलब्ध होते हैं न ही वह भेंट नजराना स्वागत हुआ जो बारातियों का होता है। निराषा का एक सबब यह भी था कि शादी बिना किसी झंझट के निपट गई पर अब क्या किया जा सकता था। झंझट की पचास प्रतिशत संभावनाएं वैसे ही समाप्त हों गई थीं क्योंकि आधे से ज्यादा झंझटें या कहें खुराफातों के पीछे तिक्कू का ही हाथ रहता था अब यहां तो उनकी स्वयं का ब्याह था तो आधी संभावनाएं समाप्त हो र्गइं और आधी उनके आतंक की वजह से नहीं हुई तो शादी का काम निर्विघ्न संपन्न होना ही था।

***