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प्रकृति मैम - पास भी, दूर भी


ठाणे मुंबई के पास बिल्कुल सटा हुआ जिला था। वहां लोग कहते थे कि यहां व्यस्ततम विराट महानगर मुंबई की असुविधाएं अभी नहीं पहुंची हैं पर सुविधाएं पहुंच गई हैं।
मुझे श्रीरंग सोसायटी में एक सुविधाजनक फ्लैट मिल गया। ऑफिस भी वागले एस्टेट में था, जिससे ट्रेन नहीं, बल्कि बस से ही जाना होता था।
ये भौगोलिक दृष्टि से हमारे बैंक का बहुत बड़ा आंचलिक इलाका था जिसमें ठाणे, रायगढ़ और गुजरात की सभी शाखाएं आती थीं। जल्दी ही मैंने इस क्षेत्र का भी चप्पा - चप्पा छान लिया। अहमदाबाद सहित गुजरात के अधिकांश ज़िले देख डाले। रायगढ़ क्षेत्र के सुन्दर पर्यटन स्थल, सागर किनारे के शहर और नई मुंबई,भिवंडी के साथ सुदूर ग्रामीण शाखाओं में जाने का मौक़ा मिला। अब मराठी भाषा के साथ गुजराती से भी मेरा खासा परिचय हुआ।
हर छुट्टी का दिन मुंबई में बीतता। यहां से सेंट्रल लाइन पकड़ कर सीधे वी टी पहुंचा जा सकता था।
मुंबई पहुंच कर पुराने संपर्क फ़िर से जुड़ने लगे।
इन्हीं दिनों मुंबई जनसत्ता ने एक साप्ताहिक पत्रिका "सबरंग" निकाली। दिल्ली से धीरेन्द्र अस्थाना इसके फीचर संपादक बन कर आए। संपादक राहुलदेव थे।
धीरेन्द्र से मिला तो कभी "रविवार" में उदयन शर्मा पर छपी मेरी कविता उन्होंने मुझे सुनाई,जो उन्हें अब तक याद थी। वो खूब हंसे भी। और बोले- उसी तेवर से अब सबरंग से भी जुड़ जाओ।
मैं रविवार को एक सामाजिक - राजनैतिक पत्रिका मानता था,और उदयन शर्मा की छवि मेरे मन में एक चिंतन शील गंभीर पत्रकार की थी। किन्तु जब उसके फ़िल्म और अन्य विविध विशेषांक पढ़ने शुरू किए तो मुझे आश्चर्य हुआ। उन्हीं दिनों उदयन जी को कोई बड़ा पुरस्कार भी मिला था। बस, मैंने बैठे - बैठे उन्हें एक लम्बी कविता लिख भेजी। जिसमें लिख डाला-
"कलम उठाई, तलवार सी चलाई, जिन्हें
देश की आजादी की संभाल रही प्यारी है
सेठन से जूझ, बने सत्ता के दुश्मन जो
जनता - जनार्दन की हंसी जिन्हें न्यारी है
शासन - पुरस्कृत जब से हुए हैं, अब
शासन की शान में करें कसीदाकारी हैं
बायोग्राफी नटवर लाल जी की बांचें अब
रशिया से आई, इन्हें भायी नाच वारी है
फिगर मीनाक्षी की देह के टटोलें अब
पद्मिनी की फ़िल्म से जुदाई इन्हें भारी है
अब इन्हें बींध रहे डिंपल के नैन बाण
फरहा के फैन,श्रीदेवी के पुजारी हैं !"
उदयन शर्मा ने पूरी साज - सज्जा के साथ इस कविता को पत्रिका के शुरू में ही छाप दिया और धीरेन्द्र अस्थाना को यही याद रह गई।
सबरंग में नियमित लिखना शुरू हो गया। कई आवरण कथाएं, लेख, फीचर आदि छपे।
पिछले दिनों कोल्हापुर में बैंक के एक अधीनस्थ कर्मचारी ने मुझसे कहा था कि आप अकेले रहते हो, तो मुझे अपने साथ रख लो, मैं आपका सब काम कर लूंगा, खाना भी बना लूंगा। वो कहता था कि आप यहां से कहीं और जाओगे तब भी मैं नौकरी छोड़ कर आपके साथ ही चलूंगा, क्योंकि मेरी नौकरी तो अस्थाई है। उसकी उम्र बीस- बाईस साल थी।
अब ठाणे आते समय मैंने उसे उसकी बात याद दिलाई तो वो बोला- मेरे मां बाप ने मेरी शादी तय करदी है, जो तीन महीने बाद ही है,पर मेरा छोटा भाई सोलह साल का है और दसवीं कक्षा में फेल होकर घर बैठा है। मैं उसे भेज दूंगा,यदि आप ले जाओ तो।
उसके भाई को मैं जानता था, कभी - कभी घर के छोटे - मोटे काम के लिए मेरे पास आता भी था। सीधा- सादा लड़का था।
मैंने उसे चलने के लिए कह दिया। दोनों भाई खुश हो गए,और उत्साह से मेरी सब पैकिंग उन्होंने ही करवाई।
वह मेरे साथ ही आया था और अब मेरे घर ही रहता था।आते ही हमने रसोई का सामान भी खरीद लिया था और खाना घर में ही बनने लगा था।
जब मैं ऑफिस जाता तो वो घर में ही रहता था,पर और कहीं भी जाने पर मैं उसे साथ ले जाता।
वो खाना बनाने, कपड़े धोने, साफ़ -सफ़ाई,बाज़ार से सब्ज़ी व और सामान लाने का सब काम कर लेता था।
मैंने उसे प्राइवेट आगे पढ़ने के लिए कुछ किताबें भी ला दी थीं,और घर में टी वी भी लाकर रख दिया था।
उसके लिए कुछ कपड़े भी खरीद दिए थे।
वैसे भी गर्मियों की छुट्टियां होने पर मैं अपने परिवार को दो महीने के लिए यहां बुलाने की तैयारी कर रहा था। मेरी पत्नी के सरकारी नौकरी छोड़ कर शिक्षा विभाग में जाने का सबसे बड़ा लाभ ये ही था कि वहां दीवाली पर, सर्दियों में और ग्रीष्मावकाश मिला कर बहुत सारी छुट्टियां होती थीं जिनमें परिवार आराम से यहां आ सकता था।
धीरे - धीरे शहर में मेरे लेखन के साथ मेरी व्यस्तता बढ़ने लगी। अब कई समारोह भी होते जिनमें जाना पड़ता। दूरियां बहुत होने के कारण कई बार ऑफिस से सीधे ही मैं कार्यक्रमों में चला जाता था। ऐसे ही एक दिन रात को ग्यारह बजे घर लौटा तो लड़के को मैंने तेज़ बुखार में तपते हुए पड़ा पाया।
उसने बताया कि उसके पेट में बहुत दर्द होता रहा। मैंने सुबह उसे डॉक्टर को दिखाने का आश्वासन दिया। रात को सोते समय उसने बहुत संकोच के साथ बताया कि उसे बचपन से ही ऐसा दर्द होता रहा है, डॉक्टरों ने कोई ऑपरेशन बता रखा है जिसे न करा पाने के चलते महीने - दो महीने में उसकी तकलीफ़ बढ़ जाती है।
इस जानकारी से मैं कुछ घबरा गया। खासकर मुझे ये चिंता भी हुई कि मेरे पीछे अकेले घर में ये किसी मुसीबत में न घिर जाए।
मैंने उसकी तबीयत संभलते ही दो - तीन दिन बाद उसे कोल्हापुर वापस भेज दिया।
वो बस से चला गया। इतने दिन उसके यहां रहने का एक ये लाभ हुआ कि पास पड़ोस के कुछ लड़के उसके दोस्त बन गए थे, और वो उसके माध्यम से मुझे भी खूब जान गए थे। उसके जाने के बाद एक - दो किशोर वय लड़के मेरे पास आने लगे।
और जल्दी ही मुझे घर के काम के लिए पास में ही रहने वाला एक लड़का मिल गया।
अब मैं आराम से अपने काम पर जाता, और देर - सवेर जब भी लौटता, घर की बत्ती जली देख लड़का काम पर चला आता। उसका घर मेरी बालकनी से भी दिखाई देता था। काम में भी होशियार था। यहां तक कि मेरे कपड़े धोने के बाद इस्त्री भी घर पर ही कर देता। कभी - कभी कोई खास सब्ज़ी या व्यंजन अपनी मां से घर से बनवा कर भी ले आता।
इसी सोसायटी में और आसपास हमारे बैंक के कुछ और लोग भी रहते थे। इससे जब छुट्टियों में मेरा परिवार यहां आया तो उन्हें अच्छा माहौल मिला और हंसी खुशी से घूमते फिरते, बैंक के लोगों के यहां आमंत्रण पर लंच- डिनर करते हुए चुटकियों में दिन निकल गए। मेरे बच्चों को भी ये तसल्ली हो गई कि उन्होंने वो घर देख लिया जहां उनसे दूर जाने के बाद पापा रहते हैं।
बिटिया तो कई बार तुलना करती - मम्मी की रसोई ऐसी है, पापा की ऐसी, मम्मी के बाथरूम में शॉवर नहीं है, पापा के में है, पापा के घर में आंगन नहीं है, मम्मी के घर बहुत बड़ा आंगन, मम्मी का फ्रिज बहुत बड़ा, पापा का फ्रिज छोटा सा,पर बहुत सुंदर... नया... रंगीन!
फ़िर मेरी मां मज़ाक करतीं- मम्मी के पास अम्मा हैं, पापा के पास...!
सबके चले जाने के बाद घर सुनसान हो जाता। मैं सब सामान,बिस्तर आदि बंद करके रख देता और केवल एक कमरे में अपनी दुनिया लेकर अपने पुराने दिनों में लौट आता।
कभी - कभी मुझे महसूस होने लगता था कि शायद मेरा व्यक्तित्व दो डिज़ाइनों में बंटता जा रहा है।
एक तरफ़ वो ज़िन्दगी थी जो दिल्ली- मुंबई जैसे शहरों के पांच सितारा होटलों में ऊंचे लोगों के साथ खाते- बैठते गुजरती थी, बड़ी - बड़ी बातें होती थीं, सपनों के ऊंचे महल बनाए जाते थे, टैक्सियों, रेल की प्रथम श्रेणी या विमान में यात्रा करते हुए मंसूबे बांधे जाते थे तो दूसरी ओर अकेले, रात को अपने घर लौट कर कपड़े उतार फेंकने और युवा मित्रों के साथ घर के काम करते, बनाते - खाते गुजरती थी। जिसमें न खाने का ध्यान रहता, न पहनने का होश! मुंबई की लोकल ट्रेनों में भीड़ के हाथों आपको सब कुछ मिलता था, सब कुछ। आपको कोई चिंता नहीं रहती थी कि आपके पास परिवार नहीं है, घर नहीं है या साथी नहीं है। बदन के सारे दुखड़े सुन लेती थी ये भीड़!
दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में हिंदी अख़बार शुरू करवाने का श्रेय भी हम लोगों को जाता था तो जम्मू के होटल में कर्फ्यू के दौरान चड्डी पहन कर सुबह बिना पानी के, जल्दी से निपट आने का श्रेय भी हमें ही जाता था।
मैं कभी अख़बारों के संपादकों से मिलता तो वो मुझे कहते, मुंबई की ज़िंदगी को देखो, और लिखो। "विचार" लिखने से यहां कोई नहीं पढ़ेगा।
मैं खूब घूमता,खास कर उन लोगों की ज़िंदगी देखता जो केवल कमाने के लिए अपने घर - परिवार को छोड़ कर यहां रहते थे और साल - दो साल में एक बार गांव जाकर आते।
यहां चाल में, किसी दुकान पर,किसी सराय- धर्मशाला में एक - एक कमरे में आठ - आठ लोग रहते। सार्वजनिक नलों पर नहाते,खुले में शौच करते, बारह- बारह घंटे काम करते, वडा पाव या राइस प्लेट खा लेते, सर्दी में कमीज़- पायजामा और गर्मी में केवल चड्डी पहने एक बिस्तर पर दो - दो सो लेते, और पैसे जोड़ते रहते, ताकि जब गांव जाएं तो कलफ़ लगे कुर्ता धोती पहन कर, सोने की चेन गले में डाल कर घूमें। गांव भर में लोग कहें कि ये बंबई के सेठ हैं।
उनकी पत्नियां, मांएं वहां गांवों में बच्चों को लेकर साल भर उनका इंतजार करतीं। पिता सोचते कि बेटा आए तो घर के कर्ज उतारें।
एक बार एक संपादक जी ने मुझे शहरों के जिम और गांवों के अखाड़ों पर लिखने को कहा।
मुंबई के जिम घूमते हुए मेरा परिचय कुछ बॉडी बिल्डर लड़कों से हुआ। मैंने कुछ अच्छे बदन के लड़कों पर लेख भी लिखा और उनके फोटो सेशन भी किए। मेरे लेख हेमा मालिनी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका "मेरी सहेली" और मशहूर महिला पत्रिका "मनोरमा" में छपे।
राजस्थान के एक परिचित परिवार में घटी सत्य घटना को लेकर कुछ कहानियां लिखीं। ये कहानियां छपने के बाद मुझे कुछ लोकप्रिय पत्रिकाओं से अपराध कथाएं, सेक्स विषयक कहानियां लिखने के प्रस्ताव भी मिले।
एक पत्रिका ने कहा कि हम हर पखवाड़े आपको किसी पुलिस थाने के माध्यम से अपराध की फाइल देंगे, आप उन पर आधारित सत्य कहानियां लिखो।
मुंबई में लाखों लोग अपना घर छोड़ कर काम धंधे के लिए रहते थे,उनकी शारीरिक ज़रूरत के लिए यहां जिस्म फरोशी का धंधा भी जोरों पर था। कुछ इलाकों में तो लाइसेंस प्राप्त वैश्याएं रहती थीं पर अधिकांश जगह अवैध धंधे चलते थे।
ग्रांट रोड इलाक़े में, जहां सर्वाधिक वैश्यालय थे, सड़क के दोनों ओर लड़कियों- औरतों को चेहरा क्रीम पाउडर से रंगे लोहे के जंगलों में कैदियों की भांति खड़े देखा जाता था। वहां से निकलने वाले लड़कों- पुरुषों को वो आवाज़ लगाती थीं, इशारे करती थीं,अपने अंग दिखा कर लुभाने की चेष्टा करती थीं।
जवान लड़कों या मालदार असामियों को तो हाथ से स्तन निकाल कर पकड़ा देने तक की कोशिश करती थीं। उनकी आवाज़ें आती- पांच रुपए में ले जा बाबू...चिकने, बंबई आया है तो जन्नत देख जा... राजा सारी रात झटके मार लेना,नहीं हटूंगी... आजा!
कोई लड़का झिझक कर दूर हटने की कोशिश करता तो आवाज़ आती- साले, बम्बू है कि भिंडी लेकर चला आया!
"कभी बेबसी थी, अब तो शगल है वल्लाह!" शीर्षक से लिखा गया मेरा आलेख बहुत पॉपुलर हुआ!
ये दृश्य बताते थे कि गरीबी और जिस्मानी विवशता इंसान को कहां तक ले जाती है।
मेरे लेख आदि अखिल भारतीय पत्र -पत्रिकाओं में छपते रहने के कारण नई जगह जाने पर भी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगते थे।
जब मैं निरीक्षण या किसी मीटिंग आदि के लिए किसी शहर में जाता तो कुछ अधिकारियों कर्मचारियों से मुलाकात भी होती और उनके घर आना जाना भी होता। फ़िर जब कभी वो ठाणे आते तो मुझसे मिलने भी आते। कभी कोई मेरे पास भी ठहरता।
ऐसे ही एक बार हमारे अहमदाबाद ऑफिस से मेरे एक अधिकारी मित्र आकर कुछ दिन रुके। जब जाने लगे तो मैं उन्हें स्टेशन पर छोड़ने भी गया। संयोग से उनकी ट्रेन काफ़ी लेट हो गई तो हम दोनों बातें करते हुए स्टेशन पर टहल रहे थे।
तभी हमने एक खंभे के सहारे एक लड़के को ज़मीन पर बैठे रोते हुए देखा।
लड़का लगभग सत्रह - अठारह वर्ष की आयु का होगा। देखने से साफ़- सुथरा और किसी भले घर का दिखाई देता था।
मेरा मित्र रुक कर उससे बातें करने लगा। लड़का कुछ संकोची स्वभाव का था, तुरंत आंखें पौंछता हुआ उठ खड़ा तो हुआ पर पूछने पर रोने का कोई कारण नहीं बता रहा था। हम दोनों काफ़ी देर तक पूछते रहे।
हमने अपनी ओर से सब कुछ पूछ कर देख लिया पर वो ज़्यादा कुछ बोलने को तैयार नहीं था। बड़ी मुश्किल से वह इतना कह पाया कि वह मुंबई में पहली बार किसी बहुत दूर नॉर्थ ईस्ट के शहर से भाग कर आ गया है और अब उसे मुंबई को देख कर डर लग रहा है और उसके पास खाने तक के पैसे नहीं हैं। उसने ये भी कहा कि वो भीख नहीं मांगना चाहता।
उसकी इस बात से हम दोनों काफ़ी प्रभावित हुए। मेरे मित्र ने सामने दिख रहे कैफेटेरिया से कुछ खाने का सामान लेकर पैक करवाया और उसे दिया। देर हो जाने से खाना हम दोनों ने भी अपने लिए पैक करवा लिया। उसे कहा कि वो बैठ कर खाले।
वह सचमुच भूखा था। जल्दी जल्दी खाने लगा। पेट भरने के बाद वह किसी अच्छे घर का पढ़ालिखा लड़का दिखाई दे रहा था।
थोड़ी ही देर में ट्रेन आ गई और मेरा मित्र मुझसे हाथ मिला कर और उसके गाल थपथपा कर ट्रेन में सवार हो गया।
उसके ऐसा करते ही लड़के की आंखों में फ़िर से आंसू आ गए और उसने जल्दी से झुक कर हम दोनों के पैर छुए।
गाड़ी चली गई।
मैं अब घर जाने के लिए पलटा तो लड़के ने इतने निरीह भाव से मुझे देखा मानो मैं उसे किसी अनाथालय में छोड़ कर वापस जा रहा हूं।
सच में एक छोटे शहर से हज़ारों किलोमीटर दूर अपना घर छोड़ कर चले आए बेसहारा लड़के के लिए ये विराट महानगर किसी अनाथालय की तरह ही था। खासकर तब, जबकि घड़ी रात के साढ़े दस बजा रही थी।
मेरे ठाणे की ट्रेन पकड़ते ही उस किशोर को न जाने कौन सी दुनिया मिलने वाली थी?
मैंने न जाने क्या सोचकर लड़के के कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा- आ जा!
कुछ सकुचाता हुआ पर आंखों से आशीष के फव्वारे से छोड़ता हुआ वो मेरे पीछे पीछे आने लगा। मैंने उसका भी टिकिट लिया और हम ट्रेन में सवार हो गए। देर रात का समय होने से ट्रेन में ज़्यादा भीड़ नहीं थी,हम बैठ गए।
रास्ते भर न मैं कुछ बोला,और न वो!
स्टेशन से उतर कर श्रीरंग सोसायटी के लिए ऑटो रिक्शा में बैठते समय उसने एक बार बहुत धीरे से मुझसे कहा- सर,आपके घर में मेरी वजह से कोई परेशानी तो नहीं आ जाएगी?
मैं कुछ न बोला।
पर जब घर पहुंच कर मैंने जेब से चाबी निकाल कर घर का ताला खोला तो जैसे लड़के के मुंह पर से बादल छट कर वहां धूप निकल आई। उसे ये देख कर गहरा संतोष हुआ कि मैं अकेला हूं।
वो पल - पल पर मेरे हाथ से हर काम अपने हाथ में लेकर करने की कोशिश करता रहा।
मैंने साथ में लाया हुआ खाने का पैकेट जब मेज़ पर रखा तो वो उसे उठा कर रसोई में ले गया और प्लेट में निकाल कर ले आया। पानी का गिलास भी।
उसके पास सामान के नाम पर कुछ नहीं था। पहनी हुई टी शर्ट, पैंट और सैंडल। बस।
मैंने अपने कुछ पुराने कपड़े अलमारी से निकाल कर उसे दिए।
कुछ ही देर में हम दोनों लाइट बंद करके बिस्तर पर थे।
अब मैंने थोड़े सधे और रूखे लहज़े में उससे कहा- देख, देर हो चुकी है और नींद भी आ रही है, पर फिर भी जल्दी से अपने घर- परिवार के बारे में सब बतादे। कुछ रुक कर मैंने कहा- तू चाहे भिखारी, चोर, डाकू, हत्यारा या और कुछ भी होगा,अगर सच- सच बोलता जाएगा तो समझ ले आज से तेरे सब दुख ख़त्म! पर अगर एक लाइन भी गलत बोली तो कल से पुलिस थाने में सोएगा।
अंधेरे में भी मुझे महसूस हुआ कि वो ज़ोर से अपनी हिचकियों को रोकता हुआ रोने की तैयारी में है।
मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और दूसरे हाथ से उसकी आंखों को पौंछते हुए उसे अपने से सटा लिया।
वो बोलने लगा।
वो बिहार के किसी सुदूर नेपाल बॉर्डर के गांव का लड़का था, जहां उसकी मां और बहन अब भी गांव में थीं। उसके पिता नागालैंड में स्कूल टीचर थे। वो भी उनके पास ही रह कर पढ़ता था।
बोडोलैंड की मांग करने वाले कुछ आतंक वादियों ने उनकी बस्ती में आकर एक रात उसके पिता की हत्या कर दी। वो छिपकर जान बचा कर भागा,और इस डर से कि गांव में जाने पर उसका पीछा करते हुए कोई वहां न पहुंच जाए, वो गुवाहाटी आकर बंबई की गाड़ी में बिना टिकिट चढ़ गया। रास्ते में पेट की आग बुझाने में उसके पास जो कुछ था, वो खर्च हो चुका था। और जब स्टेशन पर वो हमें मिला तब वो अपने हाथ में पहनी घड़ी को बेच कर खाना खाने का कोई रास्ता निकालने की सोच में था।
मैंने अपने सीने से उसे भींच लिया। उसके सिर पर हाथ फेरा। लाइट जला कर उसे पानी पिलाया और फिर हम दोनों लिपट कर सो गए।
सुबह जब मेरे पास काम करने वाला लड़का आया तो उसने समझा कि मैं गांव से किसी को काम के लिए ले आया हूं। उसने अपने आप ही पूछा कि उसे कब छोड़ना है।
दो दिन बाद ही एक तारीख थी। अगले दिन मैंने उसे उसके पैसे दे दिए।
अगले दिन मैंने उसे एक लिफ़ाफा और काग़ज़ देते हुए कहा कि अपने घर पर मां को चिट्ठी लिख दे। ऑफिस जाते समय मैंने उससे चिट्ठी ले ली और उसे नीचे अपने जानकार एक दुकानदार के पास ये कहकर छोड़ दिया कि ये मेरे आने तक यहां रहेगा।
लड़का ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। बाद में मेरे काम में भी बहुत मददगार सिद्ध हुआ।
ठाणे में खाड़ी पास में होने से मौसम की बड़ी अनिश्चितता रहती थी। ज़रा सी बारिश में कभी पूरी कॉलोनी में पानी भर जाता। कभी पानी की आपूर्ति बाधित होने से घरों में पीने के पानी तक की किल्लत हो जाती।