Rai Sahab ki chouthi beti - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

राय साहब की चौथी बेटी - 14

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

14

वर्षों बाद अम्मा के तीसरे बेटे के अपने घर चले आने के बाद घर के माहौल में तो बेहद ख़ुशी छा ही गई, मिलने- जुलने आने वालों का भी तांता सा लग गया।

बच्चों की दुनियां तो जैसे गुलज़ार हो गई।

घर के समीकरण भी अब धीरे- धीरे बदलने लगे।

सबसे बड़ा परिवर्तन तो ये हुआ कि अम्मा के भीतर बैठी "राय साहब की चौथी बेटी" फ़िर से जैसे किसी धुंध से निकल कर खिली धूप में आ गई।

अब तक बहू की मार्गदर्शक- कम- सहायक के रूप में रह रहीं अम्मा अब "बेटे की मां" की भूमिका में आने लगीं।

और भी सब कुछ बदल रहा था, घर के चलन और प्राथमिकताएं भी उसी अनुपात में बदलने लगे।

अब यदि बाज़ार से अम्मा की दवा लाकर देने वाला कोई पियोन घर पर आता तो अम्मा मुस्तैदी से ये देखने की कोशिश करतीं कि ये बहू के ऑफिस का है या बेटे के ऑफिस का।

यदि बेटे के दफ़्तर का मुलाजिम होता तो अम्मा का लहज़ा ज़रा बदल जाता।

काम तो इतने सालों से बहू के लोग भी कर ही रहे थे, पर तब वो अम्मा को उनका अहसान जैसा लगता था। अब बेटे के लोगों पर जैसे वो अपना कोई अधिकार समझती थीं।

घर के बगीचे की साज - सज्जा और देखभाल के लिए पहले जब माली आता था तो कौन से फूल लगने हैं, कहां नए पौधे लगाने हैं, ये सब वो अम्मा से पूछता था, यदि कभी बहू से पूछता भी था तो वो यही कह देती कि अम्मा जी से पूछ लो। अम्मा इसे बहू की व्यस्तता समझती थीं, और माली इसे अपनी अफ़सर का अदब मानता था।

पर अब ये सब बातें वो अम्मा से न पूछ कर सीधे "साहब" से पूछ लेता। और साहब भी अम्मा से कोई सलाह किए बिना सीधे अपना निर्णय अपने विवेक से माली को दे देते थे।

लेकिन फ़िर भी अम्मा को अच्छा लगता, और वो मन ही मन बेटे की कही बात को "डिटो" कह देती थीं।

पहले किसी भी त्यौहार या जन्मदिन आदि के शुभ अवसर पर घर में सजावट करने वाला इलेक्ट्रीशियन आता था तो अम्मा उससे असंपृक्त रह कर उसे देखती रहती थीं कि वो क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है, जबकि वो सब कुछ अम्मा से पूछ कर ही करता था। बहू रानी को तो केवल बिल देने का काम करता।

पर अब वो साहब को ही बताता, साहब से ही पूछता। फ़िर भी अम्मा को लगता था कि सारी सजावट उनके मन- माफिक हो रही है।

घर के दरवाज़े पर कार आकर रुकती तो अम्मा एक बार खिड़की का पर्दा खिसका कर ये ज़रूर देखती थीं कि गाड़ी बहू के ऑफिस की है या बेटे के ऑफिस की।

यद्यपि अपना एक मकान वहां था, पर जल्दी ही ऑफिस की ओर से एक बड़ा मकान मिल गया। उसके बड़े - बड़े और खुले अहाते में आजाने के बाद अम्मा सहित सभी की सोच भी बदलने लगी।

अपने मकान का एक बड़ा भाग अब किराए से उठा दिया गया।

सबसे बड़े बेटे ने जहां अपने मकान का नामकरण पिता के नाम पर करके "जगदीश भवन" की यादों को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की, वहीं अम्मा के दूसरे बेटे ने अपने नवनिर्मित मकान का नामकरण अम्मा के नाम पर कर दिया।

अब इस तीसरे बेटे ने अपने बनवाए भवन का काफ़ी विस्तार किया और इसके नामकरण के लिए अम्मा के ही नाम की एक नेमप्लेट संगमरमर से बनवा कर लगाई।

अम्मा को ये सब अवश्य ही भाया होगा किन्तु अम्मा अपने तीसरे बेटे के साथ उसके कार्यालय द्वारा दिये गए मकान में ही रह रही थीं।

अम्मा की आयु भी अब आठवें दशक को पार करने लगी थी। लेकिन अम्मा पूरी तरह सक्रिय और स्वस्थ थीं तथा उन पर दिनों दिन जैसे आयु कम होते जाने जैसा प्रभाव होने लगा था।

सच में इंसान की भीतरी संतुष्टि उसके बाहरी ढांचे पर भी कुछ तो रंग लाती ही है।

बेटे के आ जाने के बाद अम्मा घर में अपने दायित्व के बोझ को भी कम हुआ मानने लगी थीं। साथ ही परिजनों का आना- जाना भी घर में बढ़ गया था। अम्मा से मिलने के लिए रिश्तेदार, बच्चे, बेटे- बहुएं अब अक्सर आने लगे, जिससे घर में काफी चहल - पहल रहती।

कुछ साल कुछ महीनों की तरह बीत गए।

महीने सप्ताह की तरह, और सप्ताह दिनों की भांति!

बच्चे भी अब बड़े होते जा रहे थे। उनके मित्रों- साथियों का जमावड़ा लगा रहता, घर में पार्टियां, रौनकें रहतीं।

बेटे- बहू को कभी - कभी लगता कि ये रौनकें जैसे किसी कुछ समय बाद बच्चों के दूर निकल जाने का संकेत दे रही हैं।

क्योंकि अब वे भी अपनी- अपनी मंजिलें अपने सपनों और कल्पनाओं में ढूंढने लगे थे।

अम्मा के जीवन अनुभवों ने एक लंबा रास्ता तय कर लिया था।

... बिछड़े सभी बारी- बारी, की तर्ज पर अम्मा अपनी पीढ़ी के तमाम लोगों को एक - एक कर खोती जा रही थीं।

यहां तक कि अम्मा के सबसे बड़े बेटे ने भी लंबी बीमारी के बाद दुनियां की हलचलों को अलविदा कह दिया और ये नश्वर संसार छोड़ दिया।

अम्मा ने अपने दूसरे बेटे के युवा सुपुत्र, अपने होनहार पोते को दुनिया से जाते देखा।

अम्मा के भाग्य में विधाता ने न जाने क्या - क्या लिख दिया था। अपने पीहर के घर में अपने से छोटे इकलौते भाई की अर्थी देखने के बाद अम्मा ने उसके बेटे, अर्थात राय साहब के पोते की अर्थी भी उठते देखी।

यहां तक कि अपनी बहनों के कई बच्चों, दामादों, बेटियों की अंतिम यात्रा की साक्षी भी अम्मा बनीं।

इस सब में अम्मा का साथ उस मज़बूत कलेजे ने दिया, जिस पर कभी राय साहब अपने किसी बेटे की तरह भरोसा करते थे।

फ़िर एक दिन अम्मा का वो पोता भी इंजीनियर बनने के लिए आगे की पढ़ाई करने को शहर से बहुत दूर, हॉस्टल में रहने चला गया, जिसके जन्म के दिन से ही अम्मा उसके साथ थीं, अर्थात तीसरे बेटे का सुपुत्र।

ये अम्मा की दिनचर्या में शुरू से ही शामिल था, इसलिए अम्मा ने इसके जाने पर एक खालीपन महसूस किया।

इसे अम्मा रोज़ कहानियां सुनाती थीं, किस्से सुनाती थीं और उसके बाबा, वकील साहब का सपना सुनाती थीं। वकील साहब अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में एक बार इंग्लैंड जाने का सपना देखते रहे थे जो कभी पूरा न हो सका।

अम्मा ने वकील साहब का वो सपना किस्से कहानियां सुना कर पोते की आंखों में ठीक उसी तरह रोप दिया,जैसे कोई माली गुलाब की क़लम को एक क्यारी से उखाड़ कर दूसरी क्यारी में रोप देता है, ताकि एक दिन महकते हुए गुलाब खिलें।

और सचमुच पोते ने एक दिन इंजीनियरिंग की डिग्री के साथ गोवा से लौट कर ऐलान कर दिया कि वो आगे पढ़ने के लिए अमेरिका जाएगा।

अम्मा को एकाएक ये समझ में नहीं आया कि दादी- नानी की सुनाई कहानियां क्या सचमुच एकदिन पूरी हो जाती हैं?

क्या इन कथाओं की परियां एक दिन सपने देखने वाले बच्चों के सपने पूरे करने के लिए सचमुच कायनात को झकझोर डालती हैं?

अम्मा के देखते - देखते घर में पोते को अमेरिका भेजने की तैयारी होने लगी।

बहू कभी पासपोर्ट बनवाने जाती, कभी वीसा बनवाने, तो कभी रुपयों को डॉलर में बदलवाने!

अम्मा के इस पोते ने स्कूल की परीक्षाओं में जिस दिन पूरे राज्य की मेरिट लिस्ट में आकर अपने नाम का परचम फहराया था, उनके बेटे- बहू ने तभी तय कर लिया था कि वो उस के सपनों की उड़ान को अपने स्वार्थ की डोर से कभी नहीं बांधेंगे।

कई परंपरावादी घरों में आज भी ऐसा सोचा जाता है कि बच्चों को अपने से कभी दूर न भेजा जाए, चाहे वो पढ़ने जाना चाहते हों, चाहें नौकरी करने के लिए।

ऐसा सोचने के पीछे ये मानसिकता होती है कि बच्चे उनकी छोटी मोटी मदद के लिए हरदम उनके आसपास ही मौजूद रहें। लेकिन इसका नतीजा ये होता है कि ऐसे घरों के बड़े और छोटे, दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित हो जाते हैं।

बच्चे ये सोच कर कुछ नहीं सीखते कि उन्हें तो हमेशा घर वालों की मदद मिल ही जाती है, और बड़े बैठे बैठे काम कराने के आदी हो जाने के कारण सुस्त, आलसी और रुग्ण तक हो जाते हैं। फिर वो दोनों ही एक दूसरे के लिए ज़रूरी हो जाते हैं और उनका जीवन कुएं के मेंढ़क की तरह गुजरने लगता है।

ऐसे बच्चे बड़े होने के बाद भी कहीं दूर जा पाने के काबिल नहीं रहते और नौकरी में छोटे - मोटे ट्रांसफर्स पर भी उन्हें वहीं बने रहने के लिए सिफारिश - रिश्वत का सहारा लेते देखा जा सकता है।

लेकिन अम्मा के पोते -पोतियों ने हमेशा अपने बड़ों को ज़िन्दगी में एडवेंचर और कर्तव्य- पालन के लिए इधर - उधर जाते देखा था, इसलिए दूरियां उनके लिए कभी बाधा नहीं बनी।

अम्मा की पोती ने भी हमेशा यहां स्कूल और कॉलेज में टॉप किया था इसलिए वो भी आगे पढ़ने और बढ़ने के लिए अच्छे संस्थानों की तलाश में रहती थी, चाहें वो घर से दूर ही क्यों न हों।

कुछ समय बाद वो भी देश के अत्यंत प्रतिष्ठित संस्थान में डॉक्टरेट की उपाधि पाने के लिए चली गई।

बच्चों की चहल- पहल से गूंजते रहने वाले घर में अब केवल अम्मा और अम्मा के वो बेटा- बहू रह गए जो अपनी - अपनी नौकरी में उच्च पदों पर होने के कारण बहुत व्यस्त रहते थे और काम के सिलसिले में उनका एक पैर शहर में और दूसरा बाहर रहता था। घर में एक न एक रेल या जहाज का टिकिट बना ही रहता था।

इस बीच अम्मा के बेटे को राज्य स्तरीय ज़िम्मेदारी के निर्वाह में कई महीनों तक घर से बाहर भी रहना पड़ा।

बहू की दो - तीन विदेश यात्राएं भी हुईं।

इस सब का बच्चों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि अम्मा के ही एक बेटे के बच्चे अपनी पढ़ाई, ट्रेनिंग या प्रोजेक्ट के लिए देश के किसी भी कौने की हवाई यात्रा तक अकेले ही करके आ जाते, वहीं दूसरों को घर से बाज़ार तक जाने में भी किसी साथ जाने वाले की दरकार रहती।

ये सब बातें अपनी जगह थीं लेकिन सच ये था कि अब घर सूना सूना सा लगता था।

छुट्टियों में जब बच्चे घर आते तो सभी लोग कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बनाते और इस तरह ऐसा लगता कि जैसे सब इस बात को भांप रहे हैं कि अब हम सब बिछड़ कर अलग ही होने वाले हैं और इसीलिए सब कुछ दिन साथ रह कर जाते हुए लम्हों को पकड़ने की कोशिश करते।

अम्मा भी बेचैन सी दिखती थीं।

हर बार वो बच्चों को उनसे बिछड़ते समय इस तरह देखती थीं मानो अब उनसे आख़िरी बार मिल रही हों, अब जब वो आयेंगे तो वो नहीं होंगी।

अस्सी साल की उम्र की महिला का ऐसा सोचना, या उसके लिए औरों का ऐसा सोचना ग़लत भी तो नहीं कहा जा सकता था।

अम्मा थोड़ी देर के लिए ये भूल जाती थीं कि ये बच्चे बाहर चले भी जाएंगे तो क्या, वो केवल इन्हीं की दादी तो नहीं हैं, उनके और भी कई पोते- पोतियां हैं।

एक विचित्र बात ये थी कि एक ओर तो अम्मा इस सिद्धांत को मान कर भावुक होती थीं कि इन बच्चों के साथ शुरू से ही रहने के कारण उनका लगाव है, वहीं दूसरी ओर उनका मानना था कि इस तीसरे बेटे के हमेशा उनसे दूर रहने के कारण उसके साथ उनका खास लगाव है।

कोई नहीं जानता था कि ये बातें अम्मा के बाक़ी बेटों और पोतों को कैसी लगती होंगी।

बच्चों के अपने -अपने कैरियर के लिए दूर चले जाने के बाद अम्मा ही नहीं, बल्कि उनके बेटे- बहू का मन भी यहां से कुछ उखड़ने लगा था।

और तभी नियति ने फिर एक बार अपना रंग दिखलाना शुरू किया। बहू को अपने शानदार कैरियर में फ़िर एक बार बेहद अच्छा अवसर मिला।

उसे एक नए खुले विश्वविद्यालय में कुलपति अर्थात वाइस चांसलर के पद का ऑफर मिला।

बच्चों के जाने के बाद अपनी जगह से मन पहले ही भर चुका था। ऐसे में ये नया प्रस्ताव एक वरदान की तरह दिखाई देने लगा।

बहू ने इस नई नौकरी के लिए मन बनाया।

अम्मा के लिए ये एक अजीब असमंजस की स्थिति थी। वो ये सोच नहीं पा रही थीं कि इस बदलाव का उनकी अपनी ज़िन्दगी पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

क्या बेटे का भी ट्रांसफर उसी स्थान पर हो सकेगा जहां बहू की पोस्टिंग हुई थी।

और यदि ऐसा नहीं हो सका तो क्या फ़िर से बेटा और बहू अलग- अलग शहर में तैनात हो जाएंगे?

यदि ऐसा हुआ तो अम्मा को किसके साथ रहना होगा, क्योंकि अब बच्चे तो जा चुके थे। बहू भी अकेली थी, और बेटा भी अकेला।

यदि बहू के साथ रहें तो वाइस चांसलर बहू सारा दिन अपने नए दायित्व में व्यस्त रहेगी।

ऐसे में लंबा पहाड़ सा दिन अकेली अम्मा कैसे काटेंगी ?

और यदि अम्मा बेटे के साथ रहें तो वहां उन लोगों के खाने- कपड़े आदि की व्यवस्था क्या रहेगी।

क्या अम्मा अब इस हालत में हैं कि इन सब व्यवस्थाओं को संभाल सकें?

दोनों ही जगह नौकरों पर आश्रित व्यवस्था में अम्मा की भूमिका क्या रहेगी?

क्या सारा दिन अकेली घर में रहती हुई वयोवृद्ध अम्मा को देख कर बाक़ी के उन सब बेटा- बहुओं को अच्छा लगेगा, जो अपने बच्चों के साथ उसी शहर में रहते हैं।

यदि नहीं, तो क्या अम्मा अब किसी दूसरे बेटे के साथ रहने के लिए शिफ्ट हो जाएं?

तो क्या किसी वटवृक्ष के तने को उसकी टहनियों के साथ समायोजन करना होगा?

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