chha vyngya rachnaen books and stories free download online pdf in Hindi

छ व्यंग्य

अकबर महान 1

भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण प्रश्न है - अकबर को अकबर महान क्यों कहते हैं? कारण सहित उत्तर लिखो। इधर इतिहास की पुस्तकें पढकर विद्यार्थी इसका उत्तर कुछ इस तरह लिखते है।

प्रथम दृष्ट्या यह प्रश्न ही गलत है। अकबर महान नहीं हो सकता इसके कई कारण है, पहला और अत्यंत मह्त्वपूर्ण कारण यह है कि वह एक मुस्लिम शासक था उसके पूर्वज अन्य देशों से आए थे उन्होंने भारत को गुलाम बनाया था।

दूसरा कारण यह कि वह महाराणा प्रताप का नम्बर एक दुश्मन था। महाराणा प्रताप परमवीर देशभक्त थे और ता-जिन्दगी अकबर से जूझते रहे। महाराणा प्रताप हमारे राष्ट्रीय हीरो है इस हिसाब से देखे तो महाराणा का दुश्मन कैसे महान हो सकता है।

तीसरा कारण यह है कि वह बेपढा-लिखा था।

चौथा कारण यह था कि वह साम्राज्यवादी था और उसे रात-दिन अपने साम्राज्य के विस्तार की चिंता थी। साम्राज्यवादी कभी महान नहीं हो सकता।

वह एक तानाशाह था जिसने हुस्न की मलिका अनारकली को जिंदा दीवार में चुनवा दिया, वह सामाजिक न्याय का परम शत्रु था, गैर बराबरी का हिमायती, तभी तो कनीज अनारकली के साथ सलीम का निकाह नहीं करवाया।

अन्तिम कारण यह है कि उसने कई शादियों रचवाई बादशाह सलामत ने अय्याशी करने और इमारतें बनवाने के अलावा कुछ नहीं किया, इसलिए अकबर को महान शासक नहीं कहा जा सकता।

सबसे बड़ा शहीद 2

भारत में ऐसे नेता है, जिन्हें महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाना कुछ हजम नहीं होता। उनका कहना है - भारत माँ है, गाँधी तो उसके सपूत थे, पिता होने का प्रश्न ही कहां है? वे पक्के हिन्दू थे और मुसलमानों का पक्ष लेते थे। इसलिए गोड़से उनसे बहुत नाराज रहा करता था लेकिन गोड़से अंग्रेजों से नाराज नहीं था, महात्मा गाँधी से नाराज था। वह देशभक्त था और देश के लिए उसने राष्ट्रपिता की जान ले ली और बदले में फाँसी पर झूल कर शहीद हो गया। आज भी उसके कई हम खयाली उसकी शहादत से तुलना करते हैं यह देश भक्ति भी कितनी कुत्ती चीज है कि राष्ट्रपिता को गोली मारकर देशभक्त कहलाया जाए। आज भी ऐसे देशभक्त हैं, जो गोड़से को ठीक मानते हैं, बल्कि बिल्कुल ठीक मानते हैं। गोडसे के अनुयायियों ने गोडसे के मंदिर बनवाए है जहाँ उसकी पूजा की जाती है।कई राजनेता गोडसे की तस्वीर के आगे हाथ जोड़ते नजर आ जायेंगे। अभी तो गोडसे के भक्त संसद तक पहुँच गए हैं। वे थोडा समय और चाहते हैं ताकि कांग्रेस के विरोध के नाम पर गाँधी आर भी वार किया जा सके।तब खुल्लम खुल्ला उसके पक्षधर संसद में महान नेताओं की कतार में सुशोभित होंगेअगर ऐसे देशभक्तों के हाथों मे सत्ता आ गई तो गोड़से सबसे बड़े देशभक्त व शहीद माने जायेंगे, हो सकता है कुछ सालों बाद संसद में उनके चित्र का अनावरण भी हो ।

लोकतंत्र के कलाकार 3

भारत में लोकतंत्र के सूत्रधार गाँधीजी थे। इसलिए सरकार के सभी कार्यालयों में महात्मा गांधी की तस्वीर लगी हैं। गांधीजी का विश्वास था कि यहां के सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति आदि ढाई आने गज की खादी पहनेंगे। यही नहीं वे यह भी उम्मीद करते थे कि वे दो-चार घंटे सूत कातेंगे और उसी का धोती कुर्ता बनवा कर पहनेंगे। वे देश के आदर्श नागरिक होंगे जो दरिद्र नारायण और देश की सेवा में जुटे रहेंगे जिनके जीवन का ध्येय ही गरीबों का कल्याण होगा। वे सादा जीवन, सादा भोजन और सादा निवास अपनाएँगे।

लेकिन यह जरुरी तो नहीं कि जब पात्र मंच पर आयें तो वे सूत्रधार के अनुसार ही चले, पात्र कठपुतली तो है नहीं कि सूत्रधार की अंगुलियों पर नाचें। फिर ये तो जीवित पात्र थे, हाड-माँस के पुतले, इनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थी, इनके अपने परिवार थे, नाते-रिश्तेदार थे, पुत्र-पुत्रियाँ थीं, जिनकी अपनी आकांक्षाएं थी। ऊँचे लोग, ऊँचे लक्ष्य। लक्ष्य को आँख से ओझल मत होने दो। गांधीजी की तरह, लक्ष्य साधने में साधन और साध्य का विवाद मत लाओ, साधन को भूलो, साध्य को साधो, जायज-नाजायज का चक्कर छोड़ो मंच तुम्हारा है, जो चाहो सो दिखाओ, जनता को तो अन्तत: तालियाँ बजाना ही है।

लोकतंत्र का कलाकार जानता है, वोट हासिल करना कितना मुश्किल है, लोगों को तोड़कर, तो कहीं जोड़कर, तो कहीं जोड़-तोड़ कर वोट प्राप्त करने होते हैं, एक-एक सीट के लिए 50-50 लाख का दाँव लगाना पड़ता है और वेतन क्या मिलता है? लोकतंत्र के कलाकार का वेतन-भत्ता भरपूर होना चाहिए ताकि वे लोकतंत्र में अपनी भूमिका ठीक तरह से निभा सके। अबकी बार संसद इस मामले मे एक हो गई और उन्होनें अपने लिए इतने वेतन-भत्ते और पेंशन तय किये कि जीते जी कम नहीं पड़ेंगे। जब यह बिल संसद में पास हुआ तो विपक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा। राष्ट्रीय एकता का अप्रतिम उदाहरण देखकर दीवार पर टंगे महात्माजी ने अपना चश्मा उतार, आँखे पौंछी और फिर चश्मा लगाकर यथावत फ्रेम मे फिट हो गये।

मौनव्रत 4

जिलाधीश कार्यालय के सामने शामियाने के नीचे एक आदमी अपने मुंह को दोनों हाथों से ढांपे, गांधीजी के बंदर की मुद्रा में बैठा है। ठीक उसके ऊपर एक बैनर टंगा है। बैनर पर मौन व्रत लिखा है। कुछ और खद्दरधारी उसी मुद्रा में उसके दोनों ओर धरने पर बैठ जाते है। जिलाधीश को ज्ञापन देना है। कौन ज्ञापन देगा पहले से ही तय हो तो उचित रहेगा, नहीं तो वहाँ हड़बड़ी में मौन जुलुस की भद्द पड़ जायेगी।

पत्रकारों और फोटोग्राफरों का प्रवेश। विडियों कैमरा काम कर रहा है, पत्रकार ने पूछा – देश में आपातकाल लागू है आपकी प्रतिक्रिया! वे मौन हैं।

1984 के सिक्ख विरोधी दंगों के बारे में आपका क्या कहना है? वे मौन है।

बाबरी मस्जिद को तोड़ डाला इस सन्दर्भ में आपका क्या कहना है? वे मौन है।

अहमदाबाद में हिन्दु-मुस्लिम दंगे में लोगों को जिन्दा जला दिया गया है, कौन इसके लिए जिम्मेदार है? वे फिर मौन है।

उत्तर न पाकर पत्रकार ने उकसाया -

जब भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता है, आप लोग मौन साध लेते हैं। मुख्य बंदर मौन व्रतधारी उन्हें चुप रहने का आँखों से इशारा करता है। पत्रकार अनुनय करता है, लिखित वक्तव्य ही दे दीजिए।

‘‘सार्थक संवाद केवल मौन में ही सम्भव है

कौन जिम्मेदार है, अपने मांही टटोल,

आत्मा को शुद्ध करो, मौन भटको को रास्ते पर लाता है।

शब्द झगड़े की जड़ है। मौन शान्तिपूर्ण और प्रेममय है।

मौन में सारी समस्याएं समाप्त हो जाती है। ’’

मौन धीरे-धीरे असाध्य लगने लगता है कुछ लोग खुजलाते है, एक-दो हथेली पर तम्बाकू घिसते हैं। कई अपनी पुडि़या खोल कर खाते है। दर्शकों में से लड़के-लड़कियाँ आँख लड़ाने की कोशिश करते हैं।

जुल्म, अन्याय व अत्याचार के विरूद्ध मौनजुलूस. बेरोजगारी व गरीबी के विरूद्ध मौन जुलुस। मौन रामबाण है अतः सरकार मौन रहने का मूलभूत अधिकार सबको दे सकती है। बोलने की बदतमीजी की आज्ञा सिर्फ सिरफिरों को है। सरकार मौनव्रतधारी बंदरों की मूर्तियों को सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित किये जाने के आदेश देती है और मौनव्रत धारियों का धन्यवाद करती है ।

राष्ट्रपिता के सपने 5

एक देश हुआ हिन्दुस्तान अब भारत हो गया है। इसके एक राष्ट्रपिता थे, जिन्होंने अपनी लाठी से अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया। वे अहिंसा वादी थे। उन्होंने कभी लाठी नहीं चलाई, हाँ कभी-कभी दिखा देते थे। जैसे नमक आन्दोलन में।

उनके तीन बन्दर बहुत प्रसिद्ध हुए। वास्तव में ये तीन बन्दर ही उनके सच्चे वारिस थे, जो न बुरा देखते थे, न बुरा सुनते थे, न बुरा कहते थे।

इसलिए राष्ट्रपिता के वारिसों ने न तो कभी गरीबी जैसी बुराई देखी, न उन्होने भ्रष्टाचार के किस्सों पर कान दिया। वास्तव में उन्हें ऐसी बातें सुनाई ही नहीं पड़ती थी, न ही कभी उन्होंने किसी को बुरा-भला कहा सिवाय कम्युनिस्टों को छोड़कर। बुरा-भला कहनें की उन्हें जरूरत कहाँ थी! विपक्षी उनके दरबार में हाजरी दे जाते थे। अफसर, उद्योगपति, व्यापारी ठेकेदार, जमींदार उनकी सेवा में रहते और वे भी उनकी सेवा करते। जीओ और जीने दो का सिद्धांत या इसे कहें सहअस्तित्व की भावना।

उनके वारिसों ने राष्ट्रपिता के सपनों को साकार करने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाई, जिससे इंजिनियरों, ठेकेदारों, मंत्रियों, उद्योगपतियों और दलालों के विकास के साथ-साथ देश का थोड़ा बहुत विकास भी हुआ और इसी के चलते हम विकासशील देश की श्रेणी में आने लगे हैं। देश को स्वावलम्बी करने के लिए विदेशों से कर्ज लिया, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को न्यौते दे देकर बुलाया और प्रार्थना की उनसे कि ‘आप हमारे राष्ट्रपिता के सपने साकार करें इस वास्ते नमक बनाने के हमारे अधिकार को हमने विदेशी कम्पनी ‘’कारगिल’ को सौप दिये ।

खादी और बुनकरों के विकास के लिए, उन्होनें बड़ी-बड़ी कपड़े की मिलें स्थापित की और कपडे का निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित करने लगे गोया विदेशी मुद्रा से प्यार हमारी देश भक्ति की सबसे बड़ी मिसाल है।

राष्ट्रपिता की तीसरी या चौथी पीढ़ी के एक शख्स ने प्रधानमंत्री की कुर्सी से कहा कि जब भारत सरकार विकास में एक रूपया खर्च करती है तो पन्द्रह पैसे का विकास होता है। इतनी साफगोई थी इनमें। इतने सत्यवादी थे राष्ट्रपिता की तरह। कितने असहाय थे हमारे प्रधानमंत्री।

राष्ट्रपिता ने शराबबन्दी का सपना देखा था। उनके वारिसों में से एक ने गुजरात में पूर्णत: शराबबन्दी कर दी। जिससे राज्य सरकार को सालाना करोड़ों रूपयों का नुकसान होता था और शराब के धन्धों में लिप्त लोगों को करोड़ों का मुनाफा होता था। इस मुनाफे को वे सद्कार्य में खर्च करते थे जैसे चुनाव फंड में पैसा देना, अस्पताल स्कूल खुलवाना, अनाथालय को दान देना जिससे उन्होनें खूब पुण्य कमाया। वे रात-दिन बापूजी का गुणगान करते हैं और गांधी आश्रम को जम कर दान देते हैं।

इतिहास का एक प्रश्न 6

इंग्लैण्ड ने हम पर दो सौ वर्ष राज किया। फिरंगियों ने हमारे चूतड़े निचोड़ लिए, पसली-पसली तोड़ दी, कालेपानी के दर्शन करा दिये। फिरंगियों ने हमेशा हमें जाहिल और असभ्य समझा और वैसा ही हमारे साथ व्यवहार किया। उनका मिशन स्टेटमेंट था कि वे यहाँ भारत को सभ्य बनाने के लिए आए हैं।

दो सौ सालों की लूट से इग्ंलिस्तान में औद्योगिक क्रांति हुई जिसने भारत को बाजार में तब्दील कर दिया। उनकी सेवाओं को हमने उपकार माना कि उन्होंने हमें रेल, सड़क, वैज्ञानिक शिक्षा, न्याय व्यवस्था और प्रशासन दिया। हमने अपनी किताबों में कभी नहीं लिखा कि ये तमाम इन्तमाजात, देश की लूट को पुख्ता करने और अनन्तकाल तक अपने आधिपत्य को बनाये रखने के लिए किये थे । लेकिन हम है कि उनकी सेवाओं को उपकार माने जा रहे है। तमाम जुल्म ओर लूट के बावजूद हमारे मन में गोरी चमड़ी का सम्मान है। अन्ग्रेजियत अब तो इस देश में और अधिक सम्मान पा रही है, हमारे मन में उनके प्रति नफरत का कोई भाव नहीं है, गांधी बाबा ने कहा था कि नफरत व्यक्ति से नहीं उसके बुरे कर्म से करो। इसी अध-नंगे, लंगोटी वाले बाबा ने, उन्हें अपनी लाठी से मुल्क से खदेड़ दिया, उनके तोप तमन्चे धरे रह गये। वे भागे और सीधे इंग्लिस्तान जाकर ही रूके, हाँ, उनकी वर्णशंकर संताने जरूर यहाँ रह गई।

मुस्लिम हुक्मरान, अंग्रेजों से पहले भारत में अन्य देशों से आए लेकिन वे हमारे लिए अफगानी, ईरानी, ईराकी, मंगोलियन नहीं है वे सब मुसलमान हैं जबकि अंग्रेजों को हम उनकी राष्ट्रीयता के नाम से पुकारते हैं और उन्हें धार्मिक पहचान नहीं देते। पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेजी सभी राष्टीय पहचान वाले शब्द है। उन्हें हमने धार्मिक पहचान देकर ईसाई नहीं कहा लेकिन लेकिन मुसलमानों के बारे में हमारा मानस अलग तरह से फ्रेम्ड है। उनका राज खत्म होने पर वे वापस अपने मुल्क नहीं लौटे। ना ही लूट का धन अपने मातृ देश में ले गए केवल शुरूआती आक्रमणों को छोड़कर, इसी देश में बस गए। उन्होने भी जुल्म ढाये जैसे अन्य हुक्मरान ने ढाए थे। साधारण-सा मुसलमान भी हमारे मन में जुगुप्सा जगाता है। उनके नाम मात्र से मुंह में ढेर सा थूक इकठ्ठा हो जाता है। और फिर इस नफरत की ठण्डी आग को दंगों से समय-समय गर्म किया जाता है।

इतिहास का एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारतीय मानस में अंग्रेजों के प्रति सम्मान और मुसलमानों के प्रति नफरत क्यों है?

अंग्रजों को उनके राष्ट्र के नाम से संबोधित करते हैं और मुसलमान को धार्मिक पहचान देते हैं, क्यों? अंग्रजों को इसाई समुदाय की पहचान क्यों नहीं देते?

उसका सही उत्तर संघ परिवार या मौलवियों की जमात या जिन्नाओं के वंशज दे सकते हैं। क्योंकि यह नफरत हो सकता है उन्होंने ही फैलाई हो।