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बेटी के मोबाइल की घंटी

रामप्रसाद का मोबाईल
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
रामप्रसाद मोबाईल से बात करने के बाद अपनी पेंट की जेब से रूमाल निकालते थे। उससे मोबाईल को अच्छी तरह से साफ करते थे फिर शर्ट की बाएँ जेब में बड़े करीने से उसे रख लेते थे । उन्हें लगता था कि अब समय बदल गया है। सभी अपने आप में व्यस्त हो गये हैं । किसी के पास अब समय नहीं है । यह मोबाईल ही है, जो आज हमारे परस्पर संबंधों में एक सेतु की तरह से काम कर रहा है । आज उनके जीवन में यही एक अमूल्य वस्तु है । जो उनके डायबिटिक जीवन में कभी कभी मिठास की चाहत की भरपाई कर जाता है । क्षण दो क्षण बात तो हो जाती है । बगैर किसी के घर जाये या उसको डिस्टर्ब किये बिना। दूरियाॅं कितनी भी हों, चाहे अपने हों या पराये जब बात करनी हो बेधड़क बात हो जाती। अब तो मोबाईल से लगता था, जैसे दोंनों पक्षों में आपसी सहमति एवं संतुष्टि हो गयी थी। आज के युग में अब मोबाईल धनवानों का फैशन नहीं रहा वरन् निर्धन लोगों की भी आवश्यकता बन गया है ।

रामप्रसाद सरकारी नौकरी में थे। उन्हें अब पेंशन मिल रही थी, तो स्वाभाविक है,मोबाईल रिचार्ज कराने में कोई परेशानी नहीं थी। जब बात करते तो जी खोल कर बात करते । इस बढ़ती उम्र में पेट की भूख भी जवाब दे जाती है। धीरे धीरे सारे शौक बंद हो जाते हैं। ऐसी उम्र में पेटराम जरा भी अधिक खाना बर्दास्त नहीं कर सकते। जब कोई पेटू बनने की जुगत भिड़ाता, तो उसकी ऐसी धुलाई कर देता कि सभी कान पकड़ कर भविष्य में स्वयं ही तौबा कर लेते हैं वैसे भी उनके जवानी के दिनों में दिन में आठ दस बार पान खाना या फिर चाय पीना ही शामिल था। इसके सिवाय और कुछ नहीं था । वह भी वर्षों पहले पान सुपाड़ी से दो दांतों ने हिल कर उसे चेतावनी दे दी थी कि यदि सावधान नहीं हुए तो हम सभी आपका साथ छोड़ देंगे। तबसे उन्होंने बचे खुचे शौक भी छोड़ दिये थे। एक तरह से बचत ही बचत थी। समय के प्रति हमेशा सावधान रहा करते थे। जैसे राजा दशरथ को भी दर्पण निहारने पर एक दिन सिर के पके बाल दिखे। जो अनुभव और चिंतन उनने किया, वही रामप्रसाद को हुआ था। उन्होंने अपने सभी बेटों को काम से लगाकर और शादी विवाह करके स्वयं चिन्तामुक्त हो गये थे। अब उनके पास समय ही समय था। पर दूसरों के पास भी तो समय होना चाहिए ।

रामप्रसाद के जीवन में बस दो मीठे बोल की ही चाहत रह गयी थी। वे नाते -रिश्तों के अपनेपन और उसकी मिठास के स्वाद से भली भाॅंति परिचित थे। जो आज इस भागती हुयी दुनियाॅं में पता नहीं कहाॅं गुम होती जा रही थी । तब ऐसी विषम परिस्थितियों में उनके लिए एक मोबाईल ही तो सहारा बन कर रह गया था। जो उनके व्याकुल मन की लंका पर विजय पाने के लिए, एक आवश्यकता बन गई थी। सतयुग में शांति स्वरूपा सीता को खोजने के लिए लोगों में एक दूसरे के सहयोग की होड़ मची रहती थी । उनके संग में वानर भालू तक तत्पर हो गए थे । पर आज के युग में चिराग लेकर भी ढॅंूढ़ोगे तो भी शायद कोई मिल जाए सम्भव नहीं ।

आज हर घर के बेटों में राम लखन के भातृत्व भाव कम ही देखने मिलते हैं । तो परायों के बारे में सोचना ही व्यर्थ हैै । बनवास के समय साथ चलने की जिद तो केवल रामायण काल की बात थी । इस कलयुग में कौन किसी के साथ, संग निभाता और चलता है । अगर किसी सतयुगी महाशय ने अपने मन में ऐसी अपेक्षायें पाल भी लीं , तो कभी न कभी एक दिन उसका मोह भंग अवश्य हो जाता है । तब ऐसी विषम परिस्थिति में मोबाईल ही एक मात्र सहारा है । कम से कम दूर से ही सही संबंधों की डोर में कुछ बंधे तो हैं। मन की लंका में उथल पुथल न हो और हृदयाघात से बचना है ,तो मोबाईल का होना जरूरी है । वार्तालाप करके ही हर मानव सीता रूपी शांति को तो पा जाता है। खोज जब होगी, तब देखा जाएगा । कुशल क्षेम के जरिये दोनों के मन में तसल्ली तो बनी रहेगी ।

अचानक रामप्रसाद को वर्शों पूर्व का एक वाकया याद आया । जब प्रमोशन के दौरान नए शहर में उसका जाना हुआ, तब परदेश में मोबाईल से बातचीत करके एक मित्र बनाया। जिसके परिणाम स्वरूप वह आफिस में उस मित्र कादोस्त नहीं वरन् उसका बड़ा भाई बन गया था। वह उस शहर में अपना बड़ा भाई कहकर सबसे मिलवाता था। उसे बहुत खुशी होती । चलो परदेश में ही सही , उसे एक अपना छोटा भाई तो मिला । वह मित्र अपने घर की शादी विवाह में,उसे अपना बड़ा भाई प्रस्तुत कर सम्मान दिलाता रहा । वह भी बड़े गर्व से उस शहर में बड़े भाई की भूमिका दस वर्षों तक निभाता रहा । और अपने आप को उस शहर का ही बड़ा भाई मानने लगा था ।

एक दिन उसका ट्रान्सफर फिर दूसरे शहर में हो गया । दो वर्ष गुजर चुके थे । भातृत्व की चाह उसे बार बार अपने छोटे भाई से मिलने को प्रेरित करती। आफिस में लगातार चार दिन के अवकाश ने उसकी चाह की राह खोल दी । उसने इस बार अपने गृह नगर जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। चूंकि अपने इस छोटे भाई से मिलने की उत्कंठा उसके अंदर प्रबल हो गयी थी। उसने तुरंत मोबाईल पर फोन करके अपनी इच्छा प्रगट की। दो तीन दिन तक फोन लगाता रहा पर रिंग टोन जाती रही पर बात नहीं हो पायी। किसी अज्ञात आशंका से वह परेशान हो उठा था। अतः चौथे दिन टेलीफोन लगाया तो मालूम पड़ा वह अपनी ससुराल में है। उससे मिलना असंभव है। पर बड़े भाई की व्यग्रता ने बगैर सोचे समझे तत्काल में रिजर्वेशन करवा लिया था । तब इस समस्या से मुक्ति के लिए सोचा, मन ने कहा- चलो छोटे भाई से न सही और भी यार दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी । क्या बुरा है । बिछुड़े शहर से एक बार फिर मुलाकात हो जाएगी। और फिर पहुॅंच गया उस शहर, अपनी मधुर स्मृतियों को तरोताजा करने के लिए ।

उस शहर में एक दिन होटल में चाय की चुस्कियों के साथ अतीत के दिनों की याद कर ही रहे थे कि वे छोटे भाई साहब एकाएक सामने से गुजरे । उनको देखते ही उनके मुख से आवाज निकल गयी । अचानक बड़े भाई को देख उनके चेहरे से हवाईयाॅं उड़ती नजर आईं । देखकर उनकी समझ में आ गया था कि उनके साथ केवल दस वर्शों तक ही बड़े भाई का अनुबंध था । मोबाईल का एक झूठ पकड़ा जा चुका था । उसे सकपकाया देख उन्होंने ही स्नेह से पूॅंछा -क्या ससुराल जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया ? चलो कम से कम आपसे मुलाकात तो हो गयी, कह कर उस छोटे भाई को अपने गले लगाकर अपने बड़े भाई के बड़प्पन को बरकरार रखा । और उसकी शर्मिन्दगी को अपने गले लगाकर उसे मुक्त कर दिया ।

पैंसठ वर्षीय रामप्रसाद को याद है कि वह मजबूरी में ही मोबाईल खरीदने ‘मोबाईल मार्केट’ में गया था । वह पूर्व में मोबाईल की आलोचना करने में कभी नहीं थकता था । सभी के सामने उसे बेकार की वस्तु कहते रहते थे । उसके दुष्परिणामों की जब कोई खबर अखबारों में छपती तो वह उनको कंठस्थ कर लेते और हर किसी को सुनाने की कोशिश करते । जैसे अखबार को तो बस यही पढ़ता था, बाकी तो सारे अनपढ़ों की फौज में शामिल थे । उसे जब भी मौका मिलता लोगों को रटे रटाए तोते के समान सुना देता- भाई साहब आपको मालूम है , मोबाईल से आपके हार्ट पर दुष्प्रभाव पड़ता है , उसकी ध्वनि तरंगों से ढेर सारी समस्यायें पैदा होती हैं ...बीमारियाॅं फैलती हैं ...मस्तिष्क रूग्ण होता है ...और गाड़ी चलाते बात करना तो समझो मौत ...आदि । लम्बे अंतराल के बाद उसे सबके हाथों में मोबाईल देखकर कुछ ईर्ष्या सी भी होने लगी थी । स्वयं को पिछड़े पन की हीन भावना में पाने लगा था । उसे लगा कि मैं अपनो से व समाज से कटता जा रहा हॅूं तब वह अंतिम निश्चय कर पाया था।

यह भी कोई बात हुई , नम्बर लगाओ और बात कर लो। न आमना और न सामना। न प्रेम न व्यवहार , हलो हाय किया, काम की बात की और फोन कट। उसे हर समय ऐसा लगता था कि एक दूसरे से मिलने जुलने से जो अपनत्व का पुल बनता था, वह आजकल लगभग टूटता जा रहा था। ‘अतिथि देवो भव’ तो वेदों में ही सिमिट कर रह गया था । यह तो हमारे पंडितों के मुख से ही अच्छा लगता था । हमारे आपस में मिलने जुलने की संस्कृति तो बस किताबो में सिमिटती जा रही थी । किसी आगंतुक का आगमन घर वालों के माथे पर चिन्ता की लकीरंे खींच देता है। स्नेह,प्रेम- प्यार, मिलन आदि आज निज स्वार्थ की भट्टी में तप कर बिल्कुल राख हो चुका था।

तभी तो आज एक ही शहर में अलग अलग कालोनी में रहने वाले उनके दोनों बेटों के पास समय नहीं था। छोटा बेटा विकास अपने बड़े भाई समीर के घर दो दो माह तक नहीं आता था । जो बात उसे अपने छोटे भाई से करनी होती, तो वह अपने घर से ही मोबाईल में कर लेता था। यहाॅं तक कि अपने माता पिता की भी खैर खबर का जरिया, यह मोबाईल ही रह गया था। उसे तो विचित्र तब लगता जब होली दीवाली में भी उनके बेटे एसएमएस से ही तीज त्यौहार निपटा लेते थे। फिलहाल वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहा करता था । बड़े बेटे का यह प्यार था या कर्तव्य। वह इस पचड़े में बिल्कुल भी नहीं पड़ा क्योंकि वह केवल यह जानता था कि यह मकान उसने ही बनवाया था। उसके ही नाम पर था । इंसान की ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती है, सब अपने अपने परिवारों में बॅंट जाते हैं, अपनी अपनी दुनियाॅं में खो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसे यॅूं भी कहा जा सकता है कि अपने अपने कमरों में ही सिमिट जाते हैं। दोनों बेटे बट गये थे। बस अभी तक बॅंटी नहीं थी तो उनकी बेटी। जिसे यह संसार सदियों से पराया धन कह कर हर माॅं बाप को समझाता चला आ रहा है।

शादी होने के बाद बेटी दूर शहर में रहती थी। सही अर्थों में उसने मोबाईल अपनी बेटी के लिए ही लिया था । फोन करते ही उसकी खनकती हुयी आवाज उसके कानों में किसी मंदिर की घंटियों के समान बजने लगती थी । कैसे हो पापा ... कैसी तबियत है...क्या कर रहे हो पापा .... जैसे न जाने कितने एक साथ प्रश्न दाग देती थी कि बात कहाॅं से शुरू करूॅं । रामप्रसाद क्षण भर सोच में पड़ जाते । अगर अस्वस्थता की जानकारी देता हूँ तो किसी चिकित्सक की भाॅंति सावधानियाॅं एवं दवाइयों की लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करने लगती। शादी होने के बाद से ही वह सयानी हो गई थी। अब वह अपने पापा को पापा नही समझती थी। यह बात और थी कि अभी उसकी उमर उससे आधी से भी कम थी। आखिर वह उसकी गोद में ही खेलकर बड़ी हुई थी। पर आजकल वह तो उसके माॅं के समान व्यवहार करने लगती । लगता था कि मेरी हर समस्या का निदान उसके पास था। दूर रहते हुए भी जब मोबाईल में बातचीत कर रही होती है तो लगता है कि वह मेरे सामने खड़े होकर बात कर रही हो। बात खत्म हो जाने के बाद वह कितनी बार अपने घर आने का आग्रह करती ।

पापा आप कबसे नहीं आए ...पिछली बार जब आए थे ,तो दो माह बाद आने का वादा कर गये थे । शादी होने के बाद क्या मैं परायी हो गई ... क्या मैं आपकी बेटी नहीं हॅूं ....पापा आ जाओ ...कब आ रहे हो .... और आप बस से नहीं टेªन से आना ... हम रिजर्वेशन करवा कर भेज देंगे आदि आदि....कभी कभी उसे लगने लगता था कि पिता जी लड़की के घर आने से संकोच कर रहे हैं, तो वह अपनी सासू माॅं को मोबाईल पकड़ा कर अपने घर की मुखिया का आमंत्रण दिलवाने का प्रयास करने लगती है ।

जब कभी बेटी के घर में इस तरह बार बार न आने की बात को कहने का दुस्साहस करता , तो वह उलट कर -बेटी के घर को ‘पराया घर ’कहने वालों की खिंचाई पर उतारू हो जाती। उस संस्कृति के विरोध में आकर खड़ी हो जाती और उनको एक पिता जी की तरह डाॅंटने लगती है। शायद इसी अपनत्व बोध को पाने के लिए उसने मोबाईल लिया था। जिसे आज भी वह शर्ट के बाएँ जेब में जहाॅं उसका दिल धड़कता है, वहाॅं बड़े प्यार से सीने से लगा कर रखता है और इंतजार करता रहता है,दो मीठे बोल की... अपनत्व की...जिससे उसके मन मंदिर में पूजा की घंटियाॅं अनवरत बजती रहें और वह निरंतर उसकी ध्वनि को सुनता रहे...

मनोज कुमार शुक्ल‘मनोज’
58‘आशीष दीप’ उत्तर मिलोनीगंज
जबलपुर म.प्र.