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कभी अलविदा न कहना - 18

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

18

"मैं आज कॉलेज से सीधे ही घर निकल जाऊँगी, बैग लेकर आयी हूँ।"

"क्यों..?" मेरी बात सुनकर रेखा ने यूँ सिर झटका मानो मैंने कोई वाहियात सी बात कही दी हो।

"इसलिए कि मैं नहीं चाहती मेरी वजह से पार्टी का आनंद एक प्रतिशत भी कम हो.."

"ओह! ये बात है... तुमने कैसे सोच लिया कि तुम्हारे जाने से पार्टी का आनंद बढ़ जाएगा?"

"यदि नहीं भी बढ़ा तो कम से कम मेरा मुरझाया चेहरा देखकर फीका तो नहीं होगा।"

"हम्म्म्म...." मेरी बात सुन रेखा ने दार्शनिक अंदाज़ में सिर हिलाया और बोली... "विशु! तुझे दोस्ती का अर्थ पता है? शायद नहीं... तभी इस तरह की बात कर रही है।"

"चल तू ही बता दे... हो सकता है कि इस जगह मैं गलत साबित हो जाऊं... और ऐसा हुआ तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे ही होगी।"

"तू आज घर नहीं जा रही है बस.... इतना फाइनल है और मेरा वादा है कि तू निराश नहीं होगी।"

"देख जिद मत कर... मेरा मूड बिल्कुल भी ठीक नहीं है। मुझे पता है कि आज अनिता ने कुछ खास प्लान किया हुआ है... मैं सिर्फ फिजिकली प्रेजेंट रहूँगी... दिल और दिमाग तो कहीं और ही लगे रहेंगे... मैं खुशियों में मन से शामिल नहीं हो पाऊँगी... प्लीज आज तुम चारों ही एन्जॉय करो, अगली पार्टी में धमाल करेंगे मिलकर..."

"आप दिल, दिमाग और देह के साथ पार्टी में ही रहेंगी... इसका पूरा इंतज़ाम किया गया है, और अब कुछ नहीं सुनूँगी, क्योंकि हमें मार्केट चलना है, शाम के लिए खरीदारी करने... ओके....?"

रेखा की इस अपनत्व भरी जिद के आगे मेरा कोई तर्क काम नहीं आया। मन मारकर चल दी उसके साथ मार्केट की ओर...!

कभी कभी हम आँकडी लगा लेते हैं... मसलन कि यदि ऐसा हुआ तो वैसा होगा... जैसे कि आजकल के बच्चे खास चिड़िया को देखकर कहते हैं कि 'वन फ़ॉर सॉरो... टू फ़ॉर जॉय...' बस उसी तरह से मेरी आदत है कि कोई खास इच्छा पूरी होने के लिए उसे किसी घटना से जोड़ देती हूँ। 'यदि आज भिंडी की सब्जी बनी होगी तो टेस्ट में फलाना प्रश्न जरूर आएगा' या कि 'रेडियो पर अमुक गाना आया तो मुझे हाईएस्ट मार्क्स मिलेंगे' आदि आदि..... एक बार फिजिक्स प्रैक्टिकल एग्जाम में मन्नत की थी कि यदि सोनोमिटर का प्रैक्टिकल मिला तो एक कटोरी मूंग की दाल खाऊंगी, जो कि मुझे सख़्त नापसन्द थी। कुल मिलाकर मेरी जो चाहतें पढ़ाई और रिजल्ट पर केंद्रित थीं.... आज एक पायदान आगे बढ़ गयीं थीं। मुझे अच्छी तरह से पता था कि घर लौटने के पीछे सुनील से मिलने की इच्छा थी, मैं पार्टी से नहीं खुद से भागना चाह रही थी। बस में सुनील मिलेगा यह तय था, मैं उसके कन्धे पर सिर टिकाकर रोना चाहती थी। कितनी ही बार इस ख्याल और ख्वाब से गुजर चुकी थी कि वह मुझे अपने आगोश में समेटे मेरे आँसू पोंछ रहा है... उसके शब्द कानों में गूँज रहे हैं... 'चिंता मत करो... मैं हूँ न तुम्हारे साथ... हमेशा...' अशोक और अंकुश दोनों को दूर झटककर मैं खुद में ही सिमट रही हूँ, लग रहा है कि अब सुनील है तो मैं हूँ और सबकुछ ठीक है। रेखा ने इस ख्वाब को हकीकत में बदलने से रोक दिया था... शायद मैं भी ख्वाब के टूटने की आशंका से खौफजदा थी, इसीलिए बेमन से ही सही, किन्तु घर लौटने का इरादा फिलहाल टाल दिया था। कुछ ख्वाब जो हमारी मंज़िल होते हैं, उन तक पहुँचने से पहले हम इत्मीनान कर लेना चाहते हैं कि वह हकीकत बनेगा... इसीलिए लम्बी यात्रा भी अखरती नहीं है। मैं रुक तो गयी थी परंतु दिल और दिमाग में सुनील की सोच नहीं रुकी थी... और फिर अचानक मैंने वह सोच लिया जो मैं सोचना नहीं चाहती थी... न जाने कैसे दिमाग में आया और मैंने एक आँकडी लगा ली कि 'यदि मेरी किस्मत में सुनील लिखा है तो आज उससे मुलाकात जरूर होगी।' यह सोचने के साथ ही खुद से नाराज़ भी हो गयी कि आज उससे मिलना असंभव है, फिर मैंने खुद ही क्यों उसे अपनी जिंदगी में आने के पहले ही बाहर जाने का रास्ता दिखा दिया, गोयाकि यदि वह आज नहीं मिला तो कभी नहीं मिलेगा। आज सोचकर हँसी आती है कि बुद्धू सी लड़की को प्यार हो जाना मतलब करेले का नीम चढ़ जाना...!

मार्केट में पूरे समय मेरी नज़रें सुनील को खोजती रहीं।

"यह ब्रेसलेट कैसा लग रहा है?"

"यह वॉलेट अच्छा है, ब्राउन या ब्लैक कौन सा लूँ?"

"परफ्यूम देख न कौन सा अच्छा है?"

रेखा के ये छोटे छोटे प्रश्न मुझे सोच के दायरे से बाहर निकालते तो थे, किन्तु उत्तर दिए बिना ही मैं फिर खो जाती थी। वह मेरी मनोस्थिति समझ रही थी, तभी तो उसने खुद ही केक आर्डर किया, निखिल सर के लिए हम दोनों की तरफ से गिफ्ट ली और विजय के लिए भी उसने एक रिस्ट वॉच खरीदी। अनिता उसकी गिफ्ट पहले ही ले चुकी थी।

अचानक मेरा दिल जोर से धड़कने लगा... मैंने फिर से देखा, वह सुनील ही था, मिठाई की दुकान से निकल रहा था, मैं एकटक देखती रही, वह मेरे नज़दीक आया, 'एक्सक्यूज़ मी...' कहते हुए बाइक उठायी और निकल गया। 'ओफ्फो...' मैंने खुद को ही एक चपत लगायी। वह सुनील नहीं थी, सुनील तो फ्लॉवर शॉप पर बुके खरीद रहा था। मैं पीछे से देखकर ही उसे पहचान सकती थी।

"रेखा! चल न एक बुके खरीद लेते हैं निखिल सर के लिए..." मैं उसका हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए फ्लॉवर शॉप पर पहुँच गयी... 'एक्सक्यूज़ मी...' मेरे इतना कहते ही वह शख्स परे हट गया। मैंने फिर गलती कर दी थी। "क्या कहा... इतना महंगा... लूट मचा रखी है... छोड़ यार बुके खरीदना फिजूलखर्ची है, एकाध दिन रखकर तो फेंकना ही पड़ेगा..." मैं खिसियाई सी शॉप से निकल आयी। मुझे व्यस्त रहने का बहाना मिल गया था। मेरे दिलोदिमाग पर सुनील इस कदर छाया हुआ था कि मुझे हर शख्स में सुनील का अक्स दिख रहा था। शॉपिंग होने के बाद मेरा मन बुझ गया था। घर लौटते हुए कदम बेहद बोझिल थे। दिल बैठा जा रहा था ये सोचकर कि अब मैं सुनील को हमेशा के लिए खो दूँगी। खुदपर गुस्सा भी आ रहा था कि मैंने इस तरह से सोचा ही क्यों...? खुद को दिलासा भी दे रही थी कि ऐसा सच में थोड़ी होगा कि आज नहीं मिला तो कभी नहीं... !

घर में घुसते हुए मैंने कई बार आँखे मली, मेरी आँखें फिर धोखा खा रहीं थीं। बिना उस ओर देखे मैं अंदर चली गयी। क्या सपना सच होने वाला है? बाहर निखिल सर और विजय के साथ सुनील जैसा कौन बैठा है? मैं खुद से ही बतियाती हुई बाथरूम में घुस गयी। शॉवर लेने के बाद एक ताज़गी का अहसास हुआ। मैंने गुनगुनाते हुए नीला सूट निकाला। कॉस्मिक एनर्जी के बारे में पढ़ा था। क्या सच में किसी की उपस्थिति के ख्याल मात्र से हम इतनी सकारात्मकता अनुभव कर सकते हैं। मुझे विश्वास था कि सुनील की उपस्थिति एक भ्रम है, फिर भी मैं खुश थी और उसे महसूस कर पा रही थी

"ये वैशाली को इतना टाइम तो कभी नहीं लगा रेडी होने में... महारानी कर क्या रही है? रेखा! जरा देख तो... तुम दोनों साथ में ही तो आए हो..." अनिता की आवाज़ अंदर तक आयी।

"तुमने पुकारा और हम चले आए......" रेडियो पर गाना शुरू हुआ और उसकी लय में लय मिलाती हुई मैं बाहर आ गयी।

हमारे छोटे से घर में हमने आठ केन की फोल्डिंग कुर्सियां ले रखी थीं। एक बेड बाहर के रूम में था, जिसे दीवान का लुक दे रखा था। एक सेंटर टेबल थी और एक स्टूल भी... उसी स्टूल पर अनिता ने अपना वर्क वाला दुपट्टा बिछा कर केक सज़ा दिया था। कुछ लाल गुलाब की पंखुरियाँ बिखेर दी थीं। हम सब जानते थे कि वह निखिल सर को पसन्द करती है और उनकी तरफ से भी कभी कोई नापसन्दगी जाहिर नहीं हुई थी। आज अनिता उनके जन्मदिन पर यही तोहफा देने वाली थी। माहौल को रोमांटिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, आज इजहारे इश्क जो होना था। रेखा ने सही कहा था, मैं अपनी परेशानी भूल चुकी थी और पूरे मन से अनिता की खुशी में शामिल थी। रेखा, अनिता और निखिल सर बैठे थे।

"विजय भाईसाहब कहाँ गए?" मेरे प्रश्न के जवाब में रेखा ने बताया कि हम कैंडल्स लाना भूल गए थे और विजय वही लेने गया है।

"ओके.." कहा तो इतना ही, किन्तु मैं पूछना चाहती थी कि क्या वाकई वहाँ कोई और भी था, कुछ समय पहले या सिर्फ मुझे भ्रम हुआ था।

"आप पर नीला रंग बहुत फबता है..." विजय की आदत है बटरिंग की... अतः मैंने बात को गम्भीरता से नहीं लिया... सिर्फ इतना कहा... "पता है, कोई नयी बात बताओ..."

"ह्म्म्म, यह बात कोई पहले भी बोल चुका है... है न?"

इस बार मैं गलत नहीं थी। दरवाज़े की ओर नज़र गयी, जहाँ विजय के पीछे सुनील प्रवेश कर रहा था। मैं एकदम जड़ हो गयी।

"आ आ प... त... तुम..... यहाँ कैसे....?" मैं जो फील कर रही थी वह बिल्कुल ही अजीब फीलिंग्स थी। खुशी... नर्वसनेस... सबका मिला जुला भाव... मैं अपने होशोहवास खोने लगी थी।

"हाँ... मैं.... विश्वास नहीं हो रहा...? छूकर देख लो..." सुनील ने हाथ आगे बढ़ाया... मैं एक पल के लिए लड़खड़ाई... फिर सुनील का हाथ थामकर कुर्सी पर धम्म से बैठ... सही मायने में गिर ही गयी। आँखे डबडबा गयीं.. सबकुछ धुँधला गया... बस मैंने सुनील का हाथ नहीं छोड़ा।

"वैशाली! क्या हुआ? तुम ठीक तो हो? चक्कर आ गए क्या..?" रेखा की आवाज़ सुन मैं थोड़ी संयत हुई। सुनील का हाथ छोड़ खुद में ही सिमट गयी।

"दरअसल आज सुनील की बस छूट गयी, मुझे मिल गया था, किसी दोस्त के यहाँ जा रहा था, उस दिन बैंक में तुमने परिचय करवाया था, तुम्हारा फैमिली फ़्रेंड है इसलिए मैं यहीं ले आया कि हमारी पार्टी जॉइन कर लो, हमारे साथ ही रुक जाना....." विजय बोलता जा रहा था, किन्तु मैं कुछ और ही सुन रही थी... "विश्वास हो गया न विशु... मैं ही हूँ... हमारी किस्मत की लकीरें विधाता ने जोड़ दी हैं... देखो मैं आ गया हूँ, कभी न छोड़कर जाने के लिए.... अब सब कुछ भूल जाओ... मैं हूँ न....!" और वाकई में मैं सबकुछ भूल गयी थी। निखिल सर ने केक काटा और रेखा ने पंखा ऑन किया... चमकीली रंगबिरंगी खुशबूदार कागज़ की कतरनें चारों और बिखरने लगीं... साथ ही बिखरीं... "हैप्पी बर्थडे टू यू..." की स्वरलहरियां.... सब कुछ एकदम स्वप्नलोक सा... एकदम खुशनुमा सा...!

पार्टी जिस माहौल में शुरू हुई थी, खत्म होने तक वह बदल चुका था। वाकई हम जो सोचते हैं, वैसा हमेशा नहीं होता है... बहुत कुछ नए सबक सीखे थे उस दिन.....!

क्रमशः....19