Tumne kabhi pyar kiya tha - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

तुमने कभी प्यार किया था? - 7

 
उसकी कुछ रचनाएं मैंने पढ़ी। और बार-बार उन्हें पढ़ती रही।मेरे मन में उसकी साक्षात मूर्ति बनती रही।मुझे लगता था इन रचनाओं के माध्यम से वह मुझे और मैं उसे छू रही हूँ।
१.
"तुम्हारा वह मन
फिर मिला ही नहीं,
तुम्हारी परिछाई
फिर दिखी ही नहीं,
धूप में गया तो
यादें लिपट आयीं,
पगडण्डी पर चला तो
कदम याद आये,
कहानी तुम्हारी
साथ ले आया,
किश्मत के रोड़े
उठाये न उठे,
दिन कब ढले
पता ही न चला,
अथक दौड़ में
फिर मिले ही नहीं,
वह जगमगाता उत्साह
कहीं मिला तो नहीं,
सारी कल्पना से
अभिभूत हो चुका,
तुम्हारे नाम को
संग ले, जी लिया।"
२.
"मैंने सबसे पहले तुमसे ही पूछा
पाठ्यक्रम का विवरण
हवा की ठंडक
और तुमने पुष्टि की
मेरे इन सरल दिनों की ।
मैंने सबसे पहले तुममें ही खोजा
अपना पता
आने-जाने का रास्ता
सम्पूर्ण प्यार का अहसास
और तुमने लगायी मुहर
मेरे इन चलते वर्षों पर।"
३.
वर्ष तो बहुत थे
तुम्हें भुलाने के लिये
इस जनम में तुम्हें
पर भुला न पाया,
कन्याकुमारी तक जाती
रामेश्वरम तक पहुँचती
समुद्र की लहरों में सरकती- उछलती
तुम यादों में उभरती
मंत्रों में कहूँ तो मिली हुई थी,
मैंने तुम्हारे कंधे पर
कभी हाथ नहीं रखा,
न कभी हाथ पकड़ा
न कभी पता पूछा,
रूह के पते पर
जो भी चिट्ठी लिखी
वह तुम तक नहीं पहुंची,
तुम्हारी आँखों ने जो पढ़ा
मैं उतना ही था,
सच कहूँ तो
तब मेरा ईश्वर भी उतना था,
वर्ष तो बहुत थे
तुम्हें भुलाने के लिये,
पर इस जनम में
तुम्हें भुला न पाया।"
४.
"हथेली जो तुमने छूयी
निखरी हुई है,
दूसरे हाथ से छू
बार -बार जाँचता हूँ
कितने निकट हो तुम।"
इन रचनाओं को पढ़कर मैं अपने आप को उसके पास पाती।मुझे याद आने लगा जब उसने फिल्म दिखाने को कहा था और उसके उत्तर में मैंने कहा था "हम पहला शो देखते हैं।" और वह चुप हो गया था।उसकी बातें भुलाने के लिए नहीं थी।जीवन की परिच्छाई उन में होती थी।वही एक रूह थी जिसकी आँखों में मैं निरंतर देख, सुख का अनुभव कर सकती थी।वहाँ भौतिक सुखों का कोई स्थान नहीं था। वर्षों बाद , मैं एक शहर में गयी जहाँ अपने कमरे की छत्त पर खड़ी थी।
मुझे आभास हुआ कि कोई मुझे खिड़की से देख रहा है। मैं अनजान सी खड़ी,आसमान के छोरों को देखती रही।वह मेरे हावभावों को देख रहा था।उसे लग रहा था कि उसका अतीत उसके सामने खड़ा है। मैं रह-रह कर उसे देख रही थी। पर ठीक से पहिचान नहीं पा रही थी।वह भी मुझे पहिचानने की कोशिश कर रहा था।लेकिन समय का अन्तराल हमारा साथ नहीं दे रहा था।चालीस साल में शक्ल-सूरत बदल जाती है।मुझे उसमें पता नहीं क्यों अपना विगत दिख रहा था।लेकिन मैं उससे आँख नहीं मिला पा रही थी।यह मेरे जीवन का सत्य था कि कभी मैंने जिन आँखों में देखा था,ऐसा लगता था कि ईश्वर वहीं रहता है।मैं छत्त से उतर कर अपने कमरे में आ गयी। थोड़ी देर सोचती रही कि हम कहाँ जाना चाहते हैं और कहाँ पहुँच जाते हैं? थोड़ी देर में मैंने देखा वह अपनी छत्त पर घूम रहा था।मुझे छत्त पर न पाकर उसके अन्दर उदासी छा गयी।मुझे तब वह दृश्य याद आ गया जब मैं अपनी सहेलियों के साथ झील के किनारे घूमते हुए उसे देखते ही रूक गयी थी।वह अपने साथियों के साथ फोटो -स्टुडियो के आगे खड़ा था।हम कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते रहे थे।फिर वह अपनी फोटो लेने फोटो -स्टुडियो में चला गया और मैं अपनी सहेलियों के साथ। फोटो -स्टुडियो से बाहर निकल उसकी आँखें फिर मुझे खोजने लगी थीं।और मुझे उधर न पा वह उदास हो गया था।उस दिन के हमारे आकर्षण को देख उसके एक दोस्त ने ,उससे कहा था , "यार, वह तुझसे सच्चा प्यार करती है।"
क्योंकि जब हमारी उम्र श्वेत हो जाती है तो हम समय पर लिखे को पढ़ तो सकते हैं, पर नया रचने के विषय में कम ही सोचते हैं।------।
 
***महेश रौतेला