Swapn ho gaye Bachpan ke din bhi - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (10)

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (10)
वह सम्मोहिनी बेबी ऑस्टिन--बी.आर.ए.-85 ...

पटना में रहते हुए पिताजी का आवासीय पता रह-रहकर बदल जाता था। वह ज़माना भी ऐसा न था कि एक एस.एम.एस. लिखकर तमाम दोस्तों को बता दिया जाता अपना बदला हुआ ठिकाना! पिताजी के मित्र-बन्धु इतने उदार और हितू थे कि खोज-ढूँढ़कर उनके पास पहुँच ही जाते और उलाहना देते--"क्या पता था, हम ढूँढ़ते रह जाएँगे, और तुम मिलोगे इक बदले हुए ठिकाने पर!" कई बार तो एक साल में तीन-चार ठिकाने। मुक्त-मन के यायावर प्राणी थे पिताजी भी। मन जहाँ नहीं रमा, चिल्ल-पों हुई, शोर-शराबा मिला, पिताजी ने बोरिया-बिस्तरा समेटा। मेरी माँ परेशाँहाल रहा करती थीं, इस आये दिन की बाँध-छान से! जमा-जमाया घर न हुआ, किसी साधु-फ़कीर की धूनी हो गयी कि इस घाट मन न रमा तो उठे, कहीं और चल दिए! एक्जिबिशन रोड, खजांची रोड, मालसलामी, कचौड़ी गली, मंगल तालाब, कदमकुआँ, फ्रेज़र रोड--न जाने कितने ठिकाने ! इस खानाबदोशी पर मेरी माँ ने ही विराम लगाया, जब उन्होंने पटना के २३, श्रीकृष्ण नगर में सुनिश्चित आवास का प्रबंध किया !

सन ६० के अंतिम महीनों में कभी, पिताजी सपरिवार श्रीकृष्ण नगर में व्यवस्थित हुए ! तब मैं सिर्फ आठ साल का था--चंचल, बातूनी और नटखट बालक ! एक वर्ष बाद मैं मिलर हाई स्कूल की चौथी कक्षा का विद्यार्थी बना ! श्रीकृष्ण नगर में रहते हुए एक-दो वर्ष ही हुए थे कि पूरा मोहल्ला मेरे प्रशस्ति-गायन में एकजुट होने लगा। सुबह का स्कूल था, ग्यारह-साढ़े ग्यारह तक विद्यालय से मुक्ति पाकर मैं घर लौट आता और उदर-पोषण कर निकल जाता आखेट पर। स्वनिर्मित तीर-धनुष से चिड़ियों का शिकार करता, आम के बगीचों से आम चुराता, मोहल्ले के मकानों के पिछवाड़े के छोटे-छोटे खेतों से मूली-गन्ना-गाजर उखड़ता और फालसा, अमरूद, इमली की दरख्तों पर झूमता-इठलाता, गाता और कैल्टानाकैमरा के फूलों पर मँडराती तितलियों के पर पकड़ता ! शाम होते-न-होते मेरी प्रशस्ति के लिए मुहल्लेवाले आ जुटते। अपनी कर्ण-रक्षा के लिए कान पर अपनी दोनों हथेलियाँ रखकर मैं एक अपराधी-सा खड़ा हो जाता माताजी के सामने! वह कोई मुरौव्वत न करतीं, भर्त्सना तो होती ही, कठोर दण्ड भी मिलता !

उन्हीं दिनों की बात है। वैसे तो श्रीकृष्ण नगर में पिताजी के कई मित्र थे, लेकिन एक बहुत पुराने मित्र थे--अयोध्या बाबू ! उनके सुपुत्र धनञ्जयजी का एक गैरेज था, जिसमें कारों की मरम्मत होती थी ! एक दिन पिताजी अयोध्या बाबू के पास बैठे हुए थे और बातें चल रही थीं। पिताजी ने अयोध्या बाबू से कहा--"चौराहे से आसानी से रिक्शा नहीं मिलता और मुझे रोज़ रेडियो पहुँचने में विलम्ब हो जाता है। सोचता हूँ, एक सेकण्ड-हैण्ड कार ही खरीद लूँ। मुश्किल यह है कि गाड़ी खरीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं !"

पिताजी की बात धनञ्जय भइया भी सुन रहे थे। उन्होंने पिताजी से कहा--"एक पुरानी ऑस्टिन कार गैरेज में आई है, बनने के बाद बिकने के लिए। रिंग-पिस्टन बदल दिया जाए तो गाड़ी चल पड़ेगी। आप चाहें तो उसे ही खरीद लें। वह बड़े शान की सवारी होगी। अंग्रेज़ों के ज़माने से दौड़ती रही है। अब जाकर बीमार पड़ी है बेचारी !"
पिताजी ने पूछा--"यह तो बताओ, बनने के बाद उसकी कीमत क्या होगी?"
धनञ्जय भइया ने कहा--"अधिक नहीं, ढाई हजार रुपये के आसपास!"
पिताजी ने कहा--"इस 'आसपास' का क्या अर्थ?"
वह बोले--"यही कि ढाई के कुछ ऊपर या नीचे !"
पिताजी ने अयोध्या बाबू से कहा--"लेकिन मेरी जेब में तो अभी सिर्फ ढाई रुपये हैं, गाड़ी खरीदने का साहस मैं कैसे कर सकता हूँ?"

अयोध्या बाबू ने भोजपुरी कहा--"रुपइया के का बात बा? आवत रही। रउआ खाली खरीदे के सँकार लीहीं अउर कुछुओ नेग कऽ दीहीं। गड़िया रवाँ नामे भइल।" (रुपये की क्या बात है, वह आ जाएगा। आप सिर्फ गाड़ी खरीदना स्वीकार कर लीजिए और कुछ भी रकम नेग-स्वरूप दे दीजिये, गाड़ी आपके नाम हुई।)

पिताजी उत्साहित हुए और जेब से डेढ़ रुपये निकालकर गाड़ी का बयाना दे आये। लेकिन ढाई-तीन हज़ार रुपये भी उस ज़माने में बहुत वज़नदार थे। इतनी राशि का प्रबन्ध भी कठिन पड़ता था। आज के युग के लोग इस कठिनाई को नहीं समझ सकेंगे, जो एक शाम सपरिवार होटल में जाकर रात के खाने पर ढाई-तीन हजार रुपये खर्च कर आते हैं। बहरहाल, कई किस्तों में गाड़ी की दूनी कीमत (पाँच हज़ार) चुकाई गयी और एक दिन बन-बनाकर और धुल-पुछकर बेबी ऑस्टिन कार बी.आर.ए.-85 हमारे दरवाज़े आ लगी--लाल बॉडी, काला मडगार्ड और काला हुड! गर्मी के दिनों में उसका हुड उठाकर पीछे समेट दीजिये तो वह हवाखोरी की शानदार सवारी बन जाती थी।

गाड़ी तो आई ही, अपने साथ वह रिंग भी ले आयी, जिसे मरम्मत के दौरान निकाला गया था। वह बाकमाल खालिस पीतल का रिंग था। पिताजी ने न जाने किस कारीगर से उस पीतल के एक दर्जन छोटे-छोटे सरौते बनवाए थे और अपने मित्रों में बाँट दिए थे। एक सरौता उन्होंने सुमित्रानन्दन पंतजी को भी दिया था। शब्दशः तो नहीं, लेकिन मुझे याद है वह पोस्टकार्ड, जिसमें पंतजी ने लिखा था--"मुक्तजी, ... आप कुछ भी कहें, मुझे तो अपनी वही छोटी सरौतिया आज भी प्रिय है !"

बाद में, पिताजी से ही मालूम हुआ कि बी.आर.ए.-85 का स्वतंत्रता-पूर्व का इतिहास बड़ा रोचक था। वह बिहार-विभूति बाबू अनुग्रह नारायण सिंह की गाड़ी थी, जो कालांतर में बिहार के प्रथम उप-मुख्यमंत्री और वित्त-मंत्री बने थे। उसमें देश की बड़ी-बड़ी हस्तियों ने यात्राएँ की थीं और वह बिहार के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थी।

गाड़ी के आते ही पिताजी उसीसे रोज़ दफ़्तर जाने लगे। वह बहुत संतुलित गति से गाड़ी चलाते थे। उन्होंने कभी किसी ठीकरे को भी ठोकर नहीं मारी। गाड़ी चलाने का उनका अभ्यास पुराना था। कई वर्ष पहले भी उनके पास एक अन्य ऑस्टिन कार थी, जो मैग्नेटिक सिस्टम से चलती थी। बैटरी की उपयोगिता उसमें सिर्फ रोशनी के लिए थी और चूँकि पिताजी शाम के बाद आमतौर पर गाड़ी चलाते नहीं थे, इसलिए उसमें बैटरी भी नहीं थी। उन्हीं दिनों का वाकया है, पिताजी के अभिन्न मित्र बच्चनजी पटना आनेवाले थे। पिताजी उन्हें लेने रेलवे स्टेशन गए, लेकिन गाड़ी विलम्ब से आई और अँधेरा हो गया। उस दिन पिताजी, बच्चनजी के साथ थोड़ी कठिनाई से गाड़ी चलाकर घर पहुँचे थे! इस प्रसंग का व्यंग्यात्मक उल्लेख अपने समय के प्रसिद्ध नाटककार, 'लोहासिंह' नाटक और फ़िल्म से विख्यात तथा हास्य-व्यंग्य लेखक के रूप में मशहूर रामेश्वर सिंह काश्यप ने एक आलेख में बहुत रोचक ढंग से किया था। जब वह आलेख प्रकाशित हुआ तो उसे पढ़कर पिताजी ने ठहाके लगाए थे और रह-रहकर हँस पड़ते थे।

काश्यपजी ने जो कुछ लिखा था, वह इस प्रकार था--बच्चनजी को लेकर मुक्तजी अपने अनुज भालचन्द्रजी के साथ स्टेशन से चल तो पड़े, लेकिन अंधकार व्याप्त हो गया था और हेडलाइट थी कि जलती नहीं थी। मुक्तजी की कार की संतुलित गति अन्धकार के कारण अब मंथर हो गयी थी और उसे भीड़ से निकाल ले चलना कठिन हो रहा था। अंततः मुक्तजी ने ही समाधान की राह निकाली और चार सेलवाली एक चोरबत्ती (टॉर्च) अनुज भालचन्द्रजी के हाथो में सौंप दी। फिर तो मज़े से सफ़र कटा। सफ़र का वह दृश्य कुछ ऐसा था--चोरबत्ती जलाकर भालचन्द्रजी गाड़ी के आगे-आगे दौड़ते रहे और मुक्तजी उसी के प्रकाश में मंथर गति से कार चलाते हुए घर पहुँचे--सकुशल!' गंतव्य तक पहुँचने में वक़्त कुछ ज्यादा ज़रूर लगा, लेकिन बच्चनजी-मुक्तजी स्वस्थ-प्रकृतिस्थ घर के दरवाज़े पर कार से उतरे! परन्तु दर्शनीय और दयनीय दशा तो भालचन्द्रजी की थी, जो पसीने से तर-ब-तर थे, बेहाल थे।...

बच्चनजी का आगमन और पिताजी का उनको रिसीव करना--इतनी बात को एक किनारे कर दें, तो शेष कथा पूरी तरह काल्पनिक थी, लेकिन उसका आनंद सुपठित समाज ने रस ले-लेकर उन दिनों खूब उठाया। यहाँ यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि मेरे छोटे चाचा भालचन्द्रजी, काश्यपजी के घनिष्ठ मित्र थे।...

श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले में हमारे घर के आसपास ही पिताजी के कई हित-मित्र, बन्धु-बाँधव थे--सर्वश्री रामवृक्ष बेनीपुरी, राधाकृष्ण प्रसाद, श्रीचतुर्भुज, रामेश्वर सिंह काश्यप, उपाध्यायजी (पूरा नाम अब स्मरण में नहीं रहा) आदि। इनमें राधाकृष्ण प्रसाद और नाटककार श्रीचतुर्भुज पिताजी के सहकर्मी मित्र थे--आकाशवाणी तक प्रतिदिन के सहयात्री! बी.आर.ए.-85 सबको साथ ले चलती। आकाशवाणी परिसर में, अशोक वृक्ष की छाया में, दिन भर आराम करती और शाम होते ही अँगड़ाई लेकर सजग-सावधान हो जाती, पिताजी की अगवानी में ! पिताजी अपनी मित्र-मण्डली के साथ आते और गाड़ी पर बैठकर उसे जिधर चलने का आदेश देते, उधर चल पड़ती--निर्विरोध। नलिनविलोचन शर्माजी, राँची के प्रसिद्ध नाटककार-व्यंग्यकार राधाकृष्णजी, उर्दू अदब के प्रसिद्ध हस्ताक्षर सुहैल अज़ीमाबादीजी, भुवनेश्वर मिश्र 'माधव'जी, बटुकदेव मिश्रजी--ये सारे लोग उसकी सवारी का आनंद आये दिन उठाते थे--कभी पिन्टू के रसगुल्लों के लिए, कभी लखनऊ स्वीट हाउस की मिठाइयों के लिए, कभी सोडाफाउंटेन के चाय-समोसे के लिए, तो कभी कॉफी हाउस की कॉफी के लिए।

वृद्ध हो चुकी बी.आर.ए.-85 पिताजी के बड़े काम आई। एक वर्ष तक उसने जमकर श्रम किया और पिताजी को कभी कोई कष्ट नहीं होने दिया। वह पिताजी की पहचान बन गयी थी--उनके किसी भी ठिकाने पर पहुँचने की अग्रिम सूचना-सी ! पिताजी भी उसका बहुत ख़याल रखते और इतने मनोयोग और ऐसी एकाग्रता से उसे चलाते कि सड़क पर होनेवाली हलचल के अलावा कुछ न देखते। उनकी एकाग्रता ऐसी एकनिष्ठ थी कि मार्ग के दाएं-बाएँ से मिलनेवाले अभिवादनों पर भी उनका ध्यान न जाता था। ऐसे लोग घर आकर जब कहते कि 'उस दिन मैं प्रणाम / नमस्कार / गाड़ी रोकने का आग्रह करता ही रह गया और आप तो बिलकुल अनदेखी कर आगे बढ़ गए, किसी बात से नाराज हैं क्या?' पिताजी उन्हें अपनी एकाग्रता और कार-चालन के दौरान अपने मनोयोग का हवाला देकर विनम्रता से क्षमा-याचना करते!

पिताजी अपनी विस्मरणशीलता के लिए भी ख़ासे प्रसिद्ध थे। एक बार तो हद्द हो गयी। मेरी माँ को पूजन लिए अगमकुआँ मंदिर जाना था और पिताजी को उससे आगे बाँकीपुर तक--किसी औषधि के लिए। निश्चित हुआ कि पिताजी माताजी को अगमकुआँ पर गाड़ी से उतारकर दवा लेने बाँकीपुर चले जायेंगे और वापसी में उन्हें साथ लेते आएँगे। पिताजी ने माँ से कहा--"आप पूजन करके सड़क के किनारे आकर मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा, मैं शीघ्र ही आ जाऊँगा। संभव है, मैं ही पहले आ जाऊँ, ऐसी स्थिति में अमुक स्थान पर मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगा।"

लेकिन पूजन से निवृत्त होकर माताजी ही पहले सड़क के किनारे आ खड़ी हुईं और पिताजी का इंतज़ार करने लगीं। बी.आर.ए.-85 ऐसी सुदर्शना और सतरंगे परिधान में होती कि वाहनों की सघन भीड़ में भी उसे आसानी से पहचाना जा सकता था। माँ ने दूर से ही देख लिया कि वह सुरूपा इठलाती चली आ रही है। वह थोड़ा पास आयी तो माँ ने अपना हाथ उठाकर उससे रुकने का अनुरोध किया, इशारा दिया। लेकिन वह तो सिर्फ पिताजी का आदेश मानती थी, रुकी नहीं और फर्राटा भरती चलती चली गयी। माँ पैर पटकती, खीझती रह गयीं। अंततः एक रिक्शे से वह घर आईं--क्रोध से भरी हुई और घर में दाखिल होते ही पिताजी पर बरस पड़ीं--"आप तो कमाल करते हैं जी, मैं हाथ उठाकर गाड़ी रोकने का इशारा ही करती रह गयी और आप मज़े-से आगे बढ़ गए?" माताजी को देखते ही पिताजी ने अपने अक्षम्य अपराध को पहचान लिया था। उन्होंने शान्ति धारण कर ली और माताजी के क्रोध का क्षरण होना देखते रहे। थोड़ी देर में माताजी शांत हुईं तो पिताजी ने कहा--"मैं सड़क देखता हूँ, सड़क के किनारे खड़े स्त्री-पुरुषों को नहीं। क्षमा करें, मैं तो बिलकुल भूल ही गया कि लौटते हुए...!"

पिताजी ने यह वाक्य विनोद में और अपने अपराध के मार्जन के लिए कहा था, लेकिन वह माता की क्रोधाग्नि में घृत-सा जा गिरा। उन्होंने पिताजी को घूरकर देखा और इतना कहकर वहाँ से हटने लगीं--"आप तो जाने किस धुन में रहते हैं हरदम... मुझे आपकी कार का क्या सुख...?" पिताजी ने तत्काल मनमोहिनी बी.आर.ए.-85 का पक्ष लिया, बोले--"इसमें उस बेचारी का क्या कुसूर? वह तो परवश है, मेरे आदेश पर रुकती-चलती है...! मैं ही रुकना भूल गया तो इसमें उसका क्या अपराध ?" लेकिन पिताजी का पूरा वाक्य सुनने को माताजी थीं नहीं वहाँ...!

बी.आर.ए.-85 पर पिताजी की प्रीति बढ़ती जा रही थी। लेकिन एक साल के बाद उसके नखरे शुरू हुए--कभी वह स्टार्ट होने से मना कर देती, कभी उसका सेल्फ फँस जाता, कभी बैटरी डाउन हो जाती, कभी रेडिएटर का पानी सूख जाता और कभी फैन-बेल्ट उतर जाता--ऐसे मौकों पर मैं पिताजी के काम आता। पिताजी स्टेयरिंग पकड़कर बैठ जाते, एक्सीलेटर पर अपने पद-प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए और मैं गाड़ी के मुख में लोहे का एक लम्बा रॉड डालकर और झटका दे-देकर उसे देर तक घुमाता। मानिनी का मन होता तो वह स्टार्ट हो जाती अन्यथा अपने कुछ मित्रों की सहायता से उसे ठेलकर स्टार्ट होने लिए बाध्य करना पड़ता मुझे। फँसे हुए सेल्फ को स्वयं सुधार लेने का गुर धनञ्जय भइया मुझे दे गए थे। इसके लिए मुझे ही गाड़ी के नीचे चित लेटकर एक चिह्नित नट तक रिंच के साथ पहुँचना होता था और नट को थोड़ा-सा नचा देने पर सेल्फ काम करने लगता था। अब, आये दिन मुझे उसके नीचे सँकरे रिक्त स्थान में लेटकर प्रवेश करना पड़ता और आवश्यक सुधार कर बाहर आना पड़ता।

ढाई-तीन वर्षो बाद उसका स्वास्थ्य ज्यादा खराब रहने लगा। छुटपुट सुधार से उसकी तबीयत ठीक न होती और उसे गराज की शरण में जाना पड़ता। उसके बीमार होने से पिताजी दुखी रहते। व्यय तो होता ही, असुविधा भी बहुत होती। महीने में एक बार डी.लाल एंड सन्स से राशन ले आना और साप्ताहिक रूप से अंटाघाट की ताज़ा सब्ज़ियाँ पीछे की सीट पर भर लाना संभव न हो पाता। ऐसे अवसरों पर माताजी खीझकर कहतीं--'उसे गराज में ही रहना है और सिर्फ हमारी जेब ढीली करनी है तो बेच ही दीजिये न! उसे पालने का क्या लाभ?" पिताजी माँ की बात सुनते ज़रूर, लेकिन मानते नहीं। उन्हीं की प्रगाढ़ प्रीति की डोर से हमारे ही द्वार पर बँधी रही हमारी प्यारी 'बेबी ऑस्टिन'! मिलर हाई स्कूल के खेल के मैदान में, मैंने अपनी ही ज़िद पर, जीवन में पहली बार पिताजी के सहयोग से तब कार चलाई थी, जब मेरे पाँव ब्रेक-एक्सीलेटर पर पहुँचते तो सिर विंड-स्क्रीन के नीचे चला जाता ! लेकिन मैं बड़ा खुश हुआ कि मेरे चलाने से वह शोभना चल पड़ी थी और फील्ड के दो-तीन चक्कर मुझे घुमा लायी थी। उस दिन के बाद तो मैं तकियों का जोड़ा लेकर स्कूल के मैदान तक जाने लगा था।...

पांच-छह वर्षों तक पिताजी ने बी.आर.ए.-85 की बड़ी प्रीति और ममता से पालना की और हांफते-काँपते-छींकते उसने भी पिताजी की बहुत सेवा की, लेकिन दोनों छोटे भाई-बहन को साथ लेकर माताजी के नौकरी पर राँची चले जाने के बाद श्रीकृष्णनगर में बसा-बसाया आशियाना उजड़ गया। मैं और बड़ी दीदी छात्रावास की शरण में गये और पिताजी मेरी ननिहाल में। इस बिखराव की दशा में मधुमती (कार) भी अवहेलना शिकार रही और गम्भीर व्याधियों से ग्रस्त हो गई। उसे बार-बार रुग्णशाला से दुरुस्त करवाते हुए पिताजी भी थक गए थे। अंततः हार मानकर उन्होंने उसे अपने से विलग कर दिया। इससे उनका मन आहत हुआ, मर्म को चोट लगी और कई दिनों तक उसके ग़म में वह दुखी भी रहे। बार-बार कहते--'क्या मुश्किल थी, आज वह होती तो अमुक काम आसानी से कर आता मैं। वह होती तो ऐसा होता, वह होती तो वैसा होता। वह क्या गयी, दरवाज़े की तो रौनक ही चली गयी।'.... मुझे विश्वास है, उस ज़माने में जिन लोगों ने उसे देखा है, वे भी बी.आर.ए.-85 और पिताजी की सम्मिलित छवियाँ आज तक भूले न होंगे !...

सचमुच, वह गयी, तो वर्षों दिखी नहीं मुझे। मैं भी सोचता रहा, कहाँ चली गयी वह? ठीक-ठाक होगी न, चलती होगी या किसी गैरेज अथवा कबाड़ख़ाने में पड़ी रद्दी के भाव तुल जाने की राह देखती होगी वह !...

तब कॉलेज में पहुँच गया था मैं। एक दिन, शाम के वक़्त, किसी ट्यूशन से लौट रहा था तो देखा एक शिवाले के सामने वह सम्मोहिनी बी.आर.ए.-85 अनमनी-सी खड़ी है। उसका शृंगार किया जा रहा है ! झालर, सलमे-सितारे, रंगीन पन्नियों और फूलों से सजाया जा रहा है उसे ! समझ गया, किसी दूल्हे को परिणयाकांक्षिणी कन्या के द्वार तक ले जाने को तैयार हो रही है वह। जब ठीक उसके सामने और पास पहुँचा तो लगा, अपने लट्टूनुमां हेडलाइट की आँखें झपकाकर वह मुस्कुराई हो जैसे ! ठीक उसके बगल से गुज़रते हुए मैंने हाथ बढ़ाकर उसे थपकियाँ दीं और प्यार से सहलाते हुए आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे बढ़ जाने पर मैंने जाना, मेरी आँखें नम थीं।... दस-पंद्रह कदम आगे बढ़ा तो स्वयं को संयत कर, उस बेज़ुबान और बेजान मशीन के प्रति मेरे मन में करुणा उत्पन्न करने के लिए मैंने प्रभु को धन्यवाद दिया।...

(क्रमशः)

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