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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (11)

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (11)
'कटहल से कुश्ती...'

झारखण्ड का राँची प्रक्षेत्र अपनी वन्य सम्पदा और प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण आकर्षण का केंद्र रहा है। आज की स्थिति का तो पता नहीं, लेकिन जिस ज़माने की कह रहा हूँ, उस ज़माने में यह सम्पदा सड़क-किनारे ही बिखरी पड़ी दीखती थी। तब छोटा ही तो था--१९६५-६६ में, सातवीं-आठवीं का छात्र!

राँची जिले के एक जनपद 'खूँटी' में, माँ और छोटे भाई-बहन के साथ, रहता था। विद्यालय के लिए रोज़ दो-ढाई किलोमीटर की पद-यात्रा करता था। उन दिनों खूँटी बड़ा रमणीय स्थान था। पर्याप्त वन-सम्पदा सर्वत्र सहज सुलभ थी। पुष्ट जामुन-केले-बेर बहुत सुस्वादु तो थे ही, बहुतायत में निःशुल्क उपलब्ध भी थे। मिठुआ आम--कच्चे-पक्के, मीठे-खट्टे--वृक्षों पर लदे मिलते थे, जिनका कोई देखनहार नहीं था। मनचाहे पेड़ पर चढ़ जाइये, तोड़िये और खाइये, चबाइये या अधखाये को फेंक दीजिये, कोई पूछनेवाला नहीं! और, विशालकाय पपीते इतने मीठे कि मत पूछिये, उसके स्वाद के मज़े ! कटहल क़द-काठी में इतने बड़े कि देखकर आश्चर्य होता। दो-ढाई वर्षों के खूँटी-प्रवास में मैंने बड़े मज़े किये वहाँ ! यह अलग बात है कि १९६५ के पकिस्तान युद्ध के बाद अन्न का जो भीषण संकट देश में उत्पन्न हुआ था, खाद्यान्न की विपन्नता के उस काल में, खूँटी में ही हमने कुछ दिनों तक 'मिलो' (देशव्यापी भाषा में उसे जाने क्या कहते हैं!) की रोटी भी खायी थी, जो बहुत बेस्वाद और कड़क होती थी। और, उन कठिन दिनों में मेरी उदर-पूर्ति का साधन प्रचुर वन-सम्पदा से ही प्राप्त होता था मुझे।

विद्यालय जाते हुए तो समय से पहुँचने का बंधन था, लेकिन लौटते हुए मैं बाग़-बगीचों में उन्मुक्त विचरण करता हुआ घर लौटता। कभी आम की शाखाओं पर झूमता-इठलाता, तो कभी जामुन के वृक्षों पर मँडराता! फल तोड़ता, खाता-चबाता, तोड़ता-फेंकता और मस्ती करता--अशोक वाटिका में विचरण करते हनुमानजी की तरह। उन वृक्षों पर किसी का हक़-मालिकाना तो था नहीं, पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले की तरह रोज़ शाम मेरी ढेर सारी शिकायतें भी घर नहीं आती थीं। घर आते हुए स्कूल बैग में आम, अमरूद, बेर, जामुन भी भर लाता। माँ देखतीं, तो फटकार लगातीं, लेकिन मैं बाज़ न आता। एक बार तो हद ही हो गयी। मैं जामुन के पेड़ से उतरा तो मीठा, रसभरा और बहुत पुष्ट जामुन बैग में भर लाया। लेकिन पीठ पर लदा-लदा वह जामुन घर पहुँचते-पहुँचते पिचक गया। पिचक गया तो कोई बात नहीं थी, पेड़ों पर इफ़रात लदा पड़ा था वह। लेकिन, फेंके जाने के पहले वह मेरे बैग को जमुनी रंग से रँग गया था। माँ ने देखा तो मेरी खूब ख़बर ली उन्होंने !

लोक निर्माण विभाग की लंबी और प्रायः जनशून्य सड़क पर दोनों ओर कटहल के छोटे-बड़े पेड़ लगे थे, जिन पर हर मौसम में लटकता ही मिलता था कटहल ! पिछले कुछ महीनों से विद्यालय आते-जाते कटहल का एक दरख़्त मुझे बहुत आकर्षित कर रहा था--दस-बारह फ़ीट तक उसका मोटा तना सीधा खड़ा था, उसके बाद दो भागों में विभक्त होकर दो अलग-अलग दिशाओं में बढ़ता चला गया था। मेरे आकर्षण का केंद्र वह विशालकाय कटहल था, जो विभक्त हुई दो शाखों की संधि से लटका हुआ था। मैं स्कूल आते-जाते कई बार उस वृक्ष के नीचे ठहरकर हसरत-भरी दृष्टि से उस बलवान कटहल को देखा करता था ! उस कटहल को देखते-देखते उसे हस्तगत करने का विचार मेरे मन में पुष्ट होने लगा था, लेकिन अल्पज्ञानी मैं, तब यह सुनिश्चित नहीं कर सका था कि आख़िर उसे पाकर मैं करूँगा भी क्या ?

एक दिन घर से विद्यालय जाते हुए छुरी और छोटी-सी बोरी मैंने अपने बस्ते में डाल ली और विद्यालय चला गया। शाम तीन बजे विद्यालय से छूटा तो कटहल के उसी वृक्ष पर मैंने आरोहण किया--तने से लटके दीर्घकाय कटहल के पृष्ठ-भाग से; क्योंकि सामने का मार्ग तो कटहलजी ने अवरुद्ध कर रखा था। तब शरीर में इतनी फुर्ती और चपलता थी कि बस थोड़ी ही देर में मैं दस-बारह फ़ीट ऊपर, तने से विभक्त होती शाख़ों तक, पहुँच गया। विभक्ति की संधि पर पेट के बल लेटकर मैं छुरी से कटहल की डंडी को रेतकर काटने लगा, लेकिन कटहल की तरह वह भी बलशाली थी, हठी भी। कटहल वृक्ष का तना छोड़ने को तैयार नहीं था और मैं उसे अपने साथ घर ले जाने की ज़िद पर अड़ा हुआ था। यह ज़द्दोज़हद लंबी चली, जबकि मेरी छुरी इतनी भोथरी भी नहीं थी। पंद्रह मिनट के निरंतर प्रयास के बाद कटहल का डंठल आधा कट तो गया, लेकिन एक ही दशा में औंधेमुँह लटककर श्रम करते हुए मेरे हाथ और पेट में दर्द होने लगा। स्थिति ऐसी थी कि सब कुछ अधर में था--मैं भी, कटहल भी !

मैंने क्षण-भर का विश्राम लेकर दबे हुए पेट को थोड़ा आराम दिया और फिर काम पर लग गया। मेरा दायाँ हाथ ऐंठने लगा था, कन्धों तक दर्द चढ़ आया था। थोड़ा और झुककर मैंने दायें हाथ से कटहल की डंडी को थाम लिया और बाएँ हाथ से उसे पुनः काटने लगा। बस, दो-तीन मिनट के परिश्रम में ही कटहल की डंडी अपने कटे हुए स्थान से चिटकने लगी। मैं समझ गया कि अब बच्चू कटकर मेरी ज़द में आने ही वाले हैं। मैंने छुरी से डंडी को काटने का क्रम जारी रखा और दाएँ हाथ की पकड़ और मज़बूत कर ली। और तभी... 'पट्ट' की एक आवाज़ के साथ कटहलजी भू-लुंठित होने को मचल उठे। उन्होंने मुझे इतनी ज़ोर का झटका दिया कि मैं कमर तक घिसटकर सिर के बल लटक गया। वह तो भला हो उन दो शाखाओं का, जिन्होंने कटहल के साथ मुझे भी भूमि पर सिर के बल गिरने से बचा लिया था। दो शाखाओं की संधि के सँकरे भाग में मेरी कमर घिसटकर जा फँसी थी। और, यह सब क्षण-भर में हठात् हो गया था।...

अब मेरी दशा विचित्र थी। जैसे मैं किसी गिरगिटान की तरह पेड़ से उतरते हुए अपने शिकार को एकाग्र भाव से देख रहा होऊँ--फर्क सिर्फ इतना था कि गिरगिट की एकाग्रता में विश्वास की चमक उसकी आँखों में होती है, जबकि मेरी विस्फारित आँखों में भय भरा था। कटहल मुझे नीचे खींच रहा था और मैं उसे ऊपर। बालपन की उस उम्र में मैं पिद्दी-सा ही तो था, जबकि कटहलजी हृष्ट-पुष्ट और ख़ासे वज़नी थे। इस रस्साक़शी में मैं हिम्मत हारने लगा, कटहलजी सचमुच बहुत भारी थे। सोचने लगा, छोड़ूँ कटहल का मोह और प्राण-रक्षा कर सही-सलामत पेड़ से उतर जाऊँ। कटहलजी गिरते तो पाँव के बल गिरते और मैं गिरता तो सिर के बल! रण छोड़ निकलने का मेरे मन में उपजता यह विचार कटहल की तरह ही पुष्ट हो पाता, इसके ठीक पहले दूर से आते मेरे एक प्रिय मित्र प्रभात (प्रभात कुमार दास 'लाइट') दिखे। हमउम्र और कोमल-सुदर्शन बालक थे और जाने किस उल्लास में उन्होंने अपने नाम के साथ 'लाइट' तख़ल्लुस भी जोड़ लिया था, उसी कच्ची उम्र में। खूँटी छोड़ने के बाद कुछ समय तक उनसे मेरा पत्राचार होता रहा और फिर वह इस भरी दुनिया में मेरे लिए अलभ्य ही हो गए। बहरहाल, उन्हें देखते ही मैं जोर-जोर-से उनका नाम लेकर चिल्लाने लगा--'प्रभात, प्रभात', इधर आओ....!' मेरे स्वरों का संधान करते हुए वह पेड़ के नीचे आ पहुँचे। मुझे विस्मय से देखते हुए बोले--'क्या कर रहे हो वहाँ ? नीचे आ जाओ, गिरोगे तो हाथ-पैर टूट जायेंगे।'

मैंने दीनता और क्रोध-मिश्रित स्वर में कहा--'पहले इसे पकड़ो यार, वरना यह मुझे अपने साथ जरूर ले गिरेगा।' दूर से देखकर पहले शायद वह यही समझे थे कि कटहल वृक्ष से ही लटक रहा है, लेकिन पास आने पर जान सके कि मैंने ही उसे अपने दोनों हाथो में थाम रखा है। कटहल के ठीक नीचे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और बोले--'हाँ, छोड़ दो, मैं कैच कर लूँगा।' उन्हें कटहल के वज़न का अनुमान नहीं था, मुझे था। मैं देख रहा था कि उनके दोनों उठे हाथ और कटहल के बीच ढाई-तीन फ़ीट की दूरी है। वह बज़िद हो गए कि मैं कटहल को छोड़ ही दूँ। उलटा लटका हुआ मैं अब तक पूरी तरह ऐंठ गया था, शरीर का अंग-प्रत्यंग पीड़ा से बेहाल था। सच पूछिये तो कटहल हाथ की पकड़ से बस छूटने ही वाला था। प्रभात के बार-बार के इसरार पर मैंने कटहल को अपनी पकड़ से मुक्त कर ही दिया। प्रभात उसका भार और आघात सँभाल नहीं सके और वह प्रभात के हाथों को चोट पहुँचता ज़मीन पर जा गिरा। गिरा और 'भद्द' की आवाज़ के साथ दो भागों में फटकर बिखर गया। कटहल अंदर-ही-अंदर पक चुका था। उसके फटते ही तीखी-भीनी गंध हवा में बिखर गयी चारों ओर....!

मैं बड़ी कठिनाई से जब पेड़ से उतरकर भूमि पर खड़ा हुआ तो मेरे दोनों पाँव काँप रहे थे। रक्त-संचार को भी सिर से पाँव की ओर उतरने में थोड़ा वक़्त लगा, ठीक वैसे ही जैसे मुझे धीरे-धीरे सरककर सिर की जगह पैरों के बल पृथ्वी पर आने में लगा था। मैं पास की ही एक पुलिया पर प्रभात के साथ बैठ गया। प्रभात अपनी दोनों हथेलियाँ दिखाकर क्षोभ व्यक्त कर रहे थे कि मैंने नाहक उसे थाम लेने की ज़िद की। उनकी दोनों हथेलियों को कटहल की नामाकूल काँटेदार त्वचा खरोंच दे गयी थी। कटे हुए कटहल ने भूमि पर गिरकर फटने के पहले अपना क्रोध प्रभात पर निकाल लिया था। और, मैं तो इसी बात से खुश था कि कटहल से हुई कुश्ती में मैं विजयी होकर वृक्ष से उतरा था।...ये बात और है कि घर पहुँचने पर मुझे पता चला था कि तने की रगड़ से मेरी कमर और मेरे पेट पर भी खरोंच के कई निशान बन गए थे। खैर, उसी पुलिया पर बैठे-बैठे हम दोनों ने उस फटे हुए कटहल के दो-दो कोए खाये और तृप्त-प्रसन्न हुए। मेरे घोर परिश्रम का प्रतिफल थे वे कोए--बहुत मीठे, बड़े सुस्वादु...! अब उसके शेष भाग का क्या करना था ? उसे वहीं धराशायी छोड़कर हम अपने-अपने घर लौटे...स्कूल की कापियों से फाड़े गए पन्नों में चार-चार कोए लपेटकर...!

कटहल से हुई उस ज़ोर-आज़माइश को आज आधी शती बीत गयी है, लेकिन मैं न तो प्रभात को भूल सका हूँ, न उस वज़नी कटहल को।...

(क्रमशः)