Anjane lakshy ki yatra pe - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 17

भाग-17

प्रेम का अनावरण

ऊपर आते ही इन लोगों ने मुझे घेरे में ले लिया। और उस गुप्तचर ने तो बढ़कर मुझे जकड़ लिया और एक खंजर मेरे गले पर टिका दिया। उस खंजर की तेज़ धार मेरी श्वांसनलिका पर दबाव बनाये हुये थी। उस तेज़ धार को मैं महसूस कर रहा था। अब मुझे हिलने-डुलने में क्या बोलने में भी डर लग रहा था कि बोलने से गले की जो मासपेशियां हिलीं तो उस खंजर की तेज़ धार से कट जायेंगी।

“तुम इस एकांत और अंधेरे का लाभ उठाकर किसे संदेश भेज रहे थे?” मत्स्य-मानवों का वह सेनापति गरजा। उसकी गर्जना में वह शक्ति थी कि अथाह सागर में उपस्थित सारे जीव जंतु और नभ में उपस्थित पशु पक्षी चांद सितारे सब उस गर्जना को सुन लें।

तभी फिर एक छपाक की आवाज़ के साथ एक आकृति ऊपर आकाश की ओर उछली और वापस सागर में जा गिरी। सब उस ओर देखने लगे।

“शायद डॉल्फिन है,” गेरिक ने अनुमानतः कहा, “वे मानव मित्र होती हैं और सागर में जलपोत के साथ साथ तैरती जाती हैं।”

“नहीं!” सेनापति ने बड़ी निर्दयता से मेरे मित्र गेरिक के कथन का खंडन कर दिया, “वे मेरे गुप्तचर हैं, जो जल के भीतर तैरते हुये हमारे पोत को अपनी सुरक्षा के घेरे में रखते हैं...”

“इतनी दूर तक?” गेरिक ने हैरानी जताई।

“हम सागरीय मानव हैं और सारा जीवन तैरते हुये बिता सकते हैं। हम में से कई तो तैरते हुये सारे विश्व का भ्रमण कर आये हैं। हम बिना रुके विश्व के सारे सागर और महासागरों को तैर कर पार कर सकते हैं।”

“हाँ, जल ही हमारा जीवन है...” यह हमारे अभियान सहायक थे, “तुम हमें व्हेल मछली की तरह मान सकते हो जिसे सिर्फ सांस लेने के लिये ही जल से ऊपर आना पड़ता है।”

और इधर सेनापति मुझसे पूछ रहे थे, “बताओ तुम किसे संदेश भेज रहे थे?”

लेकिन मैं कहता क्या? मेरे गले पर तो खंजर था...

“यह तो गलत है...” गेरिक ने हमारे अभियान सहायक से कहा, “वे इससे एक हास्यास्पद संदेह के कारण अपराधी जैसा व्यवहार कर रहे हैं।”

“आप हमारे कार्य में विघ्न न डालें अन्यथा आप भी बंदि बना लिये जायेंगे।” सेनापति ने घृणा से गेरिक की ओर देखते हुये कहा, “और यह न भूलें कि आप भी संदेह से परे नहीं...”

“किंतु यह उचित नहीं...”

गेरिक की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि सेनापति की आंख के इशारे पर दो सैनिकों ने बढ़कर गेरिक को भी बंदी बना लिया।

“अभियान सहायक महोदय...” कहकर गेरिक ने उनकी ओर देखा।

“सेनापति महोदय, ये इस पोत से कहीं भाग नहीं सकते।” अभियान सहायक ने सेनापति को सम्बोधित करते हुये कहा।

“जी महोदय, मुझे आपके अनुमोदन और अनुमति के बिना कार्य करने की अनुमति नहीं है; किंतु कोई भी आज्ञा देने से पूर्व आपका ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि यह हमारी सुरक्षा का प्रश्न है...”

“सेनापति महोदय, आप सदैव सेनापति की भांति विचार करते हैं। यह प्रशंसनीय है। किंतु मैं आपको इस बात का विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि हमारी महान सेना और हमारे महान जन सामान्य स्वयं ही इतने सक्षम हैं कि इन छोटी-छोटी बातों से उन्हें कोई खतरा नहीं। आप इन्हें मुक्त करके बहुत निश्चिंत होकर पूछताछ कर सकते हैं।” अभियान सहायक ने एक सफल कूटनीतिज्ञ की भांति मामला सुलझा लिया।

सेनापति के इशारे पर तुरंत ही गेरिक को छोड़ दिया गया किंतु मुझे जकड़कर रखने वाला वह गुप्तचर टस से मस न हुआ। सेनापति ने अग्नेय नेत्रों से उसकी ओर देखा तो उसने बड़े बे मन से धीरे-धीरे अपनी पकड़ ढीली की और अंततः मेरे पास से हट गया।

“तुम किसे संदेश भेज रहे थे?” सेनापति ने सवाल दोहराया, “और सच सच बताना अन्यथा...”

“यहाँ से संदेश? यह किस प्रकार सम्भव है सेनापति महोदय?” मैंने पूछा।

“यह भी तुम ही बताओगे कि यह किस प्रकार सम्भव है?” सेनापति ने जवाब दिया।

“विश्वास करें मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।”

“किया है, किया है। मैंने स्वयम् सुना है।” गुप्तचर ने अपनी बात का खंडन होते देख उत्तेजित होकर कहा, “यह अंधेरे में किसी से कह रहा था कि; चुपके से मेरा संदेश देना...”

“बताओ क्या यह सच नहीं? तुम इससे इंकार करते हो?”

मैंने सिर झुका लिया। मैं कैसे इंकार कर सकता था। यह मेरे प्रथम प्रेम का प्रथम संदेश था...

हाँ, मैं अपराधी था। मैं कैसे इंकार कर सकता था...

“बताओ वहाँ कौन था? बताओ तुम किसके द्वारा संदेश भिजवा रहे थे?”

“यह पवन, यह सागर, यह बहती हुई जलधारायें, यह अनंत आकाश और ये सितारे... ये सब वहाँ थे और ये ही मेरे संदेशवाहक थे। मैं इन्हीं के द्वारा संदेश भेज रहा था... हाँ मैं संदेश भेज रहा था... हाँ मैं अपराधी हूँ, मैं संदेश भेज रहा था...” कहते हुये मैं प्रलाप करने लगा।

वह गुप्तचर प्रसन्न था। सब लोग स्तब्ध थे। मेरी इस प्रतिक्रिया की, मेरे इस रूप की किसी को भी आशा न थी। मेरे अभिन्न मित्र गेरिक को भी नहीं। स्वयम् मुझे भी नहीं...

“हाँ, मुझे दंड दो, मुझे मृत्युदंड दो मैं जीना नहीं चाहता। इस प्रकार जीना नहीं चाहता। उसके बिना मैं नहीं जी सकता। मुझ पर उपकार करो, मुझे मृत्युदंड दो...”

गुप्तचर की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा... “मृत्युदंड, मृत्युदंड... अब तो इसने स्वयम् ही स्वीकर कर लिया है। इसे मृत्युदंड मिलना ही चाहिये।”

“तुम चुप रहो। जांच में हस्तक्षेप करने का तुम्हे अधिकार नहीं है।” कहकर अभियान सहायक ने गुप्तचर को डांटकर चुप करवा दिया।

“तुम अपने प्रलाप से हमें भ्रमित नहीं कर सकते,” सेनापति ने मुझे धमकाते हुये कहा, “तुम्हे बताना ही होगा। इस प्रकार पवन, सागर और आकाश किसी के संदेशवाहक नहीं होते...”

“मैं झूट नहीं कह रहा हूँ...”

“तो तुम किसे संदेश भेज रहे थे?”

मैं अपनी प्रेयसी को संदेश भेज रहा था।”

इस जवाब पर अभियान सहायक ने गेरिक की ओर प्रश्नवाचक नज़र से देखा। गेरिक ने समर्थन में सिर हिलाया।

“हम कैसे मान लें कि तुम झूठ नहीं बोल रहे हो?” सेनापति ने कहा।

“आप न माने किंतु मुझे जो कहना था, कह चुका हूँ।” मैंने कहा।

“तुम्हे इसके समर्थन में प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।”

“मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है और न मैं दया की याचना करूंगा।” मैंने कहा।

“तुम किससे प्रेम करते हो और वह कहाँ है?” इस बार अभियान सहायक ने पूछा। मैं समझ रहा था वे मुझसे और मेरे मित्र गेरिक से सहानुभूति रखते थे, विश्वास करते थे और मेरी सहायता करना चाहते थे। किंतु प्रेम का भूत तो मुझपर हाथ धो कर सवार था। फिर मैं यह कैसे कह देता कि वह आपकी ही पुत्री है और फिर ये लोग प्रेम को किस रूप में लेते हैं और पता नहीं उस मत्स्यकन्या के साथ क्या व्यवहार करें...? मैं कदापि वह भेद नहीं खोलूंगा चाहे मेरे प्राण चले जायें।

मैंने स्पष्टतः इंकार कर दिया।

सब स्तब्ध रह गये। एक बार फिर अभियान सहायक ने गेरिक की ओर देखा। उसने मुझे इशारा किया कि मैं बोल दूँ। मैंने इनकार कर दिया।

“ठीक है, मैं बताता हूँ।” गेरिक ने प्रस्ताव दिया।

“नहीं, तुम्हें सौगंध है उसका नाम भी न लेना। भले मेरे प्राण चले जायें।” मैंने कहा, “यदि वही स्वयम् आकर इस बात को स्वीकर करे तभी मैं स्वीकर करूंगा...”

“किंतु उसका यहाँ आना तो असम्भव है।” गेरिक ने समझाने की कोशिश की।

“तो फिर मेरे लिये मृत्यु ही श्रेयस्कर है।” मैंने कहा।

“मूर्खता न करो नौजवान!” अभियान सहायक ने कातरता से कहा।

मैंने इंकार कर दिया।

“तो फिर मृत्युदंड के लिये तैयार हो जाओ।” सेनापति ने कहा।

“मैं तैयार हूँ।” मैंने शांति से उत्तर दिया। मेरा निश्चय दृढ़ था।

मुझे बांध दिया गया। एक सैनिक तलवार लेकर मेरी ओर बढ़ा। मैं मृत्यु के लिये तैयार था कि गेरिक ने कहा, “मैं बताता हू, वह आपकी पुत्री है महामहिम अभियान सहायक।”

अभियान सहायक स्तब्ध रह गये।

“तुम सच कह रहे हो?” उन्होने गेरिक से पूछा।

“यह अपने दोस्त को बचाने के लिये झूठ बोल रहा है।” उसी गुप्तचर ने आगे बढ़कर कहा, “मैं जानता हूँ यह झूठ बोल रहा है।”

“तुम्हें यह बात प्रमाणित करनी होगी अन्यथा तुम भी दंड के पात्र होओगे।” यह हमारे समर्थक और शुभचिंतक, हमारे अभियान सहायक के कथन थे।

स्पष्ट था हम दोनो भीषण संकट में थे।

(जारी है... भाग-18 एक विद्रोह )