Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit -2 books and stories free download online pdf in Hindi

श्री मद्भगवतगीता माहात्म्य सहित (अध्याय-२)

जय श्रीकृष्ण बंधु!
आज फिर आप सभी बंधु जनों का सस्नेह पाने की अभिलाषा लेकर आप सभी के सम्मुख उपस्थित हूँ 'श्रीगीताजी का दुसरा अध्याय और उसके महातम्य' के साथ । मेरी श्रीगीताजी और भगवान श्री कृष्ण से यही प्रार्थना है कि जो भी बंधु जन इस लेख को पढ़े सुने या फिर गलती से देखे भी भगवान उनकी सारी मनोकामनाएं सारे मनोरथ सारे काज पूरी करे साथ ही उन्हें इस आवागमन से मुक्ति प्रदान करे !
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🙏दूसरा अध्याय🙏
संजय ने कहा- हे धृतराष्ट्र! अब श्रीकृष्ण दया से युक्त नेत्रो में आंसू भरे व्याकुल चित्त अर्जुन से बोले- हे अर्जुन! अनार्य के सेवन करने योग्य अपयश कारक नरक में गिराने वाला मोह इस समय तुम्हारे मन मे कहाँ से आया? तुम कायर मत बनो, यह शोभा नहीं देता, तुम ह्रदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के निमित्त खड़े हो जाओ। अर्जुन ने कहा- हे मधुसूदन! मैं रण में पूज्य भीष्म द्रोणाचार्य के ऊपर बाण प्रहार कर कैसे युद्ध करूँ? इस लोक में महात्मा गुरुजनों के मारने से भीख माँगकर भोजन करना उत्तम है और अर्थ की कामना के लिए रो गुरुजनों को मारकर नर्क-रक्त से सने भोगों को कैसे भोगूँगा? हैम नहीं जानते कि संग्राम में हैम दोनों में कौन जीतेगा। यदि हम जीत भी लें तो उनको मार करके हम जीवित रहना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने प्रस्तुत हैं। दीनता से मेरी स्वाभाविक वृत्ति नष्ट हो गई है और धर्म के विषय मे मेरा चित्त मोहित हो गया है। में आपसे पूछता हूँ, जिससे निश्चय करके मेरा भला हो वह मुझसे समझाकर कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण मे हूँ, मुझे शिक्षा दीजिए। मुझे पृथ्वी का निष्कंटक राज्य मिल जाए और देवताओं का भी अधिपत्य मिल जाए तो भी ऐसा कोई उपाय नहीं दीखता की जो मेरी इन्द्रियों को दुखाने वाले शोक को दूर करे। है गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूंगा यह कहकर अर्जुन चुप हो गए। संजय बोले- है राजन्! दोनों सेनाओं के मध्य में खिन्न होकर बैठे अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण ने ये वचन कहे- है अर्जुन! जिसके लिए शोक नहीं करना चाहिये तू उसके लिए शोक करता हैं और पंडितों के से वचन तो कहता है परन्तु पण्डित लोग न मरों का शोक करते हैं न जीवितों का। यह बात असम्भव है। मैं पहिले न था तुम भी न थे और ये राजा भी न थे और इसके बाद भी नहीं रहेंगे। जैसे देहधारियों की देह की लड़कपन, जवानी, बुढापा ये अवस्था होती हैं तैसे ही मृत्यु के बाद दूसरी देह की भी होती है। इसलिए पंडित लोग मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। इन्द्रियों का शब्दादि विषयों से संयोग जाड़ा, गर्मी, आदि सुख दुःख के देने वाला है। आने-जाने वाले और नाशवान जानकर सहन करो। हे नर श्रेष्ठ! सुख को समान मानने वाले जिस वीर पुरुष को बाह्रा पदार्थ क्लेश नहीं देते वह मोक्ष पाने का अधिकारी है। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत का तो अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों को ही तत्वज्ञानी पुरुषों ने देखा है, जिससे यह सारा संसार व्याप्त है उनको अविनाशी जाने क्योंकि इस नाश रहित आत्मा का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है। इस अविनाशी अचिन्तय और नित्य जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान हैं, अतएव है भारत! तुम युद्ध करो। जो पुरुष इस आत्मा को मारने वाला तथा जो मरने वाले मानते हैं वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि यह आत्मा न मारता है, न मरता है, आत्मा न कभी जन्मती है, न मृत्यु को प्राप्त होती है, न कभी जन्मी न मरेगी, यह अजन्मा, नित्य कभी न घटने बढ़ने वाली और सनातन है। नष्ट होने पर भी वह नाश को प्राप्त नहीं होती। जो पुरुष इस आत्मा को नित्य अविनाशी निर्विकार और अजन्मा जानता है वह किसको घात करावेगा और किसको मारेगा? जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को फेंक कर नया वस्त्र ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुरानी को छोड़कर नई देह धारण करती है। आत्मा को न शास्त्र काट सकते हैं, अग्नि नहीं जला सकती है जल भिगो नहीं सकता। यह न जल सकती है न भीग या गल सकती है और न सूख सकती है, यह अविनाशी सर्वव्यापी स्थिर और सनातन है। यह इन्द्रियों से जानी नहीं जा सकती। यह कल्पना से भी परे हैं और इसमें हेर-फेर नहीं हो सकता। इसलिए इसे ऐसा जानते हुए तुम्हें शोक करना उचित नहीं। है महाबाहो! यदि तुम इस आत्मा को नित्य जन्म लेने और नित्य मरने वाला मानते हो तो भी तुमको शोक नहीं करना चाहिए। क्योकिं जो जन्मा उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु हुई उसका जन्म निश्चय है अतएव जो बात अनिवार्य है, उसके लिए सोच करना व्यर्थ है। जन्म लेने से पहिले क्या था, किसी को मालूम नहीं, मध्य में कुछ प्रकट होता है फिर मरने के पीछे क्या होगा कोई नहीं जानता। ऐसी दशा में किस बात का सोच करना तुमको उचित है? कोई मनुष्य तो इस आत्मा को आश्चर्य से देखता है, आश्चर्य वत वर्णन करता है, कोई आश्चर्य वत मानकर सुनता है, परन्तु कोई देखकर कहकर सुनकर भी भली प्रकार नहीं जानता। सबके शरीर में यह आत्मा नित्य अविनाशी है इस कारण सब प्राणियों के विषय तुमको सोच करना उचित नहीं। अपने धर्म को सोच कर तुमको घबराना उचित नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय को धर्म-पूर्वक युद्ध से और कुछ भला करने वाला नहीं है। हे पार्थ! बिना इच्छा किए स्वर्ग का द्वार रूप यह तुमको प्राप्त हुआ है ऐसा सुअवसर भाग्यवान क्षत्रियों को मिलता है यदि तुम अपने धर्म के अनुसार इस संग्राम को न करोगे तो अपना धर्म और बड़ाई खो बैठोगे और पाप को प्राप्त होंगे। सब लोग सदा तुम्हारी अपकीर्ति करेंगे और प्रतिष्ठा करने वाले पुरुषों के लिए अपयश का होना मृत्यु से भी बढ़कर है। यह महारथी समझेंगे की अर्जुन डरकर संग्राम से हट गया और अब तक जो लोग तुम्हारा मान करते थे वे अपयश करने लगेंगे। शत्रु लोग तुम्हारे पराक्रम की निन्दा करते हुए अनेक प्रकार के दुर्वचन कहें इससे बढ़कर दुःख तुमको क्या होगा? यदि तुम युद्ध मे नष्ट हो गए तो स्वर्ग के भागी होगे और जितने पर सब पृथ्वी ताल पर राज्य करोगे। इसलिए युद्ध के निमित्त दृढ़ प्रतिज्ञा होकर खड़े हो जाओ। सुख, दुःख, लाभ, हानि, जय, पराजय इनको समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो, ऐसा करने से तुम पाप को प्राप्त न होगे। है पार्थ! यह ज्ञान उपदेश ज्ञान योग के विषय में मुझसे कहा गया। अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुनो, जिस ज्ञान को पाकर कर्म बंधन से तेरी मुक्ति होगी। कर्मयोग मार्ग एक बार प्रारम्भ ही संसार के भय से छुड़ाकर पूर्ण ब्रम्हा प्राप्त करता है निश्चय करने वाली बुद्धि इस निष्काम कर्म में एक ही है और कामना करने से पुरुषों की बुद्धि इस एकाग्र नहीं रहती, उनकी शाखा प्रशाखायें होतीं है। ऐसी दशा में मनुष्य संदेह में रह जाता है।है अर्जुन! अज्ञानी उस पुष्पिता वाणी को ही स्वर्ग सुख से बढ़कर कुछ नहीं समझते। स्वर्ग सुख को ही जो उत्तम पुरुषार्थ समझते है।उनका कामनाओं से चित्त व्याकुल होने के कारण निश्चयात्मक बुद्धि मोक्ष साधन की नहीं उत्पन्न होती कारण की उनका चित्त भोगादि में सदैव निमग्न रहता है। जिन मनुष्यों का चित्त इस प्रकार मोह में है और जिनकी आशक्ति लोभ विलास ऐश्वर्य में है ऐसे पुरुषों के अन्तः करण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है। है अर्जुन! त्रिगुणात्मक (सकाम) हैं। तुम निष्काम हो जाओ, सुख दुःख को सकाम जानकर नित्य योग क्षेत्र आदि स्वार्थों में न पड़कर, धीरजवान, आत्मनिष्ठ हो। जैसे छोटे-छोटे अनेक जलाशयों में मनुष्य का कार्य सिद्ध नहीं होता है, बड़े जलाशय से सब प्रयोजन अनायाश ही सिद्ध हो जाते हैं, उसी तरह सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ काम कर्मों का फल बह्रा में भक्ति रखने वाले मनुष्यों को सहज ही में प्राप्त होता है। तुमको केवल कर्म करना चाहिए फल तुम्हारे अधिकार में नहीं है। तुम न तो फल की अभिलाषा से काम करो ऑयर न तो निकम्मे ही रहो, फल की आशा त्याग कर कार्य की सफलता को समान मानकर तुम योगस्थ होकर कर्म करो। यही कर्म ज्ञान योग है। इस बुद्धि योग से अन्य कर्म अतत्यन्त हीन हैं, इसलिए तुम बुद्धि योग का आश्रय ग्रहण करो। फल की इच्छा रखने वाले निकृष्ट होते हैं, निष्काम कर्म करने वाला पुरुष ईश्वर कृपा से इसी संसार से सुकृत तथा दुष्कृत इन दोनों का त्याग कर देता है, इसलिए तुम निष्काम कर्म में प्रवृत्त हो, जो सब कर्मो से कल्याणकारक हैओ। कर्म फल का त्याग कर ही बुद्धि युक्त ज्ञानी पुरुष जन्म बंधन से हट कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जब तुम्हारी बुद्धि मोह बन के बाहर निकल जाएगी टैब तुम्हारा मन आगे सुनने वाली तथा हुई बातों से विरक्त हो जाएगा। अनेक श्रुतिस्मृतियों के वचन को सुनने से तुम्हारी वृति भ्रमित हो गई है। जिस समय वह निश्चल होकर आत्मा में स्थित होगी, तभी तुमको तत्वज्ञान प्राप्त होगा। अर्जुन ने पूछा- है केशव! आत्मा-स्वरूप में निश्चल बुद्धि वाला किनको कहा है। उसके लक्षण क्या है और वह कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? श्रीकृष्ण जी बोले है अर्जुन! जो महापुरुष मन की सब कामनाओं को त्याग देता है और अपने आप मे ही प्रसन्न रहता है, उसको निश्चल बुद्धि कहते हैं। दुःख में जिसके मन को खेद नहीं होता और सुख में जिसके मन को आशक्ति नहीं होती और प्रीति, भय, क्रोध जिसके जातें रहते हैं वे महात्मा स्थिर बुध्दि वाला मुनि कहलाता है। जो सर्वत्र स्नेह करता है, अशुभ से अप्रसन्न नहीं होता उसी को स्थिर बुद्धि जानना चाहिए और कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है उसी तरह जो पुरुष अपनी इन्द्रियों सेको विषय से हटाता हैइसकी बुद्धि स्थिर जाननी चाहिए। निराहारी पुरुष के विषय घट जाते हैं, परन्तु विषयों। में उसकी चाह बनी रहती है, परब्रम्हा का अनुभव होने पर चाह भी घट जाती है। है अर्जुन! मोक्ष में प्रत्यक्ष करने वाले विद्वान व्यक्ति को भी इन्द्रियाँ बलात्कार से उसके मन को जीत लेती हैं। इसलिए सब इन्द्रियों को विषयों से रोक मेरे विषय ततपर हो जाओ, जिसने इंद्रोयों को वश में कर लिया है उसी की बुद्धि निश्चल है। उसकी प्रीति हो जाती है। प्रीति होने से कामना होती है। इच्छा के न पूर्ण होने से क्रोध की उत्पत्ती होती छवि। क्रोध अविवेक होता है, अविवेक से स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है।, स्मरण शक्ति के नष्ट होने से बुद्धि क्षय होतीहै। जिसकी बुद्धि का नाश हुआ वह विनाश को प्राप्त होता है जो पुरुष राग द्वेष से रहित हो इन्द्रियों से विषय सुख का अनुभव करता है और अपने मन को वश में रखता है वह शांति को प्राप्त होता है। शांति मिलने पर सब दुःखो का नाश हो जाता है। प्रशन्न चित्त वाले की बुद्धि तुरंत निश्चल होती है। जो पुरुष योग युक्त नहीं है उसकी निश्चल बुद्धि उत्पन्न नही होती, भावना के ना होने से शान्ति नही होती, अशान्त को सुख कहा से मिलेगा? जैसे वायु नाव को जल मे खिंच ले जाती हैं,इसीप्रकार इन्द्रियाँ उस पुरुष के बुद्धि का नाश कर देती, जिसका मैन विषयाशक्ति से इन्द्रियों के पीछे लग जाता है। इस कारण है महाबाहो! जिसकी इन्द्रियाँ विषयो से सर्वथा रोक ली गई हैं उसकी बुद्धि स्थिर है। जो सब प्राणियों की रात है उसमें संयमी जागता रहता है और प्राणी मात्र जिस समय जागतें है मुनिजनों की वह रात्रि है जल से भरे पूर्ण समुन्द्र में और नदियों का जल भरने पर भी वह अपनी मर्यादा पर रहता है उसी प्रकार जिस पुरुष में इच्छा के रहने पर भी सब विषय भोग प्रवेश करते हैं, उसी को शांति मिलती है। विषयों की इच्छा करने वालों को शांति नही मिलती जो सब कामनाओं को कजोड़ कर तथा इच्छा रहित विचरता है और ममता अहंकार जिसमे नही है वह शांति को प्राप्त होता है।
है पार्थ! ब्रम्हा स्थिति यही है। ऐसी स्थिति मिल जाने ऑयर प्राणी फिर मोह में नहीं फंसता और समय निर्वाण ब्रम्हा को प्राप्त होता है।

🙏श्रीमद्भगवद्गीता दूसरा अध्याय स्माप्तम्🙏
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🙏 -----दूसरे अध्याय का माहात्म्य-----🙏
नारायणजी बोले- है लक्ष्मी! दक्षिण देश में एक पूर्ण नाम नगर था वहां एक देव सुशर्मा बड़ा धन-पात्र रहता था। वह साधु सेवा करता था। जब संत सेवा करते बहुत दिन बीत गए तब एक बाल नामक ब्रम्हा चारी आया उसकी सेवा बहुत करी और विनय करी की है संतजी! मुझे कृपाकर श्रीनारायणजी के पाने का ज्ञान उपदेश करो जिससे मेरे जीवन का कल्याण और मुक्ति होवे। तब बालब्रम्हाचारी ने कहा मैं तुझे गीता जी के दूसरे अध्याय का पाठ सुनाता हूँ श्रवण कर। एक अयाली वन में बकरियां चराता था और वहां मैं भजन किया करता था। के दिन रात को अयाली बकरियां लेकर घर को चला मार्ग में एक सिंह बैठा था एक बकरी सबसे आगे चली जाती देखकर शेर भाग गया। तब एकली यह देखर बड़ा चकित हुआ और तब तक मैं भी वहां आ खड़ा हुआ। उस चकरवाहे ने मुझे देखकर कहा - मैंने यह आश्चर्य देखा कि बकरी को देख शेर डर के भाग गया तुम त्रिकालयज्ञ हो वृतांत मुझे कह सुनाओ, संत ने कहा - है अयाली! मैं तुझे पिछली एक वार्ता सुनता हूनम यह बकरी पिछले जन्म में डायन थी। जब उसका भरता मार गया तब यह बड़ी डायन हुई, जिस सूंदर लड़के को देखे खालेवे और यह शेर पिछले जन्म में फंदक था वह पक्षी पकड़ने बाहर गया और डायन भी वन को गई। वहाँ डायन ने उस फंदक को खा लिया आब वही फंदक शेर हुआ और वह डायन यह बकरी हुई। शेर को पिछले जन्म की खबर है इसलिए बकरी को देखकर शेर ने जाना कि अब भी मुझे खाने आई है टैब अयाली ने कहा कि मैं पिछले जन्म में कौन था? तब संतजी ने कहा - हैम तुम्हारा तीनों का उद्धार करते हैं एक वार्ता मेरे से सुनो। प्रथम तो एक पर्वत की कंदरा में एक शिला थी उस पर श्रीगीता जी का दूसरा अध्याय लिखा हुआ था मैंने उन अक्षरों को उस शिला पर देखा था अब मैं तुम्हारे को मैन-वचन और कर्म करके सुनाता हूँ तुम श्रवण करो संतजी ने गीताजी के अक्षर सुनाए तब उसी समय तत्काल ही आकाश से विमान आये उन सभी को विमानों पर चढ़ाकर बैकुण्ठ लोक को ले गये। अधम देह से छूटकर देव देह पाई और देव सुशर्मा भी गीत ज्ञान को सुनकर मुक्त हुआ। देवदह पाकर बैकुण्ठ को गया । तब श्रीनारायणजी ने कहा- है लक्ष्मी! जो मनुष्य श्रीगीताजी के ज्ञान को पढ़े सुने वह अवश्य मुक्ति को प्राप्त होगा।
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💝~Durgesh Tiwari~
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