Tum na jane kis jaha me kho gaye - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 3 - कॉलेज के दिन

पटना कॉलेज का विशाल प्रांगण अपनी विशालता से जितना प्रभावित करता है, नवागंतुकों को कहीं अंदर तक भयभीत भी करता है। मन में मंडराते बहुत सारे विचार, निडरता उस समय अपना आकार लेने लगते है जब सीनियर्स की टोली आप को घेर लेती है और उनकी टीका टिप्पणी आप के पोशाक तक जा पहुंचती है।

"क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि यह स्कूल नहीं है , कॉलेज है और यहाँ ये पोशाक नहीं चलता है ।" उनका निशाना मेरी मिडी पर होता है।

हम चांद पर पहुंचने का दावा करने वाले अपनी सोच को पोशाकों से ऊपर ले ही नहीं जा पाते हैं जब यह मामला लड़कियों के वस्त्रों का हो तो।

एक क्षण को लगता है इतने लोगों को जवाब दूं या नहीं, फिर खुद सुनाई पड़ता है अपना स्वर, जोकि भगत सिंह की सालों पहले पढ़ी पंक्तियों को अपने तरीक़े से दुहरा रहा होता है - "पोशाक किसी का निजी मामला है और कॉलेज ने यह तय नहीं किया है कि किसे क्या पहनना है।"

इसी कॉलेज ने बहुत सारे प्रिय मित्र दिए मुझे और अपने स्कूल का पुराना मित्र सौरभ तो था ही मेरे साथ। सौरभ के होने से पटना कॉलेज सहज लगने लगा था। क्लास के बाद हम पटना कॉलेज के पीछे बहती सुरम्य गंगा तट पर जा बैठते और अपने स्कूल के दिनों की , पुराने मित्रों की और पटना कॉलेज की - बहुत सारी बातें किया करते। पर यह सिलसिला भी बहुत दिनों तक नहीं चल सका। कॉलेज के कुछ छात्रों को यह आपत्ति होने लगी कि नयी आई यह छात्रा उन्हें तो भाव नहीं दे रही है पर किसी के साथ आराम से घंटा दो घंटा प्रतिदिन बिता रही है। उस दिन जैसे ही हम गंगा तट से उठे पीछे दस बारह लड़के खड़े थे ।

"क्या चल रहा है यहाँ।"

स्कूल में कभी यह माहौल देखा नहीं था और मेरे मित्र तो घर भी आते थे। अजीब सा लगा था मुझे। उस समय उन लोगों ने हम दोनों को घेर लिया। "तुम लोग साथ नहीं बैठ सकते।"

सौरभ ने शांति से बात किया - "स्कूल के पुराने साथी हैं हम। अगर आप लोगों को आपत्ति है तो अगले दिन से नहीं बैठेंगे।"

एक दादानुमा छात्र ने धमकी देते हुए जानें दिया था हमें।

आक्रोश भरा हुआ था मन में मेरे। "क्यों तुमने कहा कि हम नहीं बैठेंगे। हम लोग पहले भी बैठते रहे हैं साथ। तो अब क्यों नहीं। "

सौरभ शायद मेरे से ज्यादा समझदार था उस समय। उसने कहा - "रहने देते हैं । यहां का माहौल थोड़ा संकीर्ण है और मित्र तो हम हैं ही।"

4 दिसंबर की वह शाम


उस शाम हम कॉलेज से लौट रहे थे। करीब 4:00 बजने वाला था।सौरभ साथ था मेरे , साइकिल चलाता हुआ। मुझे रिक्शा मिल पाया नहीं था । साथ चलना अच्छा लग रहा था। अचानक सौरभ ने कहा -" स्कूल के समय से बहुत पसंद हो तुम मुझे।"

रोना सा आ गया मुझे। "जो मुझे पसंद है , उसने तो कभी ये कहा नहीं मुझे।"

तुरंत संभल गया सौरभ - "किसकी बात कर रही हो तुम? " अंदर का जो वेग अब तक संभाल के रखा था, तीव्र गति से निकल कर बाहर आने लगा। पांच सालों के जज़्बात तब तक बहते रहे, जब तक कहानी खत्म नहीं हुई। हतप्रभ था वो भी कि अब तक बताया क्यों नहीं। हाथ थामे हुए सामने के रेस्तरां में ले के गया। रसगुल्ला खिलाया और बोला -"अब रोना मत। सब समझेंगे, मैंने ही कुछ कह दिया। आने दो दिल्ली से उसे। मैं बात करता हूं।"

उस रात रीना दी की शादी थी , हमारी दोस्त रेखा की दीदी की। हम सब आमंत्रित थे। सौरभ भी साथ आया था। रात भर खूब मस्ती की हमने। मन खुश था मेरा सौरभ के आश्वासन पर।