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राजनीति में सती सावित्री

राजनीति में सती सावित्री

(राजनीति में आई एक स्त्री के प्रति पुरूषों का क्या दृष्टिकोण है जरा मुलाहिजा फरमाइये।)

राजनीति में सती सावित्री का क्या काम! फिर भी सावित्री ने तय किया कि अब वह राजनीति करेगी उसने पार्टी अध्यक्ष से मुलाकात की। अध्यक्ष ने सावित्री का स्वागत करते हुए कहा कि महिलाओं को राजनीति में आगे की पंक्ति में आना चाहिए। हमारा सौभाग्य है कि आप आई, अध्यक्ष ने उनके सुन्दर चेहरे को लक्ष्यकर आश्वस्त किया कि आपको किसी पार्टी पोस्ट पर एडजस्ट कर दिया जायेगा।

अध्यक्ष जी ने उनकी उम्र, शैक्षणिक यौग्यता व कार्य में दिलचस्पी को देख उन्हें पार्टी की युवा शाखा का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

अध्यक्षजी ने कहा “पद जिम्मेदारी का है और उसमें पूरे प्रदेश के दौरे करने पड़ेगें। मेरे दौरे का प्रोग्राम बन गया है, आप मेरे साथ चलेगी।“ सावित्री मना कैसे करती!

एक दौरे के बाद ही कार्यकर्ताओं में कई किस्से प्रचलित हो गये। अध्यक्षजी ने क्या चीज पकड़ी है! जैसे अध्यक्षजी चील हो और सावित्री चिड़िया। ‘यार अध्यक्षजी के तो मजे है। अब तो और अधिक दौरे होंगे। अबकि बार सावित्री का विधानसभा का टिकिट पक्का है। अध्यक्षजी ने सारा भार सावित्री पर डाल दिया है। सावित्री को अफसोस था कि उसकी योग्यता और कार्य को कोई नहीं देख रहा है। निराशा के क्षणों में सावित्री ने अध्यक्षजी से कहा - बहुत हो गया, राजनीति छोड़ मैं अब सत्यवान के पास वापस जाउंगी।

अभी तो तुम्हारे पाँव भी नहीं जमे है। मैं मुख्यमन्त्री से कहकर किसी निगम की अध्यक्ष बनवा देता हूँ ताकि तुम्हारा खर्चा पानी चल सके। और फिर अगले साल इलेक्शन है अभी से भाग दौड़ कर टिकट पक्का कर लो। अब मुख्यमन्त्रीजी को तो गुड-ह्यूमर‘’ में रखना ही होगा न। जिला व राज्य कमेटी को भी विश्वास में लेना होगा।

पार्टी कार्यकर्ता जानते हैं कि सावित्री सबको विश्वास में ले लेगी। कार्यकर्ता सावित्री पर पूरी नजर रखे थे। उसकी पहुँच कहाँ-कहाँ तक है और क्यों है?

ज्यों-ज्यों सावित्री के बारे में किस्से कहानियाँ फैलती गई। उसकी पुहॅंच भी ऊँची होती गई। कार्यकर्ता अपना काम निकलवाने के लिए सावित्रीजी का उपयोग करने लगे और मौका मिलने पर नजर भी फैंक लेते; क्या पता चिड़िया फॅंस ही जाये!

सावित्री का संघर्ष तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि वह विधायक बनकर मन्त्री की कुर्सी पर न बैठ जाये।

विधानसभा चुनाव आ गये, तो सावित्री को टिकट मिल गया। अब तो पार्टी वर्कर चौडे में बोलने लगे। फलाने के साथ हम बिस्तर हुई थी। साली को एक ही रात में टिकट मिल गया और जो दसियों वर्षो से राजनीति कर रहे हैं, उन्हें टका सा जवाब दे दिया - महिलाओं को आगे लाना है।

जब सावित्री पुरूष मतदाता की ओर उन्मुख हुई तो उसका चेहरा निहार कर वे अपने को धन्य मानते। अपनी ही पार्टी के विरोधी तमाम तरह के किस्से जनता में फैलाने लगे थे। जनता भी क्या चीज है जो इस तरह की बातों पर सहज ही विश्वास कर लेती है। नतीजा, अपनी पूरी इज्जत उतरवाकर भी सावित्री हार गई।

करमजले किसान की कथा

अच्छा हुआ जो हमने जमींदारी समाप्त कर दी, वरना हम विकास की दौड़ में बहुत ही पिछड़ जाते। जमींदारी समाप्त होते ही किसानों के सपनों में अपनी जमीन पर फसल लहलहाने लगी, उनकी आशाएं बढ़ी, तभी सर्वोदयी उनकी मदद को आए, उन्होंने भूदान और ग्रामदान की योजनाएं चलाई। फलतः पुराने जमींदारों ने वाह-वाही लूटने के लिए भू-दान करना आरम्भ किया जिससे बंजर और पड़त जमीन के भाग खुल गये। किसानों ने बड़ी आस से उस पड़त जमीन को देखा और जैसा कि किसान की आदत है खूब मेहनत की और उसे जोतने लायक बनाया, तभी जमींदार का छोरा बन्दूक लेकर खेत पर आ गया हमारी जमीन जोतने की हिम्मत किसने की।

उसने लाख सिर पटका लेकिन जमींदार तो जमींदार, अड़ गये तो अड़ गये। किसी तरह भूदान आन्दोलन की लुटिया गंगा में डूबी, लेकिन किसानों की आकांक्षायें बढ़ी, राजनीति करने वाले किसानों के नाम वोट मांगने लगे, दो बैलों की जोड़ी पर ठप्पा मारो ओर किसानों को जिताओं। किसानों की राजनीति करने वाले आगे बढे, उन्होंने सरकारी भूमि का एलाटमेन्ट करना आरम्भ कर दिया। राजस्व केम्प लगने लगे और लगे हाथ मंत्री गण गाँव-गाँव जाकर भूमि आंवटन करने लगे। किसानों की तो बांछें खिल गई पट्टे और खातेदारी के दस्तावेज मिल गये। फिर कभी बिटिया के हाथ पीले करने पड़े तो कभी बाप का इलाज करने में, जमीन हो गई गिरवी। और गिरवी रखने वाले उसके हो गये मालिक।

गांव में नये नये जमींदार पैदा हो गए जिसने भी राजनीति में उन्नति की वही जमीन पर कब्जा कर बैठा और पड़ोस के कमजोर किसान की जमीन जोतने लगा। किसान गया तहसील में अपने कागज पत्तर लेकर।

‘मुझे मेरा कब्जा दिलवाओ।’

तहसीलदार ने कहा - लो अभी। पहले अर्जी, फिर नोंटिस फिर कार्यवाही। मौका मुआयना हुआ। राजस्व विभाग ने दोनों तरफ से अपनी जेबें गच्च करली। पटवारी ने जमीन नापी जोखी और कहा -ले कब्जा। पूरा खेत खाली अब तू जोतना-बोना। हम चले तहसील।

दूसरे दिन करमजला फिर तहसीलदार के पास गया। कब्जा तो आपने सौंपा लेकिन लठैत तो लाठी लेकर खड़ा है। तहसीलदार बोला -तुम तलवार लेकर खड़े हो जाओ। नहीं तो फौजदारी करो। करमजला गया थाने, लिखाई रिर्पोट, थानेदार गया गाँव, बैठाई पंचायत अब लठैत से तो सभी डरें, कौन गवाही दे सो थानेदार ने लठैत के यहाँ खाया-पिया और फाइनल रिर्पोट पेश कर दी।

किस्सा स्थानीय पत्रकार का

हमारे कस्बे में एक पत्रकार है। राजधानी से प्रकाशित होने वाले एक प्रमुख हिन्दी अखबार में पत्रकार है। अखबार राज्य स्तर का है इसलिए पत्रकार का स्तर भी राज्य स्तर का है। उन्हें अखबार से कोई वेतन नहीं मिलता फिर भी ठाठ से रहते हैं, हजारों रूपये महीने का खर्चा है, ऑफिस है, टेलीफोन है, अब फेक्स भी है इज्जतदार लोगों से उनके ताल्लुक है।

अखबार के मालिक होशियार। मुख्य समाचार तो समाचार एंजेंसी से लेते हैं और फ्री के स्थानीय पत्रकार रख लेते हैं जो ग्राहक बनाते हैं, पेपर बांटते हैं, विज्ञापन बुक करते हैं और स्थानीय खबरें भेजते हैं। स्थानीय खबरों में थाने-कचहरी की खबरें, कौन गिरफ्तार हुआ, कोर्ट ने किसको रिहा किया या सजा दी, मन्त्रियों-अधिकारियों और राजनेताओं के दौरों की खबरें, उद्घाटन-शिलान्यास की खबरें, धार्मिक व जाति संगठनों की खबरें, दुर्घटना और हादसों की खबरें, कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाईयों के चुनाव तथा छुटभयै नेताओं द्वारा मुख्यमंत्री, मन्त्री यहाँ तक की प्रधानमन्त्री को ज्ञापन (चिठ्ठी) देकर स्थानीय समस्याओं का समाधान करने की अपील, जैसी खबरें होती हैं, जो अखबार के खाली कॉलम भरने के काम आती है, जिससे अखबार की बिक्री भी बढती है पत्रकार को एक कॉलम में चार इंच की न्यूज का पैसा मिल जाता है, विज्ञापन पर भी कमीशन मिलता है लेकिन कमाई 500-700 से आगे नहीं बढ़ती।

उन्हें अखबार की कमाई से कोई मतलब नहीं है। उनके पास अखबार का दिया पहचान पत्र है। जो सरकारी क्या निजी बसों में भी फ्री आने-जाने के काम आता है। किसी सरकारी अफसर को डराना-धमकाना हो तो भी पहचान पत्र काम आता है। थाने में तो इस पहचान पत्र की बहुत भूमिका है। कई मामले थाने में रफा-दफा करवाकर अपना कमीशन प्राप्त करते हैं। ऐसे ही वे कभी तहसील चले जाएँगे, तहसील के कर्मचारियों पर हाथ रखेंगे, ट्रांसफर की धमकी देंगे, बड़े ही शिष्ट अंदाज में तब तहसीलदार पत्रकार की सेवा करने लगेगा। वो तहसीलदार जो दूसरों की जेब काटता है, पत्रकार उसकी भी काट लेता है इस मामले में ये ठीक करता है कम से कम समाजवादी कार्य तो करता है।

ऐसे कई ठिये हैं मसलन शराब का ठेकेदार, जुआघर के मालिक, नगरपालिका के चेयरमेन, पी.डब्लू.डी के इन्जीनियर, सिंचाई व बिजली विभाग के ईंजीनियर। वैसे उनकी सब कोई सेवा करते हैं जो नही करते वे उनके बह्मास्त्र के शिकार हो जाते हैं। उनका ब्रह्मास्त्र है- आपके खिलाफ न्यूज लगा दूंगा। क्योंकि लोग बदनामी से डरते हैं । कुछेक शरीफ इसलिए डरते है कि नंगों से कौन पंगा ले। लेकिन अधिकतर तो दो नम्बर की कमाई वाले ही होते हैं, जिस पर वे इन्कम टेक्स तक नहीं देते ऐसे में पत्रकार अपना चार्ज वसूल कर लेता है तो बुरा क्या है?

जो सेवा करने नहीं पहुंचते उनके बारें में न्यूज लगा देते है, इस वास्ते पार्टियों के संगठन काम आते है। विरोधी लोग स्वयं पत्रकार को अधिकारी / नेताओं की पोल पट्टी मय सबूत देते हैं। पत्रकार महोदय उन सबूतों की फोटो स्टेट कॉपी संबधित अधिकारी को पहुंचा देते है। फिर टेलीफोन पर उनके भले की बात कह देते हैं कि सच्चाई जानने के लिए वे दूसरे पक्ष से भी तथ्यों की जानकारी कर लेना जरूरी समझते हैं सो दूसरा पक्ष आतंकित हो सेवा करने पहुँच जाता है।

स्थानीय पत्रकार ने अधिशाषी अभियंता को फोन किया ‘हेलो एक्सई.एन. सा’ब कहिए क्या ठाठ है।’

‘आपकी मेहरबानी है।’ साहब बोले।

‘लेकिन आपकी तो मेहरबानी होती ही नहीं’ स्वर व्यंग्यपूर्ण था।

‘कहिए क्या सेवा करूं। आपने सेवा का आपने अवसर दिया ही नहीं’।

‘सुना है सीमेंट से भरा एक ट्रक स्टोर से रवाना होकर सीधे साहब के बन रहे नये बंगले पर खाली हुआ है, अब यह पता लगाएँ कि ये बंगला कौन से साहब का बन रहा हैं?’

पत्रकार का सीधा लक्ष्य अधिशाषी अभियंता ही थे। परन्तु मजाल है एक बार में ही बात तय की जाकर सौदा पटाया जाये। अधिशाषी अभियंता भी कम घाघ नहीं था। सो उन्होंने पत्रकार महोदय को डिनर पर बुलाकर बताया कि देखो अगर पैसे में सौदा पटाओगे तो नुकसान में रहोगे, ज्यादा से ज्यादा पांच हजार, बस केवल एक बार की कमाई और फिर?

पत्रकार हाथों पर चेहरा टिकाये उनकी ओर टुकुर-टुकुर देख रहे थे।

‘फिर मेरी भी जेब खाली क्यों हो! सरकारी तिजोरी लबालब भरी है, एक मुठ्ठी मैने निकाली और अगर एक मुठ्ठी आप भी निकाल लेंगें तो थोड़े ही गंगोत्री सूख जायेगी’।

‘तो कैसे क्या किया जाये!’ पत्रकार लालायित हो बोले।

‘अभी बगीचों में मिट्टी डालने का टेन्डर निकला है।’

‘टेंडर मैं भरवा देता हूँ, काम भी मैं करवा दूंगा तुम तो अपना 20 प्रतिशत प्रोफिट ले लेना।’

‘ऐसा हो जायेगा!

‘हाँ, क्यों नहीं। फिर ऐसे टेंडर निकलते ही रहते है। जैसे देशी खाद लाने के, गड्ढा खोदने के, पेड़ लगाने के, मेरे साथ रहे तो साल में डेढ़-दो लाख की कमाई करवा दूंगा।’

‘सच’ उनकी आखें चमक उठी।

इससे पत्रकार की स्थिति में सुधार हुआ और अपराधियों की गेंग में शामिल कर हमेशा के लिए चुप कर दिया।

तालीम देने का खब्त

समाज को सभ्य बनाने में तालीम की अहम भूमिका है। पहले यही भूमिका अंग्रेज अदा करते थे। उन्हें हिन्दुस्तानियों को सभ्य बनाने का खब्त सवार था। कुछ लोग सभ्य हो गये इससे नुकसान अंगेजों को ही हुआ उन्हें यह मुल्क छोड़कर वापस इंग्लिस्तान जाना पड़ा।

आजादी के बाद की सरकारों को भी यह खब्त सवार रहा बड़े मजे से ब्राह्मण, राजपूत और बनिये राज कर रहे थे लेकिन शिक्षा प्रदान करने के खब्त के चलते दलितों व पिछड़ों ने राजसता में भागीदारी मांगनी शुरू कर दी। जिससे हुआ यह कि अब संसद और विधानसभाओं में इन्हीं जातियों का बोल बाला है।

जब सरकार ने नारी शिक्षा पर जोर दिया तो नारी लज्जावती न रह कर जीवन के हर क्षेत्र में पुरूष से बराबरी करने लगी। नारी शिक्षा के चलते पुरूष की सत्ता में भयंकर कमी आई वह तिलमिला कर रह गया। तालीम चीज ही ऐसी है, जो सब रिश्तों को बदल देती है अब स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत लोकसभा व विधानसभाओं में तथा 50 प्रतिशत पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण होगा। अभी से विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं शरद यादव ने तो लोकसभा में यहाँ तक कह दिया कि अगर यह बिल पास हो गया तो वे जहर खा लेंगें। अब बताइये इतने जहरीले बिल को सरकार पास करवाने पर क्यों तुली है। सरकार का गणित साफ है, जनसख्या में 50 प्रतिशत महिलाएं हैं इसलिए उन्हें 50 प्रतिशत सीटें मिलनी चाहिए। इसमें गैर वाजिब क्या है और जहर खाने वाली क्या बात है बल्कि मिठाई बाँटने का समय है अगर आप नहीं खड़े हो सकते तो पत्नी को खड़ी कर दीजिए। लोकसभा आप नहीं तो आपकी पत्नि जायेगी। लेकिन पावर तो आपके पास ही रहेगी। बस आप उनके सेक्रेटरी बन जाइये।

हमारी एक सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘आपरेशन ब्लेकबार्ड प्रारम्भ किया जिससे तालीम याफता लोगों की मोनोपाली खत्म होने का मंजर सामने आया। शुक्रिया हो सरकार का कि उसने हर गाँव ढाणी में एक ब्लेकबोर्ड मुहैया करा दिया । लेकिन हुआ यह कि जहाँ ब्लेक बार्ड पहुँच गया वहाँ चाक नहीं पहुँची और जहाँ ब्लेकबोर्ड और चाक दोनों ही पॅंहुचे वहाँ गुरूजी नहीं पहुँचे, ‘अब बच्चे तो बच्चे, उन्होनें चाक लेकर ब्लेक बोर्ड पर ऐसी इबारते लिखी कि अगर अध्यापक पढ़ते तो दंग रह जाते चूंकि अध्यापक थे नहीं इसलिए दंग रहने का कार्य स्कूल निरीक्षक ने किया। उसने अपना टी.ए. डी.ए. बनाया और रिपोर्ट सरकार के पास भेज दी। रिपोर्ट में कहा गया कि फला गाँव में अध्यापक नहीं है, फलां गावं में ब्लेक बोर्ड नहीं है, फलां में स्कूल भवन नहीं है, फलाँ गावं का अध्यापक स्कूल जाता ही नहीं है। क्योंकि वह पंचायत समिति के प्रधान की हाजरी में रहता है, फिर जाकर करे भी क्या, क्योंकि वहाँ भवन, ब्लेकबोर्ड, चाक सब है लेकिन विद्यार्थी तो है ही नहीं चुनाँचे वह महीने के अंत में जाकर अपनी हाजरी मांडकर तनखा उठा लेता है।

इससे भी हैरत अंगेज मंजर वहाँ दिखा; जहाँ अध्यापक, छात्र, ब्लेकबोर्ड और चाक सभी थे लेकिन उनमें आपसी सामजंस्य नहीं था। छात्रों के पास कभी कापी नहीं थी तो कभी पैंसिल। कभी किताब नहीं तो कभी खेत पर जाना जरूरी था. मास्टरजी है तो वो कभी बीमार हो जाते, तो कभी जनगणना का काम कर रहे होते तो कभी वोटर लिस्ट बनवा रहे होते या कभी फेमिली प्लानिंग के केस पटाने में जुड़े रहते तो कभी चुनाव कार्य करवाने में व्यस्त हो जाते है। जबसे मिड डे मिल योजना प्रारम्भ हुई है तब से गुरूजी सामान खरीदने, पोषाहार बनवाने, बाँटने और हिसाब-किताब का काम देख रहे हैं। कक्षा में जाने का समय ही कहाँ बचता है। सो सारा स्टाफ ‘मिल-जुलकर खाओं और बैकुण्ठ जाओ के सिद्धांत पर चल रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि तमाम व्यवस्था के बावजूद तालीम हैं कि हासिल ही नहीं होती अब इसमें किसी का क्या कसूर। जितनी तालीम हो चुकी है वही सरकार के गले पड़ रही है।

अब तालिम ऐसी हो चुकी है कि हजारों-लाखों रूपये खर्च न करो तो आती ही नहीं है। पब्लिक स्कूलों के बच्चे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलकर, वर्नाकूलर स्कूल के बच्चों को पीछे छोड़ जाते हैं। इस तरह समर्थ फिर आगे बढ़ जाता है। अब सबको शिक्षा देनी है तो ऐसे ही दी जा सकती है।