Aouraten roti nahi - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

औरतें रोती नहीं - 15

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 15

भटकती नींदों के सहारे

पद्मजा: फरवरी 2007

पहली आर ऑनी से मिली, तो लगा एकदम अनजाना चेहरा नहीं है। तीसेक साल का होगा। अच्छी लंबाई, एक आम अरबी की तरह खूब गोरा रंग, जरा सी दाढ़ी, एकदम हरी आंखें। उसने बंद गले की शर्ट पहन रखी थी। जैसे ही उसने मुझसे हाथ मिलाया, तेज खुशबू के झोंके ने मेरे दिमाग की नसों को चौकन्ना कर दिया। इस गंध से बाज क्यों नहीं आते अरब के लोग? ऑनी ने बड़े अदब से अपनी लंबी, महंगी, चमचमाती गाड़ी का दरवाजा खोला। मेरे बैठने के बाद उसने झुककर दरवाजा बंद कर दिया। मुझे हंसी आ गई। ऑनी के बारे में मुझे कुछ-कुछ पता था। दो बीवियां थीं और इन दिनों एक फिलीपीनी युवती को लारे-लप्पे के सहारे अपने करीब लाने की कोशिश कर रहा था। औरतों का आखिक ऑनी एक माहिर खिलाड़ी था।

मुझे मेरे फ्लैट के सामने उतारते समय उसने मुलायम स्वर में पूछ लिया, ‘‘आर यू श्योर? शाम को अकेले बिताना चाहोगी? डू यू वॉन्ट मी टु जॉइन यू?’’

मैंने सोचा, सच पूछो तो मुझे अकेलेपन से डर लगने लगा है, लेकिन ऑनी की कंपनी का मतलब सिर्फ पीना-पिलाना नहीं है। मैं फिलहाल मूड में नहीं हूं।

मेरे न में सिर हिलाने के बाद वह रुका नहीं, कुछ निराश स्वर में बोला, ‘‘ओके, मे बी नेक्स्ट टाइम। तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही।’’

मैं दुबई में जिस कंपनी के लिए काम कर रही थी, ऑनी उसका पार्टनर था। अमेरिका में पढ़ा-लिखा, हिंदी फिल्मों का दीवाना। कहता था कि शाहरुख खान जब भी दुबई आता है, उससे मिले बिना नहीं जाता। दुबई के मशहूर मुगल महल होटल में भी पार्टनरशिप थी उसकी। मेरे पीछे पड़ा था कि एक दिन वहां चलो। इस शुक्रवार को बात तय भी हो गई थी, लेकिन जैसे ही मुझे पता चला कि ऑनी रात को उसी होटल में रुकने की योजना बना रहा है, मैंने बीमारी का बहाना बना कर टाल दिया। अभी नहीं। शरीर की जरूरते हैं... लेकिन इस समय किसी पुरुष की जरूरत नहीं। दो ड्रिंक पीने के बाद मेरे खिलौने सामने आते हैं... वही खिलौने जो सालों से साथ निभा रहे हैं।

दुबई में रहते हुए मुझे पंद्रह दिन हो गए थे। मेरे पास तीन महीने का वीजा था। जिस कंपनी के लिए मैं कॉन्ट्रेक्ट पर काम करने आई थी, उसने पहले तो मुझे बर दुबई के एक पॉश होटल में ठहराया। पर चार दिन बाद ही कंपनी के एचआर मैनेजर लालवानी ने कुछ संकोच भरे अंदाज में कह दिया कि आपके लिए शारजाह में एक फ्लैट का इंतजाम कर दिया गया है। एक कमरा है, किचनेट है, बाकी जरूरी सहूलियतें हैं। आपको कोई तकलीफा नहीं होगी।

फ्लैट ठीक था। आठ मंजिला इमारत की आखरी मंजिल पर बना स्टूडियो अपार्टमेंट। बिल्डिंग के ठीक पीछे समंदर। सड़क किनारे कुछ अरबी रेस्तरां थे, दो-तीन नाई की दुकानें और दूर तक फैला था री-सेल कार का कारोबार। जहां तक नजर उठाती, तरह-तरह की कारें नजर आतीं। लगता जैसे एक बड़े से रेत के मैदान में कारों का मेला लगा हो। कारें चलतीं, तो रेत का दुबार उड़ता। वहीं दस-बारह अरबी बच्चे अपनी टखनों तक की पोशाक में चिल्लाते घूमते। जिस दुबई को मैंने आज तक देखा था, चमचमाता, चकाचौंध और ग्लैमर से भरपूर शहर, उसके मुकाबले यह तस्वीर एकदम अलग थी। यहां भूख भी थी और आग भी। मैं रोज रात हाथ में शैंपेन का जाम लिए बालकनी में खड़ी हो जाती। वहां से इन बच्चों की दुनिया साफ नजर आती थी। हंसते-खिलखिलाते, अरबी में गाते बच्चे। उनमें एक भी लड़की न थी। सिर्फ लड़के थे जो अपने गाउन को घुटनों तक उठाए रेत में फुटबॉल खेलते, तो कभी कागज की प्लेट में फिलाफिल लिए दौड़ते।

पर रह-रहकर मेरे सामने उज्ज्वला आ खड़ी होती। न जाने क्यों मुझे उस औरत से मोहब्बत हो गई है। इसलिए बर्दाश्त नहीं कर पा रही कि उज्ज्वला को मेरे प्यार की दरकार नहीं। जिस दिन उसने मुझसे कहा- पद्मजा, बस... अब मुझे अपनी तरह से जीने दो...

मुझे लग गया कि वाकई अब उसे मेरी जरूरत नहीं। पिछले छह महीने में कितनी तेजली से सब कुछ बदल गया है। पहले जैसा कुछ नहीं रहा। मैं भी नहीं।

सोचते-सोचते मैं थकने लगी। सांस तेज चलने लगी। शैंपेन का आखिरी घूंट लेकर मैंने सुराहीदार गले का बेहद आकर्षक गिलास बालकनी की ग्रिल पर रख दिया। हल्की हवा चल रही थी। बालकनी में लगी फेंगशुई की पांच लड़ियों वाली घंटी मद्धम सुर में बज रही थी। कमरे में मैंने फ्यूजन की सीडी लगा रखी थी। इंडियन और स्पैनिश फ्यूजन। मैं रेलिंग पर टिककर बैठ गई।

आज मन स्थिर नहीं है। मन कर रहा है कि ऑनी को ही फोन करके बुला लूं। किसी और को ठीक से जानती भी तो नहीं। बार-बार उज्ज्वला का चेहरा सामने आ रहा है। उसका कमजोर, गोलाकार चेहरा कितना कठोर हो गया है। मुट्ठी तन गई है, कुछ हांफती सी कह रही है, ‘‘क्या मैं कभी अपने मन की नहीं कर सकती? मैं बच्ची तो नहीं पद्मा? तुम सब अपनी तरह से जी रही हो। मुझे क्यों नहीं जीने देतीं?’’

मैं न चाहते हुए भी कह रही हूं उससे, ‘‘उज्ज्वला, डोंट फॉरगेट... तुम स्वस्थ नहीं हो। तुम्हें हर दिन दवा लेने की जरूरत है। तुम आज तकजिंदगी में एक सीधे रास्ते पर चली। अब क्या हो गया है? इतना वाइल्ड क्यों बनना चाहती हो? वॉन्ट टु कॉपी मी...? भूलो मत कि मेरा बैकग्राउंड बहुत अलग है। मैं हमेशा अपनी शर्तों पर जीती आई हूं। तुम कभी एक दिन अकेली रही हो भला? क्या प्रूव करना चाहती हो तुम?’’

उज्ज्वला के होंठों पर थरथराती हुई कोई बात रुक गई। आंखों में एक कौतुहल जैसे कहना चाहती हो यह तुम कह रही हो पद्मा? तुम, जिसने मुझे जीना सिखाया, जिसने बताया कि जिंदगी वो नहीं जो तुम जी रही थीं, जिंदगी वो है जो हम मिलकर जाएंगे? अब जब मैंने अपने लिए एक राह चुनी है, तो तुम कह रही हो कि मैं लौट आऊं?

मैंने उज्ज्वला से ऐसा क्यों कहा... समझ नहीं पाई। खुद से पूछ रही हूं, क्या मैं इतनी असुरक्षित हूं जो अपने से उम्र में बड़ी, बीमार और औसत दिखने वाली औरत से अपनी तुलना करने लगूं? वह मेरे बिना गाड़ी चलाना सीख रही है। वह मुझे बताए बिना अपने बाल कटा आई है। छोटी बातें... बढ़ती चली गईं। उसने कहा, ‘‘मैं कुछ दिन तुम लोगों से अलग रहना चाहती हूं। मेरे तन-मन की मांग है...’’

मन ठीक है, तन क्या है? तन की मांग? उज्ज्वला के तन की मांग...

‘‘उज्ज्वला... तुम समझती क्यों नहीं? सूर्यभान के साथ तुम बाहर जाती थीं, उसके घर में रात बिताती थीं... किसी ने कुछ नहीं कहा। पर दो दिन पहले मिले एक पेंटर के पीछे जो तुम पगला रही हो, यह बात हजम नहीं हो रही...’’ कहने के बाद मुझे लगा कि यह मैं नहीं बोल रही। पद्मजा ऐसा कैसे बोल सकती है। पद्मजा ने ही तो उन दो औरतों को एक नई दुनिया का दरवाजा दिखाया है। रोशनी की हल्की सी लकीर को पकड़ जब तीनों औरतें उस पर सवार हुईं, तो पद्मजा ने इतराते हुए बताया रोशनी के बस इस कतरे से खुश हो रही हो? दरवाजे के उस पार तो जाकर देखो... क्या रखा है तुम्हारे लिए। जियो, पूरी तरह... किसी के रोके मत रुकना...।

वह पद्मजा उज्ज्वला को कह रही है कि रुक जाओ।

उज्ज्वला ने होंठ भींच लिए। पद्मजा आगे क्या कहेगी, उसे पता है। व्योम पेंटर है, फक्कड़ है और एच.आई.वी. पॉजिटिव है...।

मैंने आंखें बंद कर लीं। क्या मैं इतनी कमजोर हूं? कायर भी? यह उज्ज्वला के लिए मेरी मोहब्बत थी या मुरी असुरक्षा? मैं नहीं चाहती थी कि मेरे साये से निकलकर वह अपना अलग अस्तित्व बनाए।

यकीन नहीं करना चाहती लेकिन मेरे दबंग आवरण के नीचे जो काया है, वह हमेशा डरी रहती है। कितनी कोशिश की कि अंदर से मजबूत बनूं। चाहे नाना के सामने हो या मम्मा के सामने। अव्वा के सामने हो या मैक के सामने। मन्नू के सामने हो या उज्ज्वला के सामने। लेकिन सबके सामने मेरा असली चेहरा आ ही गया। तो क्या असल में मैं यही हूं? एक असुरक्षित, बेचारी और डरी हुई औरत?

मैं एकदम से चिहुंकर उठ खड़ी हुई। नीचे बच्चे शोर कर रहे थे, आज कोई दयावान उन्हें खुब्बूस (अरबी मोटी रोटी) और शीश ताउक (चिकन सींक कबाब) दे गया था। कागज के डोंगे में सब बच्चे एक साथ हाथ डाल रहे थे। जिसके हाथ में खुब्बूस आ गया, वह दौड़ रहा था और दूसरे बच्चे उसका पीछा कर रहे थे।

हंसी, खेल, मस्ती...

ऐसी ही एक शाम थी। मैं, मन्नू और उज्ज्वला इंडिया गेट पर इन्हीं बच्चों की तरह हंस रहे थे, बेसिर-पैर की बातें कर रहे थे। एक पेपर बैग में, बिरयानी बंधवा लाए थे रास्ते में गोल मार्केट से। समझ नहीं आया कैसे खाएं। तीनों एक साथ बोल पड़े- तो क्या? हाथ से खाते हैं। तीनों टूट पड़े। फिर हंसने लगे। मुंह भर गया था मसाले के स्वाद से, आंखों से हंसने लगे। हंसते-हंसते आंखों में भर गया गर्म समंदर का पानी...

मन्नू ने अचानक हम दोनों का हाथ पकड़ लिया, ‘‘हम हंसते-हंसते रोने क्यों लगे? चलो आज से वादा करते हैं हम तीनों कभी नहीं रोएंगे...’’

‘‘रोएं हमारे दुश्मन...’’ उज्ज्वला उसी तरह हंसती-रोती बोली। मन्नू के हाथ का स्पर्श गर्म था। मैंने सोचा... तो यह हैं वे दो औरतें, जो मेरी वजह से हंस रही हैं। मेरी तरह जी रही हैं...

क्रमश..