tum na jane kis jaha me kho gaye - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 10 - कॉलेज लाइब्रेरी

खुशनुमा सुबह थी वह कई दिनों के बाद। मन शांत था मेरा। दस बजने को थे और मैं तैयार थी निकलने के लिए - नीले कुर्ते - सलवार में । खुद को देखा मैंने आइने में। अच्छी लग रही थी मैं। सोचा कि बूथ से ही फोन करूंगी आज जो घर के पास वाले मार्केट में था। ११बजने में १० मिनट थे। निकली मैं घर से और बूथ पर जाकर कॉल लगाया। फोन तुम्हीं ने उठाया था।

" मैं बोल रही हूं। "

" पता है। "

" तो क्या जवाब है तुम्हारा?"

" हां।"

"क्या मतलब?"

" यही जवाब देना था ना मुझे।"

शायद अंदर से कहीं मैं आश्वस्त थी ही इस जवाब के लिए।

" कहां मिलता चाहती हैं ।"

"कॉलेज लाईब्रेरी आ जाओ।"

यह वह जगह थी जो मुझे हमेशा ही बहुत प्रिय रही है। अपने कितने प्रिय लेखकों को पढ़ने का मौका दिया है इस जगह ने। और हम मित्रों की पसंदीदा जगह रही है लाईब्रेरी के सामने का लॉन।

तो तय हुआ कि वहीं मिल रहे हैं हम।
एक साथ ही हजारों रजनीगंधा मन में खिल उठे और स्मरण हो आई पंक्तियां मेरे प्रिय फिल्म ‘रजनीगंधा’ की –

‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन में
हाँ यूँ ही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में
अधिकार ये जबसे साजन का
हर धड़कन पर माना मैंने
अधिकार ये जबसे साजन का
हर धड़कन पर माना मैंने
मैं जबसे उनके साथ बंधी
ये भेद तभी जाना मैंने
कितना सुख है बंधन में’

आज तक की कल्पना साकार होने जा रही थी वास्तव में। खुशी से मेरे पांव नहीं पर रहे थे जमीन पर। खुद को दुनिया की सबसे खुशकिस्मत व्यक्ति मान रही थी मैं। अंततः मैंने तुम्हें पा लिया था जिसकी कितनी-कितनी बार कल्पना की थी मैंने। तू मेरे थे , तुम मेरे हो और मेरे हमेशा रहोगे - मेरे मन ने मुझे आश्वस्त किया।

और आधे घंटे बाद वी - नेक की स्लेटी टीशर्ट और ब्लू डेनिम में तुम सामने थे अपनी उसी चित्ताकर्षक मुस्कुराहट के साथ और मैं बिल्कुल खोयी हुई थी तुममें।
सांस जैसे ठहर सी गई थी मेरी। क्या यह स्वप्न था या सच? पिछले 3 महीने में कितनी बार मिलते मिलते हाथ से निकल गए थे तुम। आज तुम वास्तव में सामने थे।
२घंटे कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। अब याद आया कि सुबह से कुछ खाया नहीं मैंने। तय हुआ गांधी मैदान के सोडा फाउंटेन चलते हैं। वहां का डोसा मुझे बहुत पसंद है।

तुमने आराम से ऑर्डर किया अपने पसंद की चीजें। मैं हमेशा सोच कर ऑर्डर करती हूं पर्स के पैसे के हिसाब से और सामने वाले के ऑर्डर के हिसाब से भी क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं कि मेरा बिल मेरे समकक्ष का कोई लड़का दे। जिद करके मैंने ही बिल चुकाया। ३बजने वाले थे। तुमने विदा ली हालांकि जाना हमें एक ही जगह था लेकिन उस समय तक इतने सहज नहीं हुए थे हमदोनों कि साथ जाने का सोचते। तुमने रिक्शा किया अपने लिए और निकल गए।

तुम्हें जाते देखती रही मैं। और फिर तुम्हारे पीछे मैं भी पैदल निकल पड़ी घर के लिए। सारे पैसे तो रेस्तरां में ही खर्च हो गए थे।

तुम्हें किसी मित्र ने बाद में बताया कि मुझे पैदल जाते देखा उसने उस दिन। और तब से तुमने आदत बना ली पूछने की - पैसा है ना मेरे पास।

जाड़ों की गुनगुनी घूप और पटना यूनिवर्सिटी लाईब्रेरी - जब भी मेरी स्मृति में आता है साथ में कितने क्षण सजीव हो उठते हैं तुम्हारे साथ बिताए। कितनी कितनी बातें की थीं हमने। जीवन के कितने सपने। आज भी जब याद आती है तुम्हारी तो स्नेह से मुझे निहारता तुम्हारा चेहरा और लगातार कुछ बोलती अपनी तस्वीर ही सामने आती है। कितने कितने घंटे सुनते रहते थे तुम मुझे, बिना कुछ बोले।

हम दोनों इंतजार कर रहे थे वैलेंटाइन डे का। संजोग से मुझे कहीं जाना पड़ा था उस बीच और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उस दिन मैं पटना नहीं आ सकी थी। मैंने बहुत कोशिश की थी तुम्हें फोन करने की लेकिन जितनी बार तुम्हें फोन किया घर पर किसी और ने उठाया तुम्हारे।

मोबाइल उस वक्त आया था नहीं। तो अब कोई संभावना नहीं थी उस दिन तुमसे बात भी करने की। बाद में पता चला उस दिन मेरे इंस्टीट्यूट आए थे मिलने के लिए जहां मैं तैयारी कर रही थी प्रतियोगिताओं की। तुम्हारे हाथ में बड़ा सा गुलाब था मेरे लिए। और मेरे इंस्टीट्यूट के लड़कों ने तुम्हारा मजाक भी खूब उड़ाया था।

खैर जब पटना आना हुआ तो मेरा सबसे पहला प्रोग्राम था तुमसे मिलना। उन्हीं दिनों मूवी आई थी ' पुकार ' अनिल कपूर - माधुरी दीक्षित वाली।तय हुआ मूवी हॉल में ही मिलेंगे। गुलाबी सलवार कमीज में मैं आई थी तुमसे मिलने, बैगनी दुपट्टा ले रखा था मैंने। नीले टी-शर्ट में तुम भी बहुत जंच रहे थे। फिल्म को देखते हुए माधुरी की दीवानगी अपनी दीवानगी सी प्रतीत हुई मुझे -

" के सेरा सेरा, जो भी हो सो हो।
हमें प्यार का है आसरा,
फिर चाहे जो हो।"

या फिर मैं तो स्वयं को ही नायिका की जगह महसूस कर रही थी जब इस गाने का दृश्य चल रहा था -

"सुनता है मेरा खुदा दिलो जान से चाहूं तुझको यारा दिलरुबा।"

मन में कल्पना कर रही थी अनिल कपूर की जगह तुम्हें अपने लिए यह गाते हुए।

तुम्हारे लिए उस दिन मैंने किताब लिया था स्टेफेन ज्विग रचित 'एक अंजान औरत का खत।' जिसे पढ़ते समय मुझे लगा था कि मेरे ही 5 सालों के भावों को उस महिला के माध्यम से लिखा गया है, प्रेम में आकंठ डूबी वह महिला और उससे नितांत अपरिचित‌ वह पुरुष।
अपने सुंदर अक्षरों में लाल स्याही से मैंने लिखा था उस पर - " Today is not a Valentine Day in the calendar, but in my heart it is a Valentine Day."
सच में मेरे लिए तो वह हर एक दिन वैलेंटाइन डे था जिस दिन तुम मेरे साथ होते थे।

तुम लेकर आए थे बीसवीं सदी के महान उपन्यासों में से एक नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक गेब्रियल गार्सिया मरकज़ द्वारा रचित ' लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा ' । कैरेबियाई समुद्र के पास कोलम्बिया के उत्तरी तट पर एक छोटे-से कस्बे में यह कहानी 1880 से 1930 तक चलती है।
पसंद तुम्हारी हमेशा से उत्कृष्ट थी, चाहे वह परफ्यूम का चयन हो या किताब का। साहित्य की स्टूडेंट मैं थी, पर रुचि तुम्हारी भी साहित्यिक थी। अच्छा लगा था देख कर ।

उसी समय हमारे हाथ आई थी एरिच सेगल की ' लव स्टोरी '. ऑलिवर और जेनिफर की लव स्टोरी जितनी प्यारी और दिल छूने वाली है, उठनी ही ट्रैजिक भी।
हर बार मेरा दिल कहता - ये ट्रैजिक पार्ट मेरी लव स्टोरी का हो ही नहीं सकता।
साथ में हमने खूब सारी फिल्में देखी, खूब किताबों को पढ़ा और खूब उस पर डिस्कस किया।
इस बीच कई बार कुछ झगड़े भी हुए हमारे। लगता इस बार दोस्ती मुश्किल है और फिर याद आता ' गुनाहों के देवता ' वाली सुधा , जो गाती है लेडी नार्टन का वह गीत -

" मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूं ना! मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूं!
फिर भी मैं उदास रहती हूं जब तुम पास नहीं होते हो।"

या फिर मैं विचरती अज्ञेय रचित ' नदी के द्वीप ' की रेखा बनी - "Dearest the pain of loving you is almost more than I can suffer."
अगले दो साल कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। मेरा पूरा ध्यान तुमसे मिलने पर ही रहता था। इसी बीच स्नातकोत्तर कर लिया मैंने साहित्य में। रिजल्ट भी बहुत अच्छा था। पर इससे जीवन में ज्यादा फर्क पड़ने वाला था नहीं।

अब?

तैयारियां चल ही रही थी मेरी। पहले वाली एकाग्रता रह गई नहीं थी। छुटकी शुरू से अपने कैरियर को लेकर जागरूक थी। उसकी परीक्षा अच्छी हुई थी और मम्मी - पापा परेशान थे कि अगर छोटी पहले घर से निकल गई तो मैं ज्यादा हतोत्साहित हो जाऊंगी। शुरू से बेहतर थी मैं उससे पढ़ने में। पर अब मेरा ध्यान पूरा तुम पर और दोस्तों पर था।

मम्मी ने जिद करके एमबीए का फॉर्म भरवाया। थोड़ी - बहुत तैयारी के आधार पर ही अच्छे अंक आए और मुझे इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कसन के लिए बुलाया गया। मेरे साथ एक और मित्र जाने वाली थी पर अचानक से उसके बीमार पड़ने से मैं तनाव में आ गई। मम्मी ऑफिस से घर आयी नहीं थी और ६बजे ट्रेन थी हमारी। पहली बार जाना था भुवनेश्वर। टिकट सिर्फ मेरा और मेरी मित्र का था। उसी के किसी परिचित के घर ठहरने वाले थे हम।

मम्मी ऑफिस से आई और जैसे ही उसे पता चला कि मेरी मित्र नहीं जा रही , १०मिनट में उनका सूटकेस तैयार था साथ जाने के लिए।