tum na jane kis jaha me kho gaye - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 11 आखिरी मुलाकात



रेल द्रुत गति से दौड़ रही थी और उसके साथ ही कई - कई स्मृतियां भी कौंध रही थी मन में। बहुत सारी घटनाएं दिमाग में आ जा रही थीं।

वो दिन जब हमारा स्नातक का परीक्षाफल आया था और कॉलेज जा रही थी मैं। सौरभ का भाई आया था एक पेपर लेकर। एक दुर्घटना में सौरभ को चोट आई थी और हाथ पर प्लास्टर चढ़ा था। तो मुझे ही उसका रिजल्ट लेकर आना था। पेपर में उसका क्रमांक एवम् अन्य जानकारियां थी।

अपने विषय में मेरा कॉलेज में दूसरा स्थान था और सौरभ का भी रिजल्ट बहुत अच्छा रहा था। रिजल्ट लेकर सीधे उसके ही घर गई मैं। बाहर से ही जगजीत सिंह के ग़ज़ल की आवाज आ रही थी। दरवाजा उसी ने खोला और लपक कर रिजल्ट लिया। जोर जोर से पुकार कर मां को बुलाया - देखो , अपराजिता लाई, इसलिए मेरा रिजल्ट अच्छा हुआ है। खूब बातें की हमने उस दिन। सौरभ ने बताया वह दिल्ली जा कर तैयारी करना चाहता है।

फिर आई वह शाम, जब सौरभ के साथ राजेन्द्र नगर पुल पर टहल रहे थे हम। बहुत भावुक हो रहा था सौरभ। दस दिन बाद की उसकी टिकट थी दिल्ली की। बार - बार बोल रहा था -" मुझे पत्र लिखना। मैं बहुत जुड़ा हुआ हूं घर से, पटना से। बहुत मुश्किल से खुद को तैयार किया है दिल्ली के लिए। तुम लोगों का पत्र हिम्मत देगा मुझे।" मैंने वादा किया कि पत्र लिखती रहूंगी।

फिर हंस कर बोला, मुझे लगता है कि हम दोनों ही अंततः साथ होंगे। तुमको सब झेल नहीं सकता और रूपाली (उसकी तत्कालीन प्रेयसी) मुझे अपना नहीं पाएगी, तो हम दोनों उन दोनों का फोटो सामने रख कर खूब रोएंगे और आपस में शादी कर लेंगे। हंसते हुए मैंने भी सिर हां में हिला दिया। उसके साथ हमेशा से ही सहज थी मैं।

सौरभ मेरे स्कूल का टॉपर था। सारे शिक्षकों का प्रिय। हालांकि शरारती बहुत था स्कूल दिनों में, पर सबको पता था सब विषय में टॉप ही करेगा। महत्वाकांक्षी मेरे मित्र ने निर्णय लिया था दिल्ली जाकर तैयारी करेगा सीएटी का।

अचानक दो दिन बाद उसका भाई दौड़ते आया कि दीदी , सौरभ भैया ने आप सब को बुलाया है, चलिए।

मैं निकल पड़ी। सारे मित्र थे रीतेश के घर पर। उसका घर हम सबका अड्डा था बीचो बीच जो पड़ता था। सौरभ बैठा था। प्रेम से मेरा स्वागत किया।

" मैं कल निकल रहा हूं।"

"अरे, पर टिकट तो ८दिन बाद का है तुम्हारा।"

" हां, कल के लिए बात कर रहा हूं ट्रैवल एजेंट से। जब तैयारी वहीं करनी है तो यहां अब एक दिन भी बर्बाद नहीं करना मुझे।"

" अचानक क्या हो गया तुम्हें। कुछ ही दिनों की तो बात है।"

" नहीं, मुझे निकलना ही होगा। तुम सभी को बहुत मिस करूंगा मैं। अपराजिता, तुम पत्र जरूर लिखोगी मुझे। इसलिए आज सबको बुलाया मिलने क्योंकि कल रात ट्रेन है मेरी १०बजे।"

"मैं भी आऊंगी छोड़ने। दिन में कल मिलते हैं तुम्हारे घर।"

" नहीं, टिकट कन्फर्म नहीं है तो मुझे दौड़ना पड़ सकता है दिन में भी और पैकिंग भी करनी है। रात में ट्रेन लेट से है तुमलोग ( उसने मुझे और प्रतिमा को कहा) मत आना।"

अगले दिन किसी से मुलाकात हुई नहीं, हमने फोन पर उसके अगले दिन फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया - एनाकोंडा। सबका टिकट ले लिया गया। हर्ष और दूसरे मित्र लोग भी आ रहे थे। उस समय शुरुआती दोस्ती थी हर्ष के साथ। कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती थी मैं मिलने का और मेरे मित्रों का भी भरपूर सहयोग रहता था हमें मिलाने में।

सुबह तैयार होकर अपनी एक पड़ोस की लड़की के साथ निकली मैं। अचानक साथ आ गई थी वो। मना नहीं कर पाई मैं। हर्ष इंतेज़ार कर रहा था। रिक्शे पर पूरा ग्रुप बैठ गया। तभी रीतेश दिखा दौड़ कर आता सा। रिक्शा चलने ही वाला था।

"अपराजिता, सौरभ नहीं रहा। "

एक क्षण कुछ समझ नहीं आया मुझे। दिमाग सुन्न हो गया मेरा। सब इशारा कर रहे थे। छुटकी दूसरे रिक्शा पर थी। हर्ष पुकार रहा था, मैं रिक्शे पर बैठ गई। मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।

"पत्र लिखना , जरूर लिखना।" यही शब्द गूंज रहे थे मन में। पता मेरे पर्स में ही था उस वक्त भी।

किसको , कब ?

रिक्शा सिनेमा हाल पहुंच चुका था। टिकट था ही। सब अंदर प्रवेश कर गए। अब मैं सामान्य हुई - सौरभ चला गया और मैं सिनेमा देखने आई हूं। सामने दृश्य चल रहे थे और मैं पत्थर बनी हुई थी। हर्ष ने झकझोरा और बाहर भागी मैं। पीछे पीछे वो आया। सौरभ चला गया - जोर से रो पड़ी मैं। और हम सब सौरभ के घर की तरफ भागे। रात्रि दो बजे अपने अत्यन्त प्रिय मित्र को अंतिम बार देखा मैंने। अभी तक उस रात की भयानक शांति उसी तरह ताज़ा है स्मृतियों में। सौरभ की मम्मी का जितिया का उपवास था उस दिन, जो अपने बच्चों के लंबी आयु के लिए माताएं करती हैं।
पता चला कि रात में ट्रेन पर चढ़ने से पहले कुछ मित्रों ने आग्रह किया किया था पीने के लिए। कभी इसका आदी था नहीं वह। ट्रेन चलने के बाद अचानक खून की उलटी आई। अगले स्टेशन पर उतर कर उसने अपने पापा को सूचना दी। पिता ने दिल्ली पहुंचते ही डॉक्टर को दिखाने को कहा। सुबह दिल्ली पहुंचने तक बहुत तबीयत खराब हो गई थी उसकी। एम्स ले कर गया वहीं प्रतीक्षारत उसका मित्र रवि। जहां २४ घंटे के बाद रवि को देखने के बाद आंखें मूंद ली उसने हमेशा के लिए।ठीक से कारण आज भी ज्ञात नहीं हमें और पूछने की हिम्मत किसी की हुईं नहीं परिवार से।
रेल अपनी गति से भाग रही थी। बाहर की नीरवता उसी रात की याद दिला रहा था मुझे जिसने मेरे सबसे प्रिय मित्र को छीन लिया था - क्या मृत्यु अपनी जगह भी निश्चित करती है? अचानक क्यों बेचैन हो उठा था सौरभ? क्या मृत्यु की पुकार थी वह?