Purnata ki chahat rahi adhuri - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 8

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

आठवाँ अध्याय

मीनाक्षी को विश्रामगृह छोड़कर आने के बाद कैप्टन ने बहादुर को गेट, दरवाज़े बन्द करने के लिये कहकर बेडरूम की ओर रुख़ किया। आज वह बहुत खुश था। उसे लगा जैसे अन्त:करण में ख़ुशियों के फ़व्वारे छूट रहे हों! लेटने के बाद भी वह कल क्लब में मीनाक्षी से मुलाक़ात से लेकर सुबह सैर करने तथा कुछ देर पहले तक के उसके साथ बिताये समय को लेकर सोचने लगा तो उभर आयीं कान्ता की स्मृतियाँ।

जीवन में जब दो विपरीत लिंगी व्यक्ति एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो उनमें जो प्रेम के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं, जो भावनात्मक सम्बन्ध बनता है, वह उनकी जीवनधारा को प्रभावित करता है, चाहे वे जीवनभर के लिये एक हो पायें या नहीं। कहते हैं कि जो प्रेम केवल शारीरिक आकर्षण की नींव पर नहीं पनपता बल्कि व्यक्ति के समुच्चय व्यक्तित्व की लौ से प्रज्ज्वलित होता है, वही सच्चा प्रेम होता है। उठती जवानी के दिनों में कान्ता से हुआ प्रेम ऐसा ही था। शायद इसीलिये जब मैं अपने पहले अछूते प्यार, कान्ता को तो मैं नहीं पा सका था तो मैंने निर्णय लिया था कि उसकी यादें ही अब मेरे जीवन की संगिनी बनकर रहेंगी, जिन्हें कोई मुझसे छीन नहीं सकेगा।

कान्ता से पहली बार सामना हुआ था कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता में। हम दोनों सहित कुल आठ विद्यार्थियों ने उस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। वाद-विवाद का विषय था - ‘बूढ़ों के लिये अलग प्रान्त होना चाहिये।’ मैंने अपना वक्तव्य विषय के पक्ष में दिया था। क्योंकि विषय ऐसा था तो पक्ष में बोलते हुए हँसी-मज़ाक़ के कुछ प्रसंग आने स्वाभाविक थे, जिनकी वजह से श्रोता-दीर्घा में कई बार तालियों की गड़गड़ाहट भी हुई। कान्ता मेरे से दो क्लास आगे थी यानी वह मेरी सीनियर थी। उसने विषय के विरोध में भाषण दिया था। विषय का विरोध करने के लिये गम्भीर बातें ज़रूरी थीं, इसलिये तालियाँ तो क्या बजनी थी, कई श्रोता-विद्यार्थी उसके भाषण के दौरान उबासियाँ मारते हुए नज़र आये। प्रतियोगिता की समाप्ति पर निर्णायक मंडल का फ़ैसला प्रो. बजाज ने सुनाया। मुझे प्रथम और कान्ता को द्वितीय पुरस्कार के लिये विजेता घोषित किया गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर कॉरिडोर में अपनी सहेलियों के बीच अपना क्षोभ ज़ाहिर करती हुई कान्ता को मैंने भी सुना। वह कह रही थी - जजों ने बिल्कुल ग़लत फ़ैसला दिया है। मैं कॉलेज की बेस्ट स्पीकर और वह नया रंगरूट! क्या सोचकर जजों ने उसे प्रथम पुरस्कार दे दिया, मेरी तो समझ से बाहर है। कुछ चुटकुले सुना देने से ही तो किसी विषय की गम्भीरता को दर-किनार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर मेरे क्लासफैलो जो वहाँ उपस्थित थे, खुश थे कि मैंने प्रिंसिपल की बेटी और कॉलेज की बेस्ट स्पीकर को अच्छी मात दी थी। बात आयी गयी हो गयी।

फिर आया था कॉलेज का वार्षिक समारोह। मैं अपनी क्लास में कई बार पंजाबी गीत सुना चुका था। शर्मा सर मेरे गाने के अन्दाज़ की बहुत प्रशंसा किया करते थे। सौभाग्य से वार्षिक समारोह के वे संयोजक थे। उन्होंने मेरा नाम भी प्रतिभागियों की लिस्ट में शामिल कर लिया था। कार्यक्रम में मैंने - ‘सजनां ने फुल्ल मारिया, सानूँ पीड़ अंबरां तक होई’ - सुनाया था। गीत की समाप्ति पर सारा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट तथा ‘वन्स मोर, वन्स मोर’ की आवाज़ों से गूँज उठा था। समारोह के समापन पर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा था जब बहुत से विद्यार्थी मुझे बधाई दे रहे थे कि कान्ता ने आकर सबके बीच मुझे बधाई दी थी। दूसरे दिन उसने मुझे कहा कि पापा ने मुझे शाम को घर आने के लिये कहा है। मैं गया था। प्रिंसिपल साहब ने मेरे टेलेंट की तारीफ़ की और कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम कॉलेज का नाम रोशन करोगे। मैंने देखा कि जब प्रिंसिपल साहब मेरी तारीफ़ कर रहे थे तो कान्ता बड़ी मुग्ध होकर मेरी तरफ़ देख रही थी। कुछ देर बाद प्रिंसिपल साहब ने उठते हुए कहा - कान्ता, तुम प्रीतम को चाय-ठंडा पिलाओ, मुझे किसी से मिलने जाना है। चाय पीने के बाद जब मैं उठने लगा था तो कान्ता ने आग्रह करके मुझे रोका था और समारोह में सुनाया हुआ गीत दुबारा सुना था। गीत सुनते-सुनते वह बहुत भावुक हो गयी थी। और भी बहुत-सी बातें की थीं उसने। यह भी कहा था कि आगे से इंटर-कॉलेज डेक्लेमेशन और डिबेट कम्पीटिशन के लिये हम जोड़ीदार रहा करेंगे।

उस दिन से लेकर मेरे आईएमए, देहरादून जाने तक कान्ता के साथ सम्बन्ध गूढ़ से गूढ़तर होते चले गये थे और देहरादून जाने से एक दिन पहले कॉलेज ग्राउण्ड में पीपल की छाँव तले बैठे हुए हमने जीवनभर एक-दूसरे का साथ निभाने की क़समें खाई थीं। देहरादून से पासआउट होने के बाद जब मैं घर आया था तो मिठाई का डिब्बा लेकर कान्ता के घर ही पहुँच गया था। प्रिंसिपल साहब घर पर ही थे। जब मैंने उनके चरणस्पर्श किये तो उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना की थी। इसी बीच कान्ता चाय बना लायी थी।

मैं कुछ दिन घर पर रहा था। उन दिनों में कान्ता से कई बार मिलना हुआ। भावी जीवन पर विचार-विमर्श हुआ। उसने बताया था कि बी.ए. के बाद वह एम.ए. करने के लिये चण्डीगढ़ जायेगी। यह भी तय हुआ था कि उसके चण्डीगढ़ जाने के बाद ही पत्र-व्यवहार सम्भव हो पायेगा, उससे पहले नहीं। उसने ही सुझाया था कि यदि मैं पोस्टिंग स्टेशन का कोई फ़ोन नंबर उसे दे दूँगा तो कभी मौक़ा मिलने पर वह मुझसे बात करने की कोशिश भी करेगी। चण्डीगढ़ में उसके दो साल के प्रवास के दौरान हम दो बार मिले थे। मैं होटल में रूम बुक करवा लेता था। सुबह नौ बजे से रात के दस बजे तक वह मेरे साथ बिना किसी व्यवधान के रहती थी। पहली बार जब वह होटल में आयी थी तो रूम में आते ही मैंने उसे बाँहों में भर लिया था। उसने तनिक भी विरोध नहीं किया था बल्कि मेरी छाती से ऐसे चिपक गयी थी कि उसके शरीर की उष्णता से मेरी रक्तशिराओं में भी तूफ़ान-सा उठने लगा था, लेकिन मैंने उस आवेग को सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करने दिया था।

एम.ए. फ़ाइनल ईयर के अन्तिम दिनों में उसने अपने दिल की बात प्रिंसिपल साहब के सामने रखी थी। वे मुझे हर प्रकार से कान्ता के योग्य समझते थे। बस एक बात पर ही उन्हें एतराज़ था। और वह था मेरा मिलिटरी में होना। तब तक वे जान चुके थे कि बांग्ला-युद्ध में मुझे कितनी विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। वे सोचते थे कि वे अपनी इकलौती बेटी का हाथ किसी ऐसे शख़्स के हाथ में कैसे दे सकते हैं जिसकी जान पर हर पल मृत्यु की छाया मँडराती रहती है। तब उनकी ज़िद्द के आगे कान्ता को घुटने टेकने पड़े थे और उसे दिल पर पत्थर रखकर अपने प्रीतम की बजाय किसी और की प्रियतमा बनना पड़ा था। वन-नाइट स्टैंड की बात और है, लेकिन उसके बाद किसी से दिल लगाने का कभी ख़्याल भी नहीं आया।

दार जी और बी जी को कान्ता के साथ मेरे सम्बन्धों का पता था। लेकिन कान्ता को उनसे मिलवाने का कभी मौक़ा नहीं मिला था। जब कान्ता का विवाह हो गया, तब बी.जी. ने मुझे समझाने की बहुत कोशिश की थी कि मुझे किसी और योग्य लड़की से विवाह कर लेना चाहिए, किन्तु मेरे तो रोम-रोम में कान्ता की साँवली सलोनी सूरत, छरहरी देह-यष्टि की छवि समायी हुई थी। उन्होंने तथा कई रिश्तेदारों ने कई लड़कियों की फ़ोटो मुझे दिखायीं, किन्तु उनमें से कोई भी कान्ता की छवि को मेरे हृदय-पटल से हटा नहीं पायी। किन्तु थोड़ी देर पहले जिस तरह मीनाक्षी ने मेरी झप्पी और चूमने को अपनी मूक स्वीकृति दी, उसे देखते हुए अब मैं अपने उस फ़ैसले से फिसलने लगा हूँ।

एक ही समय। स्थान और व्यक्ति अलग-अलग। दोनों की सोच की दिशा एक किन्तु दोनों ही इस बात से अनभिज्ञ। कुछ देर पहले दोनों में जो चुम्बकीय आकर्षण उत्पन्न हुआ और आलिंगन के बाद की मीनाक्षी के चेहरे पर उभरी चमक को याद कर कैप्टन सोचने लगा कि मीनाक्षी मेरे जीवन को पूर्णता प्रदान कर सकती है। उसके अब तक विवाह न करने के पीछे उसकी कोई विवशता रही हो सकती है। आने वाले दिनों में उसका भी पता चल जायेगा। उसने भी तो अभी तक मेरे विगत जीवन के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा है। चलो, देखते हैं ऊँट किस करवट बैठता है। मैंने कहीं पढ़ा है कि बिना पत्नी के पुरुष एक पंख वाले पक्षी-समान होता है। इसलिये यदि मीनाक्षी को कोई एतराज़ न हुआ तो मैं उसे अपनी हमराही बनाने में देर नहीं करूँगा

मन में उपरोक्त विचार करते-करते कैप्टन सोया था, सो गहरी नींद तो क्या आनी थी, सुनहरी सपनों में ही करवटें बदलते रात बीती थी।

क्रमश..