Purnata ki chahat rahi adhuri - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 13

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

तेरहवाँ अध्याय

हरीश को यमुनानगर आये हुए अभी सात-आठ महीने ही हुए थे कि एक दिन उपायुक्त कार्यालय से उसे संदेश मिला कि डी.सी. साहब ने तत्काल बुलाया है। हाथ के काम बीच में ही छोड़ कर वह डी.सी. के समक्ष उपस्थित हो गया। अपने सामने खुली फ़ाइल को बंद करते हुए बिना किसी भूमिका के डी.सी. ने कहा - ‘मि. हरीश, सी.एम. साहब का आदेश आया है। उन्होंने तुम्हारे विभाग के ज़िम्मे पाँच लाख रुपये लगाये हैं। दो-चार दिन में यह राशि लाकर मुझे दे देना, मैं पहुँचा दूँगा।’

‘सर, ज़िला जिन परिस्थितियों से गुज़रा है, सब आपके सामने ही हुआ है। दो-अढ़ाई महीने व्यापार ठप्प रहा है। इन हालात में पाँच लाख इकट्ठे करना तो सम्भव नहीं। बीस-पचास हज़ार की बात होती तो कोई बात नहीं थी।’

आमतौर पर आईएएस अधिकारियों को अपने जूनियरों से ‘ना’ सुनने की आदत नहीं होती है। अत: हरीश का नकारात्मक जवाब सुनकर डी.सी. ने थोड़े तल्ख़ अन्दाज़ में कहा - ‘मि. हरीश, यह सी.एम. साहब का आदेश है। इसमें किन्तु-परन्तु नहीं चलता।’

डी.सी. की तल्ख़ टिप्पणी को सुनकर भी हरीश ने संयत तथा दृढ़ रहते हुए जवाब दिया - ‘सर, माफ़ करना, मैं तो नहीं कर पाऊँगा।’

इस बार लगभग चेतावनी के रूप में डी.सी. ने कहा - ‘एक बार फिर सोच लो। मैंने तो सी.एम. साहब का आदेश तुम्हें सुना दिया है। मेरा काम तो ‘पोस्टमैन’ का है। यदि तुम्हारी ‘ना’ है तो मैं यथावत उन्हें सूचित कर दूँगा। लेकिन इतना याद रखना, तुम्हारी ‘ना’ तुम्हें महँगी पड़ सकती है।’

‘सर, मैंने सोच-विचार करके ही कहा है। जैसे व्यापारियों के हालात हैं, ऐसे में मेरे लिये पाँच लाख इकट्ठे करना सम्भव नहीं।’

‘तो फाइनली मैं तुम्हारी ‘ना’ समझूँ?’

‘सर, मैंने अपनी स्थिति बता दी है। अब आप जो उचित समझें, कह देना।’

डी.सी. को इतने मुँहफट जवाब की कतई उम्मीद नहीं थी। अतः उसने मुँह बिसूरते हुए कहा - ‘ठीक है, तुम जा सकते हो।’

.......

अपने कार्यालय आते हुए हरीश सोचने लगा, अजीब धींगामुश्ती है। सारे राज्य में सबसे लम्बी अवधि तक कर्फ़्यू यहाँ रहा है। इतने लम्बे अर्से में जो नुक़सान व्यापारियों का हुआ है, उसकी भरपाई में काफ़ी समय लगेगा। यह तो हो नहीं सकता कि सी.एम. को इन बातों का पता नहीं होगा। यह ठीक है कि जैसी हमारी व्यवस्था है, उसमें प्रशासनिक अधिकारियों को राजनीतिक आकाओं की इच्छापूर्ति करनी पड़ती है। अधिकारी नेताओं की कठपुतली बन कर रह गये हैं। स्याह को स्याह कहने वाले अधिकारियों की पनीरी लुप्तप्राय: है। नेताओं का पेट ही नहीं भरता। इन हालात में रिश्वत पर लगाम लगाने की बातें करना महज़ जनता को धोखा देना है। डी.सी. की चेतावनी - तुम्हारी ‘ना’ तुम्हें मँहगी पड़ सकती है - पर विचार करते हुए सोचने लगा, क्या होगा? अधिक-से-अधिक मुझे ज़िले से बदल कर हैड ऑफिस में लगा देंगे। इससे अधिक और क्या कर सकते हैं? मेरी इतनी ‘हिमाक़त’ पर और कोई सज़ा तो दे नहीं सकते। इसी उधेड़बुन में जब वह कार्यालय पहुँचा तो उसके पी.ए. ने उसके चेहरे की रंगत देखकर पूछा - ‘सर, कुशल तो है?’

प्राय: पी.ए. के साथ ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं कि अधिकारी उससे हर समस्या साझा कर लेते हैं। इसी प्रकार की मन:स्थिति में हरीश ने डी.सी. के साथ हुई सारी बातचीत उसे बता दी। उसने कहा - ‘सर, छोटा मुँह बड़ी बात होगी, लेकिन मेरे विचार में आपको ‘ना’ नहीं करनी चाहिए थी। किसी-न-किसी तरह से यह रक़म इकट्ठी हो ही जाती।’

‘सुभाष, तुम्हारी बात ठीक है। व्यापारियों से पाँच लाख रुपये तो मिल जाते, लेकिन हमें उसके एवज़ में उनकी कितनी ही नाजायज़ बातों को मानना पड़ता, जिसका सीधा प्रभाव रेवेन्यू पर पड़ना था।’

‘आप ठीक फ़रमा रहे हैं सर। अब ये लोग आपको यहाँ अधिक देर तक नहीं रहने देंगे।’

‘सुभाष, तुम अधिक देर की बात करते हो, मुझे तो लगता है कि ऑर्डर सवेर-शाम में ही आने वाले हैं।’

‘सर, ऐसा भी हो सकता है। मुख्यमंत्री इस मामले में क़तई फ्लैक्सिबल नहीं हैं।’

‘ऐसा करो, जहाँ कहीं मेरे हस्ताक्षर होने रहते हैं या जिन फ़ाइलों पर नोटिंग आदि अधूरी है, उन्हें आज ही पूरा करवा लो।’

‘सर, इतनी भी क्या जल्दी है?’

‘सुभाष, तुम्हें नहीं मालूम। मेरे स्थान पर अब ऐसे अफ़सर को यहाँ लगायेंगे जो सी.एम. साहब के आदेश आँख मूँद कर मानने वाला होगा। ऐसा व्यक्ति मेरे काम की कमियों को भी अनदेखा नहीं करना चाहेगा।’

‘सर, आपके काम में कमी ढूँढना नामुमकिन है, फिर भी मैं फ़ाइलें चेक कर लेता हूँ।’

.........

हरीश जब शाम को घर आता था तो प्रायः कार्यालय की सारे दिन की माथापच्ची की मानसिक थकान के चिह्न उसके चेहरे पर स्पष्ट झलका करते थे, किन्तु आज जब उसने घर में कदम रखे तो सुरभि ने उसके चेहरे पर थकान की जगह प्रफुल्लता लक्षित की तो पूछे बिना न रह सकी - ‘आज बड़े ख़ुश दिखायी दे रहे हो, कोई ख़ास वजह?’

‘बोरी-बिस्तर बाँधना शुरू करो, कल अपने ट्रांसफ़र ऑर्डर आने वाले हैं।’

‘हैं! ट्रांसफ़र ऑर्डर मतलब अपनी ट्रांसफ़र होने वाली है। अभी तो छ:-सात महीने ही हुए हैं यहाँ आये हुए। इतनी जल्दी फिर ट्रांसफ़र?........और यदि ट्रांसफ़र ही होने वाली है तो इसमें इतना खुश होने वाली कौन-सी बात है? रोज़-रोज़ सामान उठाना, नयी जगह सैट करना कौन-सा इतना आसान है? इसके अलावा सबसे बड़ी कठिनाई आयेगी साल की आख़िरी तिमाही में बच्चों के एडमिशन की।’

‘अरे, वो सब हो जायेगा। इस बार ट्रांसफ़र किसी दूसरे ज़िले में नहीं, बल्कि चण्डीगढ़ होगी। यहाँ के प्रदूषित वातावरण की जगह साफ़-सुथरी आबोहवा मिलेगी साँस लेने को।। बच्चों के घूमने-फिरने के लिये रोज़ गार्डन, सुखना लेक, रॉक गार्डन आदि का आकर्षण अलग रहेगा। नेता लोगों की ग़लत-सही सिफ़ारिशों से जो छुटकारा मिलेगा, वह अलग। यही सारी वजह हैं कि मैं और दिनों की बनिस्बत अधिक खुश हूँ।’

हरीश के स्वभाव से भलीभाँति परिचित सुरभि ने अपनी बात को और तूल न देकर ख़ुशनुमा मोड़ देते हुए कहा - ‘तो आपकी इस ख़ुशी को सेलिब्रेट करने के लिये गर्मागर्म पकौड़े ख़िलाऊँ?’

‘नेकी और पूछ-पूछ।’

........

जैसा अनुमान था, उसी के अनुसार दूसरे ही दिन यमुनानगर से चण्डीगढ़ हैड ऑफिस की ट्रांसफ़र के ऑर्डर आ गये। ऑफिस में सुगबुगाहट तो उसी समय से आरम्भ हो गयी थी जब कल उपायुक्त कार्यालय से वापस आकर हरीश ने सुभाष से बात की थी। किन्तु ऑर्डर आने के बाद तो सभी की ज़ुबान पर एक ही बात थी कि कर्त्तव्यपरायणता के समक्ष व्यक्तिगत हानि की परवाह न करना तो कोई हरीश से सीखे।

दो-एक घंटे बाद मीनाक्षी का फ़ोन आया। हैलो-गुड मॉर्निंग के बाद उसने पूछा - ‘हरीश, तुम्हारी ट्रांसफ़र की ख़बर सही है?’

‘सौ प्रतिशत सही है दीदी। ऑर्डर भी आ चुके हैं और वे भी बाई-हैंड।’

‘वजह?’

तब हरीश ने सारे घटनाक्रम से मीनाक्षी को विस्तारपूर्वक अवगत कराया। सारी बातें सुनने के बाद मीनाक्षी ने कहा - ‘हरीश भाई, तुम्हें कितनी बार समझाया है कि सर्विस में इतनी रिजीडिटी ठीक नहीं होती। बहुत बार समझौते करने पड़ते हैं।’

‘लेकिन दीदी, समझौते भी तो एक सीमा तक ही किये जा सकते हैं। ज़मीर को पूरी तरह कुचल करके नौकरी करना मेरे वश का तो है नहीं।’

बातचीत का रुख़ बदलते हुए हरीश ने पूछा - ‘मेरी छोड़ो, अपनी सुनाओ। कैसी गुज़र रही है मैरिड लाइफ़?’

‘हरीश, सच कहूँ, यदि आज से पाँच-सात साल पहले मैरिज की होती तो शायद मैं उतना एन्जॉय न कर पाती जितना कि अब कर रही हूँ। अब मैं हर प्रकार की ज़िम्मेदारी से फ़्री हूँ। ....... भइया, जिन हालात में तुम्हारी ट्रांसफ़र हुई है, उनके चलते उसका रुकवाना तो सम्भव नहीं, किन्तु मैं कमिश्नर साहब से बात ज़रूर करूँगी ताकि डी.सी. यदि तुम्हारी एसीआर में कोई नेगेटिव रिमार्क्स देता है तो भी तुम्हारा कोई नुक़सान न हो।’

‘थैंक्स दीदी। अपनों का यही तो सुख होता है।’

क्रमश..