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महाकवि भवभूति - 8

महाकवि भवभूति 8

कतिपय सूत्र-संकेत की भाषा

राजा महाराजाओं के उल्लेखनीय विशिष्ट कार्य ही इतिहास नहीं होते। जनजीवन से जुड़े अघ्याय भी इतिहास की परीधि में आते हैं। इन दिनांे एक प्रश्न मेरे चित्त् को झकझोरता रहता है कि भवभूति के समय में व्यापार व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी ? इस प्रश्न को हल करने के लिये याद आने लगते हैं बंजारा जाति के लोग। उन दिनों घुमन्तु (यायावर) प्रवृत्ति के व्यापारियों को लोग बंजारे ही कहा करते थे।

प्राचीनकाल से ही व्यापार करने के लिये बंजारे अपने पशुओं पर माल लादकर देशाटन किया करते थे। देश को एक सूत्र में बांधने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उन दिनों बड़े-बड़े बंजारें हुआ करते थे। लखिया बंजारों की बात याद आती है। जिन बंजारों के पास एक लाख पशु होते थे उन्हें ही लखिया बंजारा कहा जाता था। वे लोग अपने अपने पशुओं पर माल लादकर यहाँ से वहाँ जाया करते थे। इसके साथ उनका पूरा का पूरा समूह भी रहता था। नमक, गेहँु, चावल, धनियाँ, मिर्ची के अलावा सोना, चाँदी भी लादकर चलते थे। जिस वस्तु की कस्बे में कमी होती थी उस वस्तु को वहाँ विक्रय करते और जो वस्तु जिस कस्बे में अधिक मिलती थी, उस वस्तु को वहाँ से क्रय करके दूसरे कस्बे में ले जाकर व्यापार किया करते थे।

पद्मावती नगरी एक विशाल नगर था। जहँा व्यापार की अनन्त संभावनायें थीं। नमक, मिर्ची एवं सूखे मेवे यहाँ दूर देश से लाये जाते थे और यहाँ से लोहे, सोने एवं चाँदी की निर्मित वस्तुऐं दूर देशों को ले जायी जाती थीं। यहाँ नदियांे के कारण जल की विपुलता थी। अतः व्यापारी लोगों को यहाँ आकर ठहरने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। उनके पशुओं के लिये जल एवं नगर के आसपास चारागाह थे, जिससे वे यहाँ आकर महीनों तक पड़ाव डाले रहते थे।

बंजारों को बसने के लिये साँखनी कस्बे से लगा हुआ उसके दक्षिण की ओर बसई कस्बा था। यहीं आकर ये बंजारे लोग ठहरा करते थे। इसी कस्बे से लगा हुआ सिन्ध नदी में एक स्थान है- माझा। चार पाँच बीघा लम्बा चौड़ा यह ऐसा स्थान बन गया है, जिससे सिन्ध नदी दो भागों में बंट गयी है। यानी सिन्ध नदी के बीच में टापू सा बन गया है जो वर्षा के मौसम को छोड़कर अन्य महीनों में सदाबहार मौसम का सानिध्य प्रदान करता है। ये बंजारे बसई कस्बे में आकर ठहरते और उस स्थान का उपयोग आनन्द लेने के लिये करते हैं। यह स्थान उन्हीं के लिये सुरक्षित रखा गया था। भवभूति जब काशीनाथ बंजारे के साथ पद्मपुर से यहाँ आये थे तो इसी स्थान पर आकर ठहरे थे।

ये बंजारे लोग बहुत धनी होते हैं। इनका कोई स्थाई निवास नहीं होता। इनके पास जब सोना-चाँदी अधिक इकठ्ठा हो जाता है, तब ये लोग उसे इधर-उधर ले जाने में असमर्थ रहते हैं। ये लोग किसी ठीये को बाँधकर अपने धन को गाढ़़ देते थे। आज इस क्षेत्र में कई स्थानों पर ऐसे स्थान उपलब्ध हो सकते है, जहाँ इनका धन आज भी गढ़़ा हुआ है। आज भी खोज करने वाले इनकी खोज कर लेते हैं और उस धन को खोदकर ले जाते हैं।

इनके वंशजों के पास बीजक होता है। ये लोग भी बीजक के आधार पर अपने धन को खोद ले जाते हैं। ये बंजारे लोग तांत्रिक भी होते थे और अपने धन को गाढ़़ते समय तंत्रों का उपयोग कर धन गाढ़ते थे जिससे किसी को धन का पता भी चल जाये तो वह भी उसे खोद कर निकाल नहीं सके। आज भी जो लोग इस धन को खोदते हैं, वे तन्त्रों का सहारा लेकर खोदते हैं। इसमें उन्हें बलि भी चढ़ाना पड़ती है और तो और ये लोग लालच में आकर अपने प्रियजनों की बलि तक दे डालते हैं। इस संबंध में एक कहावत याद आ रही है। छोटा भाई बड़े भाई को मारे तो पावे। दो नंदी हैं एक छोटा दूसरा बड़ा है, वहंी यह आलेख मिलने की बात सुनी है। छोटा भाई बड़े भाई को मारे तो पावे। इसका अर्थ है, छोटे नंदी को बड़े नंदी पर पटका जावे उस आघात से बड़ा नंदी फट जावेगा और धन निकल पड़ेगा। सुना है ऐसा बीजक एक परिवार को मिला है, जिसमें लिखा है- जब परिवार आर्थिक तंगी से गुजरे तब दिन के दस बजे मंदिर के गुुंबद को खोदें। समस्या का समाधान मिल जायेगा। लोगों ने गुम्बद को खोदा लेकिन कुछ नहीं मिला। बाद में वैसा ही गुम्बद बनाया। उसकी छायावाले स्थान पर दिन के दस बजे खोदा गया। तो खजाना मिल गया। ऐसे संकेतों की बातें आज इस क्षेत्र में प्रचलित हैं।

आज सुवह जब से आचार्य शर्मा ने एक मासूम बालक की हत्या की घटना सुनी है, उनके मन में जाने कैसे-कैसे विचार घनीभूत हो रहे हैं। इसी कारण आज कालप्रियानाथ के मंदिर आने में भी देर हो गयी।

कभी-कभी देश और समाज में कुछ ऐसी घटनायें घट जाती है जिससे चेतन प्राणियों के मन दुःखी हो उठते हैं। सभी त्राहिमाम् कह उठते हैं। मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगते हैं। हम सब ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होने देंगे।

इन दिनों तांत्रिकों का वर्चस्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। ये निरीह प्राणियों की हत्या करने में संकोच नहीं कर रहे हैं। आज प्रातः जैसे ही भवभूति मित्र के साथ धारणा-ध्यान के बाद कालप्रियानाथ के मंदिर से बाहर निकले, दर्शनार्थियों में से कोई कह रहा था-‘ बड़ा खराब समय आ गया है।’

दूसरे ने बात जानना चाही, उसने पुछा- ‘ऐसी क्या बात हो गयी जो समय को दोष दे रहे हो।’

वही व्यक्ति पुनः बोला- ‘अरे! इतना कुछ हो गया, तुम्हें पता ही नहीं है! जाने किस अंधेरी कोठरी में निवास करते हो।’

उसने फिर से प्रश्न किया- ‘अरे! सुनें भी तो ऐसा क्या हो गया ?’

बात का उत्तर देनें में उसने आवाज धीमी कर ली थी, लेकिन सभी ने अपने कान उसके मुँह से सटा लिये। महाकवि भी कठिनता से उसकी बात सुन पा रहे थे। आचार्य शर्मा ने और अधिक जानने के लिये अंजान ही बने रहना चाहा। अब वही आदमी कह रहा था-‘ अरे! यहाँ से पास में ही साखनी कस्बा है ना ,कहते हैं वहाँ नाग राजाओं के समय का एक चबूतरा बना हुआ है। कुछ धन के लोभियों ने धन को पाने की लालसा से दो वर्ष के बालक की हत्या बड़ी निर्दयता से कर दी है।’

किसी के मुँह से प्रश्न निकला-‘अरे कैसे ! यह तो बहुत जघन्य अपराध हुआ है।’

वह आगे बात बढ़ाते हुये बोला-‘ सुना है बालक के पैरों में महावर लगा हुआ है। उसे खूब सुसज्जित किया गया है। नये-नये वस्त्र पहनाये गये हैं। सुगन्धित तेल से उसका लेपन किया गया है। उसके शरीर पर कहीं भी कोई चोट का निशान नहीं हैं, लेकिन उसकी जीभ काटकर हत्या की गयी है।’

एक साथ सभी सुनने वालों के मुँह से निकला- हरे राम! ऐसा घृणित अत्याचार, बाल हत्या, जाने इस नगर में ये क्या हो रहा है? यहाँ कोई सुनवाई ही नहीं है। किसी दिन देखना यह नगरी ही रसातल में डूब जायेगी।’

यह सुनकर सभी सोच में पड़ गये। एक ने जिज्ञासा के वशीभूत होकर और अधिक जानने के लिये प्रश्न किया-‘ वह चबूतरा तो खुदा पड़ा होगा ?’

उत्तर किसी जानकार ने दिया- ‘हाँ ,चबूतरा तो खुदा पड़ा है, वे लोग धन खोदकर ले गये हैं। ऐसे संकेत तो वहाँ स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।’

भवभूति कालप्रियनाथ की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुये सोचने लगे-‘ मैंने अपने नाटक मालतीमाधवम् में तो नारी की बलि देने का ही चित्रण किया है, यह तो उससे भी घृणित कार्य सुनने को मिल रहा है।’

आज तक नरबलि की बातें तो बहुत सुनी थी। मैंने उससे बढ़कर नारीबलि की बात प्रस्तुत कर दी, लेकिन यह तो सब अपराधेां से घृणित अपराध बाल हत्या इस धरती पर हुआ है। मेरे लेखन का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। एक शिशु की हत्या और कर दी गयी । ये हत्यायें कैसे रुकंे ? यहाँ के राजा तो हत्प्रभ होकर बैठे रह गये हैं।’

यह नगरी नाग राजाओं के समय में समृद्ध नगरी थी। पहले ऐसी घटनायें कम ही सुनने को मिलती थी। अब तो प्रतिदिन कुछ न कुछ सुनने को मिल ही जाता है।

किसी समय यह सँाखनी कस्बा ही व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। देश के बड़े-बड़े व्यापारी यहाँ से धन उधार लेने आया करते थे। धीरे-धीरे इनकी साख गिरती जा रही है। पिछले वर्ष जितने व्यापारी आये थे। इस वर्ष उससे कम ही व्यापारी यहाँ आये हैं, दिन पर दिन संख्या कम होती जा रही है। यही इस नगरी की प्रगति के लिये सोच का विषय है। व्यापार के लिये आये व्यपारी को यहाँ लूट लिया जाता है। यहाँ वे अपने आप को असुरक्षित अनुभव कर रहे हैं।

इस घटना से दुःखी होकर मौन साधे हुये वे विद्याविहार न जाकर अपने-अपने

घर चले आये।

महाकवि भवभूति 8

चार्वाक का साक्ष्य लेखन

भवभूतिे नवीन विचारों के व्यक्ति हैं। वे मानते हैं जब पिता के पैर का जूता पुत्र के पैर में आने लगे तब पुत्र से मित्रता का व्यवहार करना चाहिए। इसी बात के आधार पर पिता-पुत्र दोनों खुलकर बातें करते हैं। गणेश को जो बात पिताजी से कहनी होती है उसे वह माँ को सम्बोधित करके कह जाता है। आज गणेश कह रहा था- ‘माताश्री आप लोगों को मेरी बिल्कुल चिन्ता नहीं है। कभी-कभी मुझे लगता है यह नगर छोड़कर कहीं दूसरी जगह चला जाऊँ।’

यह सुनकर दोनों ने उसकी बात का सीधा अर्थ लगाना चाहा। आजकल नगर में ऐसी घटनाओं का चलन सा हो गया है कि ये प्रेमी-जोड़ा भाग गया तो कभी कोई और। भवभूति सोच में पड़ गये- ऋचा और ये कहीं भागने की तो नहीं सोच रहे। इससे तो पूर्वजों का नाम ही कलंकित हो जावेगा। इससे तो इन्हें समझा-बुझाकर समस्या का समाधान खोजा जाये। यही सोचकर बोले- ‘तुम अच्छे भले विद्याविहार की सेवा कर रहे हो। कभी मेरे यहाँ से चले जाने के बाद इसका सारा दायित्व तुम्हारे ऊपर आ सकता है। आचार्य शर्मा एवं महाशिल्पी वेदराम तुम्हारा कितना ध्यान रखते हैं।’

दुर्गा ने गणेश के मन की बात कही- ‘मैं चाहती हूँ ,हमारे घर में ऋचा जैसे बहू आ जाये तो फिर आपको घर की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।’

यह सुनकर गणेश समझ गया, ये मेरे मन की बात समझ रहे है, इसलिये वहाँ से उठते हुये बोला-‘ अच्छा माताश्री, मैं चलता हूँ, विद्याविहार पहुँचना है। छात्र मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’ यह कहते हुये वह कक्ष से बाहर निकल गया।

दुर्गा विषय पर आते हुये बोली-‘ हमें इसका लग्न शीघ्र करने का प्रयास करना चाहिए। आप कहंे तो मैं ही ऋचा के पिताश्री पार्वतीनन्दन जी से मिलने चली जाती हूँ।’

यह सुनकर भवभूति अन्तर्मन की बात व्यक्त करते हुये बोले- ‘आपके इस निर्णय ने तो मेरे मन का बोझ ही हल्का कर दिया । इस विषय पर मैं सोचता रहा कि पार्वतीनन्दन जी से कैसे बात की जाये? यदि मैं विवाह का प्रस्ताव लेकर उनके पास जाता तो संभव है, मेरी बात को वे टाल देते, लेकिन वे तुम्हारी बात को टाल नहीं पायेंगे। आपसे भी उनका पूर्व से ही अर्न्तमन में कोई न कोई स्नेहबंधन तो रहा ही है।’

दुर्गा समझ गई ,महाकवि क्या कह रहे हैं? यही सोचकर बोली- ‘आपको ऐसा लगता है तो रहने देती हूँ। मैं नहीं जाती उनके पास।’

यह सुनकर भवभूति अनुनय विनय के स्वर में बोले- ‘अरे! मैं कोई लाँछन थोड़े ही लगा रहा हूँ। आपके इस निर्णय ने तो समस्या का समाधान ही निकाल लिया है। हाँ, मेरी यह समझ में नहीं आ रहा है कि आपने यह निर्णय लेने में इतनी देर क्यों की।’

दुर्गा सोच के सागर में डुबकियाँ लगाते हुये बोली- ‘मैं सोचती थी कि पार्वतीनन्दन जी से मेरे मिलने जाने की आप स्वीकृति कभी देंगे या नहीं!’

भवभूति बोले-‘इसका अर्थ तो यह है कि आपके मन में कोई पुरानी ग्रंथी अभी भी बनी हुई है। ’

दुर्गा ने झट से उत्तर दिया-‘ हाँ बनी हुई है, अब इस उम्र में पति परमेश्वर यदि आज्ञा करें तो उनके घर जाकर रहने लगूँ। आप अपने मन की बात तो कहें, फिर मेरे बिना अकेले रह पायेंगे आप?’

भवभूति पत्नी के सामने रिरियाते हुये बोले-‘ हाँ-हाँ, रहना ही पड़ेगा। अच्छा है, आपकी ऐसी इच्छा है तो उसे भी पूरी करके देख ही लो। क्यों मन में गं्रथी बनाये रखना चाहती हो ?’

वह बोली-‘ठीक है अब आप अपने घर को सँभालिये। मैं तो आज ही पार्वतीनन्दन के घर जा रही हँू।’

भवभूति पुरानी स्मृतियों में खोते हुये बोले-‘एक समय था जब मैं और पार्वतीनन्दन दोनों ही आपसे लग्न करना चाहते थे। उस दिन भी आप ही की इच्छा से जो होना था सो हुआ। आज भी आपकी ही इच्छा की बात है। हम दोनों तो आपकी इच्छा के सामने नतमस्तक हैं।’

‘तो लंहगा चुनरी पहन ही लेती हँू, अब तुम्हें छोड़कर मुझे उनके यहाँ जाना ही पडे़गा। फिर पीछे न कहना कि दुर्गा तुमने यह क्या किया?’

भवभूति दुर्गा की दोहरे अर्थ वाली बातों का आनन्द लेते हुये बोले- ‘अच्छी तरह सज-धज कर जाना। काली टिकुली भी लगाते जाना, कहीं उनकी नजर न लग जाये। वे बूढापे में रसिक स्वभाव के हैं।’

‘और आप अपनी तो कहें। मेरे पास आते ही आपकी आँखें नशीली हो जाती है।’

भवभूति पत्नी को सफाई देते हुये बोले-‘ यह मेरा दोष नहीं है इसमें तुम्हारी सुन्दरता का ही दोष है।’

दुर्गा को कहना पड़ा -‘आज मुझे यह तो पता चल गया कि सारा दोष मेरा ही है। आप तो संत, ज्ञानी पुरुष हैं। अब आप तो बौद्ध योगी-येागिनियों के चक्कर में रहने लगे हैं। अब तुम्हें मेरी आवश्यकता भी नहीं है।’

भवभूति ने रोष व्यक्त करते हुये कहा- ‘आप हमारे चरित्र पर लाँछन लगा रही हैं।’

दुर्गा से सहज बनते हुये उत्तर दिया- ‘इसमें मैंने ऐसा क्या कह दिया? आप बौद्ध योगी-योगिनियों के चक्कर में रहने जो लगे हैं। हाँ, लांछन तो आप ही मेरे चरित्र पर लगा रहे हैं।’

भवभूति समझ गये बात बहुत बढ़ गई हैं, अब इसे बढ़ाने में कोई लाभ नहीं है। नहीं तो सारी योजना धरी की धरी रह जायेगी। यह सोचकर बोले- ‘अब ये बातें रहने भी दें। तैयार होकर उनके यहाँ चली जाओ।’ यह सुनकर दुर्गा वस्त्र बदलने के लिये अपने दूसरे कक्ष में चली गयी।

जिस दिन से उत्तररामचरितम् का लेखन शुरू हुआ था उसी दिन से बारम्बार भवभूति के मन में ये विचार आने लगा था। शायद यह मेरी अन्तिम कृति हो, लेकिन प्रत्येक रचना के साथ ऐसे ही भाव उठते रहे हैं। अंतिम कृति की भावना मन में आने से लेखन में लेखक की पूरी ऊर्जा उभर कर सामने आती है। जिससे रचना की उत्कृष्टता के बारे में संदेह नहीं रहता । महावीरचरितम् एवं मालतीमाधवम् के लेखन के समय में भी ऐसे ही विचार घनीभूत होते रहे लेकिन आज उत्तररामरितम् के लेखन के समय तो इसमें बहुत अधिक वेग अनुभव कर रहा हूँ।

इन दिनों भवभूति के मन में साहित्य साधना अथवा परमात्मा से साक्षात्कार के बारे में द्वन्द्व उपस्थित हो गया था, इसमें कौन सा साधन श्रेष्ठ है। मित्रों के समक्ष जब यही प्रश्न रखा गया तो महाशिल्पी ने प्रति उत्तर में प्रश्न कर दिया- ‘महाकवि साहित्य साधना को छोड़कर क्या प्राप्त होगा ?’

उत्तर आचार्य शर्मा ने दिया था-‘महाकवि को शायद उस परमसत्ता से साक्षात्कार हो सकेगा।’

महाशिल्पी बोले-‘आप भ्रमात्मक बुद्धि के शिकार होते जा रहे हैं, कहीं कोई ईश्वरीय सत्ता नहीं होती। सब आदमी के अन्दर उपजे संस्कारों का प्रतिफल है। श्रद्धा रुपी अंधविश्वास से जिसकी शुरूआत हो, उसमें मेरा कोई विश्वास नहीं है।’

भवभूति के मन में प्रश्न उभरा, ये आदमी जाने किस माटी का बना है आखिर ये सोचता कैसे हैं, पूछ ही लेता हूँ। यही सोचकर भवभूति ने प्रश्न किया- ‘आप ईश्वर के बारे में अपने विचार स्पष्ट करें कि आप किस तरह सोचते हैं।’

प््राश्नके उत्तर में महाशिल्पी लम्बा-चौड़ा प्रवचन देने की तैयारी करते हुये बोले- ‘मुझे तो चार्वाक का मत ही श्रेष्ठ लगता है। वे ईश्वर, आत्मा तथा परलोक में विश्वास नहीं करते।’

आचार्य शर्मा ने भी चार्वाक् को पढ़ा था फिर भी उनके विचारों को सुनने की इच्छा से बोले-‘उनके विचारों और सिद्धान्तों को स्पष्ट करें?’

महाशिल्पी बोले-‘प्राणी भौतिक तत्वों के मेल का परिणाम है। उनके बिखर जाने पर उसका नाश हो जाता है।’

घर से बाहर निकलते हुये दुर्गा ने एक प्रश्न कर दिया-‘ये चार्वाक् कौन थे?’

महाशिल्पी बोले- ‘बृहस्पति के एक शिष्य चार्वाक् भी थे। वैसे अनेक चार्वाक् व्यक्तियों का साहित्य में उल्लेख मिलता है। इस प्रकार के साहित्य की बातें करने वाले चार्वाक् ही कहे जाते हैं।’

भवभूति को व्यंग्य सूझा, बोले- ‘फिर तो आप भी चार्वाक् ही हुये?’

महाशिल्पी ने किसी बात की चिन्ता किये बगैर अपनी बात जारी रखी- ‘दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है कि देह आत्मा से भिन्न नहीं है। जीवन का सुख ही परम पुरुषार्थ है। परलोक में पुनर्जन्म नही होता।’

भवभूति से रहा नहीं गया, बोले- ‘हमें तो पुनर्जन्म होने के प्रमाण मिले हैं, उन्हें कहाँ ले जावें। हमारे इस नगर में ही देख लो, रामवटोही केवट के लड़के की बातें सुनी हैं। उसकी बातें सुनकर पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नकारा नहीं जा सकता।’

महाशिल्पी बोले-‘आप स्वीकार करते रहें, पर मेरा मन ऐसी बातों को स्वीकार नहीं कर पाता । मेरी मान्यता है कि मृत्यु ही मुक्ति है। सुख और दुःख युक्त संसार है। सुख की जो उपेक्षा करें वे मुर्ख हैं। परलोक की कल्पना मिथ्या है। देह का नाश ही पदार्थांे की अंतिम अवस्था है। ऐहिक सुख ही परम श्रेष्ठ है। भौतिक जगत ही सत्य है। निश्चय ही आप इस समय चैतन्य की बात सोच रहे होंगे। यह चैतन्य केवल पंच- भूतों पृथ्वी, आकाश, जल ,वायु और अग्नि के सहयेाग से ही बनता है।’

यहाँ महाशिल्पी की बातें काटने को वे तैयार थे, परन्तु उनसे और अधिक सुनने के इच्छुक भी थे। इसिलिये वे चुप रहे। महाशिल्पी प्रश्न की आशा में कुछ देर के लिये रुके। जब किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया तो पुनः बोले- ‘मृत्यु के पश्चात् जीवन नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रहती। सभी तत्वों का विलय हो जाता है। उनके योग से उत्पन्न चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। अतः परलोक स्वर्ग-नर्क आदि हमारे ऋषियों की कल्पनायें हैं। संसार का नियंत्रण करने वाला कोई परम श्रेष्ठ है। धर्म, कर्म, कर्मकाण्ड आदि पुरोहितों की जीविका के साधन मात्र हैं। एक क्षण तक वे कहने से रुके फिर सस्वर निम्न पद्य का वाचन करने लगे-

यावज्जीवेत्सुखं.....(परिशिष्ट श्लोक-2).

आचार्य शर्मा अब चुप न रह सके, बोले- ‘आपके इस सिद्धान्त से तो सामाजिक जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जावेगा। सभी कर्ज लेकर घी पीने में विश्वास करने लगेंगे। यह सिद्धान्त ठीक नहीं है।’

महाशिल्पी ने इनके तर्क की परवाह नहीं की और आगे की बात बोले-‘ कुछ लोग कहते हैं यज्ञ में वध किया हुआ प्राणी स्वर्ग जाता है। यह सिद्धान्त पक्का है तो यज्ञ कीजिये। उसमें आप अपने पिताश्री का ही वध कर डालिये। उन्हें स्वर्ग मिल जायेगा। मैं यह कभी नहीं मानता की श्राद्ध से पितरों की संतुष्टि होती है। नीचे रखे हुये खाद्य पदार्थ से ऊपरी मंजिल पर बैठे मनुष्य की तृप्ति क्यों नहीं हो जाती। अतः मेरा आपसे कहना है कि आप सब वेद एवं शास्त्रों में निहित धर्म को त्याग कर भौतिक सुख को ही उत्तम सुख मानकर जीने की कला सीख लीजिये।’

भवभूति उत्तर के लिये आचार्य शर्मा की ओर देखने लगे। आचार्य शर्मा संकेत की इस भाषा को समझ गये, बोले-‘वाह!-वाह! महाशिल्पी, आज हमें आपके अन्तर मन के पूरी तरह दर्शन हो गये। हम सभी जान गये आपके सोचने का ढंग कैसा है? आपने तो सभी वेदों एवं शास्त्रों को नगण्य घोषित कर दिया।’

भवभूति ने मुस्कराते हुये उत्तर दिया- ‘आपकी बातों में चार्वाक् ऋषि का मत हो सकता है। लेकिन हम चैतन्य परमात्मा का अपमान सहन नहीं कर सकते। अब आपको यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा की पदार्थों का मिलन और विग्रह चैतन्य की ही कृपा है। चैतन्य से ही उनका मिलन संभव हो पाता है। उसी की कृपा से विग्रह होता है। आप हैं कि भौतिक जगत के सामने उस सत्ता को नकारते जा रहे हैं। ‘संसार का नियंत्रण करने वाला कोई परम श्रेष्ठ है। आपके इस कथन में यही चैतन्य परमात्मा है। यही प्रभु का साकार एवं निराकार रूप है। मेरा चित्त इन दिनों साकार से हटकर निराकार में गोते खा रहा है।’

महाशिल्पी को उनकी इस बात से आगे कहने का सहारा मिल गया- ‘आपकी धीरे-धीरे प्रगति हो रही है, आज साकार से निराकार पर आये हैं कल निराकार का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। शेष रह जावेगा भौतिक जगत।’

आचार्य शर्मा को महाशिल्पी द्वारा कथित श्राद्ध पर वक्तव्य बड़ी देर से खल रहा था, उसे ही उछालते हुये बोले- ‘आपकी दृष्टि में श्राद्ध नाटक हो सकता है पर इसका संबंध तो सीधा हमारी भावनाओं से है।’

भवभूति समझ गये, आचार्य शर्मा क्या कहना चाहते हैं, बोले-‘लहरों की आवृत्ति बनेगी, बनकर पूरे तालाब में फैल जायेगी। तभी शान्त होगी। ऐसे ही श्राद्ध से समन्वय किया जा सकता है। श्राद्ध करके हम अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हेै। ’

आचार्य शर्मा बोले-‘महाशिल्पी आप तो अपने पिताश्री में विश्वास रखते होंगे।’

अब भवभूति को उत्तर देना उचित लगा, बोले- ‘बस यही विश्वास श्रद्धा के रूप में हम स्वीकारते हेैं।’

आचार्य शर्मा महाशिल्पी की इस बात की प्रशंसा करते हुये बोले-‘जो बलि देने की प्रथा है उसका आजकल जो प्रचलन है, आपने उसका भी विरोध किया है, वह रुचिकर लगा। जाने किस मुर्हत में, इस कुप्रथा का जन्म हुआ होगा। बलि से जो देव प्रसन्न होते हैं। मुझे उन देवों को प्रसन्न ही नहीं करना।’

भवभूति ने बात को यों समझाया- ‘इस प्रथा का तो मैंने भी अपने नाटक में जम कर विरोध किया है। मैंने तो बलि देने वाले की ही हत्या करवा डाली है।’

महाशिल्पी ने भी उस प्रसंग के पक्ष में अपना समर्थन व्यक्त किया-‘मुझे आपके उस प्रसंग ने ही सबसे अधिक प्रभावित किया है।’

भवभूति ने अपने अन्दर उफन रहे विरोध को व्यक्त किया, बोले- ‘आपने चैतन्य का जो विरोध किया है वह बहुत खल रहा है। मैं हूँ कि अब लिखना छोड़कर चैतन्य की ही खोज में लग जाना चाहता हूँ। आप हैं कि उसका खण्डन-मण्डन करने में लगे हैं।’

महाशिल्पी ने बातें आगे न बढ़ें इसलिये कह दिया- ‘अच्छा है आप चैतन्य की खोज में लगें, यदि वह कहीं मिल जाये तो मुझे उनसे साक्षात्कार अवश्य करवा दीजिये।

भवभूति को उत्तर देना पड़ा- ‘आपको उत्तर देने के लिये ही सही, अब मैं पूरे मनोयोग से उसकी आराधना में लगना चाहता हूँ। जिससे आपका उससे साक्षात्कार करा सकूँ और आप जैसे लोगों को उसका विश्वास हो सके।’

यह सुनते ही आचार्य शर्मा चलने के लिये उठ खड़े हुये, बोले -‘आज चर्चा का विषय आवश्यकता से अधिक गंभीर हो गया है। अब चलता हूँ।’

भवभूति उनके जाते ही सोचने लगे- महाशिल्पी के सिद्धान्तों में कैसे परिवर्तन लाया जाये? वे ईश्वर को मानते ही नहीं हैं। मेरे मन के जाने किस कोने में परमसत्ता के अस्तित्व के बारे में प्रश्न उठता रहा है, वह है या नही ? दुर्गा को उनकी लम्बी चुप्पी खलने लगी थी। बोलीं-‘ महाकवि का किस विषय पर चिन्तन चल रहा है।’

उत्तर में भवभूति बोले- ‘यही सोच रहा था कि महाशिल्पी सदैव परमसत्ता को नकारने मेें लगे रहते हैं। मेरे मन में भी आज यही सोच उभर कर सामने आ रहा है।’

दुर्गा समझ गई, किन्ही काव्य पक्तियों का जन्म होने वाला है, यही सोचकर बोली- ‘जन्म लेने वाली पंक्तियों की भावभूमि से हमें भी परिचित करायें।’

भवभूति मन में उमड़ रहे विचारों को रेखंाकित करने लगे-

‘वह है या नहीं है-

आदमी की चेतना ने जब से चिन्तन का मुकुट बाँधा हैं ,

तभी से आस्थायें-अनास्थायें उसकी प्रगति में बाधा हैं।

यह प्रश्न बनकर जब से खड़ा हुआ है, खड़ा ही है

और आदमी इसी व्यथा में पड़ा ही है।

इसी प्रश्न को लेकर हल करने के लिये आगे आयें।

चेतना की भूख मिटायें।

नास्तिक चेतना भी यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करेगी।

कहीं कोई सत्ता तो है, जो जड़ चेतन का बॅटवारा कर रही है।

जड़ को चेतन और चेतन को जड़ में वरण कर रही है।

मैं भी पत्थर की मूर्तियों को भगवान नहीं मानता।

चेतना को हि सृष्टि का आधार जानता हूँ।

आस्थाओं, अनास्थाओं का द्वन्द्व आदमी के हृदय में बनता है।

निर्गुंण निराकार, परब्रम्ह परमात्मा से शब्दों को गढ़ता है।

लेकिन वह जो है सो है।

यदि वह है तो उसे नकारा नहीं जा सकता।

यदि वह नही हैं तो उसे लाया नहीं जा सकता।

वह है या नहीं इसके लिये गवाह बनाकर खड़ा करता हूँ।

वेदों को, व्यास जी को, ऋषियों को,

जो अपने-अपने मन के अनुसार इतिहास गढ़ते रहे हैं।

स्याही से पृष्ठ रंगते रहे हैं।

कभी-कभी लगता है यह सब गलत है,

तो कटघरे में खड़ा करता हूँ अपने मित्र महाशिल्पी को

जो ईश्वर को नहीं मानता।

भौतिक जगत के सत्य को स्वीकारता है।

उसे किसने देखा, किसने सुना और किसने जाना है।

अनेक प्रश्न आकर मन पर आक्रमण करते रहते हैं।

नई-नई कहानी गढ़ते रहते हैं।

अब तो बस यही बात मन में आती रहती है।

हम स्वयं एक चित्त होकर बैठें। उसके बारे में मनन करें।

वह है या नहीं। उसे कर सकें तो स्वयं अनुभव करें।

तभी जान पायेंगे वह है या नहीं।

इतने गहन चिन्तन के बाद महाकवि आँखंे बंदकर बैठ गये। दुर्गा मन ही मन निर्णय करने लगी वह है या नहीं। मुँह से शब्द निकले- ‘महाकवि वह है आपने तो इस चिन्तन से उसे साकार कर दिया। ’भवभूति अभी भी चुप ही रहे। दुर्गा समझ गई वे ध्यान में हैं। यही सोचकर उसने भी आँखें बन्द कर लीं। दोनों ही उस परमात्मा को अपने अर्न्तमन में खोजने का प्रयास कर रहे।

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