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महाकवि भवभूति - 9

महाकवि भवभूति 9

रचनाधर्मिता के आइने में रंगकर्म

जब-जब हम किसी को सीख देने की आवश्यकता अनुभव करते हैं तब-तब हमारे समक्ष यह प्र्रश्न आकर खड़ा हो जाता है कि हम किन शब्दों का उपयोग करें, जिससे उस बात के महत्व को समझ कर वह व्यक्ति चरित्रवान बन जाये।

यही सोचते हुये दुर्गा अनुभव कर रहीं थी , आज जब गण्ेश घर आया उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। उससे यह सब देखा न गया तो वह उसके कक्ष के दरवाजे पर जाकर बोली- ‘घर में तुम्हारा इस तरह आना शेाभा नहीं देता।’

गण्ेाश उनके पास आकर खड़ा हो गया और बोला- ‘माताश्री आपको ज्ञात होगा हमारे पूर्वज भी तो सोमपायी थे।’

बात का कड़वा घूँट गले के नीचे उतारते हुये बोली- ‘वत्स तुमने सोमपायी का अर्थ ठीक से ग्रहण नहीं किया। अपने पिताश्री द्वारा लिखित साहित्य में अपने परिवार के परिचय को ठीक ढंग से नहीं पढ़ा। उसमें लिखा है- सोमपायी और चान्द्रायण आदि व्रत करने वाले इसका अर्थ है सोमपायी और चान्द्रायण आदि व्रत हैं। मैं समझ गयी तुमने उनके साहित्य का अध्ययन ठीक ढंग से नहीं किया।’

उनकी बात पर वह आवेश में आते हुये बोला-‘कैसे नहीं किया मैंने ठीक से अध्ययन!’

इसे अब खुलकर समझाने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है। यह सोचकर दुर्गा नरम पड़ते हुये बोली- ‘तुम और क्या जानते हो अपने पूर्वजों के वारे में?’

गणेश तनकर खड़े होते हुये बोला- ‘हमारे पिताश्री का जन्म देश के दक्षिण में विदर्भ प्रान्त के पदमपुर नामक नगर में हुआ था। हम लोग तैत्तरीय शाखा वाले कश्यप गोत्रिय हैं।’

उसकी बात को पूरा करने के लिये दुर्गा बोली- ‘हम दक्षिणाग्नि आदि पाँच अग्नियों का आवाह्न करने वाले हैं।’

गणेश अपनी बात पर आते हुये बोला- ‘माताश्री आप इस प्रसंग को अधूरा न छोड़ें, पिताश्री ने अपनी कलम से सोमपायी शब्द का उपयोग किया है या नहीं। ’

मैं इसे इस शब्द का अर्थ पहले बतला चुकी हूँ, किन्तु तुमने मेरा बताया अर्थ ग्रहण नहीं किया। इसे तो इसके मित्रों का सुझाया अर्थ ही ठीक लग रहा है। यह सोचकर बोली-‘सोमपायी शब्द का सोमरस के पान से भी जोड़ा जा सकता है। किन्तु वत्स, सोमपायी और मद्यपायी में अन्तर करना आवश्यक है। हम सोमपायी चान्द्रायण आदिव्रत करने वाले हैं। उदुम्बर नाम वाले बेदाग व शुद्ध चैतन्य ब्राह्मण तत्व का निर्णय करने के लिये शास्त्र श्रवण में भी विश्वास रखते हैं।’

‘माताश्री आपकी बातें सुनने में बहुत अच्छी लगतीं हैं। कहें, कहें मैं उन्हें ध्यान से सुन रहा हूँ।’

उसकी इस व्यंग्य भरी बात को वह सहज सरल ढंग से लेते हुये बोली- ‘हमारे पूर्वज तड़ाग आदि के निर्माण में धन का आदर करने वाले तथा सन्तान के लिये पत्नी का तथा तपस्या के लिये आयु का भी वे आदर करने वाले थे। हमें अपने पूर्वजों की इस परम्परा को विस्मृत नहीं करना चाहिये।’

माताश्री की बातें सुनकर उसके नशे का अस्तित्व तिरोहित हो गया। बोला-‘माताश्री मैं यह जानता हूँ कि इस पद्मावती नगरी में मेरे पिताश्री का जो सम्मान है वह उनके महान गुणों के कारण ही है।’

दुर्गा ने उसे चेतावनी इी-‘ अब तुम अपने शयन कक्ष में जाकर विश्राम करो लेकिन मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी यह बात पिताश्री के समक्ष रखना पड़े।’

यह सुनकर वह चुपचाप अपने शयन कक्ष में चला गया।

दूसरे दिन प्रातः ही पदमावती के राजा वसुभूति के सुपुत्र अनन्तभूति ने आकर दरवाजा खटखटाया। दरवाजा स्वयम् भवभूति ने खोला। उन्हें राजकुमार के शब्द सुनाई पड़े- ‘आचार्य प्रवर दण्डवत स्वीकार करें।’

भवभूति ने उत्तर दिया-‘यशस्वी भव’। उसका यह स्वर सुनकर गणेश अपने कक्ष से निकलकर बैठक में आ गया। बड़े ही उत्साह में बोला- ‘आइये राजकुमारजी आपका स्वागत है। आसन ग्रहण कीजिये। ’

उन्होंने आसन ग्रहण कर लिया। भवभूति ने पत्नी को आवाज दी- देखो तो कौन आया है? यह सुनते ही दुर्गा बैठक में आ गई। राजकुमार को देखकर बोलीं- ‘अरे! आप सूचना भेज देते, मैं गण्ेाश को भेज देती।’

उत्तर में उसने कहा-‘ माताश्री, मित्रता का भाव आने पर कोई सीमायें नहीं रहती। ’

कल की घटना से समन्वय बैठाकर दुर्गा समझ गई। उन्हें इस मित्रता का राज अच्छी तरह समझ में आ गया है, बोलीं- ‘कुमार अपने मित्र को समझाइये हमें इसका कल का व्यवहार ठीक नहीं लगा।’

बात का अर्थ लगाने में भवभूति ने देर नहीं की। वे समझ गये, कुछ न कुछ तो शंकास्पद है। इसके बाद कक्ष में सन्नाटा पसर गया। किसी को कोई उत्तर नहीं सूझ रहा है। इसीलिये बोले- ‘भूल तो किससे नहीं होती। सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते।’

यह सुनकर राजकुमार को उत्तर देने का साहस आ गया। बोला- ‘आचार्य प्रवर भूल तो कल हम दोनों से ही हो गयी थी।’

गण्ेाश ने सिर नीचा किये हुये उत्तर दिया- ‘क्षमा चाहता हूँ, अब कभी उस रूप में देखें तो घर में प्रवेश न दें।’

भवभूति के समक्ष सारा परिदृश्य साफ हो गया। इस स्थिति में अपने परिवार की गुण-गाथायें वर्णन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं सूझा, बोले-‘हमारा लाड़ला, परम पूज्यनीय पितामह भट्टगोपाल जो काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ एवं हमारे पिताश्री नीलकण्ठ जी का गौरव क्षीण नहीं होने देगा।’

दुर्गा समझ गई, इन्हें समझाने की यही योजना सर्वश्रेष्ठ है, यही सोचकर बोली-‘कुमार आपके पितामह कोई साधारण महाराजा नहीं थे। वे भी काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। हमारे महाकवि की काव्य रचना सुनकर ही उन्होंने अपने परिवार के गौरव के अनुरूप इन्हें भवभूति की उपाधि से विभूषित किया था।’

भवभूति ने बात को आगे बढ़ाना उचित समझा, बोले- ‘ये श्रीकण्ठ नाम वाला व्यक्ति संसार में भवभूति के नाम से प्रसिद्ध होता जा रहा है। आपके वंश से ही यह ‘भूति’ उपाधि मुझे प्राप्त हुई है। इसलिये हम चाहते हैं कि हमारे-आपके वंश का नाम धूमिल नहीं होना चाहिये।’

अनन्तभूति और गणेश दोनों ही चुपचाप उनकी बातें गुनते रहे। आज अनन्तभूति जिस उदेश्य को लेकर गणेश के यहाँ आया था, वह उपदेशों के जाल में उलझकर रह गया। अपनी बात कहे बिना ही चुपचाप वहाँ से चला आया।

पद्मावती नगरी की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, नृत्य-गायन में परिपूर्ण, गणपति सुन्दरसिंह की सुपुत्री सुनन्दा उसके चित्त में समा गई है। उसे अब उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं भा रहा है। गणराज्य की इस व्यवस्था ने राजपरिवार को अस्तित्वहीन बना दिया है। वह आज अपनी स्वप्न सुन्दरी के लिये याचकों की भाँति यहाँ-वहाँ भटकता फिर रहा है। यह सोचते हुये राजकुमार अनन्तभूति बौद्ध संन्यासिनी कामान्दकी के मठ के समक्ष से निकला। उसे याद हो आई उनकी सेवा-भावना की। वह उनके मठ में प्रवेश कर गया।

सन्यासिनी कामान्दकी बृद्ध हो गई थीं। अब उनसे चला-फिरा नहीं जाता था। चलने में लाठी का सहारा लेकर चलतीं थीं। उनकी दृष्टि राजकुमार पर पड़ी, वे उसे पहचानतीं थीं। उसे देखते ही बोलीं- ‘आओ कुमार अनन्तभूति आपका स्वागत है।’

अनन्तभूति मठ के विशाल कक्ष में पहुँच गया। उसके सामने थी भगवान बुद्ध की सौम्य प्रतिमा। उसने भगवान बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष नमन किया। उसके बाद वह मातेश्वरी कामान्दकी के समक्ष पहुँच गया। वे भाव विभेार होते हुये बोलीं -‘आज हमारे राजकुमार जाने कैसे इधर....? राजकुमार को माँ के सामने अपने मन की बात कहने में संकोच नहीं करना चाहिये।’

राजकुमार अपनी बात कहने के लिये भूमिका बनाते हुये बोला- ‘अभी मैं आचार्यप्रवर के पुत्र गणेश के यहाँ से लौट रहा था, सोचा आपे दर्शन करता चलूँ।’

कामांदकी समझ गयी। कोई गम्भीर विषय है। इसी कारण बात कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा है । बोलीं -‘आचार्य गणेश के यहाँ ऐसा क्या कार्य था जिसके लिये हमारे कुमार को उनके घर पर जाने की आवश्यकता पड़ गयी।’

अनन्तभूति ने सारी बात एक साँस में उडेली- ‘आचार्य ऋचा देवी की एक शिष्या, अपने गणपति सुन्दरसिंह की पुत्री सुनन्दा हैं। किन्तु पिताश्री चाहते हैं कि मेरा विवाह गालिव नगरी की राजकुमारी के साथ हो, लेकिन..............।

कामांदकी ने बात पूरी की- ‘मैं समझ गई, आपका चित्त सुनन्दा के साथ...., कभी सुनन्दा से भेंट करने का अवसर मिल पाया या नहीं?’

सोच में डूवे राजकुमार ने उत्तर दिया- ‘मिला तो है, गत वर्ष भगवान कालप्रियानाथ के यात्रा उत्सव में मालतीमाधवम् के मंचन के समय वे मंच के नजदीक मेरे पास ही विराजमान थीं।’

कामांदकी की शिष्या चित्रा ने पूछ लिया- ‘‘आपकी उनसे वार्तालाप हुई होगी?’ इसके उत्तर में उसने अपनी स्वीकृति गर्दन झुकाकर प्रदान की।

चित्रा ने अगली बात पूछी-‘सुना है सुन्दरसिंह जी अपनी जाति में ही उसके लिये वर की खोज कर रहे हैं।’

कामांदकी ने समझाते हुये कहा-‘प्रेम प्रसंगों में जातियाँ टूटकर रहतीं है। राजकुमार निश्चिन्त रहें, मैं प्रयास करुँगी कि आपका विवाह उसके साथ हो। मैं भी क्या करुँ- ’अब चला फिरा भी नहीं जाता। अरी! चित्रा कुमार को जलपान तो करा। राजमहल से जाने कब से निकले है?’

चित्रा उनके लिये जलपान ले आयी थी।

उस दिन विद्याविहार में खूब चहल-पहल थी। जब भवभूति विद्याविहार में निरीक्षण के लिये निकलते हैं तव विद्याविहार की प्रत्येक शाखा में कार्य और द्रुतगति से चलने लगता है।

आज जब भवभूति नृत्यशाला में पहुँचे उस समय आचार्य ऋचा अपने शिष्यों को नृत्य का अभ्यास कराने में निमग्न थी। मनमोहक नृत्य की भंगिमायें देखकर आचार्यप्रवर ने बिना व्यवधान के स्वयम् ही आसन ग्रहण कर लिया और भाव विभोर होकर नृत्य का आनन्द लेने लगे।

रामकथा के आधार पर सुनन्दा का नृत्याभिनय दर्शनीय रहा। जब नृत्य की ताल थमे, भवभूति भाव विभेार होते हुये बोले -‘आचार्या ऋचा मुझे आपकी शिष्या का नृत्य उत्कृष्ट लगा।

ऋचा ने अपनी बात कही- ‘यह बालिका अपने भविष्य के प्रति चिन्तित है। यह सोचती है उसके जीवन में इस कला की कोई उपयोगिता नहीं है।’

भवभूति को लगा-इस विद्याविहार में ऋचा से पूर्व कोई आचार्या ही नहीं थी। कितने विरोध सहकर इस प्रतिभा का उपयोग हो रहा है! यह सोचकर उन्होंने ऋचा से ही पूछ लिया- ‘इस प्रतिभा का उपयोग किस प्रकार सम्भव है?’

वह बोली -‘मैं सोचती हूँ ,इसका विवाह किसी कलाकार के साथ हो सके।

भवभूति ने इसके उत्तर में कहा- ‘आपकी बात विचारणीय है। क्यों बेटी सुनन्दा हम जो निर्णय करेंगे वह तुम्हें स्वीकार हेगा।’

सुनन्दा ने स्वीकार किया- ‘आचार्यप्रवर का आदेश शिरोधार्य है।’

भवभूति यह सोचते हुये वहाँ से चले आये-इसका विवाह तो राम जैसा अभिनय करने वाले पात्र के साथ हो, वही इसकी कला का पारखी हो सकेगा।

भवभूति की यह बात मातेश्वरी कामांदकी को ऋचा से ज्ञात हो गयी। उन्होंने इस हेतु एक सभा आयोजित की । जिसमें भवभूति के अलावा पद्मावती के महाराजा वसुभूति, सुनन्दा के पिता श्री गणपति सुन्दरसिंह को भी आमंत्रित किया गया। सुनन्दा एवं अनन्तभूति को भी बुला लिया।

जैसे ही महाराजा वसुभूति अपने आसन पर विराजमान हुये, सभा की कार्यवाही शुरू हो गई।

मातेश्वरी कामांदकी ने प्रस्ताव रखा- ‘मैं आज एक प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुई हूँ। जिसमें हमारे महाकवि जो न्यायशास्त्र में प्रवीण हैं, इस सभा में निर्णयक का दायित्व ग्रहण करेंगे। मैं चाहती हूँ हमारे गणपति सुन्दरसिंह की सुपुत्री सुनन्दा का विवाह राजकुमार अनन्तभूति के साथ हो। लेकिन इसमें एक व्यवधान उत्पन्न हो गया है-महाराज यशोवर्मा की उपस्थिति में मंचित किये जा रहे महावीरचरितम् में राम का अभिनय करने वाले कलाकार के साथ विवाह करने का मन हमारे महाकवि ने बनाया है। सुनन्दा के पिताश्री सुन्दरसिंह भी अपनी पुत्री की कलाप्रियता देखकर आचार्यप्रवर की बात से सहमत हो गये हैं।

हमारा यह राजपरिवार प्रतिभाओं का सम्मान करना जानता है। राजकुमार अनन्तभूति अध्ययनकाल से ही कलाकार रहे हैं। मैं चाहती हूँ सुनन्दा जैसी प्रतिभा का विवाह हमारे प्रिय राजकुमार अनन्तभूति के साथ सम्पन्न हो।’

मातेश्वरी कामांदकी के प्रस्ताव पर राजा वसुभूति ने अपनी सहमति की मोहर लगा दी- ‘इस सभा का जो निर्णय होगा वह मुझे भी स्वीकार होगा।’

भवभूति ने न्याय के आसन से अपना निर्णय सुनाया- ‘आप को ज्ञात होगा सुनन्दा एक सर्वश्रेष्ठ कलाकार है । हम महावीरचरितम् में राम का अभिनय करने वाले पात्र की खोज कर रहे हैं, यदि राजकुमार अनन्तभूति राम का अभिनय करने के लिये ऐसे अवसर पर अपने को योग्य समझते हों तो कहें?’

किसी को ऐसे कठोर निर्णय की आशा नहीं थी। सभी सोच रहे थे कि राजकुमार अनन्तभूति कैसे इतने कम समय में राम की भूमिका का निर्वाह कर पायेगा।

सभा की दृष्टि अनन्तभूति की ओर थी। राजकुमार अनन्तभूति समझ गया- महाराज यशोवर्मा के समक्ष राम की भूमिका का निर्वाह करना कोई साधारण कार्य नहीं है।

प्रेम और कला में द्वन्द युद्ध छिड़ गया। कला विजयश्री प्राप्त करने के लिये अपना सिर उठाये सामने खड़ी थी। सोचने का इतना अवसर भी नहीं था। राजकुमार अनन्तभूति उत्तर देने के लिये हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला-‘मैं श्रीराम की भूमिका निर्वाह करने तैयार हूँ। मेरा आग्रह है कि आचार्यप्रवर स्वयं अभिनय का अम्यास मुझे प्रदान कर अनुग्रहीत करें।’

भवभूति को अपनी सहमति देनी पड़ी -‘इसे मैं स्वयं अभ्यास कराऊँगा, सभासद निश्चिन्त रहें।’

गणपति सुन्दरसिंह ने आभार व्यक्त किया-‘महाकवि भवभूति ने पद्मावती नगरी के अनुरूप ही निर्णय दिया है। हम उनके इस निर्णय का स्वागत करते हैं।’

अब सभासद प्रसन्न मुद्रा में अपने-अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गये।

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