Anjane lakshy ki yatra pe - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 29

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

भाग-29

मत्स्यमानव की गिरफ्त में


“जैसे ही मुझे आपका पता मिला और यह पता चला कि आप दो डाकुओं के चंगुल में फंसे हुये हैं, मैं तुरंत दल-बल सहित यहाँ पहुंच गया।” उसने कहा।
“दल-बल सहित?...” व्यापारी ने उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
“हाँ।” उसने कहा और दूर लंगर डाले जहाज़ की ओर इशारा किया, “वह मेरा जलपोत है, चलिये मैं आपको इनके चंगुल से निकालने आया हूँ।”
कहते हुये उसने बिजली की सी तेज़ी के साथ समीप खड़े दोनो डाकुओं के कांधों से उनके धनुष खींचे और एक ही झटके में तोड़कर उन्हे पानी में फेंक दिये। यह सब उसने इतनी तीव्र गति से किया कि वे समझ ही न पाये। किंतु अब समझ में आने से भी कोई फायदा न था। वे भयभीत से होकर जड़ हो गये।
उसने व्यापारी को अपने कंधों पर उठा लिया और शेरू को व्यापारी की हाथ में थमाकर सागर में कूद गया। अगले ही क्षण वह सागर की लहरों से अठखेलियाँ करता तीव्र वेग से तैरते हुये, उस जहाज़ की ओर जाने लगा। सागर तट पर खड़े दोनो डाकू, अभी अभी जो कुछ घटा है उसकी सत्यता पर विश्वास करने की कोशिश कर रहे थे।
**
मैं कहाँ हूँ?
व्यापारी के मन में सबसे पहला प्रश्न यही उठा।
उसने देखा, वह किसी तख्त पर लगे एक आरामदायक बिस्तर पर पड़ा है। वह एक सुसज्जित सा कक्ष है; जहाँ प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं है। हाँ उसके बिस्तर के समीप एक खिड़की है जिससे बाहर कुछ रंग से झलक उठते हैं। स्पष्टतः वह क्या है पता नहीं। हाँ, उसे इस बात का भान होने लगा है कि वह ठोस धरातल पर नहीं है। उसके बिस्तर सहित सारा कक्ष ही जैसे किसी हिंडोले पर सवार, ऊपर नीचे, दांये बांये डोल रहा है।
उसने खिड़की से झांककर देखा, शाम का धुंधलका आकाश पर फैलने लगा था। बाहर आकाश पर लालिमा छाने लगी थी और नीचे सागर का रंग हरे से अब नीला हो चुका था।
यानि व्यापारी को जब तक होश आया वह जहाज़ उसे लेकर उस सागर तट से जाने कितनी दूर निकल चुका था। अब ऊपर आकाश था और नीचे हिलोरें मारता सागर।
जलयान सागर की लहरों पर हलके हलके हिचकोले खाता हुआ अनंत की ओर बढ़ा चला जाता था। जलयान के इस कक्ष में वह अकेला था। किसी अनजाने लक्ष्य की यात्रा पर...
लेकिन अब तक उसकी जो भटकावों से भरी यात्रा थी, वह किस लक्ष्य की यात्रा थी?
उसे पिछली बातें याद आने लगीं...
उसका अपना शहर और वह उस शहर का एक जाना माना व्यापारी। बड़े बड़े लोगों के बीच उठना बैठना, राजा महाराजाओं के बीच एक जाना माना नाम। बहुत से लोग उसे नगरसेठ समझते। क्यों न समझें आखिर शहर का जाना माना व्यापारी जो ठहरा। सुखी सम्पन्न परिवार का साथ...
कौनसी कमी थी उसके जीवन में जो एक अनंत लालच का शिकार बन गया था। कभी कभी जीवन दृष्टि भी सामान्य दृष्टि की तरह भ्रम का शिकार हो जाती है। जैसे कोई चीज़ समीप से देखने पर कुछ और दिखाई देती है और दूर से देखने पर कुछ और; वैसे ही जीवन भी समीप से कुछ और ही दिखाई देता है किंतु जब हम उसे निरपेक्ष होकर दूर से देखते हैं, उसमें छिपे कितने अच्छे बुरे तत्व दिखाई देने लगते हैं। अतः जब भी मानव को अवसर मिले अपने जीवन का अवलोकन कर ही लेना चाहिये। हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि जीवन में हमने कितनी गलतियां की है। जीवन के कई अनसुलझे प्रश्नो के उत्तर सामने आ जाते हैं।
अतः आप जब भी निराशाओं से घिरे हों, आगे लक्ष्य से अनजान हों, तो अपने जीवन का आंकलन करो ताकि तुम्हे तुम्हारी राह दिखाई दे जाये।
अभी वह इसी उधेड़ बुन में था कि, कक्ष में कोई एक मशाल उठाये आया। व्यापारी एक दम चौंक उठा। उसे लगा जैसे गेरिक एक मशाल थामें चला आ रहा है, वह कहेगा “मेरे साथ चलो,” और अभी बाहर किसी निहत्थे व्यक्ति का खून कर देगा।
वह डर गया। यह कैसी जगह है? वह क्या किसी जादुई दुनिया में कैद है जहाँ अपनी कल्पनायें वास्तविक रूप लेकर सामने आ जाती है। क्या वह किसी राक्षस वाली कहानी की दुनिया में कैद है अथवा किसी जादूगर वाली कहानी की दुनिया में? और यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता कहाँ है?
किंतु उस मशाल वाले आगंतुक ने कुछ नहीं कहा। बस मशाल को एक जगह लगाया जहाँ से सारा कक्ष उस मशाल के प्रकाश से जगमगा उठा था। उसने एक व्यापारी की ओर एक बार देखा लेकिन कुछ कहा नहीं। चुपचाप वापस लौट गया। व्यापारी की हिम्मत नहीं हुई कि उससे कुछ पूछे या बात करे सो वह चुपचाप बैठा रहा।
थोड़ी देर बाद किसी ने आकर उसके सामने भोजन सजा दिया।
आगंतुक ने जाते जाते कुछ कहा ज़रूर जिसे वह समझ न सका था। वह किंकर्तव्यविमूढ़ बना बैठा रह गया।
आह, भोजन!! कितने दिन हुये कि वह इस प्रकार के भोजन को भूल ही गया था। सुरूचिपूर्ण भोजन का स्वाद तो दूर की बात वह तो यही भूल गया था कि वह दिखता कैसा है। उसका मुख पानी से भर गया। उससे धैर्य नहीं रखा जा सका और वह खाने पर टूट पड़ा।
आज उसने लम्बे समय के बाद भरपेट भोजन किया था। और विश्राम भी। विश्राम करना तो जैसे वह भूल ही चुका था। बस, चलना... चलना... और चलते रहना..., यह सच है उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं था। उसका अपना जीवन ही जैसे किसी अंतहीन यात्रा का एक भाग था, उसे कई बार कोई दिशा दिखाई देती किंतु हर बार जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे राह से दूर खींचकर ले जाती और फिर वही यात्रा जिसका लक्ष्य ही ज्ञात न था।
खिड़की के बाहर पूर्णतः अंधकार छा चुका था। कभी कभी तारों भरे आकाश की एक झलक दिखाई दे जाती...।
किसी से बात करने की तीव्र इच्छा ने उसे घेर लिया। वह कहाँ है, मेरा तथाकथित पुत्र। उसीने तो मुझे उस तट से उठाकर लाया था। अब अपने पिता को छोड वह कहाँ गायब हो गया है? शायद ऊपर कहीं होगा जहाज़ की प्रचालन व्यवस्था में व्यस्त होगा। मुझे ही उसे ढूंढ लेना चाहिये...
वह कक्ष से बाहर जाने के लिये अभी कुछ कदम ही दरवाज़े की ओर चला था कि उसके पैर लड़खड़ाने लगे। उसके शरीर पर शिथिलता छाने लगी। वह वापस आकर बिस्तर पर गिर पड़ा। खिड़की से आकाश पर टके सितारे दिखाई दे रहे थे। उसका कक्ष धीरे धीरे हिचकोले खाता हुआ उसे झूला झुलाने लगा था। खिड़की से बाहर सागर की लहरें धीमें मद्धम स्वर में कोई रहस्यमयी लोरी सुनाने लगी थी। नींद उसकी चेतना पर सवार होने लगी थी। उसकी जीवन-यात्रा के चित्र एक एक करके उसके स्मृतिपटल पर आने जाने लगे...
वह कुत्ते वाला बूढ़ा...
ओह! वह बूढ़ा घाग, ठग !! मैं तो यह सोंचकर प्रसन्नता से फूला नहीं समाता था कि मैंने उसे ठग लिया; किंतु... यदि आज वह मुझे मिल जाये तो...
डाकुओं द्वारा पकड़ा जाना और वही बूढ़ा ठग समझकर पकड़ा जाना और मृत्यु को धोखा देते हुये लगातार उन दो डाकुओं की निगरानी में मारे मारे फिरना और उन दोनो को उलझाये रखने के लिये एक काल्पनिक कथा सुनाना जिसमें समुद्री तूफान और द्वीप का वर्णन, एक बेड़ा बनाकर समुद्री यात्रा और जलपरियों आदि की कथायें स्मृतिपटल पर यूं घूमने लगी कि स्वयम् उसे कथा की सत्यता का भ्रम होने लगा और फिर वह अजूबा... उसका तथाकथित बेटा....
धीरे-धीरे स्मृतियाँ सपनो के साथ विलोपित होने लगीं और वह निंद्रा की गोद में समा गया।
**
वह प्रातः की कोमल प्रकाशकिरणों के स्पर्ष से उठ बैठा। जलीय पक्षियों का मधुर कलरव उसके कानों में रस घोल रहा था। जल की लहरों का भयानक शोर और किसी चप्पु की छप छप से उसका ध्यान भंग हुआ।
उसने हड़बड़ाकर अपने चारों ओर देखा। सिर के ऊपर स्पष्ट नीला आकाश और चारों ओर नीला सागर फैला हुआ था। ऊपर आकाश में पक्षियों के झुंड के झुंड उड़ रहे थे और नीचे लहरें उद्दात् वेग से बह रही थीं और वह एक छोटी सी नौका पर सवार था।
**
जारी है...
अन्तिम भाग
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 30
अंत
में...
जिसमे कल्पना और यथार्थ के बीच सारे भेद स्पष्ट होते हैं और मत्स्य मानव की वास्तविकता सामने आती है।
ज़रूर पढ़ें
मिर्ज़ा हफीज बेग की कृति