mqahakavi bhavbhuti - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

महाकवि भवभूति - 11

महाकवि भवभूति 11

भवभूति के कालप्रियनाथ्र

दुर्गा आज पहली बार पार्वतीनन्दन जी के घर जा रही थी। चित्त में द्वन्द्व चल रहा था- कहीं मेरा विवाह पार्वतीनन्दन के साथ हो गया होता तो- अरे! हट, यह कैसे संभव था? चाहे प्राण ही चले जाते, मैं वहांँ एक पल भी नहीं रह सकती थी। आज उसी देहरी पर अपनी याचना लेकर जा रही हूँ। यही सोचते हुये दुर्गा ने उनका दरवाजा खटकाया। दरवाजा पावर्तीनन्दन ने ही खोला। दुर्गा को सामने देखकर आश्चर्य चकित रह गये। मुँह से शब्द निकले- अरे आप! दुर्गा जी।’

दुर्गा ने संक्षेप में उत्तर दिया-‘ जी।’

पार्वतीनन्दन ने ऋचा की माँ को आवाज दी- ‘अरे! ऋचा की माँ, देखो तो आज इस देहरी पर लम्बी प्रतीक्षा के बाद कौन आया है?’

ऋचा की माँ रामदेवी अन्दर से निकलकर दरवाजे में आ गइं। दुर्गा को देखकर बोली-‘ अरे! आप अन्दर आइये, स्वागत है। आसन ग्रहण कीजिये।’

दुर्गा ने झुककर, मर्यादा बनाये रखने के लिये थोड़ा सा आसन खिसकाया और उस पर बैठ गयी। पार्वतीनन्दन भी कक्ष में पड़े अपने आसन पर बैठते हुये बोले- ‘ऋचा की माँ पहले इन्हें जलपान कराओ। यहाँ आने में बड़ा परिश्रम करना पड़ा होगा। आज हमारे जाने किस जन्म के भाग्य जागे हैं, जो आप इस घर में पधारी हैंं। हमारी मनोकामना पूरी हो गयी।’

दुर्गा क्या कहे क्या न कहे! इसलिये पूछ लिया- ‘ऋचा बेटी दिखाई नहीं दे रही है।’

इसी समय ऋचा ने कक्ष में प्रवेश किया। ऋचा के कक्ष में प्रवेश करते ही पार्वतीनन्दन बोले- ‘गणेश की माताजी अभी-अभी तुम्हारी ही पूछ रही हैं?’

उत्तर में ऋचा बोली-‘मैं अभी विद्याविहार से ही लौट रही हँू। वहाँ नाट्यशाला में शिवरात्रि के अवसर पर इन दिनों मंचन हेतु महावीरचरितम् की तैयारी चल रही है। पुरुष पात्रों को नारी पात्रों के अभिनय के लिये तैयार करना, बड़ा ही कठिन कार्य है। एक-एक शब्द का शुद्ध उच्चारण करवा-करवा कर देखना पड़ता है।’

दुर्गा प्रशंसा करते हुये बोली- ‘इस बार मंचन का कार्य तुम्हें और गणेश को ही देखना है।’

इस बात का उत्तर देते हुये ऋचा बोली- ‘नाट्यशाला में वो कहाँ आते हैं, वे तो अपनी वेदशाला के कार्य मंे ही व्यस्त रहते हैं।’

दुर्गा समझ गई ऋचा पिता के सामने झूठ बोल रही है। गणेश है कि प्रतिदिन नाट्यशाला में पहुँचता है। बाद में ऋचा को छोड़ने उसके घर तक आता है। क्या पता आज घर के बाहर ही छोड़कर गया हो। दुर्गा को चुपचाप सोचते देखकर पार्वतीनन्दन बोले-‘आपका गणेश बहुत अच्छा लड़का है, हमारे यहाँ भी उसका आना-जाना लगा रहता है। बहुत ही वुद्धिमान है।’

अब तक रामदेवी जल ले आयी थीं। उन्हें जल का पात्र दे दिया। जल का एक घूँट गटकते हुये दुर्गा बोली- ‘आप लोगों से एक याचना करनी थी।’

यह सुनकर रामदेवी ने दोहराया- ‘कैसी बातें करती हो बहन याचना! आप तो आदेश दीजिये।’

दुर्गा ने उत्तर दिया- ‘आज मैं आदेश देने नहीं, आपसे याचना करने आयी हँू।

पुनः याचना की बात सुनकर पार्वतीनन्दन बोले- ‘हम समझ नहीं पा रहे हैं, हमारे पास ऐसा क्या है जिसकी आप याचना करने जा रही हैं ?’

शायद ऋचा की गणेश से बातें हो गई होंगी, वह समझ गई कि मेरा प्रश्न किया जाना है, इसलिये बैठक से अंदर कक्ष में चली गयी। दुर्गा ने दबे स्वर में कहा- ‘ऋचा बेटी को मैं अपने घर के लिये माँगने आयी हूँ।’

इस बात के बाद कमरे में एकदम स्तब्धता छा गई। प्रश्न का उत्तर देने के लिये रामदेवी सहमी सी दृष्टि से पार्वतीनन्दन की ओर देखने लगी। पार्वतीनन्दन समझ गये, अब मुझे ही कुछ कहना है इसलिये बोले- ‘हम लोगों का स्तर आपके स्तर से...।’

दुर्गा ने बात काटते हुये झट से उत्तर दिया-‘बुरा-भला सहने के बाद जो मुस्कराता रहे, उसका स्तर कैसे कम हो सकता है, फिर मैं तो याचक बनकर आपके दरवाजे पर आई हँू। आशा है निराश नहीं करेंगे।’

रामदेवी ने उत्तर दिया- ‘बहन, आपने तो इस समस्या का इतनी सरलता से निदान कर दिया। हम तो सोच भी नहीं पा रहे थे। कैसे क्या होगा?’

बात के उत्तर में दुर्गा बोली- ‘तो बात पक्की समझी जावे?’

पार्वतीनन्दन का उल्लास भरा स्वर गूँजा- ‘बेटी ऋचा, इधर आओ और अपनी सासू माँ के पैर पड़ो।’

आवाज सुनकर ऋचा अंदर के कक्ष से बाहर आ गयी। आते ही ऋचा दुर्गा के पैर छूने को झुकी। दुर्गा ने उसे दोनों हाथें से पकड़कर अपने हृदय से लगा लिया। और कुछ सोचते हुये एक नगदार अँगूठी शगुन के तौर पर ऋचा को पहना दी।’

यह इतनी जल्दी हुआ कि किसी को इतनी जल्दी इसकी आशा भी नहीं थी। रामदेवी अन्दर जाकर चूरमा के मोदक ले आयी । दुर्गा झट से आसन से उठी, उसने एक मोदक थाली में से उठाया और पार्वतीनन्दन जी के पास जाकर वह उनके मुँह में ........।’ रामदेवी ने दुर्गा को और दुर्गा ने रामदेवी और बेटी ऋचा को भी एक-एक मोदक खिला दिया।

पार्वतीनन्दन की पत्नी रामदेवी अपने मन की भावना को व्यक्त किये बिना न रही, बोली-‘बहन, जब देखो तब ये आपके रूप और गुणों की प्रशंसा करते रहते हैं। आज मुझे इनकी इस बात का साक्ष्य मिल गया है।’

पार्वतीनन्दन जी झट से बोले-‘कहिये,कहिये, क्या साक्ष्य मिल गया है?’

वे इसका उत्तर देतीं, दुर्गा बीच में बोली- ‘आप गलत कहते हैं। सुन्दर तो बहन रामदेवी ही हैं। यदि ये सुन्दर न होती तो आज इनकी कोख की सुन्दरता का सम्मान करने हम आपके दरवाजे पर याचक की भाँति न आते।’

यह बात सुनकर रामदेवी गर्व से तन गई। पार्वतीनन्दन ने अपनी बात की सफाई देते हुये कहा-‘ आप सुन्दर तो हैं ही, साथ ही सुन्दरता की पारखी भी हैं। तभी तो आपका साथ पाकर कवि श्रीकण्ठ महाकवि भवभूति बन गये हैं।’

यह सुनकर तो दुर्गा के चेहरे पर लज्जा के भाव दिखाई देने लगे। बात को बदलते हुये दुर्गा बोली- अब घर पहुँचना है, महाकवि हमारी राह देख रहे होंगे।’

पार्वतीनन्दन ने आदेशात्मक भाव से कहा-‘अब बैठे रहें, अब तो आप हमारी अतिथि हैं। हमारा भी आप पर पूरा हक है।’

रामदेवी हास्य भाव में आते हुये बोली-‘बहन, आप उनकी चिन्ता न करें। मैं आपके घर चली जाती हूँ। उनका दायित्व मेरा रहा।’

दुर्गा को कहना पड़ा- ‘अरे !हम यह तो भूल ही रहे हैं कि ऋचा बिटिया भी हमारे बीच में है।’ ऋचा का नाम आते ही सभी गम्भीर हो गये। दुर्गा दिन ढले तक घर लौट पायी।

गणेश और ऋचा की शादी की तैयारियाँ की जाने लगी। लग्न का मुहूर्त निश्चित कर लिया गया।

पद्मावती नगरी में शादी ब्याह के लिये कालप्रियनाथ का मंदिर ही केन्द्र रहा करता है। नगर के बड़े लोगों के बच्चों की शादी में मंदिर के अन्दर ही व्यवस्था रहती है। गरीब जनता के बच्चों की शादी-ब्याह, मंदिर की परिक्रमा में ही हुआ करते हैं। कभी-कभी तो सामूहिक शादी ब्याह जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है।

चाहे नगर में शादी-ब्याह की लग्न का समय हो, चाहे कोई पर्व हो, कालप्रियनाथ के इर्द-गिर्द मेला लग जाया करता है। हर बार की तरह ब्याह की इस लग्न के समय भी मेले का दृश्य उपस्थित हो गया। महाकवि भवभूति और निर्वासित गणपति पार्वतीनन्दन की पुत्री के ब्याह में भाग लेने के लिये नगर के लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। मंदिर के अंदर ही लग्न का कार्यक्रम रखा गया था। परम्परा के अनुसार परिक्रमा का समय हो गया। व्यवस्था बनाये रखने के लिये नगर के रक्षकों ने कमान सँभाल ली। इस शादी में विदर्भ प्रान्त व मध्य देश की मिली-जुली संस्कृति का समन्वय देखने को मिल रहा था। वर-वधू के अग्नि की परिक्रमा जैसे कुछ कार्यक्रम दोनों ही संस्कृतियों में एक ही जैसे थे। वेदों की परम्परा के अनुसार शादी का कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। भवभूति ऋचा को विदा कराके अपने घर ले आये। पुत्रवधू और पुत्र को दरवाजे पर लेने का, मित्रों के यहाँ बुलावा भेज दिया। समय पर सभी परिजनों की उपस्थिति में वधू ऋचा ने घर में प्रवेश किया। इस ब्याह के कारण नगरभर में उल्लास की लहर थी। यह विवाह जनचर्चा का विषय बन गया।

शिवरात्रि के पर्व पर भगवान कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव के समय महावीरचरितम् के प्रदर्शन का निश्चय किया गया था। इस अवसर पर महाराज यशोवर्मा को यात्रा-उत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रण भेज दिया गया था। इस अवसर पर महाराज यशोवर्मा ने अपनी स्वीकृति के साथ यह संदेश भेज दिया था कि वे महाकवि भवभूति के महावीरचरितम् का प्रदर्शन देखना चाहेंगे। भवभूति दत्तचित्त होकर महावीरचरितम् के अभिनय की तैयारी कराने लगे। गणेश और नववधू ऋचा इस कार्य्र में उनकी पूरी मदद कर रहे थे। ऋचा नारी पात्रों के अभिनय में अधिक रूचि लेकर, पात्रों को तैयार कर रही थी। वह अपने श्वसुर को एकबार यह दिखा देना चाहती थी कि वह ही उनके घर के लिये उपयोगी वधू है। उसे ससम्मान घर में लाकर उन्होंने उचित ही किया है। इस तरह दिन-रात एक करके वह अपने काम में लग गयी ।

यशोवर्मा के आने की सूचना के बाद ही नगर की सजावट का कार्य तेजी से किया जा रहा था। सड़कें, नालियाँ ठीक करवाई जा रही थीं। हर वर्ष यात्रा-उत्सव के संदर्भ में सड़कों, नालियों का उद्धार हो जाया करता था। इस वर्ष भी राजा वसुभूति इस कार्य में रूचि ले रहे थे। व्यवस्था में चुस्ती लाने का प्रयास किया जा रहा था। उन्हें डर था कि महाराज यशोवर्मा के समक्ष नगर की बदनामी का कोई दृश्य प्रस्तुत न हो जाये।

भवभूति इस कार्य में अधिक व्यस्त हो गये । कभी मंच व्यवस्था पर ध्यान देते, कभी पात्रों के अभिनय को देखते, कभी यात्रा उत्सव के विमान की जानकारी लेते। कभी-कभी राजा वसुभूति से परामर्श करने के लिये भी जाना पड़ता था। दुर्गा भी मंचन के कार्य में सहयोग कर रही थी।

सिंध और पारा (पार्वती) नदी का संगम। सिन्धु नदी संगम पर एक कोस की दूरी पर ऊपर की ओर धुआँधार का दृश्य। यहाँ से स्पष्ट दिखाई दे रहा था कालप्रियनाथ का मंदिर। प्रकृति का यह अनुपम दृश्य मन को मोहित किये बिना नहीं रहता। शिवरात्रि के पर्व पर दर्शनार्थियों की उमड़ती भीड़ दिखाई दे रही है। लोग कालप्रियनाथ को जल अर्पित करने के लिये अपने हाथों में जल से भरे जलपात्र लिये पंक्ति में लगे हैं।

आज भोर से ही मंदिर की सजावट की जा रही है। रात्रि के अंतिम प्रहर से ही लोगों का आना प्रारम्भ हो गया है। लोग धूआँधार के कुण्ड से जल भर कर भगवान कालप्रियनाथ के अभिषेक के लिये बड़े उत्साह से जल लिये चले आ रहे हैं। चारों ओर लोगों के सिर ही सिर दिखाई दे रहे हैं। मिठाइयों की दुकानें लगी हैं, लोगों में पुष्प, प्रसाद खरीदने का उत्साह दिखाई दे रहा हैै। बिन्दी, टिकुली, चूडियों, कपड़े, फल, फूल तथा खाने-पीने की वस्तुओं की दुकानें सजी हुईं हैं। दूर अखाड़े में सुबह से ही पहलवान अपनी कुश्ती का प्रदर्शन कर रहे हैं। कहीं जादूगर अपना खेल दिखाकर जनता से पैसा बटोर रहे हैं।

लोकगीतों के गायकों की टोलियाँ मधुर-मधुर गीत प्रस्तुत करके भगवान कालप्रियनाथ को रिझा रहे हैं। जल चढ़ाने वालों की लम्बी कतार बन गयी है। यदि दोपहर तक जल चढ़ गया तो चढ़ गया। दोपहर बाद तो यात्रोत्सव शुरू हो जाता है।

अरे! दोपहर का समय हो गया। मंदिर में भगववान कालप्रियनाथ की पालकी पहंँुच गई। विधि-विधान से कालप्रियनाथ की चलप्रतिमा को पालकी में प्रतिष्ठित किया जा रहा है। मुख्य मंदिर का दरवाजा बन्द कर दिया गया। कहारों ने पालकी उठा ली। नगर के सभी प्रमुख जन पालकी को हाथ लगाकर पुण्य लूट रहे हैं। कालप्रियनाथ के पुजारी पं. हरिनारायण शास्त्री पारम्परिक वेशभूषा में सजे हुये पालकी के निकट चल रहे हैं। पालकी चौरस स्थान पर नीचे आ गई है। कालप्रियनाथ के जयकारे सुनाई पड़ रहे हैं। भजन मण्डल अपने वाद्यों के साथ गान कर रहे हैं, पालकी आगे बढ़ने लगी है। पालकी के पीछे चल रहें हैं, राजा वसुभूति के राज परिवार के लोग। उनके पीछे रक्षा सैनिक और उनके पीछे जमघट है नगर के गणमान्य व्यक्तियों एवं सेठ साहूकारों का। सेठ साहूकार स्वर्ण की विभिन्न प्रकार की मालाऐं धारण किए हुये हैं जिससे उनकी प्रतिष्ठा का आभास जनता को होता रहे। शंख-झालरों की मधुर ध्वनि यात्रा उत्सव में जनता को दिशा निर्देश देने का कार्य कर रही है। पालकी में अब कहारों के स्थान पर आम जनता लग गयी है, जिससे वर्षभर गर्व से कहते फिरेंगे कि मैंने भगवान कालप्रियनाथ की पालकी को कन्धे पर ले जाने का सौभाग्य प्राप्त किया है।

कई स्थानों पर यात्रा के स्वागत में लोग जल पिला रहे हैं। कई स्थाानों पर प्रसाद वितरण किया जा रहा है। सेठ साहूकारों के द्वारा गरीब जनता के भोजन के भण्डारे चलाये जा रहे हैं। जिसकी जैसी सामर्थ्य है, पुण्य लूट रहे हैं। देश के दूर-दूर के हिस्सों के लोग यात्रोत्सव में सम्मिलित होने के लिये आये हैं। इस नगर के निवासियों ने अपने दूर-दराज देहातों में निवास कर रहे रिश्तेदारों को यात्रा-उत्सव का आनन्द लेने के लिये बुला लिया है। यात्रा संगम की ओर बढ़ती जा रही है। महाराज यशोवर्मा के आने की सूचना से अन्य वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष अधिक भीड़ दिखाई दे रही है। रक्षा सैनिक अधिक चुस्ती से जनता की सेवा कर रहे हैं। यात्रा मुख्य मार्ग से आगे बढ़ती जा रही है। सेठ साहूकारों की स्त्रियाँ सज-धज कर अपने-अपने घरों से पूजा की थाली सजाकर कालप्रियनाथ के द्वार पूजन हेतु खड़ी है। चढ़ौती चढ़ाने वालों का ताँता लगा है।

अब यात्रा राजद्वार पर पहँुच गई। सज-धज कर सम्पूर्ण श्रृंगार करके महारानी महल से बाहर आ रही हैं। दर्शनार्थी कालप्रियनाथ की अपेक्षा महारानी के दर्शन करके कृतार्थ हो रहे हैं। सभी देखना चाहते हैं कैसी हैं हमारी महारानी? महारानी के आगे-आगे दासियाँ पूजा की समग्री लिये चल रही हैं। उत्साह से भरी हुईं महारानी पालकी तक आयीं। पालकी को रोक दिया गया। कालप्रियनाथ का विधिविधान से पण्डित हरिनारायण शास्त्री ने महारानी के द्वारा पूजन करवाया। राजदरबार के समक्ष प्रसाद में खीर वितरित की जा रही है। अब प्रसाद लेने वालों की भीड़ बढ़ गयी है। इधर यात्रा अंतिम पड़ाव संगम पर पहँुचने के लिये आगे बढ़ रही है। संगम पर पहुँचकर यात्रा थम गयी। मंत्रोच्चार के साथ संगम पर भगवान कालप्रियनाथ का अभिषेक किया गया। अभिषेक का चरणामृत वितरित होने लगा।

यहाँ से यात्रा की वापसी शुरू हो जाती है। यहीं से यात्रा को पारा नदी के उस पार जाना था। बड़े सँभलकर धीरे-धीरे जयकारे लगाते हुये लोग नदी को पार करने लगेे। यहाँ पालकी को कहारों ने ही पार किया। पार होते ही फिर जनता ने पालकी उठाने का वीड़ा सँभाल लिया।

यात्रा नाट्यमंच पर पहँुच रही है। दिन अस्त हो चला है। यथास्थान पालकी उतार दी गयी। प्रतिवर्ष की तरह यहाँ यात्रा का रात्रि विश्राम रहता है। अब भगवान कालप्रियनाथ को मंच से सटे मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया। पहरेदारों ने मंच घेर लिया । जिससे मेले में कोई अप्रिय घटना न होने पावे।

संध्या बत्ती का समय हो गया । जगह-जगह दीप प्रज्जवलित किये जा रहे हैं, मंचन की व्यवस्था तेज कर दी गयी है।

इसी समय बिगुल बज उठा। सभी समझ गये महाराज यशोवर्मा इस नगर में पधार चुके हैं। उनके मंच पर आने की प्रतिक्षा की जा रही हे। लोग व्यग्रता से उनके आने का इंतजार कर रहे हैं। अरे! कन्नौज के सैनिक तो आ गये उन्होंने मंच को घेर लिया। शीघ्र ही महाराज यशोवर्मा मंच पर उपस्थित होने वाले हैं। उसी के बाद मंचन संभव हो सकेगा।

0 0 0 0 0