30 Shades of Bela - 23 books and stories free download online pdf in Hindi

30 शेड्स ऑफ बेला - 23

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode-23 by Amrendra Yadav अमरेंद्र यादव

जब मिलीं दो नदियां

बेला ने देखा। वो परिचित कदम इंद्रपाल यादव के थे। वो बनारस के उस क़ैदखाने में बिताए दिनों में इन क़दमों के आहट की अभ्यस्त हो गई थी। अपने कमरे में चुपचाप पड़ी रहती। इन कदमों की आहट होते ही समझ जाती कि उसे अगवा करनेवाला आ गया है।

इंद्रपाल काफ़ी ग़ुस्से में लग रहा था।

‘कैसा बदला? वो भी अपनी बहन से।’ बेला कुछ सोच पाती, या इसके पहले कि वो बेला तक पहुंचता समीर तेज़ी से उसकी ओर बढ़ता है और उसे बाहर ले जाता है।

काफ़ी समय बाद जब दोनों लौटते हैं, तब बेला पद्मा के सिरहाने बैठी उसे निहार रही होती है। इंद्रपाल बेला से कहता है,‘‘मुझे माफ़ कर देना ‌बेटी। मैंने तुम्हें ग़लत समझा। जब से पता चला है कि पद्मा, कृष को छोड़कर चली गई है, तब से मुझे लग रहा था कि कहीं न कहीं तुम ही इसका कारण हो।’

बेला चुप रही।

‘‘देखो बेटी जैसे-जैसे इंसान की उम्र बढ़ती जाती है, उसका लोगों पर से भरोसा कम होने लगता है। उसे अनजाने से डर घेरने लगते हैं।मैंने इस बच्ची की ज़िंदगी में इतना कुछ देखा है कि हमेशा डर लगा रहता है कि फिर से कुछ ग़लत ना हो जाए।’’ इंद्रपाल की आवाज़ में अपराधबोध बेला महसूस कर सकती थी।

‘‘आप चिंता मत कीजिए चाचा, मैं ठीक हूं और अपनों के साथ हूं,’’ यह आवाज़ थी पद्मा की।उसने अपनी पलकों को खोलकर वहां मौजूद सभी लोगों को देखा और फिर आंखें मूंद ली।उसके कमज़ोर लग रहे चेहरे पर एक संतुष्टिवाली मुस्कान थी।

******

पद्मा चार दिनों तक अस्पताल में रही। उस दौरान इंद्रपाल से भी बेला की कई बार मुलाक़ात हुई और बातचीत भी। वो जानना चाहती थी कि माइक के साथ अमेरिका गई आशा भारत क्यों आती है? इंद्रपाल ने उसे वो कहानियां जोड़-जोड़कर सुनानी शुरू कीं, जिसमें से कुछ आशा ने सुनाई थी, कुछ पुष्पेंद्र ने और कुछ के बारे में ख़ुद उसने ही अनुमान लगा लिया था। खैर इन चार दिनों में इंद्रपाल ने बेला को जो कुछ बताया, उसे जोड़कर जो दास्तां बनी, वो कुछ यूं है-

माइक के साथ अमेरिका जाकर आशा ने पुष्पेंद्र, नियति और उनके यहां पल रही अपनी बेटी बेला को भुलाने की पूरी कोशिश की, पर यादों की डोर इतनी कमज़ोर तो नहीं होती ना।चूंकि उसने बेला को नियति की बेटी मान लिया था, वो जानती थी कि उसकी देखरेख के लिए दादी और नियति हैं, उसे उसकी उतनी याद नहीं आती थी, पर पुष्पेंद्र की यादें भूले नहीं भूली जा रही थीं।

लेकिन यह पता चलने के बाद कि वो प्रेग्नेंट है, भाग्य ने मानो नई करवट ले ली। उसकी प्रेग्नेंसी से सबसे ज़्यादा ख़ुश था माइक। जब से आशा उसके जीवन में आई थी, उसके साथ सबकुछ अच्छा हो रहा था। उसका करियर नई ऊंचाइयां छू रहा था। फिर एक नन्ही-सी गुड़िया ने आकर उसकी निजी ज़िंदगी को भी गुलज़ार कर दिया था। वो अपनी ज़िंदगी में पहले कभी इतना ख़ुश नहीं था। पैट्रीशिया और आशा उसकी जान बन चुके थे। आशा का खिलंदड़पना भी दूसरी बार मां बनने के बाद जाता रहा, क्योंकि वो इस बार सही मायने में मां थी। अपनी बच्ची की एकमात्र मां। बच्ची और उसकी किलकारियां उसे कभी-कभी अपनी पहली बच्ची की याद दिला देती थीं। उसकी याद भुलाने के लिए वो अपनी इस बच्ची और साथी पर अपना सारा प्यार उड़ेल रही थी, पर जैसे-जैसे पद्मा के नैन-नक्श आकार लेते जा रहे थे, उसके मन में यह डर घर करता जा रहा था कि यदि माइक को पता चला ‌तो क्या होगा? हालांकि उसे मालूम था माइक बेहद मैच्योर इंसान है। बच्ची होने के बाद तो वो और भी मैच्योर हो गया है।शुरुआती मुलाक़ातों में जब उसने उसे अपनी पहली बेटी के बारे में बताया था, तब वो उसकी स्पष्टवादिता का क़ायल हो गया था। पर अब बात अलग थी. यह बात जाने-अनजाने उसे अंदर तक हिला देती थी, वो इतने समय बाद ज़िंदगी में आए ठहराव और सुकून को खोना नहीं चाहती थी।

उन दिनों पद्मा ने बोलना सीखा था। उससे बतियाने में उसके दिन कब गुज़र जाते पता ही न चलता। न जाने क्यों उसका बड़ा मन करता पुष्पेंद्र को उसकी इस बेटी के बारे में बताए। और उसने एक शाम फ़ोन पर उसे बता दिया।
उन्ही दिनों पुष्पेंद्र और नियति का रिश्ता बुरे दौर से गुज़र रहा था। नियति ज़्यादातर समय अपने कमरे में अकेले रहकर पेंटिंग्स बनाया करती।

उस दिन आशा बाथरूम में थी, जब पुष्पेंद्र का फ़ोन आया। माइक ने रिसीवर उठाया। इसके पहले कि माइक कुछ बोलता पुष्पेंद्र ने बोलना शुरू किया। उसने बड़े उत्साह से बताया कि वो अमेरिका आ रहा है, अपनी दूसरी बेटी से मिलने। दूसरी ओर फ़ोन कट गया बस।

इस बारे में माइक ने आशा से कुछ नहीं कहा, पर कुछ गुमसुम-गुमसुम सा रहने लगा। वो आशा से केवल ज़रूरी बातें किया करता,पैट्रीशिया से भी कम ही खेलता-बोलता, लेकिन इसका असर उसके काम पर दिखने लगा। उसका करियर जितनी तेज़ी से ऊपर गया था, उससे भी दोगुनी रफ़्तार से नीचे की ओर लुढ़क रहा था। तंगहाली बढ़ने के साथ ही उसका व्यवहार भी उग्र होता गया, वो आशा के साथ मार-पीट करता। हां, उसने पैट्रीशिया पर कभी हाथ नहीं उठाया, पर उस छोटी-सी बच्ची की आंखों में अपने पिता के लिए डर साफ़ देखा जा सकता था, वह हर पल अपनी मां के साथ चिपकी रहती।

हालांकि वक़्त के साथ आशा ने ख़ुद को बहुत बदला था, पर एक सीमा के बाद उसके लिए ये सब सहना मुश्क़िल होता जा रहा था और वो भारत वापस आ गई। वो बनारस में है यह केवल इंद्रपाल जानता था। बनारस में उसके रहने की पूरी व्यवस्था उसी ने की थी. अपने वादे के मुताबिक़ उसने पुष्पेंद्र को बताया नहीं कि आशा भारत में ही है, वहीं नियति के लगातार ख़ुद में खोते जाने से परेशान पुष्पेंद्र अपनी मां और बच्ची की इच्छा पर बनारस आया था, जहां अचानक उसकी मुलाक़ात आशा से होती है।

आशा का दिल्ली-बनारस लगा रहता, वहां पद्मा बनारस में इंद्रपाल की देखरेख में पल-बढ़ रही थी।

*****

बेला और समीर को ख़ुशी है कि पद्मा अब काफ़ी ठीक हो गई है। ख़ासकर बेला को तसल्ली थी कि उसने कृष से किए वादे के मुताबिक़ उसका अच्छे से ध्यान रखा था, लेकिन पद्मा के आने से जो सबसे ज़्यादा ख़ुश थी वो थी रिया। मम्मी पापा के ऑफ़िस जाने के बाद मौसी दिनभर उसके साथ रहती, उसका ख़्याल रखती। उसे ढेरों कहानियां सुनाती। उसे जो बात सबसे अच्छी लगती वो यह कि मौसी बिल्कुल मम्मी जैसी दिखती हैं।पद्मा के साथ-साथ उसकी तबीयत भी सुधर रही थी।

इस बीच बेला को जो बात सबसे ज़्यादा खल रही थी वो ये कि एक महीने हो गए हैं, पर कृष का न तो फ़ोन आ रहा है और न ही उसने अपनी ओर से खोजख़बर लेने की कोशिश की किसी की। समीर और पद्मा दोनों ही कृष का नाम सुनना पसंद नहीं करते, क्या करे वो? उसे यह तो जानना है कि आख़िर क्यों पद्मा कृष को छोड़ आई है?

शाम को घर लौटते ही रिया की खनकती आवाज़ ने बेला का स्वागत किया. ‘‘मम्मी, मौसी कह रही हैं आज रात खाने के बाद हम मरीन ड्राइव जाएंगे।’’ उसने रिया को चूमते हुए कहा,‘‘ठीक है, पापा को आ जाने दो।’’

*****

चारों देर रात मरीन ड्राइव पहुंचते हैं। शुक्रवार की रात होने के चलते वहां लोगों की काफ़ी भीड़ थी। वे भीड़भाड़ से दूर एक जगह बैठते हैं। रिया बैठने के बजाय वहां घूमने की ज़िद करती है। समीर उसके पीछे-पीछे चहलक़दमी करने लगते हैं। अब हैं दो बहनें और एक समंदर, जिसपर अंधेरा पसरा हुआ है। दोनों चुप हैं, वे सागर की लहरों की आवाज़ सुन रही हैं।लहरें चट्टानों से टकरा-टकरा आ जा रही थीं। बेला को न जाने क्यों बहुत अच्छा लग रहा था।

उसने सोचा पानी से ज़रूर उसका कुछ रिश्ता है। उसे याद आया दादी कहती थीं,‘नदियां अपने साथ पानी ही नहीं कहानियां भी लेकर चलती हैं और उन कहानियों को सागर में मिला देती हैं।’ यानी इस सागर में कई कहानियां तैर रही होंगी। आज बेला समझ गई समंदर की इन लहरों का रहस्य। शायद यही कारण है कि वो जब भी पानी के पास होती है, उसके जीवन का एक नया अध्याय उसके सामने खुलता है। ये कहानियां हैं, जो कह रही हैं मुझे सुनो। वो सुनना चाह रही है कोई कहानी।

पर अक्सर ऐसा होता है, जब हमारे पास बोलने को बहुत कुछ होता है ज़ुबां का साथ नहीं मिलता।

बेला को समझ नहीं आ रहा था कि वो अपनी बात कहां से शुरू करे। जहां पद्मा समंदर पर पसरे अंधेरे में कुछ देखने की कोशिश कर रही थी, वहीं अपनी बहन को पलक झपकाए बिना निहारते हुए बेला यही सोच रही थी, ‘बहन तुम मुझे पहले क्यों न मिली?’ जो पद्मा उसे बनारस के घाट पर दिखी थी और जो इंद्रपाल के घर में मिली थी उसमें और एक महीने पहले उसकी ज़िंदगी में आई पद्मा में कितना अंतर है?

लेकिन जैसा कि अक्सर उसके बारे में समीर कहा करता है, बेला का दिमाग़ सचमुच स्थिर नहीं था। उसकी सोच उसे कृष की ओर ले चलती है। उसने कहीं पढ़ा था ज़िंदगी हमें लोगों से बस यूं ही नहीं मिला देती। हर मुलाक़ात का एक कारण होता है। कुछ लोग आपकी ज़िंदगी में आते हैं, आपसे कुछ लेने, कुछ लोग हमें देकर जाते हैं और कुछ लोग आपसे केवल इसलिए टकराते हैं, ताकि आप ख़ुद से मिल सकें। ‘कृष से मेरी मुलाक़ात का आख़िर क्या कारण होगा? क्यों और किससे भाग रहा है कृष?’ भागने से कुछ भी नहीं हासिल होनेवाला, यह बात भला बेला से बेहतर कौन समझ सकता था।बेला ने तय कर लिया था कि अब समीर, कृष और पद्मा को साथ खड़ा करके हमेशा-हमेशा के लिए सारी ग़लतफ़हमियां दूर करनी हैं। वो सोच ही रही थी कि उसका फ़ोन बजता है. आशा मां की परेशान-सी आवाज़ थी उधर।