Ye kaisi raah - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

ये कैसी राह - 17

भाग 17

अगले अवकाश में दोनो परिवार इकट्ठा हुए। फिर कुल पुरोहित को बुला कर शुभ मुहूर्त निकलवाया गया। तीन महीने बाद की शादी की तारीख निकाली गई थी। बेहद शुभ मुहूर्त था। मां भी गांव से आ गई थी। उनके निर्देश अनुसार ही सब कुछ हो रहा था। मां सारी रीति रिवाजों और परम्पराओं के साथ दोनों पोतियों का ब्याह करना चाहती थी।

जवाहर जी और रत्ना बिल्कुल भी आर्थिक बोझ नहीं डालना चाहते थे अरविंद और सावित्री के उपर। वे सारी व्यवस्था खुद ही करना चाहते थे, ये कह कर की,

"मै करूं या तुम करो बात एक ही है। अब हम एक ही परिवार के है तो कोई फर्क नहीं पड़ता काम तुम्हारे द्वारा हो या मेरे द्वारा। बस काम होना चाहिए।"

अरविंद जी को यकीन नहीं हो रहा था कि दोनों बेटियो का भाग्य इतनी जल्दी खुल जाएगा । दोनों की शादी के लिए वो इतने परेशान थे, कि बिना मोटा दहेज़ दिए कैसे अच्छा घर वर कैसे मिल पाएगा? अब बिना कहीं गए घर बैठे अपने मित्र के घर में ही शादी तय होने से वो बहुत खुश थे।

सावित्री के पांव खुशी के मारे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसकी दोनों बेटियां एक सम्मनित घर की बहू बन रही थी , जहां उन्हे बहू से ज्यादा बेटी का दर्जा मिलेगा। ये सोच कर सावित्री बहुत खुश थी, खुशी का एक और भी कारण था कि बेटियां दूर नहीं जाएंगी यही पास में ही रहेगी उसका जब भी मन होगा या तो बुला लेगी या मिल आएंगी।

उधर रत्ना भी खुश थी कि, बेटी ना होने का जो दुख उसे हमेशा था अब दूर होने जा रहा था। बड़े ही उत्साह से रत्ना शादी की तैयारियां कर रही थी । हर चीज खरीदने से पहले वो हनी और मनी से जरूर पूछतीं। वो अपने सारे अरमान पूरे कर लेना चाहती थी। ये उसके घर की पहली और आखिरी शादी थी । इस कारण रत्ना शादी की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी।

अरविंद जी भले ही पैसे से मजबूर थे। उनके पास ज्यादा पैसे नहीं थे। पर वो अपनी इस मज़बूरी को शादी की तैयारियों के आड़े नहीं आने देना चाहते है। उन्होंने जो थोड़ी बहुत बचत की थी वो काफी नहीं थी शादी की तैयारियों के लिए इसलिए उन्होंने अपने प्रोविडेंट फंड से लोन के लिए था। भले ही जवाहर जी ने कोई डिमांड नहीं की थी पर वो अपनी बच्चियों को खाली हाथ नहीं भेज सकते थे। उनके भी कुछ अरमान थे। जवाहर जी के मना करने पर भी वो काफी समान देने की तैयारी कर चुके थे।

समय बीतने में वक़्त नहीं लगता, और देखते ही देखते तीन महीने बीत गए। शादी का दिन भी आ गया। अनमोल के भी एग्जाम हो चुके थे। फर्स्ट ईयर कंप्लीट हो चुका था। इसलिए ये तारीख रखी गई थी कि अनमोल भी इत्मीनान से शादी में शामिल हो सके।

जब अनमोल घर आया शादी कि तैयारियां जोर शोर से हो रही थी। अनमोल के आने से अरविंद जी को थोड़ा सहारा मिल गया । जो भाग दौड़ वो अकेले कर रहे थे,अब अनमोल भी उनका साथ देने लगा। कुछ कम अनमोल कर लेता कुछ अरविंद जी । इस तरह मिल जुल कर शादी की तैयारी पूरी हो गई।

शादी का हर कार्यक्रम धूम धाम से हो रहा था। जवाहर जी अपने दोस्त का पूरा साथ दे रहे थे। जो कुछ भी अरविंद जी कहते उसे वो ये कह कर मना कर देते की इसकी क्या जरूरत है? पर पुनः भी इंतजाम खुद की तरफ से कर देते।

बड़े ही धूम - धाम से शादी की सारी रस्में पूरी हुई। दूल्हा बने बाल और गोविन्द की जोड़ी सब को मोहित कर रही थी। दुल्हन के वेश में हनी और मनी को देख कर दादी निहाल हुई जा रही थी। बार - बार उनके माथे की चूम कर भीगी आंखों से बलाए लेती।

बड़े ही हंसी - खुशी के माहौल में शादी सम्पन्न हुई । सुबह जल्दी ही विदाई का मुहूर्त था। सावित्री और अरविंद जी का बुरा हाल था कि जिन बेटियों के ब्याह की चिंता में वे दिन रात परेशान हो रहे थे ;उन्हीं बेटियो का ब्याह हो जाने पर मन में कितनी पीड़ा हो रही है। नम आंखों से हनी और मनी की विदाई हुई। वे रोती और सब को रुलाती हुई, अपने बाबुल का घर छोड़ ससुराल विदा हो गई।

रत्ना और जवाहर जी का घर दो दो बहुओं के आने से खिलखिला उठा। रत्ना ने जहां हनी और मनी को प्यार से घर का स्वामित्व सौंप दिया ; वहीं हनी और मनी ने भी रत्ना और जवाहर जी को माता पिता का स्थान दिया।

वही अरविंद जी का घर बिल्कुल वीरान हो गया। सूना - सूना घर काटने को दौड़ता । गनीमत थी कि परी और अनमोल थे ,वरना सूने घर में रहना मुश्किल हो जाता।

परी ने घर का सारा दारोमदार अपने ऊपर ले लिया। वो रसोई और अंदर बाहर की सारी जिम्मेदारियां बखूबी निभा ने लगी।

धीरे धीरे समय बीतने लगा। अनमोल की छुट्टियां खत्म हो रही थी, उसका दूसरे वर्ष का सत्र शुरू होने वाला था।अरविंद जी परेशान थे कि शादी में काफी पैसे खर्च हो गए अब फीस की रकम कहां से आएगी। उन्हे परेशान देख सावित्री ने वजह पूछी,तो अरविंद जी ने कहां,

"सावित्री जैसे - जैसे अनमोल की छुट्टियां खत्म हो रही है मेरी चिंता बढ़ती जा रही है,की मै फीस का बंदोबस्त कहा से करूंगा..?"

सावित्री बोली,

"आप क्यों चिंता करते है? मेरे कंगन पड़े हुए है किस दिन काम आएगें? "

अरविंद जी बोले,

"नहीं नहीं मै तुम्हारे कंगन नहीं बेच सकता, प्रोविडेंट फंड से तो पैसे निकाल चुका हूं। मै किसी से उधार का बंदोबस्त करता हूं।"

सावित्री बोली,

"आप भी कैसी बाते करते है? अब क्या मै कंगन पहनूंगी? रक्खा ही तो है, आएगा तो इन्हीं बच्चों के काम……. ! अरे...! जब अनमोल पढ़ लिख जाएगा तो नए डिजाइन के दूसरे कंगन बनवा लूंगी । आप बिल्कुल चिंता मत करो।" इतना कह कर सावित्री गई और कंगन ले कर आई और अरविंद जी के हाथों में थमा दिया ।

अरविंद जी ने दुखी मन से कंगन ले लिया , उन्हे बहुत कष्ट हो रहा था कि पत्नी के कंगन बेचने पड़ रहे है बेटे के फीस के लिए । पर दूसरा कोई चारा न था। खामोशी से कंगन जेब में डाले और भारी कदमों से अरविंद जी बाहर निकल गए । वो खुद को अपराधी महसूस कर रहे थे, सावित्री का अपराधी। कहां लोग नए जेवर बनवा कर अपनी पत्नी को देते है और उन्हे मज़बूरी में पत्नी के कंगन बेचने पड़ रहे है ।

पर वो कहते है ना औलाद के लिए पता नहीं क्या क्या करते है माता पिता फिर ये तो एक कंगन ही था।

अरविंद जी ने फीस की व्यवस्था की और दो दिन पश्चात

अनमोल को लेकर कॉलेज छोड़ने चले गए। सावित्री ने तरह - तरह की चीजे नाश्ते के लिए बना कर अनमोल को दिया। दादी बार - बार अनमोल को समझाती,"बेटा समय से खाया कर, ठीक से खाया कर, पढ़ने के दिन में खाना - पीना ना भूल जाया कर। दादी और मां के आंखो में आंसू छोड़ कर अनमोल पापा के साथ कॉलेज कानपुर चला गया।

अनमोल की फीस जमा कर अरविंद जी ने उसे अलॉट हॉस्टल के नए रूम में शिफ्ट कराया, और ज्यादा किसी से दोस्ती ना करने और अपना ध्यान रखने की नसीहत दे कर अरविंद जी घर वापस आ गए।

 

अगले भाग में पढ़िए अनमोल के आगे की जीवन यात्रा।