Benzir - the dream of the shore - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 5

भाग - ५

'जब आप इतना उतावले हो रहे हैं, तो बिना बताए कैसे रह सकती हूं। मैंने देखा कि बीवी तकिया लगाए सीधे लेटी थी। छत वाला पंखा पूरी स्पीड में चल रहा था। ना मियां के तन पर एक कपड़ा था और ना बीवी के। छोटा बच्चा मां की छाती पर ही लेटा दूध पी रहा था। मियां की चुहुलबाजी चालू थी। वह दूसरी वाली छाती से बच्चा बन खेल रहा था। दोनों के हाथ भी एक दूसरे की शर्मगाहों में खेल रहे थे। जब बच्चा सो गया तो उसे दीवार की तरफ किनारे लिटा दिया। उसकेआगे देखने की मुझमें हिम्मत, ताकत कुछ भी नहीं रह गई थी।'

' या बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहीं हैं । '

आदतन ही मेरे मुँह से यह बात निकल गई। मैंने सोचा निश्चित ही इन्हें यह बात बुरी लगेगी, लेकिन वह मेरीआँखों में जैसे कुछ पढ़ती हुई बोलीं, 

' आप को मुझ पर यह हथियार नहीं चलाना चाहिए था। मेरी हिम्मत ही है कि, हम आप यहाँ बैठे बात कर रहे हैं। '

यह कह कर वह बहुत अर्थभरी मुस्कान मुस्काईं। मैं भी मुस्कराहट के साथ उन्हें चुपचाप देखता रहा। कुछ बोलना उचित नहीं लगा। वह आगे बोलीं, 'आगे मैं और कुछ देखने की हिम्मत इसलिए नहीं कर पाई, क्योंकि जितना देखा उसी से मैं पसीने से भीग गई थी। दोनों कपड़े तरबतर हो रहे थे। ऐसे हांफ रही थी कि, जैसे दसियों मंजिल की सीढ़ियां चढ़ उतर कर आई हूं। छातियां ऐसे ऊपर नीचे गिर रही थीं कि, लगता था जैसे संभल ही नहीं पाएंगी। कपड़े उन्हें थाम ही नहीं पायेंगे। मैं बक्से से उतरकर नीचे जमीन पर बैठ गई। उन दोनों की ना जाने कैसी-कैसी आवाज़ें मेरे कानों में पड़तीं, और मेरे बदन को जलाती रहीं बड़ी देर तक।'

'वाकई अद्भुत घटना है। आपने सही कहा था कि, नजर पड़ने के बाद हटा नहीं जा सकता था। आप तो फिर भी हट गईं, और कोई तो आखिर तक नहीं हटता। हिप्पोक्रेसी यह होती कि वह किसी से यह शेयर ना करता। मैं आपके साहस की प्रशंसा करता हूं कि, आप बीच से हटीं भी, शेयर भी कर रही हैं। आगे आप...।'

'हाँ आगे यह हुआ कि फिर अचानक ही गिलास गिरने की आवाज आई, और उसके कुछ ही सेकेंड बाद बच्चे के रोने की। फिर वह चुप भी हो गया। लेकिन साथ ही कुछ ऐसी चुटुर-चुटुर आवाज सुनाई दी जैसे कि, वह दूध पी रहा हो। मेरा ध्यान वहीं लगा रहा। काम रुक गया। कपड़ा, सुई-धागा किनारे पड़ा रहा। सांसें फूलती रहीं। लग रहा था जैसे वह दृश्य बार-बार मेरी आंखों के सामने घट रहा है।

कुछ देर बाद उधर से आहट आनी बंद हो गई। मेरा मन यह जानने को मचल रहा था कि अब उधर क्या हो रहा है। खुद को मैं ज्यादा देर रोक न पाई। दूसरी तरफ कमरे में फिर से झांकनें लगी । अब-तक बेटा मां की छाती पर ही दूध पीता-पीता सो गया था। दोनों अब भी खुसुर-फुसुर अंदाज में बातें कर रहे थे। जो काफी हद तक मैं सुन और जो समझ भी रही थी, उससे बदन में सनसनाहट महसूस कर रही थी।

अचानक मां ने बेटे को फिर दीवार की तरफ सुरक्षित लिटा दिया। मियां-बीवी एक दूसरे की बाहों की गिरफ्त में मोहब्बत भरी बातें, हरकतें करते रहे। दोनों के बीच इस बेइंतिहा मोहब्बत को देखकर मैं सोचने लगी कि, दोनों कितने खूबसूरत मुकद्दर वाले हैं। ज़ाहिदा  कितनी खुशनसीब है कि, उसे इतना मोहब्बत करने वाला शौहर मिला है, और मुकद्दर यह भी देखो कि बेपनाह हुस्न भी उसे मिला है। एक बच्चे की मां हो गई है, लेकिन कैसी बला की खूबसूरत लग रही है। और मियां! वह भी उससे कहीं कम नहीं है। मेरी नजर ज़ाहिदा से कहीं ज्यादा उसके मियां रियाज़ पर ही ठहर रही थी।

उन दोनों को पता नहीं आसमानी या कि जिस्मानी जो भी गर्मी थी, वह इतनी ज्यादा थी कि वह अपने कपड़े नहीं पहन रहे थे। मेरी जिस्मानी गर्मी भी मुझे बेहद तकलीफ दे रही थी। उसके शौहर के कारण यह बेइंतिहा बढ़ती ही जा रही थी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं वापस आकर अपनी जगह बैठ गई। अपनी उखड़ी-उखड़ी सांसों को संभालने की कोशिश करने लगी । पानी भी पी लिया जिससे कि, जल्दी से जल्दी दिल की धक-धक करती आवाज बंद हो। कहीं यह अम्मी और इस खुशनसीब जोड़े के कानों में न पड़ जाए। मैंने कुछ देर बाद जमीन की तरफ की गई लाइट को फिर सीधा किया कि, चलूं कपड़े पर अधूरा छूट गया डिज़ाइन पूरा करूं, नहीं तो सवेरे अम्मी को क्या जवाब दूंगी ।

फ्रेम लगा कपड़ा, सुई धागा उठाया, लेकिन उंगुलियां हरकत नहीं कर पा रही थीं। तन-मन खुशनसीब जोड़े रियाज़-ज़ाहिदा के पास से हट ही नहीं पा रहे थे। ज़ाहिदा की खुशनसीबी से अपने को तौलने लगी कि, इसमें मुझ में फ़र्क़ क्या है। इसका नसीब ऐसा और मेरा ऐसा क्यों है। बिल्कुल टूटे आईने सा। क्या कमी है मुझमें। मैंने महसूस किया कि, जैसे मेरे शरीर में अजीब सी थरथराहट बराबर बनी हुई है। उधर दूसरी तरफ कमरे से अब कोई आहट नहीं मिल रही थी। मेरी उत्सुकता फिर बढ़ी कि, अब उधर क्या हो रहा है?

देखा तो फिर देखती ही रह गई। पूरा परिवार, पूरे सुकून से गहरी नींद में सो रहा था। बच्चा दीवार की तरफ था। उसके बाद बीच में उसकी मां ज़ाहिदा और फिर उसका वालिद रियाज़ । मैं एकटक देखती रही। मन ही मन कहा ज़ाहिदा तू कितनी खूबसूरत मुकद्दर वाली है। मुझ से पांच-छः साल छोटी ही होगी, और ऐसा कौन सा सुख है जो तेरी झोली में नहीं है। मेरी नजर बड़ी देर तक ज़ाहिदा के शरीर पर ऊपर से नीचे तक, बार-बार सफर करती रही। बगल में ही रियाज़ पर मेरी नजर बस एक बार ही सफर कर पाई।

मैं ख्यालों में खोई रही कि, ज़ाहिदा मुझसे कहने भर को ही थोड़ी सी ज्यादा गोरी है। उसके अंगों से अपने अंगों का मिलान करती हुई मैं बैठ गई। मुझे लगा कि, जैसे वह दोनों भी सोते हुए अपने बिस्तर सहित मेरे कमरे में आ गए हैं। दोनों ही अब भी एकदम पहले ही की तरह लेटे हुए हैं। गर्मी से बचने के लिए अपने सारे कपड़े अब भी एक बक्से पर फेंके हुए हैं।

मन में आते ऐसे तमाम ख्यालों का ना जाने मुझ पर कैसा असर हुआ कि, मैंने भी अपने एक-एक करके सारे कपड़े निकाल फेंके, कमरे के दूसरे कोने में। मैं ज़ाहिदा से अपने अंग-अंग का मिलान करके, अपने तन की वह खामी मालूम करना चाहती थी, जिसके कारण मुझे उसके जैसा सुख नसीब नहीं था। मैंने रोशनी अपनी तरफ करके, शीशे में पहले अपने चेहरे का मिलान किया। अपनी आंखें, नाक, होंठ और अपनी घनी ज़ुल्फ़ों का भी। यह सब मुझे ज़ाहिदा से बीस नहीं पचीस लगीं। गर्दन, छातियों पर नजर डाली तो मैं देखती ही रह गई। बड़ी देर तक। एकटक। वह मुझे जाहिदा की छातियों से कई-कई गुना ज्यादा खूबसूरत नजर आ रही थीं।

ज़ाहिदा से ज़्यादा बड़े, ज़्यादा भूरे लट्टू एकदम तने हुए। पूरी छाती उससे भी कहीं ज़्यादा सख्त, मानो संमरमर की किसी खूबसूरत इमारत पर अगल-बगल दो खूबसूरत संगमरमरी गुम्बद हों।अपने संगमरमरी गुम्बदों को देख-देखकर मैं ना जाने कैसे-कैसे ख्वाब देखने लगी । हद तो यह कि मैं उन्हें छेड़ने भी लगी। इससे ज़्यादा यह कि मैं अजीब से खूबसूरत एहसास से गुजरने लगी। मेरे खुद के हाथ मुझे अपने ना लगकर ऐसे लगने जैसे कि रियाज़ के हाथ हैं। वह ज़ाहिदा के पास से उठकर मानो मेरे पास आकर बैठ गया है। एकदम मेरे पीछे और मुझेअपनी आगोश में समेटे हुए है। उसके हाथों की थिरकन के कारण मैं आहें भर रही हूं। ज़ाहिदा से भी तेज़ ।

उफ़ इतनी तेज़ गर्मी कि, मुझे गुम्बदों पर पसीने की मोतियों सी चमकती अनगिनत बूंदें दिखने लगीं । जो एक-एक कर आपस में मिलकर, धागे सी पतली लकीर बन गुम्बदों के बीच से नीचे तक चली गईं। फिर देखते-देखते गोल भंवर सी गहरी झील में उतर गईं। मुझे वह ज़ाहिदा की नदी में पड़ीं भंवर सी बड़ी नाभि से भी बड़ी और खूबसूरत लगी। और नीचे गई तो वह लकीर घने अंधेरे वन से गुजरती एक खोई नदी सी दिखी। वह भी ज़ाहिदा की नदी से कहीं... ओह, जो ज़ाहिदा सी खूबसूरत जाँघों के बीच जाने कहां तक चली जा रही थी।

मैं खुशी से फूली जा रही थी कि ज़ाहिदा हर बात में मुझसे पीछे-पीछे और पीछे ही छूटती जा रही है। मारे खुशी के मैं इतने पर ही ठहर नहीं सकी, खुद को रोक नहीं सकी। घूम कर पीछे देखने लगी अपने नितंबों को, जो उससे भी ज़्यादा गोरेऔर सख्त नज़रआ रहे थे। बनावट ऐसी जैसे कि, तेज़ बारिश में पानी का बना कोई बड़ा सा बुलबुला। जिसे रियाज अपने कठोर हाथों से पिचकाने की कोशिश कर रहा है, उसे दबोचना चाहता है, लेकिन वह कर नहीं पा रहा है। वह फिर-फिर वैसे ही होते जा रहे हैं। वह ज़ाहिदा के बुलबुलों से कहीं बहुत ज़्यादा खूबसूरत हैं।

मैं ज़ाहिदा की हर चीज से कहीं ज़्यादा खूबसूरत, अपनी खूबसूरती से रात भर बात करती रही। अपना दुख उनसे बांटती रही। पूछती रही कि मुझे ज़ाहिदा सी खुशी क्यों नहीं मिलती। और फिर किसी समय थक कर सो गई। सवेरे-सवेरे अम्मी की चीखती आवाज ने जगाया। तड़प कर उठ बैठी और अपने कमरे का नजारा देखकर कांप उठी।

कमरे की लाइट जल रही थी। फ्रेम में लगा कढाई वाला कपड़ा दूर पड़ा था। मेरे तन के सारे कपड़े सामने दीवार के पास उनसे टकरा-टकरा कर इधर-उधर पड़े हुए थे। अपने को उस हाल में देख कर मैं खुद से ही शर्मा गई। जल्दी-जल्दी कपड़े पहन कर अम्मी के पास गई। सवेरे-सवेरे ही झूठ बोल दिया कि, देर तक कढाई करती रही। बंद कमरे में कल गर्मी बहुत थी, इसीलिए सो नहीं पाई। सवेरे राहत मिली तो आंख लग गई। थोड़ी देर बाद आकर मैंने कमरे का बाकी हुलिया ठीक किया। सारा दिन बिना रुके मैं रात में छूटा काम पूरा करती रही।'

अपने ही शरीर के ऐसे बिंदास वर्णन से बेनज़ीर मुझे जितनी गजब की किस्सागो नज़र आई उतनी ही गजब की बोल्ड लेडी भी। मैं सच में उनसे इतना इंप्रेस हुआ कि, मंत्रमुग्ध होकर उन्हें एकटक देखता-सुनता, एकदम खो सा गया, तो उसने कहा, ' कहाँ खो गए, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?' उनके इन प्रश्नों से मैं जैसे नींद से लौट आया। मैंने कहा, 'मैं आपकी कमाल की किस्सागोई में खो गया था। आपकी बोल्ड पर्सनॉलिटी ने ऐसा जादू कर दिया कि आपको एकटक देखता रह गया। यह भी भूल गया कि लाइफ में मैनर्स की भी अपनी एक इम्पॉर्टेंस है।'

मेरी यह बात पूरी होने से पहले ही वह खिलखिला कर हंस पड़ीं । उनकी हंसी से मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। उससे मुक्ति पाने के लिए मैंने जल्दी से वह प्रश्न पूछ लिया जो मन में तब खड़ा हुआ था, जब वह अपनी बातें बिना संकोच कहे जा रही थीं। मैंने भी उन्हीं की तरह बोल्ड होते हुए पूछा, ' तो यह वह क्षण थे जिसमें आप जीवन में पहली बार स्त्री-पुरुष संबंधों को पहली बार जान-समझ और हां देख भी रही थीं ।'

'नहीं, समझ तो पहले से ही रही थी। काफी पहले से। देख पहली बार रही थी। वह महज इत्तेफाक ही था। नहीं तो ऐसा भी वाकिया होगा, यह कभी सोचा भी नहीं था। और कभी ख्वाबों में भी यह नहीं सोचा था कि, किसी को बताऊँगी भी, वह भी इस तरह ...।'

'हस्बैंड को भी नहीं बताएंगी, क्या यह भी नहीं सोचा था।'

' हाँ, बिल्कुल नहीं सोचाा था कि, कभी हसबैंड को भी बताऊँगी। उनके बाद आप दूसरे व्यक्ति हैं जिसे यह सब बताया।'

मैं उनकी बातें सुन रहा था और रह-रह कर मेरे दिमाग में बरसों पहले खुशवंत सिंह की पढी आत्मकथा '' सच प्यार और थोड़ी सी शरारत '' घूम रही थी। मैं सोच रहा था कि, यह जिस तरह, जिस-जिस तरह की बातें बता रही हैं, यह सब उपन्यास के बजाय यदि आत्मकथा के रूप में आतीं, तो निश्चित ही यह खुशवंत सिंह की आत्मकथा से भी ज्यादा ईमानदार आत्मकथा होती। लेकिन इनका डर इन्हें इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा, ' हस्बेंड के बाद आप अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें मुझे ही क्यों बताने लगीं ?'

यह सुनकर वह कुछ देर मुझे देखती, कुछ सोचती रहीं फिर मेरे प्रश्न को अपनी हंसी में विलोपित करती हुई बोलीं, ' मैं आपको कुछ बता नहीं रही, आपकी मोनालिशा सी रहस्य्मयी मुस्कान, भेद-भरी चितवन सारी बातें जान ले रहीं हैं ।'

' न कहने का आपका अंदाज, आप ही की तरह बहुत खूबसूरत है । इस प्वाइंट पर आगे बातें होंगी। अभी तो यह बताइए कि, जब रात इतनी हंगामाखेज थी तो आपका दिन कैसा बीता।'

' बताया ना, जी-तोड़ मेहनत करते हुए। इतना कि अम्मी बोलीं, 'अपनी उंगलिओं पर थोड़ा रहम कर। दो घड़ी, थोड़ा ठहर कर सुस्ता ले।' लेकिन मुझे चैन नहीं था। मन ही मन अम्मी को कहती कि, 'उंगलिओं पर रहम करुँगी, तो रात भर क्या किया? तेरे इस प्रश्न का मैं क्या जवाब दूंगी। अम्मी कहीं मेरी चोरी ना पकड़ लें, इस डर से मैं दिन भर भीतर ही भीतर डरती जी -जान से काम में जुटी रही। बीच-बीच में अजीब सी सिहरन से कांप उठती। दुकान भी थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रही। लेकिन जब रात हुई तो फिर वही अफसाना, वही रियाज़, वही ज़ाहिदा और उनकी मोहब्बत भरी दुनिया का गवाह वह कमरा और उनकी चोर गवाह मैं। उनकी दुनिया देख-देख कर ऐसी-ऐसी बातें मन में उठतीं कि, अगले दिन सोच-सोच कर मैं खुद हैरान होती कि, या अल्लाह यह मुझे क्या हो रहा है। यदि किसी की मोहब्बत से लबरेज दुनिया देखना गुनाह है, तो या मेरे परवरदिगार, मुझे मेरे इस गुनाह के लिए बख्श देना।

मगर मेरा गुनाह क्या है? मैं जीवन की सबसे बेहतरीन खुशी के एहसास से महरूम क्यों हूं?और यदि इन अहसासात से महरूम ही रखना है, तो जरूरत ही क्या थी ज़ाहिदा से भी खूबसूरत तन-मन देने की। ज़ाहिदा से खुद का मिलान, रियाज़ के साथ अजीब से खयालों में खोना, जैसे कि ज़ाहिदा की जगह खुद को उसके आगोश में खोते देखना और फिर काम, मतलब कि चिकनकारी का पीछे-पीछे, काफी पीछे छूटते जाना, परिणाम यह हुआ कि जल्दी ही घर की माली हालत और भी बुरी हालत में जा खड़ी हुई ।'

इतना कह कर बेनज़ीर अचानक ही चुप हो मुझे देखती हुई बोलीं, ' एक बात बताइए, जब मैं अपनी बात कहने लगती हूं, तो आप एक स्टेच्यू की तरह मुझे इतना गौर से क्यों देखने लगते हैं? ऐसा क्या है मेरे इस चेहरे पर कि आप स्टेच्यू बन जाते हैं।'

मेरे जेहन में कहीं अहसास था इस बात का कि, वो ऐसा पुछेंगी, लेकिन कोई जवाब मैंने तैयार नहीं किया था। परन्तु प्रश्न आते ही तीर सा जवाब निकल गया कि, ' मैं आपकी अतिशय ईमानदारी, किसी मर्द से भी बढ़ कर साहस से अभिभूत हूं। इतना कि स्टेच्यू कब बन जाता हूं, इसका पता तब चलता है जब आप टोकती हैं। आप जानती हैं कि आप जो बता रही हैं, वह सब इतनी बेबाकी से बताने की हिम्मत बड़े-बड़े हिम्मती, ईमानदार, साहसी भी नहीं कर पाते हैं। खैर मैं ज्यादा बोलकर आपकी कंटीन्यूटी ब्रेक नहीं करना चाहता। इसलिए प्लीज आप आगे बताइये ।'