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किस्से ज़िन्दगी के....

किस्से ज़िन्दगी के....
ज़िन्दगी कभी किस्सों में तो कभी हिस्सों में सिमटी सी रहती है ।
ये किस्से कभी किसी शाम यूँ ही सड़कों पर चलते यादों की रोशनी से उजागर हो जाते हैं
तो कभी लाल बत्ती के हरे में तब्दील होने के इन्तेज़ार में अपनी जगह बना लेते है।
ऐसा ही ज़िन्दगी का एक किस्सा जिससे एक रोज़ मैं कहीं टकरा गई , आपके साथ सांझा करती हूँ।

"अगर ज़िन्दगी क़िस्सों से भरी है , तो खुशियां किसी खोयी हुई वस्तु के वापस मिल जाने पर आए हुऐ उपहार की भाँति है।"
ये किस्सा है उन सर्द रातों का जब मैं अपने प्रोफेशन में इंटर्न करिश्मा वरलानी के नाम से जानी जाती थी। इंटर्नशिप किसी भी मेडिको के लिए बेहद व्यस्त समय होता है। ऐसी व्यस्तता में कुछ छोटी मोटी गलतियां होना मुनासिब होता है। पर कभी कभार जो गलतियां दूसरों के नज़रिए से छोटी जान पड़ती है , हमारे अपने भावनात्मक पहलू से बढ़ी गलती होती है।
एक शाम मै मेरे लिबास में बदन पर एप्रन, जेब मे स्टेथोस्कोप, कंधे पर एक भारी सा बस्ता और हाथ में मेरी दीदी की पहली कमाई से ली हुई फास्ट्रैक की घड़ी पहने होस्टल की मेस की ओर बढ़ रही थी।
मेरे कदमों की चाल से मेरे पेट मे कूद रहे चूहों का अंदाज़ा बढ़ी आसानी से लगया जा सकता था।
मेस में पूछते ही मेरी अक्सर की आदत होती थी मैं मेरा एप्रोन कुर्सी पर , और घड़ी उसकी जेब मे रख दिया करती थी।
उस रोज भी कुछ मैं अपनी आदत के साथ ही आगे बढ़ी और अंततः अपने भूख को शांत किया ।
अगली सुबह वही अपने दिनचर्या के साथ मुझे हस्पताल के लिए निकलना था । अपनेआप को आज के दिन के लिए तैयार किया , बस्ते में हर ज़रूरत के सामान रखे और अब बस किसी की कमी थी तो वो थी घड़ी । उसे लेने जैसे ही मेरा दराज के पास जाना हुआ , यकायक मुझे एहसास हुआ जैसे घड़ी , घड़ी अपने स्थान पर नही है । अरे कहाँ गयी,, यही अपनी जगह ही तो होती है,, घबराई हुई सी मैं,, पर अभी के लिए निकलना है ,, के भाव के साथ अपना कमरे और भावनाओं को ताला दिया ।
रास्ते भर मैं उस घड़ी की कीमत को याद करती रही ।
दीदी .....उसकी पहली कमायी और उससे मिली घड़ी.... उस घड़ी की खुशी मानो जैसे बड़ी बहन ने घड़ी नही अपना वक़्त ही मेरे नाम कर दिया हो। कही किसी भी परीक्षा में या अच्छे काम मे खुदको तैयार करते हुए कलायी पर घड़ी बांधना मानो उसके साथ हो जाने जैसा ही लगता ।
अभी भावनाओ के सागर में मैं गोते लगा ही रही थी कि कदम मेरी मन्ज़िल तक पहुंच चुके थे कानों में आवाज़ पहुंची , गुड़ मोर्निंग मैडम ,, आवाज़ के साथ ही मेरा वर्तमान से तालुकात हुआ मैं नमस्कार कर अपने काम लग गयी।
शाम ढली कमरे में जाते ही मानो घड़ी ने अपना यह वक़्त तय कर रखा था ,
चारों ओर जहाँ सम्भव था घड़ी का हो सकना, या कहो जहाँ सम्भव भी ना हो मैने हर जगह देखा ।
पर कहते है जिसे वापस आना ही होता तो शायद वो कभी जाता ही नही , उस वक़्त वो घड़ी मेरे किसी कभी न लौट सकने वाली उस कल्पना मात्र ही थी जिसकी लौट आने की उम्मीद बेबुनियादी हो।
मुझे अब तक एहसास हो चुका था मैं मेरे पास की बेहद बेशकीमती चीजों में से एक को हमेशा के लिए खो चुकी हूँ।
होने को मात्र अब बस एक मलाल ही था मेरे पास इसके सिवा और कुछ नहीं।
जैसा कि एक मनुष्य का स्वभाव होता है अपने दिलों दिमाग की बातों को बार बार ज़ुबान और चहरे के भावों में ले आना का मेरे साथ भी कुछ वैसा ही कई दिनों तक चला ।
मेरे ऐसे बर्ताव को देख कई लोगो ने टोका ....अरे हस्पताल में हमारे तो कई बार मोबाइल चले गए ,क्या फर्क पड़ता है नया आ जायेगा ।
पर मेरे लिए वो कोई आम घड़ी नही बल्कि यादो का एक ऐसा पुंज थी जो अपने 12 घण्टों के चित्र मात्र से मुझे दीदी के साथ बिताया हुआ बचपन का हर लम्हा लौटा देने मात्र की काबिलियत रखती थी।
वो घड़ी मात्र मुझे वर्तमान नही बल्की पूर्व का भी एहसास देने में समर्थ थी।
अब दीदी की शादी हो चुकी थी, उसके चले जाने से घर का जिम्मेदारियों का जो बोझ मुझ पर था उससे वो मुझे बेइंतेहा होनहार और परिपक्वता की ओर अग्रसर समझने लगी थी,, मैं मिली हुई इस पदसवी को खोना नही चाहती थी , इसीलिए इस बात को ना कहना ही ठीक समझा।
कहते है ना वक़्त अपने साथ हर छोटा बड़ा गम दबा देता है, या काहो उसके साथ ही जीना सीखा देता है
मेरे साथ भी कुछ यूँ ही हुआ ,
एक दिन करीबन फिर किसी सर्द शाम में मेरी भूख ने कदमों की चाल को तेज कर रखा था और दिशा मात्र मेस की ओर ।
तब ही मैने हाथ मे पड़े कुछ निजी सामान को रखने के लिए बस्ते का एक ऐसी चेन खोला जो मैं अक्सर कम ही खोला करती थी ।
जैसे ही उस पॉकेट पर हाथ गया , मानो उस छोटी सी पॉकेट ने इनकार जाताया , वहाँ जगह की कमी बता कर
मैने वहां मौजूदा सामान को देखने के लिये जैसे ही हाथ रखा, और मदहोशी में उस वस्तु पर नज़र की.....
बस मेरी नज़रें मानो मेरा साथ देने से इनकार कर चुकी थी
खुशी से फैले मेरे होठ जैसे सीमाएं भूल चुके हों
मैं मग्नता में झूम उठना चाहती थी
यह वही घड़ी थी जो मेरे लिए मेरी दीदी का दिया हुआ बेश्कीमती वक़्त था ।
उस समय मुझे यह एहसास हुआ की जब तक वो घड़ी मेरे पास थी मात्र दीदी की याद या दीदी का प्यार था पर
उसका खो जाना मुझे उससे उसके भावनात्मक जुड़ाव को भी बता गया।
और वापस आना ज़िन्दगी का एक सबक़ दे गया ,
अक्सर हम ज़िदगी की भाग दौड़ में अपने आस पास की चीजों को महसूस करना भूल जाते है,
शायद ज़िन्दगी में कुछ चीजें पल भर के लिए बस अपनी कीमत दिखाने के लिए हमसे कुछ पल के लिए दूर हो जाती हैं
शायद वो घड़ी मुझसे उन पलों के लिए दूर नही होती तो मैं अपने व्यस्तता भरे जीवन मे समझ ही नही पाती इस एक छोटी सी चीज ने दीदी और मेरे बीच किलोमीटर की दूरीयों को दिल की नजदीकियों में समेट सा रखा है।
ज़िन्दगी में खुशियाँ... किसी लौट आयी अपनेपन की घड़ी की भाँती होती है ,
खुशी का वो एक कारण आज भी अक्सर उसकी शांति से चलती ,धुनकार करती, सुइयों के साथ मुझे अपने प्यार में समेट देता है ।। किसी वक़्त ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी अंधकार की ओर खींचती सी जा रही है
घड़ी मुझे अचानक कभी मिलने वाली खुशी की एक उम्मीद से रूबरू कर देती है
और अंदर से आवाज़ आती है
वो खुशी से झूम उठने वाली शाम फिर आएगी।।।