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चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर - 17

चन्देरी-झांसी-ओरछा-ग्वालियर की सैर 17

Chanderi-Jhansi-Orchha-gwalior ki sair 17

सुबह बच्चों से पूछा कि झांसी में क्या देखना चाहेगें तो एकमत होकर सबने कहा कि झांसी का किला । हम लोग आठ बजे जीप में बैठे और पुराने बस स्टेड के पास स्थ्ति ऐतिहासिक झांसी के किले को देखने जा पहंचे ।

यह किला भारत की आजादी की पहली लडाई में एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा था।

यह किला एक उंची पहाडियां पर बनया गया था। कहते कि इसे ओरछा के बंुदेला राजा वीर सिंह देव ने बनवाया था। किले में सेना रहती थी । सरकारी दरबार और जेल बगैरह भी किले के भीतर होती थी। जब दुश्मन हमला करता था तो नगर की जनता किलेमें शरण लेती थी। वैसे किले की पूर्व दिशा में नजर बसा हुआ था। राजा भी इसी नगर मे निवास करते थे यानि कि झांसी के किले में केवल फौज रहती थी।

नगर के चारों और एक बाउड्रीवाल थी, जिले कि परकोटा कहा जाता है ं। परकोटे मे अनेक दरवाजे थें। ये दरवाजे शाम होते होते बंद हो जाते थे । इन दरवाजेां मे खंडेराव गेट, दतिया दरवाजा,लक्ष्मी गेट,सेंयर गेट, माडोर दरवाजा, बड़ागांव दरवाजा आदि दरवाजे प्रसिद्व हैं ।

हम लोग किले के बडे़ फाटक से भीतर प्रवेश किया तो एक लंबा गलियारा सा चला गया जिसके दोनांे और उंची दीवार थी। आगे जाकर एक मैदान सा दिखाई दिया। दांयी ओर पंक्तिबंद्व कोठरियां बनी हुई थी। कोठरियों के उपर चढे और उस पार झांका तो सामने ही पुलिस कोतवाली से लेकर जिले तक की पहाड़ी की चढ़ाई खाली थीं।

किले के परकोटे की चौड़ी दिवाल थी हम लोग टहलते हुए आगे बढ़े, तो एक बुर्ज आया। बुर्ज यादि दीवार का वह हिस्सा जहॉं दीवार गेाल सी होजाती है, और चौड़ी भी हो जाती है। लड़ाई के समय इस तरह के बुर्ज पर रख कर तोप चलाई जाती थी । बुर्ज के बाद हम परकोटे पर ही चलते हुए आगे बढ़े । लगभग सौ मीटर की सीधी दीवार के बाद एक छोटा दरवाजा था जिसमें होकर नीचे पहाडी की धाटी के बाहर की तरफ सीडियां बनी हु ई थी

दरवाजे के बाद परकोटा और उंचा हो गया थां। यहीं कुछ दूरी पर हमारा राष्ट्रीय ंितरंगा लहरा रहा था। पूछने पर पता चला कि दो की आजादी के बाद झांसी के किले मे सेना की एक टुकडी रख दी गई थी। सेना सुबह रोज भारत का राष्ट्रीय झण्डा तिंरगा फहराती थीं। पिछले दिंनो सेना तो किले मे से हट गई पर तिरंगा अब भी फहरायाजाता है ।

यह वही जगह थी, जहॉं रानी लक्ष्मी बाई ने किले के परकोटे के उपर से अपने घोड़े पर सवार होकर छलांग लगाई थी।

सन्नी ने रानी लक्ष्मी बाई की कहानी पढ रखी थीं। रानी का नमा याद आते ही उसने संक्षेप में बताया कि झांसी की रानी के नाम से प्रसिद्व होने वाली रानी लक्ष्मी बाई के कोई संतान नही हुई थी। तो उन्हांने दामोदर नामक एक बच्चे को गोद लिया था। रानी के पति बहुत बिमार थे, इस वजह से अचानक उनका निधन हो गया , तेा अग्रेंज ने राजा को बिना संतान मरा माना। अपनी हडप नीति के तहत अंगेंज ने झांसी के राज्य अग्रेंजी राज्य मे मिलाने की घोषणाकर दी तो रानी को बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने भी गुस्सा होकर कहा मैं अपनी झांसी नही दूंगी ।

लक्ष्मीबाई ने अपने दूत वहां भेजे, जहॉ जहॉं अ्रंग्रेंजो का विरोध हो रहा था। जगह जगह के क्रातिकारियों ने रानी का समर्थन किया ।

रानी लक्ष्मी बाई ने बचपन से ही युद्व करने की कला सीखी थी। उन्होंनेअपने सेनापति और सैनिका को लउाई के लिए तैयार किया । झांसी के किले मे सेना, रानी और जनता इकट्ठी होंगई । अंग्रेजों ने किला घेर लिया तो रानी की सेना उनसे भिड गई।

जब रानी के मुट्ठीभर सैनिक अंग्रेजों के मुकाबले कम पड़ने लगे तो सेनापति की सलाह पर रानी ने झांसी छोड़ने का निर्णय लिया और अपने दत्तक पुत्र दामोदरराव को पीठ पर बांध कर अपने प्रिय घोड़े पर सवार होकर झांसी का किला छोड़ दिया। किले की दीवार से छलांग लगाकर घोडा नीचे कूदा और तेजी से दौड़ता चला गया । अंग्रेजों में रानी का पीछा किया पर रानी के साथ चल रही सैनिकों की टुकड़ी ने उन्हे मार गिराया। अपने दूसरे क्रांतिकारी साथियों से मदद के लिए काल्पी कानपुर की तरफ बढती चली गई । बाद में कालपी मे रानी का झांसी वाला थका हुआ घोडा बदला गया क्योंकि पुराना घोडा थक चुकाथा। कालपी मे राजा के मित्र राजा मिले जिन्होने रूकने का अनुराध् किया लेकिन रानी केवल एक रात रूकी और वहां से ग्वालियर कीतरफ चलदी क्योंकि ग्वालियर का किला पहाड़ी के उपर था जहां रानी ज्यादा सुरक्षित थी और संभावना थी कि ग्वालियर के महाराजा सिंधिया भी मराठा होने के कारण रानी की मदद करेंगे। के बाद सैना की एक टुकड़ी भी रानी के साथ चल पड़ी थी रानी ग्वालियर आई। ग्वालियर में किले के दरवाजे खुले पड़े थे और ग्वालियर पर कब्जा करने के बाद रानी कुछ दिन तक रूकी रही। एक दिन जब पता लगा कि आगरा में बहुत से क्रांतिकारी रूके हुए हैंतो रानी अपने कालपी वाले घोड़े पर बैठ कर पहाड़ी से नीचे उतरी और बस एक दो मील ही चली थी यानि कि आगरा की तरफ जाने के लिए निकली ही थी कि स्वर्णं रेखा नाले के पास रानी का घोड अड गया। अंग्रेजो ने रानी को घेर लिया था और सबने एक साथ मिलकर अकेली रानी पर हमला कर दिया। बेचारी रानी कुछ ही देर मे घायल होकर गिर पडी।

सन्नी का सुनाया हुआ किस्सा सुनकर सब बच्चों के चेहरे उत्साह दिखाई देने लगा था परकोटे से उतार के हम नीचे मैदान में आये तेा सामने ढेर सारे खंण्डहरों के बीच एक बड़ा सा सजा धजा बड़ा हॉल नुमा कमरा दिखा जिसकी दीवारों पर सोने जैसी पीली चमक से बहुत से चित्र बने थे और कमरा अब भी ऐसा लगता था कि इस कमरे का उपयोग किया जाता है। हम लोग उस कमरे के पास पॅहुचे ।उसकी बनावट बहुत कलात्मक तरीके की थीं। मैंन बताया कि यह वहॉ हाल रानी दरबार के काम आता था।

झण्डा वाली जगह से थोडा आगे हमको एक पगडंडी दिखी तो दूसरे पर्यटकेां के साथ हम भी उधर बढे। यह पंगडडी नीचे उतर रही थी। और नीचे जाकर एक मैदान सा था। सामने ही एक कुंआ सा दिखरहा था। कुंआ के दोनो और दो बडे़ खंभे बने थे। दोनो खंभों के बीच एक खूब मोटा लोहे का गार्डर लगा हुआ था। विदेषी पर्यटकों का एक झंण्ड उस कुए को बडे़ गौर से देख रहाथा। एक गाईड उन्हें बतारहा था कि यह फांसी स्थल है । इस गार्डर में रस्सों का फंदा डालकर अपराधी के गले फांसी दिया जाता था और कुंए पर लकडी के तख्ते रखे रहते थे यह लकडी के तखते हटाते ही अपराधी के गले में फासी का फंदा फस जाता था तो अपराधी फांसी पर लटकने लगता था।

अभिशेक ध्यान से उस गाईड की बात सुन रहा थां। वह मुझसे बोला ‘‘मामाजी किसी अपराधी की जान लेना भी एक अपराध है न। क्यों नही ऐसे लोगो को सुधरने का मौंका दिया जाये।’’

मुझे यह बात बहुत उचित लगी तो मैने कहा कि अब हमारे देश में फांसी की सजा बहुत जालिम अपराधी को ही दी जाती है ।

इस कुंए के पास में ही एक चोथी दीवार रास्ता रोकें खडीथी। इसी दीवार में एक छोटा द्वार भी था। आगे बढकर मैंने झांका तो सामने गहरी घाटी जैसी दिख रही थी जिसमें छोटा मोटा जंगल सा दिख रहा था। दरवाजे से ही लगकर नीचे सीडियां जाती दिखी, मैं एक दो सीढियां उतरा तेा खूब उजाला दिखा । पता लगा कि यह जगह रानी का पुजा करने का स्थान है । चारों ओर से दीवारो से घिरा हुआ यह एक छोटा सा नीचा आगन था, जहॉं खुब सारे पेड़ो के बीच एक सुंदर का शिव मंदिर था। मेरे इशारे पर बच्चे नीचे उतर आये।

वह आंगन छोटा सा था बड़ा सांफ था बीचों बीच षिवलिंग और दूसरे देवी देवताओ का छोटा शिवमंदिर था। यह जगह बडी मनोरम थी।

मंदिर वाले आंगन से बाहर आकर हम लोग झांसी का किला छोड़ कर बिलकुल बाहर आ गये। यह एक चौराहे जैसी जगह थी पता लगा कि यह मिनर्वा चौराहा कहलाता है। यहां नगर निगम झांसी ने कृत्रत्रिम तोप बना कर रख दी है जिसे कड़कवीन नाम दियागया है। यह उसी तोप को नाम था जो कि रानी ने अंग्रेजों से घिर जाने केबाद खुद चलाते हुए अंग्रेज सेना का मुकाबिला करते हुए चलाई थी।

बच्चों ने कुछ खाने की इच्छा व्यक्त की तो हम लोग नाश्ता करने के लिए मानिक चौक मे जा पहुंचे । जलेबी और समोसे का भरपुर नाश्ता करके बच्चों ने तृप्ति की डकार ली और बोले कि झांसी में अब और कुछ नही देखना, दतिया चलते हैं ।

कुछ देर बाद ही जेल चौराहे से अपने लॉज में पहुंचकर वहां से अपना सामान उठाकर हम लोग जब ग्वालियर रोड पर आगे बढना श्ारू कर रहे थे। तो बुंदेलखण्ड डिग्री कॉलेज दिखा , हमने बताया कि यह कॉलेज वह है जहां सशस्त्र क्रांतिकारी भगवारदास माहौर ने शिक्षा ग्रहण की और यहीं अध्यापक भी रहे। माहौर वे का्रंतिकारी है जो चंद्रशेखर आजाद के साथी थे।

झांसी- उत्तरप्रदेश का प्रसिद्ध नगर झांसी दिल्ली से मुम्ब्ंई जाने वाली रेल लाइन पर ग्वालियर और भोपाल के बीच में पड़ता है। यहां का निकटवर्ती हवाई अडडा खजुराहो 125 किलोमीटर और ग्वालियर का महाराजपुरा 115 किलोमीटर है।

पहुंचने के साधन- झांसी पहुंचने के लिए रेल मार्ग सर्वोत्तम है, दिल्ली से मुम्बई जाने व आने वाली सभी रेलगाड़ियां यहां रूकती है, तो कानपुर लखनउ से एक रेल मार्ग झांसी से जुड़ा है तो तीसरा रेल मार्ग मानकपुर - इलाहाबाद से भी झांसी को आता है। सड़क मार्ग से भी झांसी नगर कानपुर,इलाहाबाद,लखनउ,शिवपुरी, ग्वालियर आदि नगरों और पर्यटन स्थलों से जुड़ा हुआ है जहां से कि बस या निजी वाहन से आया जा सकता है।

क्या देखने योग्य -झांसी में रानी झांसी का किला, रानी महल, संग्रहालय और यहां से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा व 125 कि.मी.दूर खजुराहो देखने योग्य प्रसि़द्ध स्थान है।

ठहरने के लिए- झांसी में ठहरने के लिए उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग का होटल वीरांगना, उत्तरप्रदेश सरकार के विश्रांतिगृह और दर्जन भर से ज्यादा थ्री स्टार होटल है

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