Barah panne - ateet ki shrinkhala se - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से पार्ट २

मुझे तो आज भी ऐसा लगता है मानो कल की ही बात है जब सुरनगरी के अपने इस नए घर में मैंने पहली बार कदम रखा था और नल खोल कर पानी बरसाया था ।कोई भी जब पूछता, गुड्डी क्या कर रही हो ? तो मेरा जवाब होता- मी बरछा रही हूँ । आज भी अपने बचपन का वो पल मेरी आँखो में बसा है और शायद उसी पल ने मुझे बारह पन्ने लिखने को प्रेरित किया ।

सोचती हूँ बीते वक्त की परछाइयों से सुकून से भरे कुछ ख़ूबसूरत पल चुरा लूँ ।स्मृति के आइने पर जो वक्त की धूल पड़ी है उसे हटाकर कुछ देर फिर से बचपन के कुछ पलों को को जी लूँ ।ममता की छाँव में जो बेफ़िकर ज़िंदगी हमने गुज़ारी उसके कुछ पल एक बार फिर दोहरा लूँ ।

हालाँकि शब्दों में बाँधना उन ख़ूबसूरत पलों को ,जो हमने कभी साथ साथ जिए थे ,शायद आसान नहीं होगा , पर कोशिश ज़रूर करूँगी ।

मेरी सुरनगरी कोई सामान्य मोहल्ला नही ये तो एक असाधारण नगरी थी और आज भी है ।वहाँ के तो हर घर से हमारी अनमोल यादें जुड़ी है ।कहाँ से शुरू करूँ कुछ समझ ही नही आ रहा ,अतीत को टटोलना सहज नही होता ,भावनाओं का उद्वेग उमड़ने लगता है ।

बड़ी शांत सरल सी ज़िंदगी थी उससमय हमारी ।सारे मोहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर खेलना कूदना और मस्ती करना ।बड़ी शांति थी ,तब शायद इतना शोर भी नही था ,ना बाहर ना भीतर ,क्योंकि बाहर इतना ट्रेफ़िक नहीं था और घरों में टेलिविज़न नहीं थे ।और इसीलिए हमारे सबके घरों के बीच की दीवारों से खट्टे मीठे से पल तैरते हुए एक दूसरे तक पहुँच जाते थे । अकेलापन और दूरियों को मिटाकर रिश्तों की डोर को और भी मज़बूत बना जाते थे ।

आज भी याद कर मन भावुक सा होने लगा पर अपनी सुरम्य सुरनगरी और वहाँ के लोगों से तो मिलवाना ही है ।हमारे घर के बग़ल में थे गुप्ता जी और उनका परिवार ।बेहद सरल स्वभाव के गुप्ता जी स्कूल में पढ़ाते और अपनी गोरी चिट्टी पत्नी को सिर आँखो पर बैठाते थे ,साथ ही अपने चार बच्चों की देखभाल बस ज़िंदगी का यही मक़सद था उनका ।

हमारी सुरनगरी में उस समय हर घर के अपने नियम क़ायदे थे । दूध को उबालते समय उसके उफान को नीचे नहीं गिरने देना वरना मलाई टूट जाएगी , ये अनोखा फ़ंडा हमने अपनी हमउम्र उनकी बड़ी बेटी सिया से जाना था और उस उम्र में ये बड़ा चमत्कारी अनुभव था । अरे ऐसे भी होता है क्या ? हमें तो पता ही नहीं था । अब हमने कभी अपने घर में दूध उबाला हो तो पता भी हो । माँ ने कभी ऐसे काम करवाए ही नहीं ।पर बचपन की वो बात आज तक याद है ।जब भी दूध उबालने खड़ी होती हूँ याद आ ही जाती है ।तब तो हमारा काम तो था किताबें पढ़ना और खेलना बस ।

उनसे अगला घर था रंजू और संजू का , बड़ी सी बिंदी लगाए ख़ूबसूरत सी उनकी माँ और सरल से अध्यापक उनके पापा ।सब आसपास हम उम्र बच्चे हों तो रौनक़ अपने आप ही बढ़ जाती थी ।

हमारे घर में सबको गाने का शौक़ था । हम बहनो में से कोई एक पंक्ति गाती तो बग़ल से सिया उसी पंक्ति को आगे ले जाती और फिर तीसरे घर यानि रंजू संजू के घर से अगली पंक्ति को गाने की आवाज़ आती और समवेत स्वर गूंजने लगते ,इस तरह हमारा गाना पूरा होता । फिर हमें भला रेडियो की क्या ज़रूरत थी ।ये हमारा तक़रीबन रोज़ का सिलसिला था । बिना टेलीविजन और मोबाइल के ये हमारी ज़िंदगी के मनोरंजन का तरीक़ा था उस समय ।

पर ये सब बहुत समय नहीं रहा गुप्ता जी की असामयिक मृत्यु ने सबको झकझोर दिया सब कुछ बिखर गया । थोड़े समय बाद उनकी पत्नी भी अपने बच्चों के साथ दूसरे घर में चली गई और एक डाल मानो टूट गयी इस वृक्ष की ।

पर कुछ ही समय में इस विशाल वृक्ष में एक नयी कोंपल फूटी और उस घर में आया एक और परिवार । फिर क्या था ?

दीपा और टीटू को साथ लिए ये नया परिवार क्या आया आते ही सबका दुलारा बन गया। दीपा के पापा भी कही बाहर नौकरी करते थे हमारे पापा की तरह ,फिर तो हमारे दोनो घरों का ऐसा मेल हो गया मानो हमारा साँझा चूल्हा हो । हमउम्र के बच्चे वैसे भी ज़्यादा देर नहीं लगाते घुलने मिलने में ।और हम सब तो थे ही बड़े मस्त मौला क़िस्म के , खूब जमने लगी । साथ साथ गाने का वही पुराना सिलसिला अब दीपा के साथ भी वैसे ही जमने लगा ।अब मैं या मेरी बहन एक पंक्ति गाती ,अगली पंक्ति दीपा उठा लेती और रंजू संजू के घर आवाज़ पहुँची नहीं कि उन्होंने भी सुर में सुर मिला दिया और जम गयी फिर से महफ़िल ।

एक दूसरे के घर जाना हो तो कौन भला गेट तक जाने ,खोलने-खुलवाने की जहमत उठाए , बाहर की बाउंड्री की दीवार टापना ज़्यादा सुविधाजनक लगता था तब हमें ! घरों के मुख्य दरवाज़े कोई बंद ही नहीं करता था दिन में ,वो तो रात को ही बंद होते थे ।अब अगर दीपा का छोटा शरारती भाई उसे रसोई में बंद करके बाहर भाग जाए तो हमें खोलने तो जाना ही पड़ेगा ,ऐसे में जल्दी से दीवार ही टापनी पड़ती थी । एक बात है उस समय दीवार टापना भी बड़ा ही मज़ेदार लगता था ।भाई बहनो की इस लड़ाई का मज़ा भी उन दिनो कुछ और ही था ।एक तरफ़ टीटू और दीपा दूसरी तरफ़ मँझली और हमारा छोटा ,अक्सर अपना कमाल दिखाते ही रहते थे ।

दीपा की माँ उसके लिए खाना बनाती और छोटे टीटू जी को हुक्म होता स्कूल खाना पहुँचने का । छोटे जी भी कौन सा कम थे ,अपने पक्के दोस्त रंजू को साथ लिया और चल दिए खाना देने जैसे बड़े काम के लिए । रंजू भले ही टीटू से बड़ा था पर दोनो की दोस्ती बड़ी पक्की थी ,और शरारत करने को उकसाने में रंजू जी की क़ाबिलियत का जवाब नही था ,ख़ुद भोला भाला बनकर ।

होता क्या कि दोनो खाना लेकर चले और रास्ते में नेहरू स्टेडीयम में बैठकर आधा खाना खाया ,टिफ़िन का वज़न थोड़ा हल्का किया और बाक़ी का पहुँचा दिया स्कूल में।दीपा को बड़े दिनो तक ये एहसास ही नहीं हुआ कि उसका खाना कम क्यूँ होता है ।अपनी मम्मी को कहे तो उनका जवाब होता - तू ज़्यादा खाने लगी है तभी खाना कम लगता है तुझे ।और टीटू जी घर आ कर खाना ना खाने के बहाने लगाते तो उन्हें डाँट पड़ती ।फिर होता दीपा और टीटू का झगड़ा ,ऐसी मज़ेदार नोक झोंक उनकी चलती रहती थी ।

इधर मेरा छोटा भाई ही कम शरारती नहीं था जैसे ही मँझली अपना खाना लेकर आती वो उसमें से एक टुकड़ा ज़रूर खाता , बस मँझली आग बबूला हो जाती की उसका खाना झूठा कर दिया और फिर दोनो का झगड़ा शुरू हो जाता । ये उन दोनो का क़रीब रोज़ का सिलसिला था ।

एक बार हमारी मँझली पर गांधीगिरी का जुनून चढ़ा ,बोली आज से मैंने ग़ुस्सा करना छोड़ दिया । मुझे अगर कोई एक गाल पर मारेगा तो मैं दूसरा गाल उसके आगे कर दूँगी । भाई ने सुना तो उसको लगा आज बढ़िया मौक़ा है तो उसने एक तमाचा फट से रसीद कर दिया ।पर हमारी मँझली तो गांधी बनी थी उसने दूसरा गाल आगे कर दिया ,अब क्या था भाई को लगा ऐसा मौक़ा रोज़ कहाँ मिलेगा ? उसने आराम से लेटी मँझली की दूसरी गाल भी लाल कर दी । अब ऐसी उम्मीद तो मँझली को थी नहीं ,उसका पारा चढ़ गया ।इतनी देर में भाई मेरे पास आकर बैठ चुका था और मँझली उठकर मारने की ज़हमत मोल नहीं लेना चाहती थी ,तो मुझसे बोली - ऐ ! रखना ज़रा भाई की गाल पर एक ! मैं किताब पढ़ रही थी ,मैंने बोला - मुझे तुम्हारे बीच नहीं पड़ना ,जो करना है ख़ुद करो ।अब उसे और भी ग़ुस्सा आया पर उठी तब भी नहीं और भाई से बोली - इसकी गाल पर भी एक रख दे ये मेरा कहना नहीं मान रही है । फिर तो सबका झगड़ा होना स्वाभाविक था , भाई मज़े से माँ के पास सरक गया और हम दोनो उलझ गए ।

बड़ी मस्त मौला थी मँझली ,एक बार बाल कटवाने गयी तो अपनी मर्ज़ी से उस जमाने का साधना कट करवा कर चली आयी ।एक बार बोली , मैंने बाल घुंघराले करने सीखे हैं ,अभी करके दिखाती हूँ । मुश्किल से सात आठ साल की रही होगी ,माँ की स्वेटर बुनने की सलाई ली आग पर गरम की और उस पर बालों की लट लपेटी की घुंघराले हो जाएँगे ।पर हुआ क्या कि सलाई ज़्यादा गरम हो गयी और बालों की लट कट कर हाथ में आ गयी ,फिर तो जो माँ से डाँट पड़ी की तौबा ।आज भी हम उस घटना को याद करके बहुत हंसते है ।

और हमारी छोटी पापा की लाड़ली और हम सबकी दुलारी ,बेहद शांत ।कभी किसी से कोई झगड़ा नही बस अपनी दुनिया में मस्त और मँझली की पक्की सहेली ।उन दोनो ने मिलकर बहुत मज़े किए ,दोनो अक्सर निकल लेती थी अपने शहर की पदयात्रा पर जब उनका जी चाहे ।मै भी भले ही सब पर हुक्म चला लेती थी पर उसे कभी कुछ कहा हो याद नही आता ।कितने प्यारे तकरार भरे दिन थे वो भी ।आज हज़ारों मील की दूरी हो गयी हमारे बीच में ,तरसते है मिलने को भी ।ये तो भला हो फ़ेसटाइम का कि रोज़ एक दूसरे को देख लेते हैं ।

हमारे घर में सबको गाने का शौक़ था तो भाई जो हम सबमें सबसे छोटा था ,परिवार की परम्परा का पूरा ध्यान रखते हुए उसने भी बचपन से गाने का शौक़ अपना लिया था ।उन दिनो एक फ़िल्म आयी थी नीलकमल ,उसका एक गाना था बाबुल की दुआयें लेती जा ... भाई ने अपना अलग ही तराना बना लिया और पूरे सुर में ज़ोर ज़ोर से खिड़की में बैठकर गाता - बाबुल की दवाइयाँ लेती जा ....... तब हम खूब हंसते थे ।अब उसका दवाइयों का ही व्यापार है और हम सबको जब बाबुल की दवाइयाँ देता है तो उसका गाना ज़रूर याद करते है ।

उसकी शरारतें भी बड़ी मज़ेदार होती थी ।ख़ुद को बड़ा समझता था बोलता था जब मै बड़ा हो जाऊँगा तो इन सबको अपनी कार में स्कूल छोड़ने जाऊँगा ।सब हंसते थे कि क्या हम सारी ज़िंदगी स्कूल ही जाते रहेंगे पर सच में जब हम पढ़ाने स्कूल जाने लगे तो कई बार हमें अपनी कार से उसने स्कूल छोड़ा और बचपन की बात सच कर दी ।

एक बार की बात है वो मुश्किल से चार वर्ष का रहा होगा ,किसी बात पर नाराज़ हो गया और घर छोड़कर जाने लगा ।अपने नए जूते जो कुछ ही दिन पहले लिए थे अख़बार में लपेटे और घर से जाने के लिए तैयार पर जाते हुए भी झूट मूठ के पैसे माँ को देकर बोला मैं जा रहा हूँ पर इन बच्चों को कुछ फ़ल ला देना बाज़ार से ।कितना हंसे थे सब उसकी इस भोली सी बात पर !

यही तो बचपन की ख़ूबसूरती होती है और ये वक्त जब बीत जाता है तभी बड़ा याद आता है ।इंसान किसी भी वक्त को लौटा लाने को इतना आतुर शायद नही होता जितना बचपन को लौटा लाने को होता है ।ये नादान दिल भी वही पाना चाहता है जिसे कभी पा नही सकता ।