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एक अधुरी प्रेम कहानी

दौलत नगर में एक साहूकार रहता था। उसका नाम मनोहर पंत था। किसी ज़माने में उसके पुरखे जागीरदार थे इसलिए पुरखों की संपत्ति उसे विरासत में मिली थी और वह खानदानी अमीर था। जागीरदारी प्रथा तो कब की खत्म हो चुकी थी पर उसकी रगों में अब भी वो रुतबा कायम था। वो कहावत है ना ‘रस्सी तो जल गई पर ऐंठन नहीं गई।’ उसका दबदबा पूरे जिले में था। वह लोगों को सूद पर रुपए उधार देता था और समय पर कर्ज न लौटाने पर गरीबों का खून चूसता था। उनकी ज़मीनें हड़प लेता, घर नीलाम कर देता था। इतना ही नहीं मजबूर किसानों के मवेशियों को खोलकर अपने घर ले जाता था। खेतों में खड़ी फसल कटवाकर अपना सूद वसूलता था और अंत में कर्ज के नाम पर खेत अपने नाम करवा लेता था। इस तरह से उसने खूब संपत्ति बनाई थी। लोग उससे काफी डरते थे। यदि वह सामने दिखाई पड़ जाता तो लोग उसे राम-राम करने से नहीं चूकते थे लेकिन पीठ पीछे उसकी निंदा करते हुए कहते, “ये यह अत्याचारी कब मरेगा?” पंत दिल का बड़ा कठोर आदमी था। उसके अंदर दया, रहम नाम की कोई चीज नहीं थी।

उसका एक ही बेटा था, जिसका नाम विनायक था। प्यार से लोग उसे विनू नाम से पुकारते थे। बचपन से ही वह कुछ अलग स्वभाव का था। उसे संपत्ति, ऐश्वर्य, रुतबा इत्यादि से कोई विशेष लगाव नहीं था। सादा जीवन, उच्च विचार जैसी जीवन शैली में वह विश्वास रखता था। सब कुछ होने के बावजूद भी वह काफी अकेलापन महसूस करता था। अपने पिता के खिलाफ लोगों की बातें सुन-सुनकर वह अपने पिता से नफरत करने लगा था। स्कूल में भी उसके मित्र ‘अत्याचारी का बेटा’ कहकर उसे चिढ़ाते थे इसलिए उसे अब स्कूल से भी घृणा हो गई थी। उसके इस स्वभाव से उसके पिता काफी परेशान रहते थे। वो उससे कहते कि ‘सोने का चम्मच लेकर तू पैदा हुआ है और भिखारियों की तरह रहता है, इससे तो अच्छा होता कि मैं नि:संतान ही रहता।’ पिता की ये बातें विनू को शूल की तरह चुभती थीं।

धीरे-धीरे पढ़ाई से विनू का मन उचटने लगा। एक दिन उसके पिता बोले, “बेटा, थोड़ा बहुत पढ़-लिख ले ताकि भविष्य़ में अपनी जमीन-ज़ायदाद तो संभाल लेगा। इतनी बड़ी इस्टेट का तू इकलौता मालिक है। जरा मुनीम के पास बैठकर अपनी इस्टेट के काम-काज को समझ ले, आगे चलकर ये जिम्मेदारी तुझे ही संभालनी है।” मगर विनू को तो इन सबसे घृणा हो चुकी थी। वह अपने पिता को जवाब देता, “आपकी इस जमीन जायदाद में कोई रुचि नहीं है, मुझे मेरा वह पिता चाहिए जो एक नेकदिल इंसान हो। लूट की कमाई से मुझे अमीर नहीं बनना है।” अपने पिता से उसे सख़्त नफरत हो गई थी इसलिए हमेशा उनकी मरजी के खिलाफ काम करता था।

विनू की एक बालसखी थी, जिसका नाम सारंगी था। उसका बाप गरीब था। उसने पंत से सूद पर रुपए उधार ले रखे थे इसलिए वह कभी पंत की खिलाफत नहीं करता था। विनू और सारंगी बचपन से ही एक साथ खेल कूदकर बड़े हुए थे, इसलिए उनकी दोस्ती काफी घनिष्ठ थी। इतनी कि एक दूसरे के बगैर रहना उनके लिए मुश्किल हो जाता था।

दोनों अब बड़े हो गए थे इसलिए उनकी दोस्ती को लेकर लोग उंगलियां उठाने लगे थे। इसके चलते पंत ने विनू का सारंगी से मिलना-जुलना बंद करवा दिया। ले-देकर यही एक सुख विनू के नशीब में था, जिसे उसके पिता ने छीन लिया। इस बात से नाराज होकर विनू ने अपना घर छोड़ दिया। उसकी मां को इस बात का काफी दुख हुआ पर पति के आगे वह भी मजबूर थी। पंत ने अपने बेटे से कह दिया था कि यदि घर छोड़कर जाना है तो जा, मगर फिर कभी लौटकर मत आना। मैं आज से अपनी जायदाद से तुझे बेदखल करता हूँ।

गांव के बाहर नदी के किनारे विनू ने अपना डेरा जमाया। वहां वह दिनभर चरवाहों और किसानों के बीच रहता, उनसे गपशप करता, बांसुरी बजाता। चरवाहे उसके लिए खाना ले आते और वे मिल बांटकर खाते थे। नदी के किनारे कदंब का एक पेड़ था, उसी पेड़ के नीचे बैठकर विनू इतनी सुरीली बांसुरी बजाता था कि इंसान तो क्या पशु-पक्षी भी उसकी धुन पर झूमने लगते थे।   इस तरह बांसुरी बजाता देख लोग उसे छोटा कृष्ण कहने लगे थे। कभी-कभी सारंगी छिपते-छिपाते उससे मिलने आ जाती थी। साथ में उसके लिए भोजन भी ले आती और बदले में उससे बांसुरी की धुन सुनती थी। उसकी बांसुरी की धुन में वह पागल हो जाती थी । एक दिन उसने कहा, “क्या तुम मुझे बांसुरी बजाना सिखाओगे?”

विनू ने उसके लिए अलग से एक बांसुरी बनाई और उसे उपहार में दी। उस दिन से सारंगी अपने घर पर उस बांसुरी से सुर साधने का प्रयास करने लगी। मगर उसे वह आनंद नहीं मिलता था जो विनू की बांसुरी से मिलता। उसकी मां उसे बांसुरी बजाने पर डाँटती पर वह भला कहां मानने वाली थी! बांसुरी की धुन में वह किसी और दुनिया में खो जाती। मां से कहती, “देखो मां, एक दिन इसी बांसुरी की धुन की तुम कायल हो जाओगी।”

कई दिन बीत गए। सारंगी, विनू से मिलने के लिए बेताब हो रही थी। उसने मां से इजाजत ली और निकल पड़ी अपने मित्र से मिलने। विनू की इस तरह की जिंदगी से वह बहुत दुखी थी पर कर भी क्या सकती थी! वह भी मजबूर थी। विनू को खोजते हुए वह उस कदंब के पेड़ के पास पहुंची। विनू की पीठ उसकी ओर थी। उसने उसकी आंखें अपनी हथेलियों से बंद कर दी। उस दिन विनू कुछ उखड़ा हुआ था। उसने सारंगी को इतनी डांट पिलाई कि सारंगी के होश उड़ गए। बिना कुछ बोले वहां से भागते हुए वह सीधे घर पहुंची और कई दिनों तक रोती रही।

इस तरह कई दिन बीत गए, वह विनू से मिलने नहीं गई। विनू को भी अपनी इस हरकत पर पछतावा हो रहा था। अब वह रोज नदी की बजाय गांव की ओर मुंह करके बांसुरी बजाया करता  था ताकि सारंगी को आते हुए देख सके।

सारंगी को अब अपनी बांसुरी से ज्यादा विनू की बांसुरी प्रिय लगने लगी थी। वह चाह रही थी कि काश, विनू उसे अपनी बांसुरी दे देता, तो वह उसे जीवन भर यादगार के रूप में अपने पास रखती। मगर उस दिन की घटना से उसे अब डर लगने लगा था। धीरे-धीरे सारंगी और विनू की चर्चा पूरे गांव में फैलने लगी। मनोहर पंत को जब इस बात की भनक लगी तो उसने सारंगी के पिता को बुलाकर धमकी दी कि यदि आज के बाद तुम्हारी बेटी, मेरे बेटे से मिलने गई तो मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोडूंगा।

इस बात का सारंगी पर कोई असर नहीं हुआ। एक दिन उसके पिता किसी काम से शहर गए हुए थे। तब अपनी मां से पूछकर वह विनू से मिलने गई। साथ में खाना भी ले गई। सारंगी को देखकर विनू खुश हो गया। डब्बा खोलकर दोनों ने एक साथ खाना खाया, फिर काफी देर तक वे बातें करते रहे। विनू ने अपने उस दिन की हरकत पर माफी मांगी। सारंग़ी ने माफ कर दिया। विनू आज खुश है, यह देखकर उसने उसे काफी समझाया कि उसे अपने पिता की बात मान लेनी चाहिए और अपने घर में ही रहना चाहिए। इस तरह से नाराज होकर बाहर रहना ठीक नहीं। तब विनू ने बताया कि मेरा बाप जुल्मी है, लोग उसे बुरा-भला कहते हैं। वह पाप करता है, उसने लोगों के साथ अन्याय किया है। मेरा जी अब उस घर में बिल्कुल नहीं लगता। मैं यहीं इसी तरह नदी के किनारे जीते हुए अपना जीवन खत्म कर दूंगा। उसके बाद विनू ने बांसुरी बजाना शुरु किया। बांसुरी की सुरों में सारंगी खो गई और समाधि लगाकर बैठ गई। जब होश में आई तो विनू की बांसुरी लेकर वह खुद बजाने लगी। उसकी बांसुरी बजाने की अदा से वह बेहद खुश हो गया। उसने कहा, “तुम तो मुझसे भी अच्छा बजाने लगी हो।” तब सारंगी ने कहा, “यह तुम्हारी बांसुरी का कमाल है। क्या तुम अपनी ये बांसुरी मुझे दे सकते हो? जीवन भर यह मुझे तुम्हारी याद दिलाती रहेगी, इसके सहारे मैं अपना जीवन जी लूंगी।”

उसका इतना कहना था कि विनू ने रुद्रावतार धारण कर लिया और उसे भला बुरा कहने लगा,  “तुम भी मेरे बाप की तरह स्वार्थी हो, मेरा सुख तुमसे भी देखा नहीं जाता। यह बांसुरी ही मेरा सबसे बड़ा सुख है और तुम इसे छीनने आई हो!” उसका यह रूप देखकर सारंगी घबरा गई और रोते हुए घर की ओर भागी। विनू उसे पीछे से देखता रहा। वह उससे कुछ कहना चाहता था पर सारंगी नहीं रूकी।

इस घटना के बाद सारंगी फिर कभी विनू से मिलने नहीं गई। उसका मन बहुत दुखी हो गया था। इस बीच उसके घरवालों ने उसकी शादी दूर के किसी गांव में कर दी। सारंगी की डोली जब नदी के पास से गुजर रही थी, तब विनू बांसुरी बजा रहा था। उसने चरवाहों से पूछा कि यह किसकी डोली है? तब साथियों ने बताया कि सारंगी की शादी हो गई है और वह अपने ससुराल जा रही है। यह सुनकर विनू के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। इतना सब कुछ हो गया और उसे कुछ पता ही नहीं चला। वह उदास हो गया। मानों उसके जीवन में कुछ बचा ही ना हो। उस दिन से उसने बांसुरी बजाना छोड़ दिया और अपने गुनाहों की सजा खुद को देने लगा।

दिन बीतते रहे। उधर अपने ससुराल में जाकर सारंगी भी बहुत सुखी नहीं थी। उसका मन हर पल विनू के लिए तड़पता रहता था। घर में वह इतना काम करती कि थककर चूर हो जाती।   इस तरह पागलों की भांति काम करते हुए वह अपने आपको खपा रही थी। अपने शरीर को कष्ट देते हुए वह भी एक तरह से सजा भुगत रही थी। अपनी इस मानसिक पीड़ा से गुजरते हुए धीरे-धीरे वह बीमार पड़ गई। ससुराल वालों ने पहले कुछ दिन तक उसकी देखभाल की पर बाद में उसे मायके भेज दिया। मायके में आकर भी वह ठीक नहीं हो रही थी। उसकी मां दवा देती, खाना देती पर वह खाने से मना कर देती। उसे अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उसकी तो जीने की तमन्ना ही खत्म हो गई थी। एक दिन वह अपनी मां से बोली, “मां, एक बार विनू को बुला दो, देखो, मैं सब खाने लगूंगी। उससे दो-चार बातें करूंगी तो शायद मुझे अच्छा लगेगा।” मगर मनोहर पंत के डर से कोई इस काम को करना नहीं चाहता था। दिन-प्रतिदिन सारंगी की तबियत खराब होती चली गई तथा एक दिन उसने अपने प्राण त्याग दिए।

सारंगी के पिता ने नदी के किनारे उसका अंतिम संस्कार किया। लोग जब चले गए तब विनू ने अपने चरवाहे मित्र से पूछा, “ये किसका शव था।” चरवाहे ने बताया, “सारंगी का।” यह सुनते ही विनू के हाथ-पांव ठंडे पड़ गए। चिता जल गई थी पर अंतिम लौ अभी बाकी थी। उस बुझी चिता के पास कई दिनों तक वह गुमसुम बैठा रहा। एक दिन अपनी बांसुरी उस चिता की राख पर रखकर वह अचानक गायब हो गया। कुछ दिन बीत जाने के बाद मनोहर पंत ने विनू की काफी खोजबीन की पर कहीं कुछ पता नहीं चला।

एक दिन अचानक चरवाहों को नदी किनारे से बांसुरी की धुन सुनाई पड़ी। भागते हुए वे उस आवाज की दिशा में गए मगर उन्हें उनका मित्र कहीं नजर नहीं आया। पर उनके कानों में बांसुरी की धुन सुनाई देती रही। भागते हुए वे सीधे गांव पहुंचे और नदी किनारे की घटना बताई। गांव वाले और मनोहर पंत वहां पहुंचे। उन्हें भी बांसुरी की धुन सुनाई दी। एक नहीं बल्कि दो-दो बांसुरी की धुनें। सब कुछ आश्चर्यजनक और अचंभित करने वाला माहौल था। लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे थे। विनू का इस तरह अचानक गायब हो जाने का मतलब वे समझ नहीं पा रहे थे।

एक दिन उस रास्ते से एक महात्मा जी गुजर रहे थे। उन्हें भी नदी के किनारे दो-दो बांसुरी           की धुनें सुनाई दी। इतनी मधुर और मोहित कर देने वाली धुन उन्होंने पहले कभी सुनी नहीं थी। वे उस आवाज की दिशा में गए पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। उन्होंने आखें मूंद ली और अंतर्धान हो गए। कुछ देर बाद अपनी आंखें खोली तो देखा सामने कुछ चरवाहे खड़े थे। उनके पास बैठकर उन्होंने सारी जानकारी हासिल की और विनू तथा सारंगी के पिता से मिलने गांव गए। दोनों परिवारों को बुलाकर उन्होंने सारा रहस्य समझाया और बताया कि विनू अब इस दुनिया में नहीं है, उसने सारंगी की याद में अपने प्राण त्याग दिए हैं।

आत्माओं की शांति के लिए महात्मा जी ने नदी के किनारे होम-हवन और शांति का पाठ करवाया। दोनों परिवारों को अपनी-अपनी गलती का एहसास हुआ। मनोहर पंत तो पूरी तरह से टूट गया। उसे अब अपनी धन दौलत से नफरत होने लगी थी। महात्मा जी के कहने पर उसने प्रायश्चित करने की ठानी और उसी क्षण से सभी किसानों को उसने ऋण मुक्त कर दिया। उनकी ज़मीनें उन्हें लौटा दी और फकीर बनकर उर्वरित जीवन जीता रहा।

गांव वालों ने नदी किनारे दो समाधियों बनवाई और उन पर बांसुरी रखकर अपनी समिधा समर्पित की। कहते हैं कि आज भी कभी-कभी उन समाधिय़ों से उन्हें बांसुरी की मधुर धुनें सुनाई पड़ती हैं।