Benzir - the dream of the shore - 33 - the last part books and stories free download online pdf in Hindi

बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 33 - अंतिम भाग

भाग - ३३

मेरेअब कई-कई घंटे, कई-कई दिन, ऐसे ही दीवार के उस पार ज़ाहिदा के परिवार को सोचते-सोचते गुजरते जा रहे थे। मुन्ना भी अक्सर ऐसी रातों के इस गहन सन्नाटे में मेरे साथ होते। एक दिन उन्होंने कहा कि, यह घर तो अब बड़ा, बहुत ही बड़ा होता जा रहा है। पता नहीं अभी और कितना बड़ा होता जाएगा।'

उनकी इस बात में छिपे, उनके दर्द ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैं अपने को रोक नहीं सकी, कुछ देर चुप रहने के बाद कहा, 'सुनो, अब यह घर और बड़ा नहीं होने दूँगी। जो सोचकर, जिस सपने के साथ इतना बड़ा घर बनाया, उसे उतना ही बनाए रखना है। न छोटा होने देना है, न बड़ा। अपना सपना पूरा करेंगे, बहुत से लोगों की तरह हम भी दो-तीन बच्चे गोद लेंगे।'

'जूही! ...।'

'देखो, मना मत करना। हम अपना सपना पूरा किए बिना ज्यादा दिन जी नहीं सकेंगे। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। वो क्या कहते हैं कि टेस्ट ट्यूब, आई.वी.एफ. वगैरह सब देखा जाए तो एक जुआ ही हैं। डॉक्टर कहे रहे थे कि, कई-कई प्रयासों के बाद कहीं सफलता मिलती है। कई बार तो वह भी नहीं। समय अब बहुत ज्यादा निकल चुका है। अब मैं और इंतजार नहीं कर सकती। बिल्कुल नहीं। अब मान लो मेरी बात।'

'लेकिन तुम तो पिछले हफ्ते सरोगेसी से बच्चे के लिए तैयार हो गई थी। मैं इसके लिए कोशिश में लग गया हूँ ऐसी किसी महिला के लिए, जो इसके लिए तैयार हो जाए।'

'नहीं, अब यह सब छोड़ो, इसमें भी बहुत झंझट है। दुनिया भर के उलझाऊ कानून हैं। कहां ढूढेंगे किसी रिश्तेदार महिला को। भूल जाओ यह सब। अपना लेंगे छोटे-छोटे, दो-तीन बच्चे।ठीक है।'

मैंने अपनी बात पूरी दृढ़ता से कही थी, जिसे सुन कर वह कुछ देर सोचने के बाद बोले, 'मुझे भी यही ठीक लग रहा है। सच में तुम इस घर को फूलों सा महकाओगी। मैंने तुम्हें जूही नाम देकर वास्तव में जीवन में बड़ा काम किया है।'

उनकी सहमति सुन कर मैं खुशी से झूम उठी, उनसे लिपटते हुए मैं बोली, 

'एक और बड़ा काम किया है। मेरे साथ शैतानी-वैतानी करके।'

हम दोनों हंसे और फिर, फिर ...।'

बेनज़ीर के इस अर्थपूर्ण ''फिर'' को मैंने पूरा करते हुए कहा, 

'और फिर, ... फिर शैतानी-वैतानी की।'

इसके साथ ही हम दोनों खिला-खिला कर हंस पड़े।

मैंने आगे पूछा, 'तो कब अडॉप्ट किए बच्चे?'

'ऐसा है कि, यहां शादी रजिस्टर करवाने के कुछ समय बाद ससुराल से सभी को बुलाया। एक-एक व्यक्ति से रिक्वेस्ट की, कि सभी आएं। इन्होंने सभी के लिए रिजर्वेशन भी करवाया, लेकिन अम्मा-बाबूजी नहीं आए। बाकी सभी लोग आए। अम्मा ने कहा कि, 'बेनज़ीर पूरा घर नहीं बंद कर सकते न।' उनकी बात अपनी जगह सही थी। फिर यह योजना बनी कि, जब सब वापस चले जायेंगे, तब उन्हें अलग से बुलाएंगे। यही हुआ, लेकिन बहुत मुश्किल से। अम्मा-बाबूजी ने आते-आते आठ महीने का समय लगा दिया। जाहिर था कि, वह हमारे काम से बहुत खुश नहीं थे।

आठ महीने तक हम उन्हें मनाते रहे, तब उनका मन पसीजा। आने के दो-चार दिन बाद ही वह जाने की बात करने लगे। लेकिन हम उनकी मिन्नतें कर-कर के उन्हें रोकते रहे। हमने उनका मान-सम्मान, सेवा ऐसे कि, जैसे हमारे मां-बाप ही नहीं भगवान भी हैं। जब उनका गुस्सा खत्म हुआ तो अम्मा जी ने एक दिन बच्चे की बात बड़ी गंभीरता से उठाई। उस समय मेरा ट्रीटमेंट चल ही रहा था। ट्रीटमेंट की बातचीत के दौरान ही मेरे मुंह से अचानक ही एबॉर्शन की बात निकल गई कि, 'उस समय जो कुछ लापरवाही डॉक्टर या जिससे भी हुई, जो भी दवाएं गलत या सही पड़ीं, उसी से यह समस्या खड़ी हुई।'

अबॉर्शन की बात सुनकर अम्मा-बाबू जी बहुत नाराज हुईं। कहा, 'तुम लोग एक के बाद एक मनमानी करते चले आ रहे हो, बताते तो कोई ना कोई रास्ता तो निकाल ही लेते। बच्चे को किसी भी सूरत में बचाते। ऐसी निष्ठुरता, निर्दयता नहीं दिखाते।'

वह मुन्ना से ज्यादा मुझ पर नाराज हुई थीं। कहा, 'वह तो मर्द है, तुम तो एक औरत हो। कैसे तुम्हारा हृदय इतना पत्थर हो गया कि, अपनी पहली ही संतान को इतनी कठोरता से खत्म करा दिया। एक बार भी तुम्हारा कलेजा कांपा नहीं। तुम्हें महसूस नहीं हुआ कि, वह फट जाएगा। अरे तुम लोग इतना आगे बढ़ गए थे, बताते तो मैं खुद ही दोनों की शादी करवा कर तुम्हें घर ले आती, कर लेती सारी दुनिया का सामना। तुम्हारी अम्मी से बात कर, चाहे जैसे उन्हें भी मना लेती। बेचारी कम से कम इस चिंता के साथ तो अंतिम सांस न लेतीं कि, बिटिया की शादी नहीं कर पाई। कैसे रहेगी दुनिया में अकेली।अरे तुम दोनों ने ये क्या कर डाला, हाँ..?'

यह कहते-कहते अम्मा रोने लगीं, थोड़ी ही दूर पर बैठे बाबू जी की ओर देखतीं हुई बोलीं, 'बताओ इन दोनों ने हमारे पहले पोते को ही हमसे छीन लिया।'

मैंने देखा बाबू जी की आँखों में गुस्सा, आंसू दोनों चमक रहे थे। और उस समय मैंने अपने अब-तक के जीवन का सबसे बड़ा पछतावा महसूस किया। मेरे आंसू सावन की घनघोर वर्षा की तरह बरसने लगे। मैं सोचने लगी कि, अम्मा अगर ख्वाब में भी मुझे अहसास होता कि, तुम मुझे अपना लोगी, तो मुन्ना से पहले मैं ही तुम से बात कर लेती। अम्मा तुम्हें कैसे बताऊँ कि, मेरा कलेजा कितना फटा था। कितने टुकड़े होकर बिखर गया था। कितना रोया था। और आज उससे भी कितना ज्यादा रोता है। और शायद ऊपर वाले ने मुझे उस अक्षम्य गलती की सजा, भविष्य में बच्चे होने की सारी संभावनाएं खत्म करके दी है।

बच्चे को लेकर उस समय जिस तरह अम्मा के आंसू निकल रहे थे, उसे देख कर मुझे पूरा यकीन हो गया था कि, अगर अम्मा को मैंने सब बता दिया होता, तो उस समय वह भले ही मुझे हज़ार बातें सुनातीं, लेकिन अबॉर्शन तो किसी सूरत में न करवाने देतीं। वाकई मैंने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर डाली थी।'

इस समय बेनज़ीर बहुत भावुक हो गईं थीं, उन्हें भावुकता से बाहर लाने के क्रम में मैंने बात आगे बढाते हुए कहा, 'उन्हें आप लोगों के कामों से ज्यादा इस बात का दुःख, मलाल हुआ होगा कि, उनके बड़े बेटे की पहली संतान, उनका पहला पोता, बेटे-बहू की नासमझी के कारण उनसे छिन गया। उनके आंसू शायद इसी बात को चरित्रार्थ कर रहे थे कि, मूल से ज्यादा सूद, (ब्याज) प्यारा होता है।'

'नहीं, बिलकुल नहीं। मैं अम्मा-बाबू जी को जितना जानती हूं, उस हिसाब से मैं उनके लिए यह बात बिल्कुल नहीं मान सकती। सोच भी नहीं सकती। उन्हें सबसे बड़ा दुःख यही था कि, एक मासूम, निरीह जान, उनके बेटे-बहू की मूर्खता के कारण इस संसार में आने से पहले ही निर्दयतापूर्वक मार दी गई। खैर इस पर मैं और नहीं बोलना चाहती। यह बात सीधे मेरी आत्मा के घावों को कुरेदती है। मैं आगे की बात करती हूँ।

इस बातचीत के बाद अम्मा-बाबूजी बहुत मनाने पर भी चार दिन से ज्यादा नहीं रुके। इन चारों दिन उनके चेहरे पर हमने हल्की मुस्कान तक नहीं देखी। जबकि उसके पहले काम-धाम, हमारी योजनाएं सुनकर दोनों ही लोग खूब हंस, बोल-बतिया रहे थे। चारों दिन हम उनकी हंसी-खुशी दोबारा उनके चेहरे पर लाने के लिए यहां के एक-एक मंदिर, घाट, आरती सब दिखाते-घुमाते रहे।

सनातन संस्कृति के प्रति बाबू जी के गहरे लगाव को ध्यान में रखते हुए मुन्ना उन्हें मणिकर्णिका घाट के सामने बने सदियों पुराने रत्नेश्वर महादेव मंदिर ले गए। उन्हें बड़े प्यार से दिखाते हुए बताया, 'पापा जी, ऐसा मंदिर इस दुनिया में दूसरा नहीं है, जो अपनी नींव पर एक तरफ नौ डिग्री से ज्यादा झुका हो। इसकी बनावट, इसका शिल्प देख रहे हैं, पत्थरों पर ऐसी अद्भुत आर्ट कि नज़रें हटाए नहीं हटतीं।'

इतना ही नहीं, मुन्ना ने उनके राजनितिक मूड को ध्यान में रखते हुए कहा, ' पापा जी, यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं कि, चार डिग्री पर झुकी इटली की पीसा की मीनार को दुनिया जानती है, लाखों पर्यटक वहां पहुँचते हैं, लेकिन उस मीनार से हज़ारों गुना ज्यादा आश्चर्यजनक इस मंदिर को अपने देस के लोग ही नहीं जानते, मैं तो कहता हूँ कि, काशी ही के सारे लोग नहीं जानते होंगे। यह सैकड़ों वर्षों से यथावत है, जबकी कि साल के छह महीने यह गंगा जी के पानी में ही डूबा रहता है। इसे आप यहाँ की सरकारों, इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों या राजनीतिज्ञों की साजिश, मक्कारी, मूर्खता, मानसिक दिवालियापन, या क्या कहेंगे?'

मुन्ना ने बड़ी बुद्धिमानी, चतुराई से बाबू जी को खुलकर बोलने, बातचीत करने के लिए, धारा में लाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार रहा।

वह बड़े अनमने ढंग से इतना ही बोले, 'यह सभी ज़िम्मेदार हैं। इस सनातन देश, इसकी सनातन संस्कृति की जड़ में मठ्ठा डालने का काम, देश की पहली सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने ही किया, और अब भी करती आ रही है...लोग पता नहीं कब देश को इस पार्टी से मुक्ति दिलाएंगे ।'

उनकी यह बात सुनकर मैंने सोचा, चलो बाबू जी का प्रोफ़ेसर वाला दिमाग अब खूब बातें कहेगा-सुनेगा। दोनों लोगों की मुस्कान लौटेगी, लेकिन हमारी सारी कोशिशें, हमारा ऐसा सोचना सब बेकार रहा, गलत रहा। दोनों लोगों के चेहरे पर उदासी बनी ही रही।

घाव मेरे भी हरे हो गए थे, तो रह-रह कर आंसू मेरे भी अम्मा ही की तरह निकल आते थे। मुन्ना पर मैं दोहरी मार पड़ती देख रही थी। ऊपर से नॉर्मल, शांत बने रहकर सबको खुश करने की कोशिश, और खुद भीतर ही भीतर घुटते रहना।

अंततः हमने और भी ज्यादा जल्दी बच्चे की चाहत की, लेकिन जितनी जल्दी करती डॉक्टर उतना ही ज्यादा निराशाजनक बातें बताते। आखिर हम ऊब गए। निराश हो गये, तो हमने डॉक्टरों के पास जाना और उनके बारे में सोचना भी बंद कर दिया।

मगर अकेले हम रह भी नहीं सकते थे। तो यहां आने के तीन साल बाद दो लड़कियों और एक लड़के को अडॉप्ट किया। इसमें भी बहुत सी कानूनी झंझटों का सामना करना पड़ा। तमाम सोर्स, पैसा खर्च करने के बाद यह सब संभव हो पाया। यह तीनों बच्चे ढाई से तीन साल के बीच थे, जब इन्हें मैंने अपनाया।'

'आपको नहीं लगता कि, एक बार फिर इस संबंध में आप लोगों ने जल्दबाजी की। तब एज भी ऐसी कोई ज्यादा नहीं हो गई थी, फर्स्ट प्रेग्नेंसी या एबॉर्सन से कुछ ऐसी प्रॉब्लम तो नहीं हो सकती कि....।'

'नहीं, हमने कोई जल्दबाजी नहीं की । डॉक्टर ट्रीटमेंट के लिये जो समय बता रहे थे, हम उतना समय देना उचित नहीं मान रहे थे, क्योंकि कोई डॉक्टर उतना समय देने के बाद भी सक्सेस की गारंटी नहीं दे रहा था। और न इतने लंबे समय तक मैं ढेरों दवाइयां खा-खा कर उनके साइड इफेक्ट से अपनी लाइफ हमेशा के लिए पेनफुल बनाना चाहती थी।

इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि, इतने लंबे समय तक हम हर क्षण ऊहापोह की स्थिति, तनाव में जीते रहने को तैयार नहीं थे। हमने कहा बस बहुत हुआ। हम अपने डिसीजन, अपने तीनों बच्चों से बहुत खुश हैं। मेरा घर, मेरा जीवन, उनकी तोतली बातों, नटखट शैतानियों, उछल-कूद, उनकी मिश्री सी मीठी आवाज में मम्मी-पापा सुन-सुन कर सारी खुशियों से भर गया है।

'अद्भुत हैं आपकी बातें, आपके सिद्धांत, आपके प्रयास, आपकी मेहनत। बीते कुछ दिनों से मेरे मन में एक प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि, जैसा कि शुरू से आपने बताया कि घर के माहौल के कारण आपकी पढाई-लिखाई हो नहीं पाई, लेकिन आपकी बातचीत, शब्दों के प्रयोग, बातों के वर्णन से लगता नहीं कि, आपने पढाई नहीं की। बड़ा विरोधाभास है। '

'इतना ही कहूँगी कि, स्कूली पढाई-लिखाई न होने के बावजूद जो कुछ भी हूँ, इसको पूरा श्रेय रोहित यानी मुन्ना को जाता है। पहली बार अंगूठा लगाकर सैलरी लेने के बाद से ही वह मुझे सिखाने-पढ़ाने के लिए पूरी गंभीरता से लगे रहे। यहां आने के बाद बकायदा तीन टीचर्स लगाईं, जो मुझे हिंदी, इंग्लिश पढ़ाने के साथ-साथ अ'न्य बहुत सी व्यावहारिक बातें, काम सिखाती रहीं। इसके अलावा ऑनलाइन पढाई कराते रहे। तमाम एजुकेशनल यूट्यूब चैनल सर्च करके लिंक आज भी भेजते रहते हैं। जिन्हें पूरे ध्यान से मैं आज भी देखती हूं। मतलब कि पिछले कई वर्षों से वो बराबर मुझे पढा ही रहे हैं। बस ऐसे ही सीखती चली आ रही हूं।'

'अर्थात इतने दिनों से वह एक नई बेनज़ीर यानी जूही को गढ़ते आ रहे हैं। उस जूही को जो उनके जीवन को महका सके। एक बात बताइए बेनज़ीर से जूही, मुन्ना से रोहित, यह एक दूसरे का नाम बदलने के पीछे की कहानी क्या है?'

'असल में देखा जाए तो नाम किसी ने किसी का नहीं बदला। मुन्ना उनका निक नेम था, वही प्रचलित था। उनका वास्तविक नाम रोहित ही है। शादी के रजिस्ट्रेशन में भी उन्होंने मेरा नाम बेनज़ीर ही रखा है। हां प्यार से वह मुझे जूही ही बुलाते हैं। यह मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि जब वह बुलाते हैं, तो मुझे लगता है कि, जैसे मेरा नाम उनके हृदय से निकल कर आ रहा है। मैं उनके हृदय में बसी हुई हूं।'

'तो अब यह कह सकते हैं कि, काशी आकर आपने वह सब पा लिया जो-जो आपने चाहा, पति, बच्चे, मकान, स्टेबलिस बिजनेस सब-कुछ। अब आप दोनों के हर तरफ खुशियां ही खुशियां हैं। अब आप खुश हैं, संतुष्ट हैं।'

'नहीं, सब कुछ नहीं पा लिया। बिजनेस हम जैसा चाहते थे, वैसा नहीं हो पाया । कुछ समय पहले हमने महसूस किया कि, इस बिजनेस में हम सर्वोच्च पर पहुंच चुके हैं। इसलिए अब हम अपना यह बिजनेस बदल रहे हैं। हम होटल बिजनेस की फील्ड में जा रहे हैं। और यहां से गोवा शिफ्ट कर रहे हैं।'

'क्या! सब कुछ फिर से चेंज।'

'हाँ। निरंतर परिवर्तन तो प्रकृति का भी नियम है। जब-तक आपका यह नॉवेल प्रकाशित होगा । तब-तक हम लोग गोवा शिफ्ट हो चुके होंगे। सारी तैयारी हो चुकी है। यह मकान होटल में कन्वर्ट हो जाएगा। होटल रूम प्रोवाइडर एक बड़ी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन हो चुका है। गोवा में भी बिल्डिंग ले चुके हैं। उसी के एक हिस्से में रहेंगे और बाकी होटल रहेगा। उसके लिए भी इसी कंपनी से टाईअप हो चुका है।'

'यह अचानक काशी छोड़कर गोवा ही क्यों?'

'नहीं-नहीं, काशी कभी भी छोड़ कर नहीं जा रही। यहां यह होटल रहेगा। बराबर आना-जाना बना रहेगा। रही बात गोवा ही क्यों? दरअसल एक बार हम वहां घूमने गए थे। एक हफ्ते रहे वहां। जब मैं मोबाइल में समुद्र तट, वहां घूमते पयर्टक देखती थी, तभी से यह सब रूबरू देखने की इच्छा थी। जैसे ही सब कुछ हमारे मनमाफिक हुआ, मैंने मुन्ना से अपनी यह इच्छा बताई। वह तो मेरी छोटी सी छोटी बात भी टालना नहीं जानते। भला यह बात कैसे टाल देते। सारी तैयारी की और चल दिए। हफ्ते भर में वहां कई मुख्य बीच पर गए। खूब मजा किया। वहां का कल्चर, टूरिस्ट, होटलों की स्थिति ने मन में इसी फील्ड में चलने के बीज बो दिए। लेकिन इसे हम अच्छी तरह जांच-परख लेना चाहते थे, तो वहां तीन बार गए-आए। इस सिलसिले में हम चेन्नई भी गए, वहां भी सी-बीच के होटलों को जाना-समझा। हमें होटल इंडस्ट्री एक ऐसी फील्ड के रूप में दिखी, जिसमें आगे बढ़ते जाने की कोई सीमा ही नहीं है। बस हमने ट्रैक बदलने का डिसीजन लेने में देर नहीं की।'

'निःसंदेह आप बहुत ही अग्रेसिव, ब्रेव, इमेजनरी वुमेन हैं। यह ट्रैक बदलने का डिसीजन अकेले आपका है या आप दोनों का ही?'

'निश्चित ही दोनों ही का कह सकते हैं। बिजनेस चेंज करना है, यह तो हम दोनों ही काफी समय से सोच रहे थे, बातें कर रहे थे। गोवा टूर पर एक दिन बीच पर बैठे सनसेट देख रहे थे। पूरा बीच पर्यटकों से भरा हुआ था। कोई फोटो खींच रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मुन्ना वीडियो बनाते-बनाते अचानक ही बोले, 'यार, यहीं अपना भी एक होटल बनाया जाए क्या?' बस उनका यही सेंटेंस इस काम की शुरुआत बन गया। मैं तो मानती हूं कि, ईश्वर ने चाहा तो हम काशी पहुंचे, उनकी इच्छा हुई तो कदम गोवा तक पहुंच गये।'

'तो प्रश्न यह भी उठता है कि गोवा में कब तक?'

'बड़ी सिंपल सी बात है कि, अब ऐसी फील्ड में आ गए हैं, जहां जितना आगे बढ़ जाएं उतना ही कम है। हमारा सपना हर शहर में होटल खोलने का है। हम इसी प्रयास में हैं, और इन सब का सेंटर, बिगनिंग प्वाइंट सदैव काशी ही रहेगी।'

'तो क्या अब यह कह सकते हैं कि आपने अपने मन का सब कुछ पा लिया, अब आपके जीवन में हर तरफ खुशी है।'

'नहीं...।'

'जी !'

'जी हाँ, यह सब बनावटी है। हमारे जीवन में कोई खुशी नहीं है, और ना ही हो सकती है। यह सब तो अपने दुख को छुपाने का एक क्षद्मावरण है, जिसे हमने बनाया है। हमें हर सांस में दिल को भीतर तक बेध देने वाली यह फांस चुभती रहती है कि, हमारी कोई बायोलॉजिकल चाइल्ड नहीं है।'

इतना कह कर बेनज़ीर ने गहन शांति ओढ ली। बड़ी देर तक मैं उनकी इस फांस की भी चुभन महसूस करता रहा। फिर निःशब्द कैमरा उठाया, कई तस्वीरें खींची। वह बड़ी सी खिड़की के शीशे से बाहर देख रही थीं, और आंसुओं से भरी उनकी आंखों में, अपने घर को चल पड़े सूरज की, सुर्ख केसरिया गोल छवि चमक रही थी ।

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प्रदीप श्रीवास्तव

ई ६ एम २१२

सेक्टर एम अलीगंज, लखनऊ -२२६०२४

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर - ९९१९००२०९६, ८२९९७५६४७४