Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 5






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा


भाग 5


महाराज पुरुरवा अपने कक्ष में उर्वशी के विचारों में खोए हुए थे। रानी औशीनरी उनके निकट जाकर बैठ गईं। उन्होंने महाराज पुरुरवा से पूँछा,

"महाराज जब से आप मृगया से लौटे हैं आप का चित्त अशांत रहता है। मुख्यमंत्री भी कह रहे थे कि राजसभा में आप पूर्ण ध्यान नहीं दे पाते हैं। आपकी इस व्यथा का कारण क्या है। कृपया बताइए। आपकी इस दशा के कारण मुझे चिंता हो रही है।"

रानी औशीनरी की बात सुनकर महाराज पुरुरवा शांत रहे। इससे रानी की अकुलाहट और बढ़ गई। परेशान होकर उन्होंने कहा,

"महाराज आप मुझे बताइए कि बात क्या है ? आपकी जीवनसंगिनी होने के नाते और महारानी होने के नाते यह जानने का मुझे अधिकार है।"

महाराज पुरुरवा ने रानी औशीनरी की तरफ देखा। उनके चेहरे पर चिंता झलक रही थी। वह अपने मन की बात कहने का साहस जुटा रहे थे। उन्होंने कहा,

"महारानी आप मेरी पत्नी हैं। मैं आपसे प्रेम भी करता हूँ। किंतु मैंने यह अनुभव किया है कि आपके लिए मेरे प्रेम में वह छटपटाहट नहीं है जिसका वर्णन आपने किया था।"

महाराज पुरुरवा कुछ क्षण रुक कर रानी के ह्रदय के भावों को परखने का प्रयास करने लगे। उनकी बात सुनकर रानी को जो पीड़ा हुई थी वह साफ देखी जा सकती थी। महाराज पुरुरवा इस बात को भली भांति जानते थे कि यह बात सुनकर रानी औशीनरी को दुख होगा। इसी कारण से वह अब तक चुप थे। किंतु अब रानी ने उनसे प्रश्न किया था तो वह सारी बात खुलकर बता देना चाहते थे। उनकी मनोदशा देखकर महाराज पुरुरवा ने कहा,

"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ महारानी किंतु यह सत्य है। मुझे अप्सरा उर्वशी से प्रेम हो गया है। उसके विरह में मैं वैसे ही तड़प रहा हूँ जैसे जल बिन मीन। यही मेरे ह्रदय की वेदना का कारण है।"

महाराज की व्यथा का कारण जानकर रानी मौन हो गईं। यह बात उनके दिल में तीर की तरह चुभी थी। उन्होंने स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास किया किंतु फिर भी नेत्रों से अश्रु छलक पड़े। महाराज पुरुरवा ने उनका हाथ पकड़ कर कहा,

"महारानी एक पत्नी के रूप में मेरे मन में आपके लिए बहुत प्रेम एवं आदर है। किंतु मैं अपने ह्रदय से मजबूर हूँ। उर्वशी से मुझे पहली दृष्टि में ही प्रेम हो गया।"

रानी औशीनरी ने महाराज पुरुरवा की आँखों में देखते हुए कहा,

"महाराज यह सही है कि एक पत्नी होने के नाते मुझे इस बात से ठेस पहुँची है। किंतु हर व्यक्ति के प्रेम की गहराई अलग अलग होती है। आपका मेरे प्रति प्रेम मेरे प्रेम से भिन्न हो सकता है। किंतु यह सत्य है कि मैं आपको ह्रदय की गहराई से प्रेम करती हूँ।"

"मैं यह बात समझता हूँ। तभी आपसे क्षमा मांग रहा हूँ।"

महाराज पुरुरवा की बात सुनकर महारानी औशीनरी ने गंभीर स्वर में कहा,

"महाराज मैं और आप पति पत्नी के तौर पर क्या सोंचते हैं यह हमारा व्यक्तिगत विषय है। किंतु आप एक महाराज हैं। आपका अपने राज्य और प्रजा के प्रति उत्तरदाइत्व है। आपकी यह मनोदशा राज्य के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। अतः राज्य की महारानी होने के नाते मेरा यह दायित्व है कि मैं आपको आपके कर्तव्य का बोध कराऊँ।"

महाराज पुरुरवा ने अचरज से महारानी औशीनरी की तरफ देखा। वह समझ नहीं पा रहे थे कि महारानी किस प्रकार अपना दुख भूल कर उन्हें उनके कर्तव्य के विषय में बता रही हैं। रानी ने अपनी बात आगे बढ़ाई।

"एक राजा होने के नाते यह आपका दायित्व है कि आप प्रजा के हित को अपने व्यक्तिगत दुख से ऊपर रखें।"

"किंतु एक राजा भी तो मनुष्य होता है। उसकी भी अपनी व्यथा हो सकती है।"

महाराज पुरुरवा ने अपना बचाव करना चाहा। पर रानी औशीनरी ने तर्क दिया,

"एक राजा भी मनुष्य होता है। किंतु वह साधारण मनुष्य नहीं होता है। राजगद्दी पर बैठते ही वह जनसाधारण का हो जाता है। मान सम्मान के साथ दायित्व भी आता है। उसके व्यक्तिगत हित पीछे रह जाते हैं। ईश्वर का प्रतिनिधि बन कर उसे प्रजा के हितों की रक्षा करनी पड़ती है।"

अपनी बात समाप्त कर रानी औशीनरी ने महाराज पुरुरवा को विचारमग्न छोड़ कर वहाँ से चली गईं। बहुत देर तक महाराज उनकी बात पर विचार करते रहे। उन्हें रानी औशीनरी की बात सही लगी थी कि एक राजा होने के नाते उनका प्रथम कर्तव्य अपनी प्रजा के हितों को ध्यान में रखना है। अपनी भावनाओं को अपने कर्तव्य पर हावी नहीं होने देना है।


महारानी की बात का महाराज पुरुरवा पर प्रभाव पड़ा। उन्होंने राजकाज में मन लगाना आरंभ किया। उर्वशी का स्मरण होने पर उन्हें पीड़ा होती थी किंतु वह उसे मन में दबा कर अपना कर्तव्य पालन करते थे।
महाराज पुरुरवा राजसभा में उपस्थित थे। उनके मुख्यमंत्री लतव्य ने उनके समक्ष राज्य के पश्चिमी क्षेत्र में उत्पन्न एक समस्या का वर्णन करना आरंभ किया।

"महाराज हमारे राज्य का पश्चिमी क्षेत्र बहुत ही समृद्ध है। वहाँ के गाँवों में किसान प्रचुर मात्रा में अनाज पैदा करते हैं। अन्य राज्यों के साथ हमारा व्यापार वहाँ के शिल्पियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ही निर्भर करता है। उस क्षेत्र से ही हमें सबसे अधिक कर प्राप्त होता है। वह क्षेत्र हमारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।"

लतव्य ने कुछ रुक कर महाराज पुरुरवा की तरफ देखा। वह उसकी बात सुन तो रहे थे किंतु उनका ध्यान पूर्णतया वहाँ नहीं था। अतः लतव्य ने अपने स्वर को और अधिक गंभीर बनाकर उसमें भय का मिक्षण करते हुए कहा,

"किंतु महाराज आजकल पश्चिमी क्षेत्र में एक समस्या उत्पन्न हो गई है। वहाँ दस्युओं ने आतंक मचाया हुआ है। अचानक हमला करते हैं। लूटपाट करते हैं। फिर अचानक ही गायब हो जाते हैं। उनका संगठन बहुत ही सुनियोजित एवं गुप्त तरीके से काम करता है। हमने बहुत प्रयास किया किंतु अभी तक उनके विषय में कोई भी जानकारी नहीं जुटा पाए। उस क्षेत्र की जनता त्रस्त है। वह सब बहुत आशा से आपकी तरफ देख रहे हैं।"

दस्युओं की समस्या के बारे में सुनकर महाराज पुरुरवा ने अपने विचारों को समेट कर अपना ध्यान उस समस्या पर केंद्रित कर दिया। इससे पूर्व कभी भी दस्युओं ने उनके राज्य की तरफ आँख उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं की थी। उनके इस दुस्साहस के बारे में सुनकर महाराज को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा,

"इस स्थिति पर काबू पाने के लिए अब तक आप लोगों ने कुछ किया क्यों नहीं ? क्या हमारे सैनिक उन दस्युओं का सामना करने योग्य नहीं हैं ?"

लतव्य ने अपने स्वर में लाचारी का भाव लाते हुए कहा,

"महाराज किया तो तब जाए जब उनके विषय में कुछ पता हो। ये दस्यु तो जैसे हवा में से अचानक प्रकट होते हैं और अपना कार्य कर हवा में ही विलीन हो जाते हैं।"

लतव्य की बात सुनकर महाराज पुरुरवा इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगे। समस्या सचमुच गंभीर थी। इस समस्या का समापन केवल एक व्यक्ति ही कर सकता था। उन्होंने लतव्य को आदेश दिया,

"अभिक को संदेश भेज कर मेरी सेवा में उपस्थित होने के लिए कहा जाए।"

महाराज पुरुरवा का आदेश मिलने पर लतव्य ने अपने सबसे तेज़ व विश्वासपात्र सैनिक को अभिक की खोज में भेज दिया।
अभिक राज्य का सबसे अच्छा गुप्तचर था। जब वह किसी अभियान पर होता था तब सब कुछ भूल कर केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान देता था। किंतु जब वह किसी अभियान पर नहीं होता था तब सब कुछ भूल कर केवल अपने आमोद प्रमोद पर ही ध्यान देता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह राज्य के किसी भी हिस्से में जा सकता था। अतः उसकी खोज करना दस्युओं की खोज करने से कम कठिन नहीं था।