Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 6






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 6

उर्वशी देवराज इंद्र के दरबार में नृत्य कर रही थी। परंतु देवराज को यह अनुभव हो रहा था कि जैसे आज उसके नृत्य में वह उत्साह वह स्फूर्ति नहीं है। उन्हें लगा जैसे कि वह दरबार में उपस्थित नृत्य तो कर रही है किंतु उसका मन कहीं और लगा है।
जब से वह पृथ्वीलोक पर भ्रमण कर लौटी थी तब से ही वह खोई खोई सी रहती थी। देवराज से बात करते हुए, उनके साथ चौसर खेलते हुए या नृत्य करते हुए वह किसी और ही कल्पना में खोई रहती थी। देवराज उसके इस बदले हुए व्यवहार से बहुत चिंतित थे। नृत्य समाप्त होने पर उन्होंने उर्वशी से पूँछा,

"प्रिये मैं कई दिनों से देख रहा हूँ कि तुम तो मेरे साथ रहती हो किंतु तुम्हारा चित्त कहीं और ही रहता है। अब तुम्हारे नृत्य में भी वह बात नहीं रही जो पहले होती थी। आखिर तुम्हारी इस दशा का कारण क्या है। कहीं तुम अपना ह्रदय पृथ्वीलोक में किसी के पास तो नहीं छोड़ आईं। यदि ऐसा है तो यह मेरे साथ बहुत अन्याय होगा। क्योंकी तुम्हारे ह्रदय पर तो सिर्फ मेरा अधिकार है।"

देवराज की बात सुनकर उर्वशी संभल गई। वह जानती थी कि देवराज को यह बात अच्छी नहीं लगेगी कि वह किसी और पुरुष के विचारों में लीन रहती है। बात बनाते हुए बोली,

"मेरा ह्रदय मेरे पास कब था कि मैं उसे पृथ्वी पर किसी को दे आती। वह तो ना जाने कब से आपके अधिकार में है।"

"तो फिर तुम्हारी इस दशा का क्या कारण है। कहीं मेरी कोई बात तुम्हें पीड़ा दे गई क्या ? यदि ऐसा है तो मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ। क्योंकी यह अनजाने में हुआ होगा। मैं तुमसे बहुत अधिक प्रेम करता हूँ।"

"नहीं देव आप से कोई भूल नहीं हुई। बस यूं ही चित्त कुछ अशांत सा रहता है।"

"किंतु उसका कोई कारण भी तो होगा।"

"देव आप चिंतित ना हों। सब ठीक हो जाएगा। अभी मुझे आज्ञा दें। मैं कुछ समय विश्राम करना चाहती हूँ।"

देवराज इंद्र से आज्ञा लेकर उर्वशी विश्राम करने चली गई। उर्वशी के जाने के बाद भी देवराज उसके विषय में ही सोंच रहे थे। वह उर्वशी के उत्तर से तनिक भी संतुष्ट नहीं थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि स्वर्गलोक में जहाँ दुख के लिए कोई स्थान नहीं है। जहाँ सुख स्थाई है। वहाँ उर्वशी के मन की व्यथा का कारण क्या हो सकता है। वह इसी विषय में चिंतातुर बैठे थे। तभी उनकी पत्नी शची वहाँ आईं। अपने पति को चिंतित देख कर उन्होंने पूँछा,

"हे देव आप इस प्रकार चिंतित क्यों हैं ? कृपया मुझे अपनी चिंता के विषय में बताएं।"

देवराज ने चिंता के स्तर में कहा,

"देवी मैं उर्वशी के विषय में चिंतित हूँ। मैं कई दिनों से यह अनुभव कर रहा हूँ कि उसका मन कुछ अशांत है। उसके नृत्य में भी अब वह बात नहीं रही है।"

शती ने कहा,

"इसमें आपके चिंतित होने का क्या कारण है। उर्वशी कोई अकेली अप्सरा तो है नहीं। मेनका और रंभा भी उससे कम निपुण नृत्यांगना नहीं हैं।"

"आपका कथन सत्य है देवी किंतु सभी अप्सराओं में उर्वशी मेरे ह्रदय के सबसे निकट है।"

"वह ठीक है देव पर आप देवराज हैं। आपको किसी अप्सरा के लिए इस प्रकार व्यथित होना शोभा नहीं देता है।"

देवराज को शची की यह बात कुछ अच्छी नहीं लगी। वह समझ रहे थे कि शचि के सामने उनका उर्वशी की चिंता करना शचि को बुरा लग रहा है। इसलिए वह कुछ नहीं बोले। शची ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा,

"आइए देव अपने मन बहलाव के लिए चौसर खेलते हैं।"

देवराज अनिच्छा से चौसर खेलने के लिए तैयार हो गए। पर खेलते हुए उनका ध्यान उर्वशी पर ही था। अतः एक बाज़ी समाप्त कर शचि ने खेल बंद कर दिया।

उर्वशी अपने कक्ष में शय्या पर लेटी हुई पुरुरवा के ध्यान में डूबी थी। जब से वह पुरुरवा को छोड़ कर स्वर्गलोक आई थी तब से ही पुरुरवा का खयाल एक क्षण के लिए भी उसके मन से नहीं जाता था। सोते जागते हर समय वह पुरुरवा को ही याद करती रहती थी। उसका किसी भी कार्य में मन नहीं लगता था।
पुरुरवा के साथ व्यतीत किए गए उन चंद दिनों का उसके ह्रदय पर गहरा प्रभाव पड़ा था। वह हर समय पुरुरवा के साथ बिताए गए क्षणों में ही जीती थी। कभी उसे लगता कि पुरुरवा ने पीछे से अचानक आकर उसे अपनी बाहों में कस लिया है। वह पुरुरवा की श्वास को अपने शरीर पर महसूस करती थी।
कभी वह सोंचती कि पुरुरवा ने उसके अधरों पर अपने अधर रख दिए हैं। इस अनुभूति से ही उसका मन रोमांचित हो उठता था।
किंतु उसकी इस मनोदशा का उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। वह पूरे मन से देवराज की सेवा नहीं कर पा रही थी। आज देवराज ने उससे इस विषय में बात भी की थी। तब तो वह बात टाल गई किंतु इस स्थिति में वह अधिक दिन तक देवराज को बहला नहीं सकती थी।
उर्वशी ने कई बार अपने मन को समझाने का प्रयास किया कि उसके लिए एक मनुष्य के प्रेम में इस प्रकार विचलित होना ठीक नहीं है। वह एक अप्सरा है अतः उसे एक साधारण मानुषी की तरह एक मनुष्य के प्रेम में इस तरह नहीं पड़ना चाहिए। उसका कर्तव्य देवराज तथा अन्य देवों का मनोरंजन करना है। अतः एक मनुष्य के लिए उसे अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होना चाहिए। किंतु उसके सारे तर्क उसके ह्रदय के समक्ष बेकार साबित हो जाते थे।
उर्वशी पुरुरवा के विचारों में खोई हुई थी कि तभी वहाँ उसकी सखी चित्रलेखा आ गई। अपनी सखी को विचारमग्न देख कर उसने कहा,

"उर्वशी यदि मेरी बात मानो तो तुम महाराज पुरुरवा को भूल जाओ। तुम्हारा और उनका मेल कभी नहीं हो सकता है। यह प्रेम तुम्हें केवल कष्ट ही देगा।"

उर्वशी ने चित्रलेखा की तरफ देखा। उसके ह्रदय की पीड़ा उसके नेत्रों में साफ दिखलाई दे रही थी। जब वह बोली तो वह पीड़ा उसकी वाणी में भी झलक रही थी।

"सखी जो कुछ भी तुम कह रही हो सत्य है। पर मैं क्या करूँ मेरे ह्रदय पर अब मेरा नियंत्रण नहीं रहा है। चाह कर भी मैं पुरुरवा को नहीं भुला पा रही हूँ। मैं विवश हूँ।"

उर्वशी की बात सुनकर चित्रलेखा बोली,

"मैंने पृथ्वी वासियों को कहते सुना था कि जिसे प्रेम का यह रोग हो जाता है उसकी दशा बहुत विचित्र हो जाती है। एक ओर तो यह प्रेम ह्रदय को आनंदित करता है और दूसरी तरफ प्रियतम का विछोह ह्रदय को पीड़ा पहुँचाता है। आज तुम्हारी मनोदशा ठीक वैसी ही है।"

उर्वशी ने आह भरकर कहा,

"सही पहचाना सखी सचमुच इस समय मैं सुख व दुख दोनों के सागर में एक साथ डूब रही हूँ। कभी यह प्रेम ह्रदय को गुदगुदाता है तो कभी पुरुरवा की स्मृति किसी तीर की तरह ह्रदय के पार हो जाती है। इसका क्या परिणाम होगा मैं स्वयं ही नहीं जानती हूँ।"

बहुत देर तक उर्वशी इसी प्रकार अपनी सखी चित्रलेखा के सामने अपनी पीड़ा बताती रही। पर इससे भी उसका मन तनिक भी शांत नहीं हुआ था। अपने प्रेमी पुरुरवा के लिए उसकी तड़प और बढ़ गई थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उसकी पीड़ा का अंत कब और कैसे होगा।
कुछ ना समझ आने पर उसकी आँखों से आंसू बहने लगे।