Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 7







उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 7


पिछले करीब एक वर्ष से अभिक अवकाश पर था। इस अवधि में मदिरा और गणिका केवल यही दो वस्तुएं उसके जीवन का केंद्र थीं। इसके अतिरिक्त पहलवानों को मल्ल के लिए चुनौती देना उसका प्रमुख कार्य था। पहलवानों को मल्ल में हरा कर वह दांव में लगाई गई राशि जीत लेता था। इस समय यही उसके धनार्जन का मुख्य स्रोत था। धन प्राप्त होने पर वह उसे व्यय करने के लिए मदिरालयों और वेश्यालयों में भटकता फिरता था। धन समाप्त होने पर पुनः मल्ल की तैयारी करता था।
अभिक ने अभी ही एक मल्ल जीता था। स्वर्ण मोहरों से भरी थैली उसे पुनः भोग विलास के लिए प्रेरित कर रही थी। वह एक मदिरालय में आकर बैठ गया। वह चषक हाथ में लिए ह्रति के विषय में सोंच रहा था। जीवन में पहली बार किसी स्त्री ने उसके ह्रदय में अपना स्थान बनाया था। ह्रति बहुत सुंदर तो थी ही उसके व्यक्तित्व में एक अलग प्रकार का आकर्षण भी था।
जैसे जैसे मदिरा का प्रभाव उस पर बढ़ रहा था। वैसे वैसे ह्रति से मिलने की उसकी इच्छा तीव्र होती जा रही थी। उसने आखिरी बार अपना चषक भरा और उसे एक सांस में ही रिक्त कर दिया। जब वह मदिरालय के बाहर निकल रहा था तब उसकी दृष्टि एक चेहरे पर अटक गई। वह व्यक्ति मल्ल के समय भी उपस्थित था।
'कौन है यह व्यक्ति ? क्यों यह हर जगह मेरा पीछा कर रहा है ?'
अपने मन में उठते इन प्रश्नों के बारे में सोंचता हुआ वह मदिरालय के बाहर आ गया।


अभिक बाजार से होकर गुज़र रहा था। लतव्य द्वारा भेजा गया दूत उसके पीछे लगा हुआ था। अभिक को ज्ञान था कि कोई उसका पीछा कर रहा है। लेकिन वह यह बात प्रकट नहीं कर रहा था। बाजार से निकल कर वह नदी की तरफ चल दिया।
दूत उसके पीछे एक निश्चित दूरी बना कर सावधानी से चल रहा था। जब वह नदी के किनारे पहुँचा तो उसने पाया कि अभिक उसकी दृष्टि से ओझल हो गया है। वह इधर उधर उसे देखने लगा। अचानक ही अभिक ने पीछे से आकर उसकी गर्दन पकड़ ली। वह कड़क कर बोला,

"जल्दी बताओ तुम कौन हो और मेरा पीछा क्यों कर रहे हो ? अन्यथा मैं तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूँगा।"

दूत अचानक इस आक्रमण से घबरा गया। डर कर बोला,

"मैं...महाराज पुरुरवा का दूत हूँ।"

महाराज पुरुरवा का नाम सुनते ही अभिक ने उसे छोड़ दिया। अपनी श्वास को नियंत्रित कर दूत बोला,

"महाराज ने तुम्हें उनकी सेवा में उपस्थित होने का आदेश दिया है।"

महाराज पुरुरवा का आदेश सुनकर अभिक समझ गया कि अवश्य कोई महत्वपूर्ण कार्य है।

अभिक दरबार में महाराज पुरुरवा के सामने खड़ा था। महाराज की तरफ से लतव्य ने उसे सारी स्थिति के विषय में अवगत करा दिया। महाराज पुरुरवा ने उसे आदेश देते हुए कहा,

"अभिक तुम इस राज्य के सर्वश्रेष्ठ गुप्तचर हो। राज्य को तुम्हारी सेवा की आवश्क्ता है। तुम शीघ्र ही उन दस्युओं के विषय में पता लगा कर हमें सूचित करो। ताकि उन्हें उनके कृत्यों के लिए दंडित किया जा सके।"

"महाराज इस राज्य की सेवा करना मेरा सौभाग्य है। मैं शीघ्र ही उनका पता लगाता हूँ।"

अभिक बिना विलंब किए अपने अभियान पर निकल गया।

पश्चिमी क्षेत्र में पहुँच कर अभिक ने दस्युओं के बारे में सूचना जुटाना आरंभ कर दिया। अब तक जो जानकारियां उसके हाथ लगी थीं उनसे कुछ प्रमुख बातें सामने आई थीं।
दस्यु सदैव आठ के दल में आते थे।

उनका लक्ष्य निर्धारित होता था। अर्थात यह पहले से तय होता था कि किसके घर पर धावा बोलना है।

सभी बहुत फुर्तीले होते थे। सबको अपना अपने काम का पता रहता था। इसलिए उनका काम जल्दी हो जाता था और कोई चूक भी नहीं होती थी।

अभिक समझ गया कि दस्युओं का दल बहुत व्यवस्थित है। उनका पता करना आवश्यक था। अन्यथा वह राज्य को बहुत नुकसान पहुंँचा सकते थे।

अभिक ने इस बात से अपनी खोज आरंभ की कि उन्हें अपना लक्ष्य पहले से पता होता था। इसका स्पष्ट अर्थ था कि कोई था जो उन्हें इस बात की सूचना देता था कि लूटपाट कहाँ करनी है। अभिक ने अपने कौशल से उस व्यक्ति के विषय में पता लगा लिया। वह व्यक्ति नंदन नाम का एक विदूषक था।
विदूषक नंदन उस क्षेत्र के धनी घरों के बारे में दस्युओं को सूचना देता था। प्रहसन करने के बहाने वह घर के नक्शे, परिवार के सदस्यों की संख्या, हमले का सही समय आदि दस्युओं को बताता था। उसकी सूचना के आधार पर दस्यु हमले की योजना बनाते थे।
नंदन इस समय नगर के धनी सेठ कृष्णदत्त के घर का भेद बताने दस्युओं के पास जा रहा था। अभिक भी सावधानी से उसके पीछे लगा था। चलते चलते वह नगर के बाहर आ गया। अब वन प्रदेश आरंभ हो गया था। नंदन वन में बहुत भीतर तक चला गया। वन के मध्य भाग में एक गुफा थी। वह उसके अंदर चला गया। अभिक भी गुफा में घुस गया। वह नंदन से कुछ दूरी बना कर बहुत सावधानी से चल रहा था।
गुफा में कुछ दूर जाने पर बाईं तरफ एक पत्थर पड़ा था। नंदन ने सावधानी से उसे हटाया। वह एक सुरंग का मुहाना था। वहीं पास में एक मशाल थी। नंदन ने मशाल जला ली। वह सुरंग के अंदर चला गया। नंदन के भीतर जाने के कुछ देर बाद अभिक भी सुरंग में घुस गया।
सुरंग के भीतर अंधेरा था। किंतु अभिक को ऐसी परिस्थिति में काम करने का अनुभव था। वह संभल संभल कर कदम रखते हुए चलने लगा। चलते चलते वह सुरंग के दूसरे मुहाने तक पहुँच गया। वहाँ से प्रकाश आ रहा था। कुछ अस्पष्ट सा वार्तालाप भी सुनाई पड़ रहा था। वह सुरंग के दूसरे मुहाने से अंदर प्रवेश कर गया।
सुरंग उस छोटी गुफा को इस बड़ी गुफा से जोड़ती थी। यह गुफा बहुत चौड़ी थी। जहाँ कुछ लोग आसानी से रह सकते थे। गुफा को मशालों से प्रकाशित किया गया था। अब आवाज़ें स्पष्ट थीं। अभिक आवाज़ की दिशा में सावधानी पूर्वक आगे बढ़ने लगा। कुछ कदम आगे जाने पर ही दस्यु दिखाई पड़ने लगे। वह ओट में छिप कर उनकी बातें सुनने लगा।
नंदन एक दस्यु को कुछ बता रहा था। वह दस्यु शायद उन लोगों का मुखिया था। उसका शरीर बलिष्ट था। मदिरापान के कारण आँखें लाल थीं। हाथ में पकड़े हुए मदिरा पात्र को खाली कर वह बोला,

"तुम्हें पूरा विश्वास है कि आने वाली अमावस ही कृष्णदत्त के घर धावा बोलने का सही समय होगा।"

नंदन ने पूरे विश्वास के साथ कहा,

"दस्युराज आने वाली अमावस ही सबसे उचित समय है। इधर कुछ समय से कृष्णदत्त हर अमावस को किसी तांत्रिक के पास साधना के लिए जाता है। उसका पुत्र भी व्यापार के कार्य से उसी दिन सुबह बाहर जाने वाला है। घर में केवल स्त्रियां बच्चे और सेवक होंगे।"

दस्युओं के मुखिया ने कहा,

"तो फिर तुम हर बार की तरह इस बार भी अमावस को नदी के किनारे हमारे लिए आठ अश्वों की व्यवस्था करके रखना।"

"आप इस बात की तनिक भी चिंता ना करें। मैं हमेशा की तरह इस बार भी आपको शिकायत का मौका नहीं दूँगा।"

दस्युराज ने नंदन को उसका पुरुस्कार दिया। पुरुस्कार पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। वह दस्युओं के साथ बैठ कर मदिरा पीने लगा। अभिक तुरंत ही वहाँ से वापस लौट गया।