Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 14 - (Final) books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 14 - (अंतिम)






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 14 (अंतिम)


महाराज पुरुरवा दीवानों की तरह पेड़ पौधों पत्थरों वन प्राणियों से पूँछ रहे थे कि क्या उन्होंने उर्वशी को किसी दैत्य के चंगुल में फंसे हुए देखा है। परंतु कोई उत्तर ना पाकर और अधिक परेशान हो रहे थे।
भटकते हुए वह कुमार वन में पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर उन्हें विचार आया कि यह क्षेत्र स्त्रियों के लिए वर्जित है। यहाँ प्रवेश करते ही कोई भी स्त्री पुष्प लता में परिवर्तित हो जाती है। कहीं क्रोध में चलती हुई उर्वशी भी तो इसके भीतर प्रवेश नहीं कर गई। यह विचार आते ही वह कुमार कार्तिकेय के पास गए। उन्होंने कुमार कार्तिकेय से कहा,

"कुमार आपने तो ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है। इसलिए आपने स्त्री जाति के इस क्षेत्र में प्रवेश पर इतने कठिन दंड का विधान किया है। किंतु मैं तो एक प्रेमी हूँ। उर्वशी के वियोग में मेरा ह्रदय वेदना से फटा जा रहा है। वह अवश्य ही इस क्षेत्र में आकर पुष्प लता बन गई है। कृपया मेरी सहायता करें। मेरी प्रेयसी को पुनः स्त्री बना दें।"

कुमार कार्तिकेय का मन उसकी पीड़ा से पसीज गया। वह बोले,

"तुम अपने प्रेम की परीक्षा दो। मेरे इस वन क्षेत्र की हर पुष्प लता के पास जाओ। जो पुष्प लता तुम्हें उर्वशी प्रतीत हो उसका आलिंगन करो। यदि तमने सही पहचाना तो वह स्त्री में बदल जाएगी। यदि तुमसे पहचानने में त्रुटि हुई तो फिर तुम्हें अन्य अवसर नहीं मिलेगा।"

महाराज पुरुरवा उर्वशी के लिए व्याकुल थे। किंतु वह जानते थे कि एक त्रुटि उर्वशी से उनके मिलन की उम्मीद को सदा के लिए समाप्त कर देगी। अतः उन्होंने स्वयं को संयत कर लिया। वह वन प्रदेश में हर पुष्प लता के पास जाकर अपने मन को केंद्रित कर उर्वशी की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करते। वह कई पुष्प लताओं के पास गए किंतु उर्वशी की उपस्थिति का अनुभव नहीं हुआ।
चलते हुए वह एक पुष्प लता के पास पहुँचे। पवन के झोंके से वह इस तरह लहरा रही थी जैसे कोई कुशल नर्तकी नृत्य कर रही हो। उस लता के पास जाते ही उनके ह्रदय में प्रेम की अनुभूति होने लगी। वह समझ गए कि यही उनकी प्रेयसी उर्वशी है। उन्होंने उस पुष्प लता को अपने आलिंगन में भर लिया। देखते ही देखते वह उर्वशी में बदल गई।
महाराज पुरुरवा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। उनकी प्रिया उनके पास थी। इस परीक्षा से उन्होंने अपने प्यार को साबित कर दिया था।


उर्वशी और पुरुरवा दोनों पुनः खुशी खुशी गंधमादन पर्वत पर रहने लगे। महाराज पुरुरवा का प्रेम उर्वशी के लिए पहले से बहुत अधिक हो गया था। अब वह एक पल के लिए भी उर्वशी को उनके नेत्रों के सामने से ओझल नहीं होने देना चाहते थे। हर समय उसके साथ ही रहते थे।
उर्वशी भी महाराज पुरुरवा को चाहती थी पर अब वह एक साधारण मानवी की भांति रहते हुए ऊब चुकी थी। उसे इंद्रलोक की याद आने लगी थी। उसे यह चिंता सता रही थी कि एक दिन उसके रूप की कांति फीकी पड़ जाएगी। उसका यौवन ढल जाएगा। यह सोंच कर ही वह भय से कांप उठती थी।
देवराज इंद्र उस क्षण की प्रतीक्षा में थे जब उनकी सुझाई शर्तों के पालन में त्रुटि हो और उर्वशी इंद्रलोक वापस आ सके। किंतु महाराज पुरुरवा उन दोनों शर्तों के पालन का विशेष ध्यान रखते थे। एक बार उर्वशी के मन की बात जान लेने के खयाल से देवराज इंद्र ने केयूर को फिर से पृथ्वी पर भेजा। वह जब उर्वशी से मिला तो उसने अपने मन की व्यथा केयूर को सुना दी। केयूर से मिले संदेश से देवराज इंद्र यमझ गए कि उर्वशी को वापस बुलाने के लिए उन्हें ही कोई उपाय करना होगा।
देवराज इंद्र ने विश्ववसु को बुला कर उसे अपनी योजना समझा दी।
पृथ्वी पर वसंत ऋतु का आगमन हो चुका था। इस समय पवन के झोंके भी मदमस्त होकर बह रहे थे। प्रकृति ने रंगबिरंगे फूलों से धरती का श्रृंगार किया था। हर प्राणी पर प्रेम की मस्ती छाई थी। महाराज पुरुरवा का प्रेमी ह्रदय तो उर्वशी के प्रेम से इस प्रकार भरा था जैसे मदिरा पात्र ऊपर तक भरा हो।
मादकता से भरी उस रात में उर्वशी और महाराज पुरुरवा एक दूसरे के आलिंगन में बंधे अपने अंतःपुर में लेटे थे। उर्वशी का शरीर यौवन की मदिरा से भरा था। महाराज पुरुरवा किसी प्यासे पथिक की भांति उसे पी जाने को आतुर थे।
दोनों ही एक दूसरे की प्रेम रूपी मदिरा का छक कर पान कर लेने के बाद तृप्त होकर लेटे थे। उसी समय उर्वशी के कानों में अपने मेष शावकों के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने तुरंत महाराज पुरुरवा से विनती की कि जाकर देखें कि उसके प्यारे मेष शावक क्यों चिल्ला रहे हैं। महाराज पुरुरवा जानते थे कि यदि उन्हे कुछ हो गया तो शर्त टूट जाएगी। अतः वह बिना अपनी अवस्था का खयाल किए भागे।
जब वह बाहर आए तो उन्हें एक छाया मेष शावकों को लेकर आकाश मार्ग की ओर बढ़ती हुई दिखी,

"ठहर दुष्ट मैं अभी तुझे मज़ा चखाता हूँ।"

महाराज पुरुरवा की ललकार पर विश्ववसु ने पलट कर देखा। ठीक उसी समय आकाश में दामिनी चमकी। महाराज पुरुरवा विश्ववसु के समक्ष नग्न खड़े थे।
दोनों ही शर्तें टूट चुकी थीं।
उर्वशी के इंद्रलोक लौट जाने के बाद महाराज पुरुरवा पुनः विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो गए। राज्य के संचालन की पूरी ज़िम्मेदारी रानी औशीनरी पर आ गई। महाराज पुरुरवा एक पागल प्रेमी की तरह उर्वशी को पुकारते धरती पर इधर से उधर भटकते रहे।
इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। महाराज पुरुरवा भटकते हुए कुरुक्षेत्र में जाकर उर्वशी की याद में जीवन बिता रहे थे। एक दिन महर्षि नारद उनके पास आए। उन्होंने कहा,

"पुत्र पुरुरवा तुम इतने सालों से उर्वशी के प्रेम में भटकते फिर रहे हो। अब बस करो। उर्वशी इंद्रलोक में सुख से रह रही है। वह एक अप्सरा है। किसी एक पुरुष के साथ बंध कर रहना उसकी प्रकृति नहीं है। उसे भूल जाओ।"

महाराज पुरुरवा ने कहा,

"देवर्षि मैं उर्वशी को भूल नहीं सकता हूँ। अब तो प्राण के साथ ही उसकी स्मृति भी ह्रदय से जाएगी।"

"मत भूलो की तुम चंद्रवंशीय क्षत्रिय हो। अपने बाहुबल से तुमने कई वीरों को जीता है। तुम एक राजा हो। एक पति हो। अपने कर्तव्यों को समझो। सूर्य और ऊषा का साथ कुछ ही देर का होता है। तुम सूर्य हो और उर्वशी ऊषा। तुम्हारे मिलन का समय समाप्त हो चुका है।"

"किंतु उर्वशी के बिना मैं कैसे जीवित रह सकूँगा देवर्षि।"

देवर्षि नारद मुस्कुरा कर बोले,

"मैं उर्वशी की एक निशानी तुम्हें सौंपने आया हूँ। जब वह इंद्रलोक वापस गई थी तब गर्भवती थी। उसने तुम्हारे पुत्र आयु को जन्म दिया। अब तक वह च्यवन ऋषि के आश्रम में पल रहा था। अपनी कुशाग्र बुद्धि से उसने ऋषिवर से सारी विद्याएं सीख ली हैं। अब मैं तुम्हारा पुत्र तुम्हें सौंपने के लिए आया हूँ।"

देवर्षि के बुलाने पर एक सुंदर तेजस्वी बालक ने आकर महाराज पुरुरवा के चरण छुए। महाराज ने उसे वक्ष से लगा लिया। अब पृथ्वी पर उन्हें शेष जीवन अपनी प्रिया की इस निशानी को देख कर काटना था।
आयु को लेकर वह प्रतिष्ठानपुर लौट गए। प्रजा को जब यह समाचार मिला कि महाराज पुरुरवा राज्य के भावी उत्तराधिकारी के साथ लौट रहे हैं तो उनमें खुशी की लहर दौड़ गई। महारानी औशीनरी ने महाराज व राजकुमार आयु का स्वागत धूमधाम से किया।
युवा होने पर आयु को राज सिहांसन पर बैठाया गया। महाराज पुरुरवा अपनी अंतिम श्वास तक उर्वशी को याद करते रहे।

इति