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स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिंदी में जन सामान्य चित्रण

यद्यपि भारतीय इतिहास में 15 अगस्त 1947 का दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्राचीन अध्याय समाप्त कर एक नए युग के प्रारंभ का सूचक है . परंतु हिंदी साहित्य के इतिहास में यह दिवस ना तो स्मरणीय है और ना ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिंदी साहित्य में किसी नई व शक्तिशाली प्रवृत्ति का जन्म नहीं हुआ जिससे स्वाधीनता का सीधा संबंध जोड़ा जा सके
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सन 1950 से ही हिंदी कहानी के क्षेत्र में एक नवीन युग का.शुभारंभ हुआ इस युग के कहानीकार ने परंपरागत वातावरण से हटकर अंचल विशेष के रहन सहन रीति रिवाज खानपान मान्यताओं आदि का स्वाभाविक एवं निश्चल चित्र अंकित करना प्रारंभ किया। कल्पना और अनुभूति की अपेक्षा जनसामान्य के यथार्थ जीवन को आधार बनाकर नूतन कहानियों का निर्माण किया इनमें फणीश्वर नाथ रेनू की रस प्रिया पंच लेट तीसरी कसम या मारे गए गुलफाम तथा शेखर जोशी की समर्पण आदि कहानियों में अंचल विशेष के जीवन को बड़ी सतर्कता स्वाभाविकता सजीवता एवं सरलता के साथ चित्रित किया है ।
मनोवैज्ञानिक आधार पर जन सामान्य के दैनिक जीवन के विषयों को चुनकर मानव मनोवृतियों का यथार्थ चित्रण भी इस युग के साहित्य की अपनी अनूठी विशेषता है । मन्नू भंडारी की नई नौकरी सजा तथा शिवप्रसाद सिंह की दादी मां आर पार की माला उषा प्रियंवदा की वापसी झूठा दर्पण जिंदगी और गुलाब के फूल मोहन राकेश की जानवर और जानवर मलबे का मालिक तथा अमृता प्रीतम की एक नाविक, विष्णु प्रभाकर की औरत की मौत, मन के साए और जिंदगी आदि ऐसी श्रेष्ठ कहानियां हैं जिनमें लोक की सामान्य भूमि को आधार बनाकर लोक चेतना को उभारने का स्तुतिय प्रयास किया गया है।

स्वतंत्रता के वरदान के साथ ही देश विभाजन का अभिशाप अनेक पार्श्विक शक्तियों के साथ अट्टहास कर उठा था। यह भारतीय जनमानस की गोरख विफलता के दिन थे परंतु हिंदी साहित्य में इसका प्रभाव बहुत कम मिलता है । किंचित कथा साहित्य उपन्यास और एकांकीयों मैं इसकी आवाज प्रतिध्वनित होने पर भी हिंदी के समर्थ कलाकार एवं कवियों का सृजन नगण्य नगण्य ही रहा ।
जहां तक भाषा का प्रश्न है हमारे विशाल राष्ट्र में विविध भाषाओं की स्थिति स्वाभाविक है । परंतु जीवित जागृत देश की किसी भी जीवंत भाषा में जन सामान्य के जीवन की अभिव्यक्ति आवश्यक है । भाषा संस्कृति का लेखा-जोखा रखती है हिंदी अनेक प्रादेशिक भाषाओं की सहोदरा तथा एक विस्तृत विविधता भरे प्रदेश में अनेक देशज बोलियों के साथ पलकर बड़ी हुई है अवधि ब्रज भोजपुरी मगधी बुंदेली आदि उसकी धूल में खेलने वाली चिर साहचर्या है। इनके साथ कछार और खेतों मचान और झोपड़ियों निर्जन और जनपदों में घूम घूम कर उसने उजले आंसू और रंगीन हंसी का संबल पाया है । राजतंत्र के युग में भी हिंदी द्वार द्वार पर समानता का अलख जगाती रही है। विधवा के आंसू और मजदूर व किसानों के श्रम बिंदुओं को उसने अत्यंत निकट से देखा है उसकी वाणी में जनसामान्य के हृदय की टीस तड़पती हुई और अश्रु धारा बहाती हुई दिखाई देती है । हिंदी केवल कंठ का व्यायाम ना होकर हृदय की प्रेरणा है जनसामान्य का सार्थक संदेश है जिस प्रकार हम माता से जो क्षीर पाते हैं वह उसके पार्थिव शरीर का रस मात्र ना होकर आत्मा का दान भी होता है ठीक इसी प्रकार हिंदी भी देश के वाहे रूप की पोषक ना होकर उसकी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पुष्पित और पल्लवित कर भारतीय संस्कृति की संदेश वाहिका कही जा सकती है। आज के यांत्रिक युग में मानव व्यक्तित्व का विघटनकारी स्वरूप श्री नरेश मेहता की कविता में देखा जा सकता है --
जिंदगी
दो उंगलियों में दबी
सस्ती सिगरेट के जलते टुकड़े की तरह
जिसे कुछ लम्हों में पीकर
गली में फेंक दूंगा
देश में महंगाई बेकारी और भ्रष्टाचार दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । देश की इस आर्थिक और नैतिक स्थिति का एक रेखाचित्र श्री वीरेंद्र मिश्र की निम्न पंक्तियों में अंकित है --
नीलगगन सा बेकारी का साया है
कुहू निशा सी महंगाई की छाया है
शासन का दीपक मरघट सा जलता है
रिश्वत कारक राजमार्ग पर चलता है
आज के भौतिकवादी इस आर्थिक युग में श्रम धर्म शिक्षा ईमानदारी सभी कुछ विक्रय की वस्तु है यहां तक की प्रेम जैसी महान भावना का मूल्यांकन भी धन से ही होता है ---
एक बैंक की इमारत सा भव्य प्यार
राह पर खड़ा है गभुनभुना कर कहता है
क्या है बनाने को? काव्यशास्त्र दर्शन विज्ञान
नहीं नहीं छोटी सी पासबुक चाहिए यहां पर
आदमी को उसकी शक्ल सूरत और सीरत से कभी नहीं पासबुक और हस्ताक्षर से पहचानते हैं
काव्य मे ही नहीं गद्य साहित्य में भी मध्यम वर्ग की इस दयनीय अर्थव्यवस्था का जीता जागता चित्रण किया गया है। राम नारायण शुक्ल की अक्षरों के बीच और सहारा भैरव प्रसाद गुप्त की चाय का प्याला यशपाल की पर्दा और लखनऊ वाले तथा अमरकांत की दोपहर का भोजन जैसी अनेक कहानियों में मध्यम वर्ग के गिरते जीवन स्तर व दयनीय स्थिति का अति करुण दृश्य उपस्थित किया गया है
समाज में एक और घृणित रूप जो मीठे विश्व की तरह फैला हुआ है पुरुष वर्ग द्वारा किया गया नारी का प्रताड़ित रूप। समाज में सदा से ही प्रभुत्व प्राप्त पुरुष नारी के लिए नैतिकता की परिभाषा अलग ही बनाता रहा है ।यशपाल की पतिव्रता कमलेश्वर की जो लिखा नहीं जाता धर्मेंद्र गुप्त की एक धोखा और जैसी कहानियों में पुरुष वर्ग और नारी वर्ग की नैतिकता को अलग-अलग सीमाओं में आकने की ही व्यथा मौजूद है । पुरुष वर्ग जहां भी अवसर मिलता है प्रेम का अभिनय कर नारी को छलता है यशपाल द्वारा लिखित पहाड़ की स्मृति 80 बटा 100 महेश सिंह द्वारा लिखित काला बाप गोरा बाप नामक कहानी में इसी प्रकार पुरुषों द्वारा छली गई नारी की व्यथा के दर्शन होते हैं । स्वतंत्रता के पश्चात बढ़ती हुई महंगाई और जीवन संघर्ष की तीव्रता ने नारियों को आजीविका की ओर उन्मुख किया है कभी-कभी परित्यक्ता नारी के लिए यह आर्थिक विवशता भी बन जाती है । मोहन राकेश द्वारा लिखित सुहागिनी श्याम व्यास की धूप तालाब प्रश्न अग्निहोत्री की सिसकते सपनों की शाम आदि कहानियों में नारी की इसी विवशता के दर्शन होते हैं । ऐसी नारियां जीवन में सामंजस्य नहीं ला पाती साहित्यकार की कलम समाज में फैली इस विषमता को नारी के हृदय में सिसकते हुए भली प्रकार देख पाती है मन्नू भंडारी की ऊंचाई कुलभूषण की पंछी और पिंजरा राजेंद्र यादव की प्रतीक्षा उषा प्रियंवदा की झूठा दर्पण तथा जिंदगी और गुलाब के फूल और मार्कंडेय की एक दिन की डायरी आदि कहानियों में ऐसी ही नारियों का चित्र खींचा गया है
सच तो यह है कि नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व पुरुष वर्ग को सहन नहीं होता और अविवाहित रहने पर उसके चरित्र को शंका की दृष्टि से देखा जाता है यशपाल के झूठा सच नामक उपन्यास में तारा पूछती है---
लोग क्यों समझते हैं कि बिन ब्याही औरत आवारा ही होती है उसे किसी न किसी खूंटी पर बांध ही देना चाहिए । किसी न किसी को उसका मालिक बन ही जाना चाहिए
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीयों में फेलते हुए जातीय दलबन्दी के दुर्गुण को मैला आंचल नामक उपन्यास में रेनू जी ने बखूबी प्रदर्शित किया है श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी उपन्यास में लोकतंत्र के नाम पर संकीर्ण जातीय राजनीति के प्रसार का जीवंत चित्र अंकित किया गया है राम दरस का टूटता जाल तथा गिरीश अस्थाना के धूप छाही रंग नामक उपन्यासों में भी इसी दलगत राजनीति का चित्रण किया गया है
समाज में फैले हुए इस अन्याय और भ्रष्टाचार से जन सामान्य तथा कवि और कलाकार भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता जगदीश चंद्र माथुर के ऐतिहासिक नाटक कोणार्क में कलाकार की जनवादी भावनाओं को उभारा गया है कवि और कलाकार की दृष्टि तो व्यापक होनी चाहिए उसे केवल सामंतों के विलास का नहीं विस्तृत समाज का अंकन करना चाहिए कलाकार कहता है जब मैं इन मूर्तियों में बंधे हुए रस्सीको के जोड़े देखता हूं तो मुझे याद आती है पसीने में नहाते हुए किसान की कोसों तक धारा के विरुद्ध नौका खेने वाले मल्लाह की दिन भर कुल्हाड़ी लेकर भिडने वाले लकड़हारे की इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर ही निराला जैसा कवि एक मजदूर स्त्री का सजीव चित्रण कर सका ---
देखा मैंने उसे
इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
पंत जी ने श्रमिकों को लोक क्रांति का अग्रदूत कहां है जिनमें असाधारण सहनशीलता है नैतिक श्रेष्ठता है जिनमें संघर्ष करने की दृढ़ता है अटूट पौरुष और अदम्य साहस है कवि कहता है लोक क्रांति का अग्रदूत
वर वीर जनादॄत नव सभ्यता का उन्नायक
शासक शासित चिर पवित्र वह
भय अन्याय घृणा से पारलत
जीवन का शिल्पी
पावन श्रम से प्रक्षालित
पावन श्रम बिंदुओं से प्रक्षालक होने पर भी वह घृणित और हीन समझा जाता है यह कैसी विडंबना है
अंत में यह कहा जा सकता है कि जीवन की वास्तविकता का चित्रण होने के कारण ही साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है एक सच्चे कवि की अनुभूति में जन सामान्य की भावनाएं ही समाई रहती है और उसका साहित्य जनजीवन का जीता जागता रूप है श्री दिनकर ने चक्रवात की भूमिका में लिखा है मेरी कविता के भीतर जो अनुभूति उत्तरी वह विशाल भारतीय जनता की अनुभूतियां थी। वह उस काल की अनुभूतियां थी जिसके अंक मैं बैठकर मैं रचना कर रहा था कवि होने की सामर्थ मुझ में शायद नहीं थी यह क्षमता मुझ में भारतवर्ष का ध्यान करने से जागृत हुई यह शक्ति मुझ में भारतीय जनता की आतुरता को आत्मसात करने से स्रिफुत हुई है
अन्यत्र वे लिखते हैं ---मैं तो कालका चारण हूं और उसी के संकेत पर जीवन की टिप्पणियां लिखा करता हूं
लेखिका
डा श्रीमती ललित किशोरी शर्मा