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हिंदी कथा साहित्य में पाश्चात्य प्रभाव

कथा साहित्य में पाश्चात्य प्रभाव
भारतीय समाज पश्चिम के संपर्क में यूं तो पहले ही आ गया था पर उसकी जीवन शैली, उसकी विचारधारा, उसकी कला और उसके साहित्य पर पश्चिमी प्रभाव वर्तमान स्थिति के प्रारंभ में स्पष्ट दिखाई देने लगा। भारत में अंग्रेजी राज ने इस प्रक्रिया को तीव्र किया। फिर भी पाश्चात्य जीवन मूल्य भारतीय समाज में स्वतंत्रता के पूर्व निर्विरोध रूप से स्वीकृत नहीं हो सके । एक तो अंग्रेज शासकों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम, दूसरे पश्चिमी संस्कृति द्वारा अपनी सांस्कृतिक निजता के विरुपन की आशंका के कारण अस्वीकार औऱ विरोध की स्थिति रही। फिर भी आधुनिक युग में संप्रेषण की दृष्टि से विभिन्न देशों में निकटता आई । उससे विचारधाराओं का विनिमय और प्रभाव अधिक सक्रिय हुआ । दीर्घकालिक परंपराओं वाले देशों को भी आधुनिकता का स्वरूप मोहक लगा । स्वातंत्र्योत्तर भारत में पाश्चात्य अनुकरण बल से नहीं बल्कि स्वेच्छा से क्रियाशील हुआ।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी कथा साहित्य में वस्तु विचार और शिल्प की विविधता आई । इसका प्रारंभ तो प्रेमचंद के बाद ही हो गया था और पाश्चात्य विचारों का समावेश हिंदी कथा साहित्य में होने लगा था पर स्वतंत्रता के पश्चात यह प्रवृत्ति के रूप में स्थिर हुआ ।

एक समाज पर दूसरे समाज के कुछ प्रभाव तो स्कूल बाह्य होते हैं पर वैचारिक प्रभाव इतने भीतर तक प्रविष्ट हो जाते हैं कि मौलिक अंश से उन्हें विश्लेषित करना आसान नहीं होता । हिंदी कथा साहित्य को जिन पाश्चात्य वादों और विचारों ने प्रभावित किया उसमें व्यक्तिवाद मनोविश्लेषणवाद अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद आदि प्रमुख हैं ।
इन प्रभावों के विवेचन के पूर्व यह दृष्टव्य है कि गत दो शताब्दियों में पश्चिमी देशों में ऐसी स्थितियां आई, जिन्होंने पश्चिम को ही नहीं पूरी दुनिया को प्रभावित किया। औद्योगिक क्रांति ने पूंजीवाद को विकसित किया । दो महायुद्धों भौतिक ने भौतिक विनाश के साथ ही भावी दुष्परिणाम भी दिए । वैज्ञानिक विकास ने आस्थाओं को संशोधित किया और आधुनिक परिवेश में जीवन से संगति रखने वाले विविध चिंतनों का उदभव हुआ। डारविन, फ्रायड और मार्क्स की वैचारिक स्थापनाओं ने नए ढंग से जीवन और जगत की व्याख्या की।
पूंजीवाद केवल अर्थ तंत्र नहीं है। यह सामाजिक संबंधों और नैतिक मूल्यों को भी प्रभावित करता है । स्वतंत्रता के बाद भारत में अपनाई गई मिश्रित अर्थव्यवस्था भी पूंजीवाद के प्रसार को नियंत्रित करने में अक्षम रही। पूंजीवाद की उपयोगिता वस्तु को ही नहीं व्यक्ति को भी योग्य मानती है ।आत्म निष्ठता अथवा व्यक्तिवादिता पूंजीवाद की सहायक भी हैं और परिणाम भी । विडंबना यह है कि लोकतंत्र में प्रतिष्ठित व्यक्ति के महत्व को पूंजीवादी व्यक्तिपरता ने अपने हित में निरूपित किया। इसी के साथ अस्तित्व वादी और मनोविश्लेषणवादी दर्शन ने व्यक्ति को निरपेक्ष रूप से साथ ही मान लिया । जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी, भगवती चरण वर्मा के स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में तथा निर्मल वर्मा, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यासों और उनकी कहानियों में व्यक्ति वार्ता की प्रवृति प्रमुख है ।
आधुनिकता एक अन्य प्रवृत्ति है इसने स्वतंत्र हिंदी कथा साहित्य को सही और विकृत दोनों रूपों में प्रभावित किया है। आधुनिकता ऐतिहासिकता के क्रम में परिवर्तित समय की जीवन स्थितियों का यथार्थ है । स्वातंत्र्योत्तर हिंदी भाषा साहित्य में कथा साहित्य में जहां यथार्थवादी लेखकों ने आधुनिकता का विवेचन वैज्ञानिक दृष्टि से किया वहीं अनेक लेखकों ने इसे स्वच्छन्दता, नएपन और फैशन का पर्याय मान लिया था और मुक्त काम को प्रमुख प्रतिपाद्य बना बता दिया । महानगरीय जीवन , क्लब, रेस्तरां, शराब आदि इस आधुनिकता के उपकरण बन गए। आधुनिकता का अर्थ हो गया परस्पर का सर्वथा अस्वीकार। मोहन राकेश का "ना आने वाला कल" निर्मल वर्मा का "वे दिन", राजकमल चौधरी का "मछली मरी हुई" श्रीकांत वर्मा का "दूसरी बार" महेंद्र भल्ला का " एक पति के नोट्स" तथा गंगा प्रसाद विमल का "अपने से अलग" ऐसे उपन्यास हैं जिनमें आधुनिकतावाद लक्षण स्पष्ट हैं।

मनोविश्लेषणवाद योरोप में प्रवर्तित ऐसा वाद है जिसने दुनिया भर के कला, साहित्य , समाज और चिंतन को झकझोर दिया। फ्रायड ने मनुष्य के मनोरोग का विश्लेषण करके उसमें निहित वृतियों, ग्रंथियों और मानसिक तथा जैविक सुविधाओं के यथार्थ का उद्घाटन किया। विडंबना यह है कि ऐसा करते समय फ्रायड का उद्देश्य मानवतावादी था पर कला और साहित्य में उसका अधिकतर उपयोग केवल काम और यौनवृत्ति के पक्ष में हुआ । फ्रायड की धारणा थी कि महायुद्ध से जो क्रूरता और पाशविकता फैली है वह कुछ खास व्यक्तियों की लोलुपता का परिणाम नहीं है बल्कि उसमें लाखों लोगों के अचेतन मन क्रियाशील रहे हैं । फ्रायड मानव मन की बुराइयों का विवेचन महत मूल्यों के निषेध के साथ नहीं करता है । वह कहता था कि इन क्षुद्रताओं तथा दुर्बलताओं को समझकर मनुष्य इनसे बचने का प्रयास करें।
फ्रायड, एडलर और जुग की मनोविश्लेषणात्मक निष्पत्तियों ने कला और साहित्य में बाहरी जगत में समानांतर अंतसचेतना का एक प्रति संसार खोल दिया । चेतन , अर्द्धचेतन और अचेतन रूप में मन के विभिन्न स्तर दिखाते हुए फ्राइड ने कहा कि मनुष्य की दमित इच्छाएं तथा उसका अयुक्त काम अचेतन में पड़ा रहता है । चेतन में उसकी अभिव्यक्ति ना हो पाने के कारण कुंठाऐं , विकृतियां और मनोरोग पैदा होते हैं। मातृ रति , पितृ रति,आत्म रति, स्वपीड़न, परपीड़न , इद , अहम ,पराह्य आदि ग्रंथियां तथा कृतियों के विवेचन के द्वारा फ्रायड ने मन के यथार्थ को इस तरह प्रस्तुत किया कि उससे मनुष्य में व्यवहार तथा वाह्य्य जगत में घटित घटनाओं का तार्किक कार्य कारण संबंध बना और यह लगने लगा कि अपने असामाजिक या अनैतिक व्यवहार के लिए मनुष्य इसी मनोजगत से प्रेरित और विवश है। मनोविश्लेषणवाद की अभिव्यक्ति सबसे अधिक की योन प्रसंगों में हुई । काम वृतियों की मनोवैज्ञानिकता ने अगम्य समझे जाने वाले संबंधों में भी यौन आकर्षण की मनोवैज्ञानिक संभावना देखी। जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी तथा अज्ञेय इस पद्धति के चर्चित कथाकार हैं। अज्ञेय का "नदी के द्वीप" जोशी का "मुक्तिपथ" जिप्सी, जहाज का पंछी,ऋतु चक्र और भूत का भविष्य तथा जैनेंद्र के कल्याणी, विवर्त ,अतीत, जयवर्धन और दशार्क उपन्यास मनोविश्लेषण परक हैं। इन के अतिरिक्त धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता तथा देवराज के उपन्यास भी इसी वर्ग के हैं । कृष्णा सोबती के सूरजमुखी अंधेरे के, राजेंद्र यादव के शह और मात तथा अनदेखे अनजान पुल, भगवती चरण वर्मा के रेखा तथा मृदुला गर्ग के चितकोबरा उपन्यासों में यौन प्रसंगों का मनोविश्लेषण है । राजेंद्र यादव की जहां लक्ष्मी कैद है, हनीमून और सिद्धि कहानियों में अयुक्त काम की कुंठा या विकृति है। यशपाल में भी यौन चित्रण का मुक्त रूप है । महीप सिंह, निर्मल वर्मा, दूधनाथसिंह, गंगा प्रसाद विमल, श्रीकांत वर्मा , जगदीश चतुर्वेदी की कहानियों में भी प्रतीकों के माध्यम से काम भावना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हैं । समलैंगिकता का भी चित्रण कुछ लेखको ने किया है । राजकमल चौधरी के मछली मरी हुई , तथा नागार्जुन की रतिनाथ की चाची , उपन्यासों में तथा राजेंद्र यादव की प्रतीक्षा कहानी में समलैंगिक कामवृति का ही चित्रण है।

अस्तित्व वादी विचारधारा ने भी स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य को डालो प्रभावित किया है । यूरोप में कीगार्ड, हेडगर,सात्र आदि द्वारा प्रतिपादित यह दर्शन तत्कालीन यूरोप में मूल्यों के पुनरीक्षण की आवश्यकता स्वरूप पैदा हुआ। नीत्से ने कहा था ईश्वर मर गया है। अस्तित्ववाद में आस्तित्व को प्रमुख मानकर अपने होने और बनने का सारा उत्तरदायित्व मनुष्य पर डाला गया है। ईश्वर की सत्ता के निषेद्ध के बाद मनुष्य ही अपना नियामक रह जाता है । वह जो भी चाहे हो या बने रहे उसे इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए किंतु व्यवहारिक जगत में ऐसा हो नहीं पाता। अतः इस दर्शन की परिणति निराशा में होती है। संत्रास, अकेलापन, आत्म निर्वासन, कुंठा, व्यक्तिवादिता, क्षणवाद, रुग्णता,मृत्युबोध इस दर्शन की वे प्रमुख परिणतियां हैं जो अन्य देशों के साहित्य की तरह हिंदी कथा साहित्य में दिखाई देती हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शीघ्र ही आये मोहभंग ने भारतीय समाज को हताश कर दिया था। अस्तित्ववादी चिंतन में इस निर्णय को अनुकूलता मिली। अज्ञेय और निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में अस्तित्ववाद की सभी प्रवृत्तियां हैं। आगे का अपने अपने अजनबी उपन्यास तो अस्तित्ववाद का उपयोग ही नहीं, परीक्षण भी करता है किंतु इस प्रकार का चंदन आधार से विच्छेद अवसाद से पूर्ण तथा भारतीय मन से सम्बद्ध ना होने के कारण आयातित और आरोपित ही रहा।

व्यक्तिवाद, आधुनिकता, मनोविश्लेषण की विचारधाराएं भी जाति समाज के साथ संश्लिष्ट स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य की सतत धाराएँ नहीं बन सकी । इसके विपरीत मार्क्सवाद वैज्ञानिक और यथार्थवादी चिंतन होने के कारण स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में अनवरत तथा आज प्रमुख रूप से प्रभावशाली है। भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध विधेयात्मक तथा आशावादी दृष्टि से लिखा गया प्रगतिशील कथा साहित्य मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की आधार पंक्ति यहां स्थित है। अतिशय उत्साही भावुकता तथा बने बनाए नसों की क्रांतिकारिता में लिखे कथा साहित्य को छोड़ भी दें तो आज अति मार्क्सवाद से सहमत अनेक कथाकार ऐसा साहित्य लिख रहे हैं जो हमारी परिस्थितियों के यथार्थ को उद्घाटित करता हुआ शोषण के खिलाफ खड़ा है। प्रेमचंद की परंपरा में समाज से प्रतिबद्ध यह कथा साहित्य रूड़ियों का खंडन करके समय और गतिशीलता का पक्षधर है। यशपाल ,भैरव प्रसाद गुप्त, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, राहुल,रांगेय राघव,भीष्म साहनी,मारकंडेय, अमरकांत, हरिशंकर परसाई, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, शेखर जोशी आदि प्रमुख मार्क्सवादी कथा कारों की परंपरा आज और भी सतत रूप से जारी है।
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