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सौन्दर्य का लक्षण

मानव जीवन और सौन्दर्य बोध

सृष्टि के आदिकाल में जब से मानव ने प्रकृति के सान्निध्य में रहकर चेतना का विकास किया है , सौन्दर्य के प्रति उसका निरन्तर आकर्षण रहा है । प्रकृति के वैविध्य में उसे सौन्दर्य बोध होता रहा है । सौन्दर्य शब्द का प्रयोग जितना सामान्य एवं व्यापक है उसका अर्थ उतना ही दुर्बोध एवं विवादास्पद है साधारणतया जिस वस्तु से मानव मन में कोई सुखद अनुभूति का बोध होता है उसको वह सुन्दर कहता है । प्रातःकालीन उषा की लालिमा , निरभ्र आकाश की नीलिमा , शारदीय पूर्णिमा की ज्योत्स्ना , नवरंगी इन्द्रधनुष , रक्ताभ कमल आदि सभी मानव को सुन्दर प्रतीत होते है क्योंकि उन्हें देखकर मानव मन मे सुखद अनुभूति का बोध होता है ।

सौन्दर्य एक जीवन्त तत्व है चाक्षुष सौन्दर्य दर्शन के विश्लेषण में दो तत्व हमारे सामने आते है - संदर्भित वस्तु का गुण और उसके द्वारा जाग्रत मनोभाव । किन्तु सौन्दर्य विश्लेषण के लिये मनोभावों का विश्लेषण करना ठीक वैसा ही होगा जैसाकि दर्पण में प्रतिबिम्बित / वस्तु जगत की व्याख्या हेतु दर्पण संरचना की व्यख्या ।
ऋग्वेद के ' सुनर ' शब्द से भाषा वैज्ञानिक आगम प्रक्रिया के आधार पर द ' का आगम होकर सुन्दर शब्द की सिद्धि मानते है । वाचस्पत्य कोष के अनुसार ' सु ' उपसर्ग पूर्वक ‘ उंद् ' में ' अरन् ' प्रत्यय जुड़कर बना है ।
जिसका अर्थ सु अर्थात् सुष्ठ या भली प्रकार और उंद अर्थात् आर्द्र ( गीला ) करना और अन्त में कर्तृ वाचक प्रत्यय अरन् है । अतः इसका सम्पूर्ण व्युत्पत्ति परक अर्थ हुआ – भली प्रकार आर्द्र ( गीला ) या सरस करने वाला । सौन्दर्य की उत्पत्ति एक और प्रकार से की गई है - सुन्दराति इति सुन्दरं तस्य भावः सौन्दर्यम् अर्थात सुन्द को लाने वाला सुन्दर और उसका भाव सौन्दर्य कहलाता है । सौन्दर्य शब्द सुन्दर श्यज् के योग से बना है जिसका अर्थ सुन्दरता या मनोहरता है । ' डा0 रामेश्वर खण्डेलवाल के अनुसार ' सुन्द ' अर्थ है ' कर्तनी ' अर्थात् जो कैची की तरह काटने वाला हो , उसको जा लाता है वह सुन्दर हुआ । सौन्दर्य हृदय पर नेत्र के द्वारा कैची के समान काट वाला पक्का प्रभाव करता ही है , इस बात से कौन अनिभिज्ञ है । अमर कोष के अनुसार ' —
सुन्दरं रूचिरं चारू सुषमं साधु शोभनम् '
माध प्रति क्षण नवीनता में ही सौन्दर्य के दर्शन करते है । सौम्य रमणीय मनोज्ञ , मनोहर , मधुर , चारू , मंजुल , लावण्यता , शोभन , लालित्य इत्यादि नामों से सौन्दर्य को इंगित किया गया है । भारत वसुन्धरा सौन्दर्य की आगार है यहाँ के मनीषियों ने सौन्दर्य पर अपने विभिन्न विचार प्रकट किये है । विश्व के सर्वप्राचीन साहित्य उपनिषदों में भी सौन्दर्य विवेचन के दर्शन होते है । मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि उस ईश्वरीय सौन्दर्य का प्रकाश ही विश्व के सम्पूर्ण वस्तुओं में प्रतिभाषित होता है ।
सौन्दर्य वह सौन्दर्य एक वांछितवस्तु है । सुख सौन्दर्य का स्पष्ट गुण है । लेकिन सौन्दर्य काल , देश व्यक्ति तथा परम्परा से नियमित होता है क्योंकि मानवीय संवेदना भी काल सापेक्ष हाती है । संत टामस ने कहा है कि है जो देखे नाने पर सुखानुभूति कराये । कुछ विचारकों के अनुसार सौन्दर्य पूर्णतः वस्तुनिष्ठ है अतः वह चाक्षुष बोध से संबधित है । प्रत्यक्ष के लिए अन्तः करण और इन्द्रिय दोनो का वस्तु के साथ सन्निकर्ष होना आवश्यक है । इन्द्रिय एक प्रकार की शक्ति है जिसमें बाहरी वस्तु से , ज्ञेय अथवा दृश्य से प्रभावित होने तथा उनको प्रभावित करने की क्षमता है । अतः प्रेयस की मात्रा इन्द्रियों की सशक्तता - अशक्तता और अच्छाई बुराई पर निर्भर है । सौन्दर्य होने के कारण ही अर्थात् प्रत्यक्षीकरण के माध्यम की विशेषता के कारण ही हम व्यक्तियों में “ सौन्दर्य ” के प्रभाव से मुग्ध होने तथा सुन्दर को प्रभावित करने के स्तर अथवा मात्रा में भिन्नता पाते है । इसलिए व्यक्ति के सौन्दर्य बोध की भिन्नता भी इसका पुष्कल प्रमाण पेश करती है कि सौन्दर्य का सम्बन्ध सेन्द्रिय प्रत्यक्ष से है ।
सौन्दर्य बोध मे अन्तः करण का योग भी स्पष्ट है अन्तः करण का योग दो अवस्थाओं मे होता है प्रथम सौन्दर्य की प्रत्यक्षावस्था मे - चूंकि अन्य मनस्क अर्थात चित्त कहीं और लगे रहने की अवस्था मे सौन्दर्य के अवलोकन में ही मन नहीं रमेगा और अन्तः करण का दूसरा योग होता है सौन्दर्य की समृति में । स्मृति के समय में अन्तःकरण की आवश्यकता इसलिए है क्योकि सौन्दर्य का वास्तविक आलम्बन अन्तःकरण में ही अन्तनिहित हैं ।
प्रायोगिक सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार सुन्दर असुन्दर का मापदण्ड व्यक्ति के उस रूचिप्रयोक्त परिवेश पर निर्भर करता है जो आसंग , संगति , वातावरण और अभ्यास की सापेक्षता मे उसकी प्रत्यर्थता का नियमन करता है । कौन वस्तु सुन्दर है यह दृष्टा की रूचि पर निर्भर है क्योंकि एक ही वस्तु के प्रति विभिन्न आसंग , संगति , वातावरण और अभ्यास में पले हुए व्यक्तियों को प्रत्यधंतायें भी भिन्न होती है इससे सिद्ध है कि सुन्दर असुन्दर का निर्णय व्यक्तिसापेक्ष होता है । प्रायोगिक सौन्दर्यशास्त्र की यह उपलब्धि अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि सुन्दर असुन्दर के निर्णय व्यक्ति की अपनी प्रत्यर्थता की प्रणाली , नेत्ररचना और शरीर निर्माण पर निर्भर करता है । जीव - विज्ञान भी इस स्थापना का समर्थन करता हैं मानव ही क्या ? मानवेतर प्राणियों पर भी यह बात चरितार्थ होती है । उदाहरणार्थ कुछ जीवधारियों को प्रकाश सुन्दर लगता है और कुछ को अन्धकार । क्यों पागल पतंगा दीपक को लौ के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर उस पर मर मिटता है ? क्यों स्नेही चातक चाँद की किरण मंजूषा चन्दा की ओर सदा उन्मुख रहता है ? क्यों " टर्गरप्रेसर " से भुकने वाली पीताभ सूर्यमुखी दिनकर का आलोक वरण कर उसके पीछे उन्मत रहती है- संध्या के आते ही विरह में नतग्रीव हो जाती है किन्तु इसके ठीक विपरीत उलूक को प्रकाश का सौन्दर्य आकृष्ट नहीं करता । इसका उत्तर जीव - विज्ञान के अनुसार शरीर रचना तथा आवश्यकताओं की भिन्नता है बिहारी के अनुसार इस भिन्नता का कारण रूचिभेद हैं । इसी प्रकार मनुष्य में भी नेत्र मस्तिष्क संबंध की विशेषता के कारण सौन्दर्य के प्रति उनकी प्रत्यर्थता में पर्याप्त अंतर आ जाता है मानव मस्तिष्क के मध्य भाग होते है ( 1 ) सेरेब्रम ( 2 ) सेरेब्रल ( 3 ) आप्टिक थैल्मस । सेरेब्रल और सेरेब्रम के अन्तर्गत मस्तिष्क का वह अंश आता है जो अतीत और वंशानुगत संस्कारों को सुरक्षित रखता है मस्तिष्क के इस अंश का सौन्दर्य चेतना से कोई ऋजु सम्बन्ध नही है । किन्तु मस्तिष्क का आप्टिक थैल्मस वाला अंश मानव के सौन्दर्य चेतना से निकट का सम्बन्ध रखता है । यही वह अंश है जो कुछ तन्तुओं को नेत्रों की ओर भेजता है । फलस्वरूप किसी वस्तु के प्रत्यक्षीकरण के उपरान्त नेत्रो की अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रियों को वह मस्तिष्क के निर्णय - क्षेत्र तक पहुँचाता है । अतः जिस व्यक्ति का आप्टिकलथैलमस जितना ही सक्रिय , सजग और समर्थ होता है , उसकी सौन्दर्य चेतना उतनी ही प्रखर होती है ।
कालिदास ने भी सौन्दर्यानुभूति में “ एफ . डब्लू रकस्टल ” की भाँति आत्मा की विकलता ( उत्सुकता ) का प्रश्न उठाया है । कालिदास का विस्वास है कि सौन्दर्यानुभूति में सर्वदा आलम्बन के प्रत्यक्ष या परोक्ष रहने पर विफलता का अंश विद्धमान रहता है ।
इतना ही नही कालिदास की एक और मान्यता पाश्चात्य वास्तुनिष्ठ सौदर्यशास्त्रियों से साम्य रखती है । वास्तुनिष्ठ सौन्दर्यशास्त्रियों का कहना कि सौन्दर्य वस्तु में है दृष्टा के मन मे नहीं । अतः जो वस्तु सुन्दर है वह सर्वत्र सुन्दर है । कालिदास ने भी इसे एकाधिक बार स्वीकार किया है कि सौन्दर्य सर्वदा मनोद ( रमणीय और सुन्दर ) होता है । उसे किसी प्रसाधन की आवश्यकता नहीं होती इसीलिये उन्हें रूक्ष वल्कल में सिमटी कोमलांगी अच्छी लगती है । और शैवाल में लिपटी कमलनी भी आकर्षक प्रतीत होती है । इस प्रकार खोज करने पर भारतीय सौन्दर्य चिन्तन मे अनेक ऐसे स्थल मिल जाते है जो पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र की अधुनिकतम उपलब्धियों से आश्चर्यजनक साम्य रखते है । भारतीय सौन्दर्य चिन्तन की यहाँ एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि इसमें प्रायः सभी आधुनिक एवं अत्याधुनिक विचारणाओं के बीज सुरक्षित है ।
देश और काल का आधार पर सौन्दर्य के मूल एवं मान बदल जाते है । जैसे भारतीय दृष्टि के अनुसार सौन्दर्य सर्वधा और सर्वथा अन्तरंग है इसी भारतीय विशेषता को स्वामी विवेकानन्द ने ऐशिया व्यापी प्राच्य प्रवृति कहा है ।
श्री हरिवंश सिहं शास्त्री ने सौन्दर्य की परिभाषा शांकर अद्वैत सिद्धान्त के आधार पर प्रस्तुत की हैं ( स्थूल या सूक्ष्म जगत मे आत्मा को अभिव्यक्ति ही सौन्दर्य है । घनानन्द भी सौन्दर्य को नित्य नवीन मानते है ।
पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्री क्रोचे ने अपने सौन्दर्यशास्त्र में कल्पना की व्यापकता व प्रभावशालिनी सत्ता पर अधिक बल दिया है । कल्पना वह शक्ति है जो मूर्तियों का अविष्कार करती है , निर्माण करती है और उन्हे गढ़ती है । सौन्दर्य का बोध कराने वाली शक्ति है तो वह कल्पना ही है । वस्तु के उन्मीलन सौन्दर्य कलाकार की कल्पना का ही कमनीय व्यापार है । क्रोचे के शब्दों में कहा जा सकता है कि- ' सत्य के कलापक्ष का परिचायक व्यापार ही मन का सौन्दर्य बोधात्मक व्यापार है । कला पर शासन करने वाली वस्तु कल्पना ही है । कल्पना आत्मा की अपनी निजी क्रिया है । दृश्य जगत की यह कल्पना ही मानव मस्तिष्क का सौन्दर्य बोधात्मक व्यापार है । जिसके अनुसार मानव जगत मे सौन्दर्य बोध करता है । इसी सौन्दर्यबोधात्मक व्यापार अथवा कल्पना से कला का जन्म होता है कला का महत्व इसी में है कि वह हमारी जीवन लता का मूल है । यह न फूल है और न फल ।
क्रोचे किसी भी सौन्दर्यमय वस्तु के दो आधार मानते है । ( 1 ) द्रव्य और ( 2 ) खाँचा । सौन्दर्य सत्ता के विषय में तीनगत है कुछ उसे द्रव्य में मानते है । अन्य लोग द्रव्य और साँचे के संयोग में सौन्दर्य भावना मानते है परन्तु क्रोचे साँचे को ही सौन्दर्य का आधार स्वीकार करते है । यह साँचा ही आत्मा की कृति है । कला के क्षेत्र में भी साँचा ही सबकुछ है द्रव्य का कोई महत्व नहीं । मानव का स्वयं प्रकाश ज्ञान या प्रतिम - ज्ञान जिस साँचे में ढ़लता है वही अभिव्यंजना है और यह अभिव्यंजना ही सौन्दर्य है । क्रोचे का यही विशिष्ट मत है कि सौन्दर्य ही सफल अभिव्यंजना है ।
' अपनी अनुभूति प्रत्यक्ष , स्मृति , कल्पना आदि के द्वारा आनन्द को उत्पन्न करने वाली वस्तु के गुणो को सौन्दर्य कहते है ।
रमाशंकर तिवारी के अनुसार – ' हमारे हृदय का वह आनन्दांश ही सौन्दर्य हैं , जो किसी वस्तु के साक्षात् दर्शन या उसके ज्ञान से उबुद्ध होकर हमें तन्मय कर देता है और उस वस्तु पर पड़कर उसे सुन्दर तथा प्रिय बना देता है ।
महाकविकालिदास के अनुसार सौन्दर्य का रहस्य प्रिय को आनन्दित करने में ही है ।
मानवीय सौन्दर्य में शरीर के अंग प्रत्यंग का समुचित समन्वय , सुन्दर गठन एवं जोड़ो का मिलान ठीक होना ही सौन्दर्य कहलाता है । हिन्दी के महाकवि श्रीजयशंकरन प्रसाद ने सौन्दर्य को चेतन का उज्ज्वल वरदान माना है । पाश्चात्य देशों में भी सौन्दर्य - शास्त्र निरन्तर चिन्तन का विषय रहा है । पाश्चात्य तत्व ज्ञान के जनक ग्रीक तत्ववेत्रा सुकरात के अनुसार सौन्दर्य जीवन की श्रेष्ठता का द्योतक है । '
सौन्दर्यशास्त्र के आद्याचार्य अरस्तु के अनुसार वह शिवम् ही सुन्दर होता है जो सुखदायक हो क्योंकि वह मंगलदायक होता है । '
हीगेल के अनुसार अनेकत्व में एकत्व होना यही सौन्दर्य है ।
हरवर्ट के अनुसार ' सौन्दर्य किसी वस्तु विशेष की सत्ता पर निर्भर नही करता वह तो स्वाभाविकरूप से हमारे मन में विमान रहता है ।
हम किसी वस्तु को सुन्दर इसलिये नही कहते है कि वह अपने आप में सुन्दर है , बल्कि इसलिये कि हम उसे चाहते है । वह हमारी इच्छा शक्ति की गति के अनुकूल हुआ करती है । ' स्पिनोजा '
प्राचीन भारतीय अत्यधिक सौन्दर्यप्रिय रहे है । उनके द्वारा गढ़ी हुई मूर्तियाँ इस बात की साक्षी है । अंगो की बनावट , नाप - तौल , गठन तथा सुडौलपन पर भी वे बहुत बल देते थे और उनकी दृष्टि में ये ही सौन्दर्य के मापदण्ड थे । भारतीय विद्वानों ने तो सौन्दर्य की पूर्णरूप से विवेचना करने का प्रयत्न किया है । डा 0 रमाशंकर तिवारी के अनुसार – ' सौन्दर्य वह वस्तु नहीं कि उसकी देर तक अतिअन्वीक्षा एवं परीक्षा की जाये । वह तो एक ऐसा गुण है जो दृष्टिगत होते ही सीधे प्रवेश करता है और दृष्टा की अन्तरआत्मा को सदयः बन्दी बना लेता है ।
डॉ० तिवारी सौन्दर्य की व्याख्या करते हुए आगे लिखते है कि “ सौन्दर्यनुभूति इन्द्रियों का व्यापार है । वह तर्काश्रित नहीं , भावाश्रित है । उसकी प्रकृति वेदनामूलक है । उसकी प्रत्येक अभिव्यक्ति में एक आध्यात्मिक परम्परा होती है और इसी कारण वह परम्परा जिस व्यक्ति में जितनी दृढमूल रहती है वह उतनी गहराई के साथ सौन्दर्यनुभूति कर सकता है । ” सौन्दर्य का रस ध्वन्यात्मक व आध्यात्मिक होने के कारण ही इसकी प्रक्रियायें सूक्ष्म एवं आन्तरिक होती है ।
“ महाकवियों की वाणी में ध्वनि ऐसी सुशोभित होती है जिस प्रकार वह लावण्य , जो युवती के अंग , उनकी गठन या रूपरंग आदि से सर्वदा भिन्न होता हुआ भी उसमें ऐसा झलका करता है जैसे मोती में आभा ।
सौन्दर्य चेतना आध्यात्मिक होने के कारण हमारी सौन्दर्यनुभूति भी ध्वन्या रही है । इसका अर्थ यह है कि सौन्दर्य का आस्वादन , हम नेत्र निमीलन करके केवल कानों से ध्वनि के रूप में करते है ।
जो आत्मा जितनी अधिक पवित्र तथा दिव्य प्रकाश से युक्त होती है उसे अपने निवास के लिए उतना ही सुन्दर शरीर मिलता है और वह उसे भी प्रसन्न मुद्रा तथा मधुर रूप से सजा लेती है , क्योंकि आत्मा ही वह साँचा है जो शरीर को अपने अनुसार ढाल लेता है । '
श्रीहर्ष भी सुन्दर रूप में सुन्दर गुणों का निवास मानते है । सौन्दर्य के संबध में कलिदास भी एक महत्वपूर्ण धारणा यह भी है कि सौन्दर्य तथा पापवृति का कभी भी साहचर्य नहीं हो सकता । सुन्दर आकृति में कभी भी विरोधी गुण निवास नहीं करते ।
शारीरिक सौन्दर्य के मानदण्ड
( नाट्यशास्त्र व अन्य ग्रन्थों के आधार पर )
मानव का यौवनकाल ऐसा समय है जब स्वाभाविक रूप से मानव के शारीरिक सौन्दर्य में वृद्धि हो जाती है । नाट्यशास्त्र के अनुसार भी नायिकाओं की यौवनावस्था में उनके शारीरिक सौन्दर्यवर्धक कुछ धर्मों का उदय हो जाता है । जिन्हें शारीरिक सौन्दर्य के चर्म , गुण , अलंकार या मानदण्ड कहा जाता है । नायिकाओं के ये अलंकार तीन प्रकार के होते है- ( 1 ) आंगिक अलंकार ( 2 ) स्वाभाविक अलंकार ( 3 ) अयत्नज अलंकार ।
यौवन - काल में उत्तम प्रकृति वाले पुरुष स्त्रियों में उत्पन्न होने वाले हाव - भाव आदि अलंकार कटक , केयूरादि स्वर्णाभूषणों के समान उनके सौन्दर्य व शारीरिक शोभा के जनक होते है ।
1. आंगिक अलंकार हाव , भाव , हेला ये तीन अंलकार यौवनोद्रेक से युक्त शरीर में प्रिय के देखने मात्र से अथवा माल्यादि बाह्य साधनों के अभाव में भी केवल शरीर मात्र से उत्पन्न होते है अतः इन्हें आंगिक या अंगज अलंकार कहा गया है । ये क्रियारूप या चेष्टात्मक होते है । नाट्यशास्त्र में ' भाव ' नामक अंगज अलंकार का लक्षण इस प्रकार दिया गया है
" भावो वागादिर्वशिष्ट्यं चिह्न रत्योत्तमरव्यों । '
अर्थात् रति और उत्तमत्व की सूचक वाणी आदि ( हाथ पैर ) का वैशिष्ट्य अथवा मनोहर विकार ' भाव ' कहलाता है । इस भाव अलंकार के द्वारा नायिका के वैशिष्ट्य को देखकर -इस नायिका के अन्दर कामप्रदीप प्रज्वलित हो गया है , तथा यह नायिका उत्तम प्रकार की है- इस प्रकार का निश्चय सहदृयों को हो जाता है , इसीलिए भाव को रति तथा उत्तमत्व का चिन्ह कहा है ।
हाव “ नेत्रादिविकृतं हावः सश्रृंगारमसन्ततम्
अर्थातू शृंगारयुक्त किन्तु निरन्तर न रहने वाला नेत्रादि का विकार हाव ' कहलाता है । दोनों नेत्रो का तथा भौंह , ठोड़ी , गर्दन आदि का श्रृंगार के अनुरूप विशेष प्रकार का तथा निरन्तर न रहने वाला विकार ' हाव ' कहलाता है ।
हेला – “ सदैव सन्ततं हेला , ताद्वयोद्बोधशालिनी
अर्थात् यौवनोत्कर्ष पर उदित और निरन्तर रहने वाला वही नेत्रादि का विशेष प्रकार का विकार हेला कहलाता है । ये तीनों भावादि परस्पर अन्योन्य होते है किन्तु इनमें से भाव अपने उत्तरवर्ती हावादि की अपेक्षा नहीं रखता जबकि हाव अपने पूर्ववर्ती भाव की अपेक्षा रखता है । चूंकि भाव के बिना हाव उत्पन्न नहीं हो सकता और हाव के बाद उत्पन्न होने वाली हेला हाव की अपेक्षा रखती है । चूंकि हेला भी हाव के बिना उत्पन्न नहीं होती ।
स्त्रियों के इन अलंकारो का उद्रेक यौवन में ही होता है । बाल्यकाल में ये अनुद्भिन्न होते है और वार्धक्य में तिरोभूत । किसी कवि ने कहा है कि - तरणीजन के कुट्टमितादि ये जितने भाव होते है । इन सभी को रात्रि में अदृश्य घटादिकों की भाँति कामरूपी दीपक प्रकट कर देता है
“ यावन्त एते तरूणीजनस्य भावाः समं कुट्टमितादयोपि ।
रात्रावदृश्यामिव तान् घटादीन्कामप्रदीपः प्रकृटी करोति ।।
स्त्रियों की उत्त्तमता के दर्शन अंगो में सुकुमारता और लालित्य , मन में कोमलता और प्राणों में मधुरता एवं रसमयता के रूप होते है जबकि पुरुष की उत्तमता , उसकी वीरता उदात्तता , दृढ़ता और साहस में निहित होती है । स्त्री पुरुष दोनो की ही शरीर रचना व मनः प्रकृति भिन्न - भिन्न है और उनकी प्रकृति के अनुरूप ही उनके शारीरिक सौन्दर्य के मानदण्ड निर्धारित किए गए है । स्त्री की जीवन प्रकृति के अनुरूप ही आचार्य भरत ने बीस अलंकारो की परिकल्पना की है तो उसके अन्तर और बाह्य सौन्दर्य , सुकुमारता , सलज्जता , पवित्रता स्नेहशीलता की उज्ज्वता से विभासित करते रहते है । इन अलंकारो के द्वारा नारियों के विविध भावों और सुकुमार भाव भंगिमाओं आदि का प्रेषण तो होता ही है साथ ही अनिर्वचनीय सौन्दर्य सृजन भी । ये अलंकार भाव रस के आधार होते है । सात्विक भाव मनुष्यमात्र के मन में संदेवन के रूप में व्याप्त है परन्तु वह देहाश्रित है । देह के माध्यम से उन सात्विक भावों की अभिव्यक्ति होती है । इन सात्विक विभूतियों के दर्शन उत्तम स्त्री - पुरुषो में होते है । सीता और वासवदत्ता जैसी नायिकाओ के जीवन के चारो ओर इसी सात्विक सौन्दर्य की महिमाशाली पवित्र ज्योति प्रतिभासित होती है । ये अलंकार केवल शरीर की शोभा नही अपितु ये प्राणों के मधुर गुंजन है , नारी के चरित्र का परिष्कृत परिनिष्ठित रूप है । '
नाट्यशास्त्र के अनुसार नायिकाओ के तीन अलंकार निम्नानुसार है
1. आंगिक अलंकार नारियों के आंगिक विकार यौवन वयस् में अधिक बढ़ जाते है । इनकी संख्या तीन मानी गई है ।
भाव यह सत्व की आन्तरिक वृति है इसकी अभिव्यक्ति देह के माध्यम से होती है । अतः यह देहात्मक ही है । सभी अंगज अलंकार किया ( कृति ) साध्य है ।

इनकी अभिव्यक्ति ( प्रकटीकरण ) हेतु शारीरिक क्रिया आवश्यक है । सत्व से भाव उत्पन्न होता है , भाव से हाव और हाव से हेला की उत्पत्ति होती है । ये तीनों ही क्रमशः विकसित होते है और आन्तरिक सत्व के ही विविध रूप है । सत्व की अभिव्यक्ति नर - नारी के संदर्भ में भावों द्वारा होती है । दशरूपककार के अनुसार निर्विकारात्मक सत्व से भाव का प्रथम स्फुरण होता है । ' डा 0 इन्द्रपाल सिंह ने श्रृंगार रस का विवेचन करते हुए भाव की परिभाषा इस प्रकार लिखी है- “ वाचिक आंगिक एवं सात्विकराय ( रंजन ) के अभिनय द्धारा कवियों ( सूक्ष्म , सूक्ष्मतर अर्थों को देखने वाले सहृदयों ) के वासनात्मतया वर्तमान रस भावों को भाषित ( सुवासित , अनुरंजित ) करने वाले विकार भाव है l
हाव — हाव भाव से उत्पन्न होता है और इस अवस्था में नारी आलापोन्मुख नहीं होती उसके रसभरे नयनों और भौंहों से प्रेमभाव के मधुर विकार उत्पन्न होते है इसमे प्रेम भाव शब्दो द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता अपितु देह - विकार उसे रूप देते है अर्थात् श्रृंगारोचित आकार के सूचक नेत्र , भ्रू , चिबुक , ग्रावादि की भी भंगिमा से स्थित समुत्थित अर्थात् रह रहकर उद्भिन्न ( विकसित ) होने वाले विकार हाव कहे जाते है ।

हेला — हेला हाव से उत्पन्न होता है । यहाँ पर श्रृंगार रसरूप में विकसित हो जाता है । हिल् शब्द का अभिप्राय है भावकरण । हेला चित्त की ऐसी स्थिति होती है । जब श्रृंगार रस अत्यन्त तीव्र हो जाता है । हृदय में भाव का प्रसार अत्यन्त वेग से होता है उसी के अनुरूप अंग पर विकार की भी लहरें उभर उठती है ।
अभिनवगुप्त के अनुसार हेला तीव्रता का वाचक है और भरत ने भाव के तीव्र प्रसार के अर्थ में ही इस शब्द का प्रयोग किया है । इस प्रकार ललित अभिनयों ( चेष्टाओं ) से युक्त श्रृंगाररस ( रति ) सम्भव देहविकार विशेष को ही हेला कहते है । हावावस्था में स्वयं रति का प्रबोधन नहीं माना जाता , केवल रति के संस्कार बल से देह विकार उत्पन्न हो जाता है । हेला में रति प्रबृद्ध मानी जाती है । केवल समुचित विभानुकूलता के अभाव से उत्पन्न निर्विषयता ( आलम्बन विभावरहित्य ) के कारण उक्त देह विकार परिस्फुट नहीं हो पाता ।
स्वभावज अलंकार
वस्तुतः सत्व के इन तीन रूपों द्वारा मनुष्य के भावलोक की प्राण - कलिक - रति का उद्बोधन होता है । रति प्रबोध के उपरान्त उठने वाली मदिर भाव लहरियाँ नारी के लिए परम उत्सव का विषय होती है । ये ही लोकोत्तर अलंकार के रूप में आचार्य भरत द्वारा वर्णित की गई है । ये स्वाभाविक अलंकार यत्नजात ( क्रियात्मक ) होते है । स्वरतिभाव से प्राणित , हृदयगोचरीभूत होने के कारण ये स्वभावज कहे गये है । इन स्वभावज अलंकारो में रति का प्रबोधनमात्र होता है । यहाँ अभिलाषा की स्थिति नहीं मानी जाती । ये अलंकार यद्यपि पुरुषो में भी होते है परन्तु स्त्रियों में अधिक शोभित होने के कारण इन्हें नायिकाओं के ही अलंकार कहे गए है । इन अलंकारो की संख्या दस मानी गई है -

1. लीला – प्रियतम की अनुकृति ही लीला है । यह शिष्ट वचन , सुकुमार भाव भंगिमा और मोहक वेश - विन्यास द्वारा सम्पन्न होती है । आचार्य भरत ने लीला नामक अलंकार की परिभाषा नाट्य शास्त्र में इस प्रकार दी है " लीला दयितवागादेः स्वे न्यासो बहुमानतः ” - अर्थात् प्रिय के वचन आदि को अत्यन्त आदरपूर्वक अपने भीतर रखना लीला कहलाती है । डा0 इन्द्रपाल सिंह ने श्रृंगार रस कर शास्त्रीय विवेचन नामक ग्रंथ में लीला की परिभाषा इस प्रकार की है “ प्रियतमगत प्रीति , उसके प्रति आत्मा ( हृदय ) में अतिशय आदर के भाव मधुर ( सुकुमार अनुध्दत ) विशिष्ट वाचिक आंगिक अलंकारो से युक्त प्रयोगक युवतियों द्वारा प्रियजन की अनुकृति को लीला कहते है अतः स्पष्ट है कि लीला में प्रियतम के प्रति रति , समादर एवं शिष्टाचार का भाव आवश्यक है । औध्दत्य , साभिमानता एवं अनुकरणगत अशिष्टता इस अलंकार के विरोधी तत्व है ।
2. विलास - स्थानासन , गमन एवं हस्त , भू , नेत्रादि के कामों ( व्यापारों ) में ( प्रिय के दर्शनादि से ) जो श्लिष्ट ( अस्पष्ट अव्यक्त ) विशेषता उत्पन्न होती है वह विलास है । निश्चित ही प्रियतम के उपस्थित होते ही नारी के हाथ , पाँव , भौंह , उठना - बैठना और गति आदि में सामूहिक भाव से अनिर्वचनीय लास्य परिलक्षित होता है । लास्य द्वारा नारी सौन्दर्य में अनुपम निखार आ जाता है । नाट्य शास्त्र में विलास की परिभाषा इस प्रकार दी गई है “ विलासः प्रियदृश्ट्यादौ चारूत्वं मात्रिकर्मणों : "अर्थात् प्रिय के दर्शन , सभाषण आदि से शरीर और कमों में उत्पन्न विशेष सुकुमारता विलास के नाम से जानी जाती है । ' चारूत्व ' शब्द का तात्पर्य उस समय उत्पन्न होने वाले विशेष प्रकार के सौन्दर्य से है ।
3. विच्छिति - माल्य , आच्छादन , भूषण , आलेपन आदि का असावधानी से प्रयोग ( न्यास ) करने पर निश्चित ही अधिक सौन्दर्य ( शोभा ) का प्रसार होता है । इन्हीं माल्य , आवरण अलंकार , विलेपन आदि के उपेक्षापूर्ण एवं अत्यल्प भी धारण ग्रहण आदि से यदि परमशोभा की उत्पत्ति हो तो यह अलंकृति विच्छिति कही जाती है । "
वेशल्पतैव विच्छित्तिः परां शोभां वितन्वती ।
अर्थात् अत्यधिक सौन्दर्य को प्रदर्षित करने वाला स्वल्प वेश धारण ही विच्छिति कहलाती हैं स्त्रियों के अन्दर उनके प्रकृष्ट सौभाग्यादि गुणों के कारण वह स्वल्प वेशविन्यास ही अत्यधिक सौन्दर्य को उत्पन्न कर देने वाला होता है ।
4. विभ्रम विविध वस्तुओं ( वस्त्राभूषणादि ) तथा वाणी , अंग वेश , अनुभाव , स्तम्भ , ( पुलकादि ) आदि का मद , राग , हर्षजनित व्यत्यास ( व्यतिक्रम ) विभ्रम कहलाता है अर्थात् वाचिक , आंगिक और आहार्य अभिनयों के क्रम में मद , राग , हर्ष की अतिशयता के कारण नारी विपरीत आचरण करने लगती है , जैसे हाथ से ग्रहण करने के बदले पाँव से ग्रहण करना , रसना को कंठ में न्यास करना आदि विपरीत आचरण प्रेम के सौभाग्य गर्व के सूचक होते है ।
' रागादिना विपर्यासः क्रियाणमथ विभ्रम :
5. किलकिंचित – प्रिय की प्राप्ति के कारण उत्पन्न हर्ष से स्मित ( मुस्कान ) रूदित ( रोदन ) , हसित ( हास ) , भय , हर्ष , गर्व , दुःख , श्रम , अभिलाष आदि का संकर - करण ( संकीर्णता , मिश्रण ) किलकिंचित कहा जाता है । प्रिय प्राप्ति के समय आन्नद की अतिशयता के कारण भय , हर्ष , गर्व , दुःख रूदन आदि अनेक भावों का एक साथ समिश्रण हो जाता है । नाट्य शास्त्र में इसकी परिभाषा इस प्रकार लिखी है
' मुहुः स्मिता श्रुकम्पादेः संकरः किलकिंचितम् । ' अर्थात बार - बार हँसने रोने कंपन आदि ( दुःख , गर्व , रोष , अभिलाषादि का सम्मिश्रण किलकिंचित कहलाता है
6. मोट्टायित - प्रियतम की कथामात्र सुनने या दर्शन होने पर प्रियतमा प्रियतम की भावनाओं में हो वेसुथ हो जाती है । उस समय युवतियों में लीला , हेलादि के उत्पन्न होने एवं तदभाव भावन ( उस भा में तन्मय होने ) के कारण मदनांगमर्दपर्यक्ति ( कामवश अंगों का मदन ) अंग मोहन ही मोट्टायित कहा जाता है । नाट्य शास्त्र के अनुसार —
' मोट्टायितं प्रियेक्षादौ रागतो गात्रमोटनम्
अर्थात प्रियतम के दर्शनादि होने पर अंगों का मरोडना , मा मोट्टायित है अथवा प्रियतम के दर्शन , भ्रमण , अनुकरण आदि के होने पर तन्मयतारूप राग के कारण ( विशिष्ट ) अंगों के मर्दन पर्यन्त स्त्री का व्यापार मोट्टायित कहलाता है ।
7. कुट्टमित प्रियतम के द्वारा केश , उरोज और अधर आदि के स्पर्श से स्त्रियों में हर्ष एवं आवेग उत्पन्न हो जाता है । यह अंग स्पर्श या पीड़न दुःखदायक होने पर भी आनन्दातिम्क होता है । केश , स्तन , अधरादि के ग्रहण से हर्ष संभ्रमोत्पन्न ( हर्ष और घबड़ाहट से उत्पन्न ) औपचारिक दुःख प्रदर्शन से युक्त सुख की प्रप्ति को कुट्टमित कहते है । नाट्य शास्त्र के अनुसार —
' कचौष्ठादिग्रहे कोपो मृधा कुट्टमित मुदि ।
अर्थात प्रियतम द्वारा केश , ओष्ठ , स्तन , कर आदि के पकड़े जाने पर ( हृदय के भीतर प्रसन्नता होने पर भी ) बाहर मिथ्या क्रोध दिखलाना कुट्टमित कहलाता है ।
8. बिब्वोक - वस्त्रालंकारादि इष्टभावो ( अभिलाषित पदार्थो ) पर अभिमान गर्वसम्भूत अनादर विव्वोक है । अभिलाषित प्रेम के प्राप्त होने पर सौन्दर्य एवं प्रेम के अभिमान के मद में उपेक्षा का प्रदर्शन करने पर विव्वोक होता है । नाट्य शास्त्र के आनुसार —
' विव्वोकोऽनादरो मान दर्पादिष्टेऽपि वस्तूनि
अर्थात् मान अथवा हर्ष के कारण इष्ट वस्तुओ के प्रति भी अनादर दिखलाना विव्वोक कहलाता है ।
9. ललित : भ्रू , नेत्र , ओष्ठादि के संचालन से युक्त सुकुमारता से पादाग्ङविन्यास ललित है । सुरेन्द्रनाथ दीक्षित ने इसे स्पष्ट करते हुये कहा है कि नारी द्वारा अंग उपांग का संचालन , भाव भंगिमाओं का जैसे प्रदर्शन अत्यन्त सुकुमारतापूर्वक होने से श्रृंगारोदेजक होने के कारण वह ललित होता है इसमें सातिशय विलास का वर्णन किया जाता है । आचार्य भरतानुसार
' ललितं गात्रसंचारः सुकुमारो निरर्थकः । '
व्यर्थ हो नजाकत के साथ अंगो का चलाना ललित कहलाता है । अर्थात् गात्र अथवा नेत्र और हाथ आदि का निरर्थक ही संचालन करना दृष्टव्या विषय के न होने पर भी दृष्टि का दौड़ाना , पकड़ने योग्य किसी वस्तु के न होने पर भी हस्तादि को चलाना । इस प्रकार निष्प्रयोजन व्यापार ' ललित ' कहलाता है । जबकि सप्रयोजन व्यापार विलास कहलाता है ।
10. विहृत अत्यन्त प्रीतियुक्त वाक्य प्रयोग ( प्रेमपूणवार्ता ) का अवसर प्राप्त होने पर भी , लज्जावश , स्वभाव वश ( भोग्य , एवं अन्य चित्तात्ववश ) अथवा मौग्ध्यादि के व्याजवश अभाषण ( न बोल सकना ) विहृत है । आचार्य भरत ने भी नाट्य शास्त्र में इसी प्रकार परिभाषित किया है ।
विहृतं जल्पकालेपि मौन ही ब्याज ' मौग्ध्यतः ।। लज्जा अथवा किसी बहाने अथवा मुग्ध के कारण बोलने के उचित समय पर भी न बोलना विहृत है ।
अयत्नज अलंकार
ये अलंकार नायिकाओं के शरीर में बिना यत्न के ही उत्पन्न हो जाते है । आचार्य भरत ने इनकी संख्या सात मानी है ।
1. शोभा — रूप यौवन , लालित्य ( लावण्य ) एवं उपभोग की ( सुखभोग ) उपबृहिति ( वृद्धि , प्राचुर्य ) से अंगो की अलंकृति शोभा है । अर्थात रूप , यौवन , लावण्य एवं विलास से अंग सौन्दर्य समृद्ध मालूम हो तो शोभा होती है । आचार्य भरत ने शोभा की परिभाषा इस प्रकार की हे -
" औज्ज्ज्वत्यं यौवनादीनामथ शोभोयभोमतः ।।
उपभोग के बाद यौवन आदि की उज्ज्वलता शोभा कहलाती है अर्थात यौवन , तथा रूप लावण्यादि को , पुरुष के द्वारा भोग किये जाने पर जो उज्ज्वलता अर्थात सौन्दर्यातिशय होती है उसको शोभा कहते है ।
2. कान्ति – आपूर्ण मन्मथ ( कामापभोग , मन्मथोन्वेश से उत्पन्न ) शोभा को कान्ति कहते है अर्थात वही शोभा काम - विकारयुक्त होने पर और भी अधिक छविमयी हो जाती है तो कान्ति कहलाती है । नाट्य शास्त्र के अनुसार - “ सा कान्ति , पूर्णसम्भोगा दीप्तिः कान्तेस्तु विस्तरः । ' अर्थात पूर्ण विस्तार को प्राप्त हो जाने पर वह शोभा ही कान्ति कहलाती है और कान्ति का विस्तार विशेष ही दीप्ति कहलाता है । अत्यन्त अनुरागातिशयता के कारण घनता को प्राप्त शोभा ही कान्ति कहलाती है । -
3. दीप्ति — अत्यन्त विस्तृत कान्ति ही दीप्ति कहलाती है । अर्थात कामभाव का अतिशयप्रसार होने पर वह सौन्दर्य और भी दीप्त हो उठता है तो दीप्ति कहलाता है आचार्य भरत ने भी नाट्य शास्त्र में -'दीप्तिः कान्तेस्तु विस्तरः कहकर अत्यन्त विस्तार को प्राप्त हो जाने वाली कान्ति को ही दीप्ति की संज्ञा दी है । इस प्रकार स्पष्ट है कि यौवन आदि की उज्ज्वलता की मन्द , मध्य और तीव्र अवस्थाये ही क्रमशः शोभा , कान्ति , और दीप्ति कहलाती है ।
4. माधुर्य क्रोध आदि और ललित ( रतिक्रीडादि ) सभी अवस्थाओं में अनुत्कट चेष्टा ( मसृण कोमल अंगचालन ) को माधुर्य कहते है । अर्थात् क्रोध आदि के दीप्त , होने पर भी रति - क्रीडादि की भांति चेष्टाओ की सुकुमारता और रमणीयता होने पर माधुर्य होता है । भरत ने भी नाट्य शास्त्र में —‘ सौम्य तापेऽपि माधुर्यम् ' कहा है । अर्थात् शोक , क्रोध , भय अमर्ष और ईष्यादि से उत्पन्न ताप ( सन्ताप ) के होने पर भी सौम्यता का बना रहना माधुर्य कहलाता है ।
5. धैर्य — रूपसौवनादि समस्त अंगों में चापलानुपहृत ( अचंचल ) एवं अविकत्लन ( अनात्मइलाधाकार ) स्वाभविकी मनोवृति को धैर्य कहा जाता है । अर्थात् चंचलता और अभिमान से रहित होने पर चित्तवृत्ति धैर्य युक्त हो जाती है । भरत ने ' चेतो विकत्यनं धैर्य – कहा है । अर्थात् आत्मरलाधा और चपलता से रहित चित्तावस्था का नाम धैर्य है ।
6. प्रागत्य — ' प्रागल्भ्य कौशलं रतें ' सुरत व्यापार में निपुणता की प्राप्ति ही प्रगल्भता कही जाती है । अर्थात सभी कामकलाओं का निर्भीक रूप से प्रयोग ही प्रगभ्यता है ।
7. औदार्य — सभी अवस्थाओं ( अमर्ष , ईर्ष्या , क्रोधादि दशाओ ) में प्रश्रय ( विनय ) को औदार्य कहते है । भरत ने औदार्यमुचिताच्युतिः – कहा है । अर्थात् उचित मार्ग से पतित न होना ही औदार्य कहलाता है । ईर्ष्या और क्रोध आदि की उत्तेजनापूर्ण दशाओं में भी पुरुष के वचनो के प्रति अनुदीरणा होने पर औदार्य होता है ।
इन अयत्नज अलंकारो का प्रयोग सुकुमार ललित प्रयोग में होता है । इनमें से विलास और ललित को छोड़कर दीप्ति ( वीर ) में भी इनका प्रयोग होता है । सागरनंदी , मातृगुप्त एवं साहित्य दर्पणकार ने इन बीस के अतिरिक्त स्वाभवज अलंकारो के अन्तर्गत और भी आठ अलंकारों की परिगणना की है ।
दशरूपक के अनुसार — दशरूपककार धनंजय के अनुसार भी स्त्रियों में बीस सत्वज अलंकार माने गए है । तीन शरीरज - भाव , हाव , हेला । अत्यनज – शोभा , कान्ति , दीप्ति , माधुर्य , प्रगल्भता , औदार्य धैर्य । दस स्वभावज – लीला , विलास , विच्छिति विभ्रम , किलकिचिंत , मोट्टायित , कट्टमित , विव्वोक , ललित , विहृत ।
1. शरीरज अलंकार
भाव — निर्विकारात्मक सत्व से अश्रु उद्भूत आदि प्रथम विकार ही भाव हैं । विकार का हेतु वर्तमान होते हुए भी चित्त में विकार का उत्पन्न न होना सत्य है । जैसे कुमार - सम्भव में अप्सराओं के संगीत सुनकर भी महादेव का समाधि में स्थित हो जाना उनके सत्व , जितेन्द्रियता एवं जितात्मता का प्रमाण है । उस अविकार रूप सत्व से जो प्रथम अंतः परिवर्ती विकार बीज स्फीतिवत् उत्पन्न होता है वह भाव है । अंकुरोभेद के पूर्व जिस प्रकार बीज भीतर ही भीतर स्फीत होता है , अपना स्वरूप परिवर्तन करता है वैसे ही सचेतस् हृदय में श्रृंगार के विकार भाव रूप ग्रहण करते है ।
हाव — अक्षि भ्रूविकारकृत ( आँखो एवं भौहों की भंगिमा से युक्त ) अल्पालाप ही हाव है । पुर्वनिश्चित अंगविकारकारी ( अंगो में परिवर्तन उपस्थित करने वाला ) श्रृंगार स्वभाव विशिष्ट ( स्वाभाविक ) हाव कहा जाता है ।
हेला — हाव ही सुव्यक्त श्रृंगारसूचक ( श्रृंगारोत्पत्ति की स्पष्ट सूचना देने वाला ) होने पर हेला कहा जाता है ।
2. अयत्नज अलंकार
1. शोभा — रूप , उपभोग तथा तारूण्य से अंगो का विभूषित होना शोभा अलंकार कहलाता है ।
2. कान्ति — मन्मथ की छाया ( कामज आभा ) से अवापित ( रोपित ) शोभा ही कान्ति है । शोभा में कामुकता दृष्टिगोचर नहीं होती किन्तु कान्ति में कामाविर्भाव , कामविकार स्पष्ट लक्षित होने लगता है ।
3. माधुर्य - अनुत्यज , उग्रता का अभाव माधुर्य कहलाता है । ( 2 )
4. दीप्ति — कान्ति का विस्तार ही दीप्ति कहलाता है ।
5. प्रागल्थ – निस्साध्वसत्व को प्रागल्थ कहते है । मनक्षोभपूर्वक अंगो के साद ( क्लान्ति ) को साध्वस कहते है । अतः प्रागल्य ( प्रगल्भता ) का अर्थ हुआ मन में क्षोभादि का न पाया जाना । जैसे यद्यपि सुन्दरी मुग्धा भी है किन्तु श्रृंगार की कलाओं के प्रयोग की चातुरी में तो सभा में , वह आचार्यत्व प्राप्त कर चुकी है । यहाँ नायिका की कलाचातुरी उसकी प्रगल्भता की द्योतिका हैं ।
6. औदार्य - सदा बनी रहने वाली विनय ( प्रीति ) को औदार्य कहते है । नायक के प्रति किए गए क्रोध तथा ईर्ष्या को पी जाना , शान्त कर देना विनय औदार्य है ।
7. धैर्य — चापल्य से अविहता ( अवाधिता ) एवं अविकल्पना ( अनाख्यायिका ) चित्तवृति को धैर्य कहते है चंचलता तथा आत्माष्लाधा का अभाव धैर्य का लक्षण है ।
स्वभावज अलंकार
1. लीला – श्रृंगारिणो नारी के द्वारा मधुर अंगो की चेष्टाओं से प्रियकृत ( प्रिय को ) वाग्वेष चेष्टाओ के अनुकरण को लीला कहते है । लीला के कारण नायिका द्वारा नायक के अनुकरणों को देखकर सुनकर उन स्रोतों को नायक का भ्रम हो जाता है ।
2. विलास — दयित का अवलोकन करते समय ( प्रिया द्वारा प्रिय को देखते समय ) नायिका के अंगों , क्रियाओं एवं उक्तियों में सुव्यक्त होने वाली तात्कालिक विशेषता को विलारा कहते है ।
3. विच्छिति — आकल्प ( वेशभूषा ) की अल्प रचना भी , जो कान्ति का पोषण ( वर्दन ) करती है विच्छिति है । '
4. विभुम — त्वरा ( शीध्रता ) के कारण समय पर भूषण स्थान विपर्यय ( भूषणों का अनुपयुक्त स्थान पर धारण करना ) विभ्रम है । यथा - कान्त को बाहर आया हुआ सुनकर असमाप्त विभूषा ( जिसने अपना श्रृंगार समाप्त नही किया है ) नायिका के भाल पर अंजन , आंखो में लाक्षारस तथा कपोल पर तिलक लगा लिया ।
5. किलकिंचित — नायिका में क्रोध , अश्रु , हर्ष , भय इत्यादि के संकर ( मिश्रभाव ) को किलकिंचित कहते है ।
6. मोट्टायित — इष्टकथादि ( प्रियतमकथानुकरणादि ) के अवसर पर तद्भावभावन को मोट्टायित कहते है । प्रिय की कथा को सुनकर प्रिय के भाव में भावित ( एकीभूत ) हो जाना ही मोट्टायित है । 7.
7. कुट्टमित — नायक द्वारा केशाघरग्रह ( केश , अधरादि के ग्रहण किये जाने पर ) के समय पर आनन्दान्त ( अन्तः करण में आनन्दित होती हुई ) भी नायिका का कुपित होना कुट्टमित है ।
8. विव्वोक - गर्व और अभिमानपूर्वक किये गये इष्ट ( प्रिय ) के अनादर को विव्वोक कहते है ।
9. ललित — सुकुमार अंगो के सिधा विश्वास ( स्थापन्न ) को ललित कहते है । उभरते हुये यौवन के कारण नायिका कोमल करो को घुमा - घुमा कर सुन्दर कटाक्ष करती हुई इस प्रकार से पदविन्यास कर रही है मानो नृत्य कर रही हो यह ललित नामक अलंकार है ।
10. विहृत — उपयुक्त समय पर भी ब्रीडा ( लज्जा ) के कारण यदि नायिका न बोले तो उस भावों को विहृत कहते है । नायिका के समीप होने पर भी , लज्जावश वाक्य का अवचन विहूत है ।
साहित्यदपर्ण के अनुसार —
साहित्यदपर्णकार विश्वानाथ ने यौवनकालीन नायिकाओं के सत्वज अलंकारो की संख्या 28 मानी है । इनमें 3 अंगज , 7 अयत्नज तथा स्वभावज अलंकार की संख्या 18 मानी गई है । स्वभावज अलंकार उपर्युक्त दस के अतिरिक्त 8 और माने है । मद , तपन , मौग्ध्य , निक्षेप , कुतूहल , हसित , चकित तथा केलि । अगंज एवं अयत्नज अलंकार ( कुल दस ) पुरुषों में भी प्राप्त होते है किन्तु ये सब नायिकाश्रित होकर ही विचित्रता विशेष का पोषण करते है । नायिकाओ में ही भावादि विशेष चमत्कारक होते है ।
1. अंगज अलंकार
1. भाव — नायक तथा नायिका के ( विकार हीन ) चिन में उत्पन्न प्रथम विकार कामानुभूति को भाव कहते है ।
‘ स एव सुरभिः कालः स एवं भलयनिलः
सैवेयमऽवला कितु मनोऽन्यदिव दृश्यते ।।
अर्थात् वमन्त ऋतु का समय भी वही है , वही मलयज पवन भी यह अवला भी वही है किन्तु इसका मन कुछ और ही प्रतीत होता है । जैसे वह नायिका तरूणाई का विलास ( प्रणय क्रीडा ) अतिशय लावण्य सम्पत्ति ( सौन्दर्य के वैभव ) का मानो हास ( विकास ) है , इस पृथ्वीतल की शोभा है एवं युवकों के मन का वशीकरण है । ( 1 )
2. हाव – भ्रूनेत्रादि विकारों द्वारा सम्भोगेच्छा प्रकाशक ( प्रिय समागम्य की अभिलाषा व्यक्त करने वाले ) अल्प संलक्ष्य विकारों ( किंचित मात्र लक्षित होने वाले अंग परिवर्तनों से विशिष्ट भाव ही हाव कहा जाता है ।
3. हेला — वे ही अल्पसंलदय थुनेत्रादि विकार जो हाव कह जाते है अत्यन्त समालक्ष्य ( अतिशयस्पष्ट , सुव्यक्त ) होने पर हेला कहलाते है ।

अयत्नज अलंकार
1. शोभा - रूप यौवन , लालित्य ( सौन्दर्य ) एवं सुखभोगादि के कारण उत्पन्न अंगो के भूषण ( अलंकरण ) को शोभा कहते है ।
2. कान्ति – कामोन्वेश के कारण प्रवृध्द शरीर की युति ही कान्ति है ।
3. दीप्ति — कान्ति ही अत्यन्त विस्तीर्ण होने पर दीप्ति कही जाती है । जैसे - वह नायिका तस्णाई का विलास ( प्रणयक्रीड़ा ) , अतिशय लावण्य सम्पत्ति ( सौन्दर्य के वैभव ) का मानो ह्यस ( विकास ) है , इस पृथ्वीतल की शोभा है एवं युवकों के मन का वशीकरण है । '
4. माधुर्य - प्रत्येक दशा में स्थिर रहने वाली रमणीयता ही माधुर्य है।जैसे - शैवाल से संयुक्त कमल भी सुन्दर होता है , चन्द्रमा पर काला कलंक भी उसके सौन्दर्य को बढ़ाता है । यह वल्कल धारण किये हुये भी मनोज्ञा ( सुन्दरी ) लगती है । मधुर व्यक्तियों को कौन सी वस्तु मण्डन ( शोभा वृध्दि ) नही करती ।
5. प्रागल्भ्य — निर्भयता , अनुध्देग को प्रागल्भ्य कहते है ।
6. औदार्य सदा विनम्र बने रहना ही औदार्य है । यथा -'वह ( मेरी प्रिया ) अपराध व्यक्त हो जाने पर भी न तो कभी कठोर वचन कहती है न दोनो ही भौहों को वक्र करती है , न अपने कानों से कर्णफूल निकाल कर पृथ्वी पर फेंकती है । वह कान्ता गर्भग्रह के वातायन के छिद्र से , बाहर सखी के मुख की ओर अपने अश्रुपूरित नेत्र ( आँसुओं से भरी आँखे ) डाल देती है । '
7. धैर्य - आत्मश्लाधा से मुक्त अचंचल मनोवृति को धैर्य कहते है ।
3. स्वभावज अलंकार
1. लीला — अंग , वेश अलंकार तथा प्रेमयुक्त वचनों में प्रीति द्वारा प्रयोजित प्रिय की अनुकृति को ही लीला कहते है । यथा मृणाल का व्याल बना कर , से कंकणववत् धारणकर , वेणी के बंध से जटाजूट धारण करने वाली पर शिव की लीला से अनुकरण करने वाली पार्वती जगत की रक्षा करें ।
2. विलास - दृष्ट ( प्रिय ) के दर्शन से यान ( गति ) , स्थान , आसन तथा मुख नेत्रादि के कर्मों में व्यक्त विशेषता को विलास कहते हैं ।
3. विच्छिति — कान्ति का पोषण करने वाली ( बढ़ाने वाली ) थोड़ी भी आकल्प रचना ( वेशविन्यास ) विच्छिति कहलाती है । स्वच्छ जल के स्नान से धुले अंग , ताम्बूल की युति से सुन्दर ओष्ट , सूक्ष्म और स्वच्छ वस्त्र वाली विलासिनी स्त्रियों को इतना ही आकल्प ( वेश रचना ) यथेष्ट है । यदि वह काम से शून्य नही है ।
4. विव्वोक — अत्यन्त गर्व के कारण इष्ट वस्तुओं के प्रति भी अनादर को विव्वोक कहते है ।
5. किलकिंचित — अभीष्ट तम प्रिय के समागम से उत्पन्न हर्ष , मन्द मुस्कान अकारण नीरस रोदन , हसित ( हास्य ) त्रास , क्रोध एवं भ्रम का मिश्रण ही किलकिंचित है ।
6. मोट्टायित — वल्लभ ( प्रिय ) कथा आदि के प्रसंग में प्रिय के राग प्रेम आदि भाव से भावित ( अनुरंजित ) चित्त से युक्त कानों का खुजाना आदि मोट्टायित होता है । यथा है सुभग तुम्हारी कथा के आरम्भ होने पर कान को खुजली में लीन , जंभाई लेती हुई , वह कमलमुखी रमणी अपने अंगो को तोड़ती है ।
7. कुट्टमित — केश स्तन अधरादि के ग्रहण करने से हर्ष प्राप्त होने पर भी , व्याकुल होकर सिर और हाथ हिलाने ( कँपाने ) को कुटट्टमित कहते है ।
8. विभ्रव — शीघ्रता , हर्ष , राग ( प्रेम ) आदि के कारण प्रिय के आगमनादि के अवसर पर विभ्रव ( उद्देक ) से अनुचित स्थान में वेशभूषादि का धारण विभ्रम है ।
9. ललित — अंगो के सुकुमारतापूर्ण विन्यास को ललित कहते है । यथा - गंभीर और श्रुति मधुर नूपुर ध्वनियुक्त कमलवतवाय चरण को नचाती हुई तथा दूसरे दक्षिण चरण को अत्यन्त अचंचल रीति से रखती हुई कामोद्दीन के कारण वह मन्दगति से चली ।
10. मद – सौभाग्य , यौवनादि एंव गर्व से उत्पन्न विकार को मद कहते है ।
11. बिहृत - वक्तव्यकाल में भी लज्जा के कारण न बोलना बिहृत है । यथा दूर देश से आने पर मेरे कुशल पूछा तो वह कुछ न बोली परन्तु उसके अश्रुपूर्ण नयनों ने सब कुछ कह दिया ।
12. तपन — प्रिय वियोग के कारण उत्पन्न कामोत्तेजित व्यापारों को तपन कहते है ।
13. मौग्ध – प्रिय के सम्मुख प्रतीत वस्तु को भी अज्ञात वत् पुनः पृच्छा को तत्वविद् ( उस तत्व के ज्ञाता ) मौग्ध कहे है । यथा हे नाथ मेरे कण कण में जटिल मोती किस पेड़ से मिले है इन मुझा फलों के कौन से वृक्ष है और वे वृक्ष किस ग्राम में है तथा किसके द्वारा वे प्रारोपित है ।
14. विक्षेप – आभूषणों श्रृंगारों की अर्थरचना ( अर्थधारण ) मिथ्या हो चारों ओर देखना तथा प्रिय के समीप अल्परहस्यपूर्ण बात कहना ही विक्षेप है ।
15. कुतूहल — रमणीय वस्तु के समालोकनार्थ चंचलता ( लोलता ) हो कुतुहल है । 16.
16. हसित — यौवनोद्गम से उत्पन्न वृथा हास ही हसित कहलाता है । यथा यह रमणीय जो अचानक हँसने लगी उससे स्पष्ट है कि कामदेव ने इसके हृदय व शरीर में स्वराज्य स्थापित कर लिया है ।
17. चकित — दयित ( पति ) के आगे भय से भीत होना तथा उद्विग्न होना चकित है ।
18. केलि - पति के साथ विहार या मनोरंजन के समय की क्रीडाओं को केलि कहते है ।
भाव प्रकाश के अनुसार
शारदातनय के भाव प्रकाश के अनुसार अंगज अलंकार तीन , अयत्नज अलंकार सात तथा स्वभाज अलंकारों की संख्या पूर्ववत दस ही मानी गई है ।
नायक के अलंकर
सात्विक अलंकारों के द्वारा नायको का व्यक्तित्व निरन्त उसी प्रकार प्रति भाषित होता रहता है । जिस प्रकार सूर्य के साथ उसकी किरणो का आलोक ।
नायक के सात्विक गुण
सात्विक गुण आठ माने गये है ।
1. शोभा — दक्षता , शौर्य , उत्साह , नीच - व्यक्ति व वस्तु व्यक्ति व वस्तु से धृणा , उत्तम व्यक्तियो के गुणों से स्पर्धा , को शोभा कहते है । शोभा दो प्रकार की होती है —
1. शौर्य शोभा 2. दक्ष शोभा
शोर्य शोभा में वीरता की प्रधानता रहती है और दक्ष शोभा में क्षिप्रकारिता तथा कौशल की । आचार्य भरत ने शोभा की परिभाषा इस प्रकार की है
' शोभा चिह्न घृणा स्पर्धा दाक्ष्य शौर्योध्य मोन्नये ।
2. विलास — धीरसंचाारिणी दृष्टि ( धीरता से अक्षिप्त दृष्टि ) गो अथवा वृषभ के समान सुन्दर सबकि गति , की मुस्कानयुक्त वार्ता को विलास कहते है । यह गुण नायक की चाल - ढाल को भव्य बनाता है । नाद्य शास्त्र के अनुसार
" विलासो वृषवद् यानं धीरा दृक् सस्मितं वयः
3. माधुर्य – क्रोध आने पर महान कारण उपस्थित होने पर भी हल्की सी विकृति माधुर्य कहलाती है । यह वह गुण है जिसके द्वारा बड़े भारी विकार के लिए कारण होते हुये भी थोड़ा सा मधुर ही विकार होता है अर्थात् वह गुण जिसके कारण दोष भी दोष न जान पड़े जिस प्रकार काश्मीर में उत्पन्न होने वाली ( केसर , स्त्री ) को तीखापन , तीखी बातें ) भी बड़ी प्यारी होती है । माधुर्य की परिभाषा इस प्रकार कही गई है ।
माधुर्य विक्रतिः स्तुत्य क्षोंमहेतौ महत्यपि ।
4. गाम्भीर्य — गाम्भीर्य सहजा मूर्तिः कोप हर्षादिगोपिनी कोध्र और हषादि को प्रकट न होने देने वाली स्वाभाविक देह - स्थिति का नाम गाम्भीर्य है । गाम्भीर्य में गम्भीरता के प्रभाव हर्ष , भय , कोध आदि की स्थिति में आकृति पर उसका चिह्न नहीं रहता । माधुर्य में थोड़ा सा विकार होता है पर गाम्भीर्य में विकार होता ही नहीं ।
5. स्थिरता — विघ्नों के उपस्थित होने पर भी और अशुभ प्रारब्ध होने से भी अपने निश्चय को न छोड़ना स्थैर्य है अर्थात धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष , रूपी फल देने वाले शुभाशुभ संकल्प जात उद्योगों में स्थिर रहना या अपने कर्तव्य पर डटे रहना स्थैर्य कहलाता है । “
निध्नेऽप्यचलनं स्थैर्य प्रारूधादशुभादपि "
6. तेज — प्राणनाशक के संकट को स्वीकार करके भी अपमान आदि को सहन न करना ही तेज कहलाता है । तेज में शत्रु द्वारा अपमान तिरस्कार को प्राणों की बलि देकर भी न सहने की क्षमता होती है ।
' क्षेपादेरसहिष्णुत्वं तेजः प्राणत्उॉपि च ।
7. लालित्य – निन्दित विकारों से रहित स्वाभाविक श्रृंगार चेष्टायें ललित कहलाती है । प्रेम में आकृति और चेष्टा की स्वभाविक मधुरता को लालित्थ कहते है ।
' श्रृंगारिचेष्टा ललितं निर्विकाराः स्वभावजाः । "
8. औदार्य - प्राण देकर भी शत्रु या मित्र पर उपकार करना औदार्य कहलाता है । प्रिय वचन के सहित प्राणों तक का दान करने तथा गुण - वानों का उपकार करने के लिए तत्पर रहना औदार्य गुण कहा जाता है ।
' औदार्य शत्रु - मित्राणां प्राणितेनाप्युपग्रहः ।।
ये सात्विक गुण ही नायकों के चरित्र निर्माण का प्रष्ठाधार है । इनके द्वारा ही चरित्र में वह चमत्कार और रस आता है कि वह एक ओर तो आनन्ददायक होता है और दूसरी ओर अनुकरणीय भी हो जाता है ।
भारतीय दृष्टिकोण
भारतवर्ष में वैदिककाल से ही सुन्दर वस्तुओं के प्रति एक स्वाभाविक आकर्षण रहा है । सुषमा पण्डित भारतवर्ष के ऋषियों ने न केवल सुन्दर के स्वरूप को समझा ही है । अपितु उसे आत्मसात् करने का भी प्रयत्न किया है ।
ऋग्वेद में सुन्दर शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है । ऋग्वेद में ऊँ सु और सोम स्वस्ति आदि प्रतीको द्वारा उच्च कोटि की सौन्दर्य मीमांषा उपलब्ध होती है । वेद का स्वाति शब्द सु अस्ति के योग से बना है । सु का अर्थ है सुन्दर और अस्ति सत्ता का दयोतक है । अतः स्वस्ति का अर्थ हुआ – सुन्दर सत्य । इतना ही नहीं ऋग्वेदीय ऋषियो ने ने सौन्दर्य के उत्कर्षापकर्ष में अलंकारों का भी उपयोग किया गया है । एक कवि का कथन है कि प्रभाकिरण अरूचिकर को भी ' सुप्रतीक ' अर्थात सुन्दर बना देती है । एक ऋचा में ' गायः ' शब्द का प्रयोग इसी प्रभाकिरण के अर्थ में हुआ है।
ऋग्वेद कहा गया है कि अलंकार विषय को सुन्दरता प्रदान नहीं करते अपितु विषय ही अलंकार को सुन्दर बना देता है । अलंकारो का विषयानुकूल वर्णन न होने पर उनसे विषय की सुन्दरता को हानि पहुचँती है । जिस प्रकार कभी- कभी शरीर के अनुकूल वस्त्र न होने पर वे शरीर को असुन्दररूप में प्रकट करते है ।
ऋग्वेद में काव्यकला की प्रेरक उषा देवी को माना है जो सूर्य की दुहिता है सूर्य की यह दुहिता ( जो बाद में सरस्वती के रूप्स में प्रतिष्ठित हुई है ) सुन्दर गीतो की उद्बोधक तथा सुन्दर भावनाओं और समस्त पवित्र विचारो की प्रेरक है ।
उपनिषदों में सत्यं , शिवम् तथा सुन्दरम् तीनों की ही अभिव्यक्ति की गई है । उनके अनुसार परमात्मा ही सौन्दर्यातिशय समन्वित परम शांतिमय है । बीज रूप में प्रतिष्ठित है । अतः आनन्द भी एक प्रकार से सुन्दर का ही प्रकाश है । कला और साहित्य में उसी चिदानन्द परम तत्व को सुन्दर कहा गया है । तथा उस परम सुन्दर मन भावन को भी आनन्द स्वरूप कहा गया है । इससे स्पष्ट है कि सुन्दर का लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति ही है । उपनिषदों का आधारभूत सिद्धान्त है - अर्थात् अनेकता में एकता और वही समरस अथवा सामंजस्य ही सौन्दर्य का मूल लक्षण है । तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि आनन्द ही ब्रह्म है । ये समस्त प्राणी आनन्द से ही उत्पन्न होते है । उत्पन्न होने पर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते है और अन्त में प्रयाण करते हुए आनन्द में ही समा जाते है । इस प्रकार उपनिषद् में वर्णित सौन्दर्य के दो लक्षण है प्रकाश और आनन्द । गोचर रूप में वह प्रकाश है और अनुभूति के स्तर स्तर पर आनन्दरूप है ।
लौकिक संस्कृत में भी सुन्दर के लिये शोमन , विचित्र चित्रमय के लिये पेषल , आनन्दमय के लिये रमणीय , प्रिय और रूपवान के लिए चारू आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । श्रीमद्भागवत् में उस परम तत्व का स्वरूप इस प्रकार अंकित किया गया है ।
" तदैव रथं रूचिर नव नवं ,
तदैव गरवन्यनसोमहात्वत्रं ।
तदैव शोकार्णवषोभर्ण नृमो ,
यदुनमदसोक्यषोऽनुगीय ते ।। "
परमात्मा को सर्वस्व मानकर चलने वाला यह देश उसी मे सब शतिमस्ता सौन्दर्य , आकर्षण अथवा आनन्दादि दृढ़ता है । रामायण में भी सौन्दर्य की अवधारणापरक शब्द का प्राप्त है । उसके एक भाग का नाम ही सुन्दरकाण्ड रखा गया । बाल्मीकि ने भी राम को बुद्धिमान दिनन्ववर्णा तथा सुलक्षणा कहा है । भारतीय संस्कृति बाड्मय में सुन्दर शब्द के अनेक पर्यायवाची उपलब्ध है ।
' सुन्दर रूचिर चारू सुभमं साधु शोभनम्
कान्तं मनोरम रूप मनोम मंजु मंजुलम् ।।
व भोष्टेमीप्ति हृदयं दयितं बल्लभं प्रियम् ।। ( अमरकोष त.का. 52,53 ) अर्थात् सुन्दर , रूचिर , चार , सुभमा , साधु , श्रोमन , कांति , मनोरम् ग्रंथि , मनोज नंजु और मंजुल । अभोष्ट के अर्थ में अनिश्चित हृदय दायित्व बल्लभ प्रिय । इनके अतिरिक्त ललित , सुष्ठ काव्य , कमनीय , रमणीय आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है ।

भारतीय कवि की तेजनी चित्रांकन के लिये चित्रकार को तलिका को पथ - दर्शक मानती रही है और तृलिका ने सदैव साहित्य का सहारा लिया है । महाकवि कालिदास के अम्बिन श्लोक मे इस सत्य की उद्घोषण की है । साथ ही उन्होंने सामजस्य के राजस्च का उद्घाटन भी किया है जिसके आधार पर सौंदर्य का महत्व निर्मित होता है ।
उन्योलितं तूलिकयेव चित्रम् ।
सूर्याषुभिर्मिन्नमिवार विन्दम्
अभूव तस्या चतुरसषोभि
वयुर्विभत् नवयोवनेन ।।
लेकिन संस्कृत में भी सुन्दर के लिए शोभन , विचित्र चित्रमय के लिये पेषल , आनन्दमय के लिए रमणीय , प्रिय और रूपवान के लिए चारू तथा मधूनि आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । श्रीमद्भागवत् में उस परम तत्व का स्वरूप इस प्रकार अंकित किया गया है —
' तदैव रम्यं रूचिरनव मय ,
त्दैव शाष्वन्मनसोमहात्सवं ।
तदैव शोकार्णवषोषण , नृणा
यदुत्तमष्लोक्यषोऽनुगीय ते । ( श्रीमदभावगत् 10/12/52 )
परमात्मा को सर्वस्व मानकर चलने वाला यह देश उसी में सब शक्तिमता , सौन्दर्य , आकर्षण अथवा आनन्दादि ढूढ़ता है । रामायण में भी सौन्दर्य की अवधारणापरक शब्द प्राप्त है । उसके एक भाग का नाम ही सुन्दरकाण्ड रखा गया । बाल्मीकि ने भी राम को दयुतिमान , स्निन्धवर्णा तथा सुलक्षणा कहा है ।
भारतीय संस्कृत वाड्मय में सुन्दर शब्द के अनेक पर्याप्त उपलब्ध है ।
' सुन्दर रूचिरं चारू सुभगं साधु शोभनम् ।
कातं मनोरम रूच्यं मनोज्ञ मजु मंजुलम् ।।
अभीष्टभीप्सितं हृदयं दयितं बल्लभं प्रियम् ।।
( अमरकोष तृ.का. 52,53 )
अर्थात् सुन्दर , रूचिर , चारू , सुषमा , साधु , शोभन , कान्ति , मनोरम् रूचि मनोज्ञ , मंजु और मंजुल । अभीष्ट के अर्थ में – अभीप्सित , हृदय , दयित , बल्लभ , प्रिय । इनके अतिरिक्त ललित , सुष्टु , काव्य , कमनीय , रमणीय , आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है ।
भारतीय कवि की लेखनी चित्रांकन के लिये चित्रकार की तूलिका को पथ - दर्शक मनाती रही है । और तूलिका ने सदैव साहित्य का सहारा लिया है । महाकवि कालिदास ने अग्रिम श्लोक में इस सच की उद्घोषण की है । साथ ही उन्होंने सामजस्य के उस रहस्य का उद्घाटन भी किया है जिसके आधार पर सौन्दर्य का महत्व निर्मित होता है ।
' उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रम् ।
सूर्याषुभिभिन्नमिवारविन्दम् ।
वभूव तस्याः चतुरसषोभि ,
वपुर्विभत्तः नवयौवनेन ' ।।
पार्वती के इस स्वरूप द्वारा कवि ने मानो प्रकृति की विजय भी स्वीकार कर ली है । कवि ने सौन्दर्य की सिद्धि हेतु वस्तु तथा व्यक्ति के सामंजस्य के रहस्य का स्वाभाविक उन्मीलन कर दिया है । कलाओं में सौन्दर्य के पारखी भर्तृहरि ने सम्भवतः कोमलत्व , स्निग्धत्व , मृदुत्व आदि गुणों को देखकर ही नारी को सौन्दर्य का उपमान मान लिया है । इन अनेक सौन्दर्य निरूपण कवियों के बीच में महाकवि कालिदास एक ऐसे दिव्य विभूति है जिनका सौन्दर्य वर्णन में आजतक दूसरा प्रतिस्पर्धी नही है । वे मूलतः सौन्दर्य के कवि है । उन्होंने सौन्दर्य के रमणीय चित्र प्रस्तुत करने के साथ ही उनको नितनूतनता , पूर्णता , आकर्षकता , आनन्दमयता तथा आध्यात्मिकता का भी वर्णन किया है । सौन्दर्य के वे अद्वितीय ज्ञाता थे उनका विश्वास था कि प्रकृत्या सुन्दर वस्तु को बाहृय अलंकारणों की आवश्यकता नही होती है । मधुर आकृतियो का मण्डन भला अलंकार क्या करेगें ? तभी तो कालिदास की शकुन्तला वनचारी और वल्कलधारिणी होकर भी और अधिक मनोज्ञ ही

लगती है । क्यों न हो ? शैवाल से ढ़का हुआ सरसिज भी तो स्वतः सुन्दुर होने के कारण रम्य ही लगता है । किंचित कालिमा से मलिन बना हुआ हिमांषु भी तो इसीलिये सुन्दरतर लगता है कि वह सहज सुन्दर है । इसी प्रकार प्रकृति ने जिस शकुन्तला को जन्मतः अनुपम रूपराशि समर्पित कर दी हो वह भला वल्कल में भी क्यों न शोभित हो ।
कालिदास इस कठोर सत्य के समर्थक थे कि स्वाभाविक सौन्दर्य नित्य और अपरिवर्तनीय होता है । वह स्वतः पूर्ण है और पूर्णता के कारण ही सभी दशाओं में शोभाधिक्य से और भी जगमगाता है । कालिदास कभी भी इस बात को भूल नहीं पाये है । उन्होंने अपने काव्य में बार - बार इसी सत्य को प्रकट करने की चेष्टा की है । फिर भी वे सौन्दर्य को केवल वस्तु परक न मानकर उसमें निहित आंतरिक सौन्दर्य शक्ति का भी दर्शन करते है । यह सौन्दर्य प्रकृतिदत्त ही नहीं , ईश्वर द्वारा प्रतिष्ठित , अध्यात्मिक और अभौतिक भी है । पार्वती का सौन्दर्य चित्र खींचते समय भी उन्होंने इसी बात का उद्घाटन किया है ।
भारवि ने भी कालिदास के समान रम्यता को निरपेक्ष ही स्वीकार किया है । माघ सौन्दर्य को नितनूतनता से समन्वित मानते है । इसी नितनूतनता के कारण ही तो कवि की सृष्टि ईश्वरीय सृष्टि से अधिक सुन्दर हुआ करती है । भारतीय वाङ्मय में कवि को प्रजापति माना गया है ।
सौन्दर्य की इस मानसी सृष्टि का रूप हमें रामायण में भी देखने को मिलता है । ‘ मनसेव कृतां लंका निर्मितां विश्वकर्मणा । '
अर्थात् विश्वकर्मा द्वारा निर्मित लंका ऐसी प्रतीत होती थी कि मानो उसकी रचना मन के द्वारा की गई हो । कालिदास की सौन्दर्य सर्जन प्रक्रिया सम्बंध यह उक्ति भी विद्वानों द्वारा स्तुत्य है
“ रूपाच्येन विधिना मनसा कृतानु । '
इस अन्तर्निहित सौन्दर्य का जितना अन्वेषण करते है उतना ही वह खिलता और निखरता चला जाता है । यही नूतनता का आकर्षक रहस्य है । यही आंतरिक सौन्दर्य अद्वितीय तथा निरंतर नवीनता लिये हुए बाह्य परिपेश मे छलकता हुआ प्रतीत होता है । कालिदास का स्पष्ट मत है कि सौन्दर्य चेतना का परिष्कार और उन्नयन करता है ।
असुन्दर और कलेशकर भी सुन्दर और प्रीतिकर बन जाता है । '
करूण रण का महत्व प्रतिपादित करने वाली प्रसिद्ध भारविकी उक्ति -‘एको रसः करूण एवं - वास्तव में हृदय सौन्दर्य अथवा भाव सौन्दर्य का ही कीर्तन है । इसका वास्तविक अर्थ यही है कि मानवीय भावना ही रस अर्थात् काव्य सौन्दर्य का मूल आधार है ।
साहित्य शास्त्र के क्षेत्र में भी सौन्दर्य पर विभिन्न रूपों से चर्चा की गई । भारतीय सौन्दर्य शास्त्र का वास्तविक एवं विकसित रूप काव्यशास्त्र में ही उपलब्ध है , यदि यह कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी । इसमें सौन्दर्य के विभिन्न पक्षों , अंगों तथा मूल तत्वों का विवेचन विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म गहन स्तर पर किया गया है । काव्य के स्वरूप का अंकन करने वाले अलंकार , रीति , गुण , औचित्य , ध्वनि तथा रसादि - अनेक सिद्धांतो में किसी न किसी रूप में सौन्दर्य पर भी विचार किया गया है । नाट्य शास्त्र के ग्रंथों में सौन्दर्य के प्रायोगिक रूप की विवेचना भी अत्यन्त सांगोपांग रीति से की गई है ।
प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ . दासगुप्त का मत है कि भारतीय काव्य शास्त्र में पारिभाषिक अर्थ में , सौन्दर्य की सही धारणा का वाचक शब्द " रमणीयता " ही है जिसका प्रयोग पण्डित राज जगन्नाथ ने अपने काव्य लक्षण में किया है
" रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्द काव्यम् "
आचार्य शुक्ल भी काव्यादि के प्रसंग में सुन्दर की अपेक्षा रमणीय शब्द को ही अधिक उचित मानते है ।
भारतीय काव्य शास्त्रीय आचार्यों में वामन , अभिनवगुप्त , कुन्तक आदि को सौन्दर्य शब्द ही रूचिकर है । इन आचार्यों ने पारिभाषिक अर्थ में इसका प्रयोग किया है ।
वामन — " काव्य ग्राह्यमलंकारात् ।
सौन्दर्य अलंकारः ।
काव्य का सारतत्व है अलंकार और अलंकार का अर्थ है सौन्दर्य । अर्थात् सौन्दर्य काव्य का प्राण है ।
अभिनव गुप्त —
( 1 ) ' अन्ये तु काव्येऽपि गुणालंकार सौन्दर्यात्वायकृत । रसचर्वण्माहुः ।
अन्य व्याख्याता यह कहते है कि काव्य में भी गुण तथा अलंकार के सौन्दर्यातिशय के कारण रस चर्वणा होती है ।
( 2 ) अत्र च विभावकृतं तत्सौन्दर्य प्राधान्येन भांति ' । ' यहां विभाव की प्रधानता के कारण उसका ( रचना का ) सौन्दर्य प्रतीत होता है ।
( 3 ) ' यतः सौन्दर्यप्राणेव सा ' ।
क्योंकि वह कौशिकी वृत्ति सौन्दर्य प्राण ही है । कुन्तक ने भी सुन्दर व सौन्दर्य शब्द का ही प्रयोग किया है ।
( 1 ) “ वाच्यवाचक वक्रोक्ति त्रितयातिषयोक्तरम् ।
तदिदाहलादकारित्व किमप्यामोदसुन्दरम् ।। "
अर्थात् वाक्य ( अर्थ ) वाचक ( शब्द ) और वक्रोक्ति ( अलंकार ) इन तीनों के उत्कर्ष के अतिरिक्त प्रीतिगुण अथवा रजतत्व के कारण सुन्दर कुछ अपूर्ण वस्तुधर्म ) में ही सहृदय आह्लादतत्व है ।
( 2 ) " शब्दोविवक्षितार्थेकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि ।
अर्थः सहृदयाल्हादकारिस्वरूपन्दसुन्दरः ।। '
( काव्य के संदर्भ में ) अन्य पर्याय शब्दों के रहते हुए भी विवक्षित अर्थ का वाचन शब्द भी वास्तव में ' शब्द ' संज्ञा अधिकारी है और सहृदय रंजक अपने स्वभाव से सुन्दर अर्थ ही वस्तुतः अर्थ है ।
( 3 ) " वर्णविन्यासविच्छिस्तिप पदसंधानसम्पदा ।
स्वल्पया अन्यसौन्दर्य लावण्य मभिधीयते।।
वर्ण विन्यास की शोभा से युक्त पदों को स्वल्प सम्पत्ति से उत्पन्न रचना का सौन्दर्य लावण्य कहलाता है । भामह , दण्डी , मम्मट , विश्वनाथ आदि प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों में भी सौन्दर्य शब्द का शास्त्रीय अर्थ में प्रयोग मिलता है ।
भामह — किन्चिदाश्रिय सौन्दर्याध्दते शोभामसाध्वपि ।
कान्ताविलोचनन्य मलीभालमिवांजनम ।।
रमणीय के नेत्रों में लगे अन्जन के सदृश कही अन्य सौन्दर्य के कारण ( भी ) दोष रमणीयता धारण कर लेता है । अर्थात् काव्यार्थ यदि रमणीय है तो सामान्य दोष भी कहीं - कहीं सौन्दर्य बन जाता है ।
दण्डी – " गुणतः प्रागुपन्यस्य नायकं तेन विद्विषाम् ।
निराकरणश्रित्येष मार्गः प्रकृति सुन्दरः ।। "
पहले नायक के गुणों का वर्णन कर बाद में प्रतिनायक का और नायक द्वारा उसके निराकरण का वर्णन किया जाए यह वर्णन पद्धति सुन्दर होती है ।
विश्वनाथ – “ व्यद्यमसुन्दरमेवं भेदास्तस्योदिता अष्टों । '
( गुणीभूत व्यंग्य काव्य में ) व्यग्य असुन्दर होता है । इस मध्यम काव्य के आठ भेद होते है ।
उपर्युक्त उधारणों से स्पष्ट है कि भारतीय काव्य चिंतन परम्परा में पारिभाषिक अथवा शास्त्रीय अर्थ में " सौन्दर्य शब्द का प्रयोग निरंतर होता रहा है ।
चमत्कार — भारतीय आचार्यों ने सुन्दर का सौन्दर्य शब्द के अन्य चमत्कार , शोभा , चारूता , रमणीयता आदि पर्याय शब्दों का भी प्रयोग किया है । काव्यात्मा की खोज में चमत्कार का चमत्कार सभी जगह देखा जा सकता है । क्षेमेन्द्र ने औचित्य से ही चमत्कार का उदय स्वीकार किया है क्योंकि औचित्य के अभाव में काव्य में उस मनोरमता के उदय की आशा नहीं की जा सकती जो सहृदय को आकृष्ट कर सके । यही औचित्य रस का भी जीवित है । चमत्कारहीन काव्य उसी प्रकार अनाकर्षण मान लिया गया जिस प्रकार यौवन से भरपूर होते हुए भी लावण्य ही ना नायिका अनाकर्षक ही बनी रहती है ।
" एकेन केनचिद् अनर्थमणि प्रभेण काव्यं चमत्कृति पदेन बिना सुवर्णम् । निर्दोष लेषमपि रोहति कस्य चित्ते लावण्यहीनमिव यौवनमंगानानाम् ।
चमत्कार का सम्बन्ध लावण्य से है और लावण्य का सम्बन्ध सौन्दर्य से । अतएव चमत्कृति का सम्बन्ध ही सुन्दर से ठीक बैठता है । चमत्कार को रस का सार कहा गया है । चमत्कार और आनन्द का अविच्छिन्न सम्बंध है । चमत्कार की नवीनता का अर्थ यही है कि वह अनन्तः अमेय , अखण्ड और अभूतपूर्व है । यदि चमत्कार सुन्दर का पर्याप्त है तो सौन्दर्यानुभूति को भी रसानुभूति के समान ही अनन्त , अमेय अखण्ड आदि रूप में मानना चाहिये । यह लोकसिद्ध है कि जिस वस्तु को हम सुन्दर कहते है उसकी थाह बुद्धि नहीं लगा पाती । मन के आनन्द को हम माप नहीं सकते । जितना - जितना हम उसे निहारते हैं उतना ही सौन्दर्य छलकता है व उतना ही अथाह प्रतीत होने लगता है ।
आनन्दवर्धन - ने सौन्दर्य लक्षण का विवेचन करते हुए कहा है " सुन्दर वस्तु के दर्शन से हमारे हृदय में नवीन - नवीन भावनाओं और प्रेरणा का सुख संचार इसी प्रकार होता चला जाता है जिस प्रकार घण्टे के निनाद का अनुवर्णन दीर्घ काल तक हमारे कानों में गूंजता रहता है " इस प्रकार चमत्कार शब्द का प्रयोग हमारे यहाँ अध्यात्मिक , अलौकिक सौन्दर्यानुभूति के रूप में किया गया है ।
पण्डितराज जगन्नाथ — द्वारा कथित चमत्कार जनित आनन्द सामान्य नहीं है । " पुनः अनुसंधानात्माभावनाविशेषः ” पंक्ति में भावना विशेष के द्वारा विशेष संस्कारोबोध की ओर भी संकेत कर दिया गया है । भावों का मूर्त रूप ही सौन्दर्य है । इस प्रकार सौन्दर्य बोध के दो पक्ष हुए । एक ओर उससे पुरातनंसस्कार आन्दोलित होते रहते हैं और दूसरे नितनूतन आकर्षक और अनुसंधान की प्रवृत्ति बढ़ती ही चली जाती है । क्योंकि पार्थिव वस्तु जगत और सहृदय की आत्मा का सम्मिलन ही सौन्दर्य की वास्तविक भूमि है । अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि “ भाव के अभाव में वस्तु सुन्दर नहीं रहती और वस्तु के अभाव में सौन्दर्य अशरीरी हो जाता है अर्थात् संस्कार मात्र रह जाता है ।
चारूत्व — अलंकारियों द्वारा सौन्दर्य के लिये चारूत्व शब्द का भी प्रयोग किया गया है । वे अलंकार को चारूत्व हेतु मानते है " अलंकारोहि : चारूत्व हेतुः प्रसिद्धः "
वामन — ने “ सौन्दर्यमलंकारः " कहकर चारूत्व , सौन्दर्य और अलंकार तीनों को मानो एक कर दिया है ।
भामह — " न नितान्तादिमात्रेण जायते चारूता गिराम् " । ' अर्थात् केवल नितान्त आदि शब्दों के प्रयोग से वाणी में सौन्दर्य उत्पन्न नहीं होता ।
आनन्दवर्धन —
( 1 ) उदत्यन्तरेणाशाक्यं यत् चारूत्व प्रकाशपन् ।
शब्दों व्यंजकतां विभ्रद् ध्वन्युक्ते विषयी भवेत् ।
अर्थात् उक्त्यन्तर से चारूत्व ( सौन्दर्य ) प्रकाशित नहीं किया जा सकता , उसको प्रकाशित करने वाला , व्यंजना व्यापार युक्त शब्द ही ध्वनि कहलाने का अधिकारी हो सकता है ।
( 2 ) चारूत्कोत्कर्ष निबंधना हि वाच्यव्यंग्यमोः प्राधान्यविवक्षा । "
वाच्य और व्यंग्य के प्राधान्य का निर्णय चारूत्व सौन्दर्य के उत्कर्ष के आधार पर ही होता है ।
रमणीयता
पण्डितराज जगन्नाथ — रमणीय शब्द का सबसे अधिक प्रामाणिक प्रयोग पण्डितराज जगन्नाथ ने किया है " रमणीयर्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । "
रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य है और रमणीयता का अर्थ है ऐसी गोचरता अर्थात् चेतना जो लोकोत्तर आल्हाद प्रदान करती है।
" रमणीयता च लाकोत्तराहलाद् जनक ज्ञान गोचरता " - ( वृत्ति ) आनन्दवर्धन , राजशेखर , कुन्तक आदि ने ही यथास्थान रमणीय शब्द का प्रयोग किया है ।
डॉ . दासगुप्त ने स्वीकार किया है कि भारतीय कलाकार की दृष्टि सदैव अध्यात्मिक संदेश ग्रहण करने की ओर रही है । भारतीय के लिये जिस प्रकार रस प्रकार ब्रम्ह है । वैसे ही शब्द भी ब्रह्म है । भाषा ऊँकार की अभिव्यक्ति है , कलाऐं ब्रह्म की अभिव्यक्ति और प्राप्ति के साधन है । उसकी सारी विद्याओं का सारतत्व मानो अनन्त सौन्दर्यमान ब्रह्म प्राप्ति ही है , रास्ता कोई भी हो । यूनानियो की दृष्टि प्रकृतिगत सौन्दर्य को न पहचान पाई , किन्तु भारतीयों ने आदर्श सौन्दर्य को अंकित करने के लिये प्राकृतिक सौन्दर्य का ही सहारा लिया । मेघदूत के पद द्वारा मेघ तथा प्रकृति की तुलना में अपने आंगिक सौन्दर्य की हीनता का वर्णन तथा " कुमार सम्भव " में पार्वती के शरीर निर्माण की कथा , जिसके अनुसार विधाता ने उसका शरीर समस्त प्राकृतिक सौन्दर्य सार ग्रहण करके बनाया था – भारतीयों को प्राकृतिक तथा वस्तुगत सौन्दर्यानुरक्ति के परिचायक हैं इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तुगत तथा आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों के समन्वय में भारतीय कला का विकास हुआ है । आंतरिक लावण्य ही महत्वपूर्ण है , इसी की ओर ध्वन्यालोक में प्रतीयमान अर्थ के द्वारा संकेत किया गया है “ स्त्री की शोभा उसके बाहरी वेश विन्यास में उतनी नहीं है जितनी उसके अंग प्रत्यंग से फूटती आंतरिक छटा में है । कुमार सम्भव मे पार्वती द्वारा कथित मार्मिक उक्ति भी इसी तत्व का प्रतिपादन करती है । वे कहती हैं कि विवाद करना व्यर्थ है मेरा मन तो उनमें ( शिव में ) भावेक - रस हो गया है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की भी यही स्थापना है कि यह भावेकरसता ही रूप या सौन्दर्य का प्राणतत्व है । इसीलिये कालिदास ने भी चारूता या सौन्दर्य का प्रत्यक्ष सम्बंध प्रिय को अनुरक्त करने की क्षमता से माना है —
" प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारूता । "
( कु.स. 5/1 )
पाश्चात्य दृष्टिकोण
काव्य सौन्दर्य का संबंध वस्तु जगत से है तो साथ ही दृष्टा के आत्मा से भी । उसका एक छोर वस्तु जगत को स्पर्श करता है तो दूसरा छोर कलाकार को । यही कारण है कि सौन्दर्य विवेचना में कभी वस्तु जगत में ही सुन्दर की प्रतिष्ठा कर दी गई है और कभी अन्तर सत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है । कभी - कभी वैचित्त्य या वैविध्य में भी सौन्दर्य के दर्शन होते है । उपवन में खिले विविध रंगों वाले फूल किसका मन नहीं हरते । संगीत में स्वर लहरी का वैभिन्य कानों के लिये अमृत बन जाता है । उस अनेकत्व में यदि एकत्व कीसिध्दि हो जाय तो सौन्दर्य की मार्मिकता का कहना ही क्या है ? जितना ही जीवन में वैविध्य है , उतना ही वह हमें आकर्षित करता है ।
रूपाकार में सौन्दर्य दूढ़ने की यह प्रवृत्ति सौन्दर्य को वस्तुनिष्ठ मानकर चली है । परन्तु प्रश्न यह उठता है कि यदि वस्तु स्वतः सुन्दर होती है तो कोई वस्तु किसी को सुन्दर और किसी को असुन्दर क्यों लगती है ?
यूरोप के विद्वानों ने प्रयोग सौन्दर्य या साहचरवाद की प्रतिष्ठा कर वस्तुनिष्ठ दृष्टि की त्रुटियों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया है । जेफ्रे महोदय का कथन है कि —
सौन्दर्यानुभूति का प्रमुख आधार हमारे द्वारा अनुभूत पूर्वकालीन भावों की अनुकूलता अनुकूलता है । "
अर्थात् जिन वस्तुओं का हमसे किसी समय साहचर्य रहा वे किसी न किसी प्रकार हमारे भावों व संवेदनाओं को उभारते रहे हैं । वे संवेदनायें सुखात्मक व दुःखात्मक - किसी भी प्रकार की हो सकती है । किसी भी वस्तु को सुन्दर या असुन्दर कहते समय हमारे विचारों के मूल में उन्हीं भावों या संवेदनाओं का पुनः स्मरण काम करता दीख पड़ता है पर यह सिद्धांत पूर्णतः सत्य नहीं है ।
इनके असंतुष्टि के फलस्वरूप ही कुछ विचारकों ने सौन्दर्य की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की है । इस सौन्दर्य को वस्तुनिष्ठ न मानकर मन को सौन्दर्यानुभूति का अधिष्ठान और सौन्दर्य का आधार मानते है । कुछ ईश्वर को ही सर्वगुण सम्पन्न मानकर उसे सौन्दर्य का आधार मानते है । क्रोचे का नाम इन विचारकों में प्रमुख है । क्रोचे के अनुसार सौन्दर्य कल्पनामूलक अंतर व्यापार है । अनुभूति की पूर्णता ही सौन्दर्य है । कल्पना द्वारा निर्धारण , संशोधन , परिवर्तन तथा परिवर्धन होने पर भी हमारे चित्तरूपी पट पर प्रकृति का वह रूप अंकित होता है जिसे हम सुन्दर कहते है । क्रोचे के अनुसार हमें सौन्दर्य का बोध दीक्षा व्यापार द्वारा ही होता है । किसी शब्दादि को सुनकर हमारी अंतरवृत्ति उसी के अनुरूप जाग्रत हो जाती है और उस अर्थ के अनुरूप ही व्यापारवती होने लगती है । इसी प्रकार से व्यापारवती कल्पना में भासित वस्तु ही यथार्थतः सुन्दर कहलाती है । अतः दीक्षावृति के द्वारा ग्रहीत संस्कृत , परिष्कृत रूपों में ही सौन्दर्य होता है । किन्तु क्रोचे स्वयं इस मत पर स्थिर न रह सके । इस मत के खण्डन में आलोचकों द्वारा अनेक प्रश्न उठाये गये है । सौन्दर्य सृष्टि के वस्तुतः तीन स्तर माने जा सकते है अस्पष्ट संस्कार , अनुभूति और वहिर्निरूपण ।
क्रोचे के अनुसार अनुभूति संस्कारों को जितने भी परिष्कृत रूप में धारण करती है उतना ही सौन्दर्य सृष्टि का कृतित्व सिद्ध होता है । परन्तु क्रोचे बहिरजगत को स्वीकार नहीं करते । क्रोचे के अनुसार स्पर्श का वर्णादि के रूप में शास्त्र प्रकाशन और उनका सहृदय में संक्रमण दोनों ही बाते उस समय तक व्यर्थ रहेगी जबतक उनकी बाह् सत्ता न मान ली जायेगी । बाह्य सत्ता मानने पर ही पाठक और कलाकार की अनूभूति में एकता स्थापित हो सकेगी । पाठक के मन में कवि के समान संस्कार होगें तब तो उसकी अनुभूति वैसी होगी । तभी वह कवि की अनुभूति से परिचित होगा ।
दूसरी आपत्ति यह भी है कि यदि केवल अभिव्यक्ति में सौन्दर्य मान लिया जायेगा तब तो सभी कृतियाँ एक समान सुन्दर हो जायेगी । तब क्या रामायण और एक सामान्य काव्य , सभी सुन्दर है पर ऐसा होता नहीं हैं । वास्तव में क्रोचे ने कला की आध्यात्मिकता पर बल देकर भूल की । वास्तविकता यह है कि कला एक ओर जितनी आध्यात्मिक है दूसरी ओर उतनी भौतिक भी है । प्लेटो सौन्दर्य का तत्व ज्ञान का साधन मानते है । उनके अनुसार सौन्दर्य गम्भीर प्रमानुभूति के साथ - साथ चित्त की विशुद्धि मे भी सहायक होता है । सौन्दर्याराधना के परिणामस्वरूप मनुष्य दिव्य दृष्टि की चरमसीमा में उपनीत होकर यथार्थ तत्वदर्शी के रूप में परम शक्ति का अनुभव करता है । उसी परमतत्व से सभी वस्तुओं की सौन्दर्य को प्राप्ति होती है ।
प्लेटो के समान प्लेटीनस परम शक्ति के शिव रूप पर बल देता है । इसी को आत्यन्तिक सौन्दर्य मानकर इसी की गति से संसार की समस्त वस्तओं मे सौन्र्ग की तिला मानते है ।
टालस्टाय अपने नैतिक दृष्टिकोण के लिये प्रसिद्ध है । उनके अनुसार नैतिक विवेक जाग्रत करने वाली कलाकृति ही सुन्दर कहलाने योग्य है । '
रस्किन कला के द्वारा धर्म , अर्थ और मोक्ष की सिद्धि में विश्वास प्रकट करते है । इसी पूर्णता का नाम है सौन्दर्य । रस्किन सौन्दर्यानुभूति में नैतिकता को विशेष महत्व देते है । सुन्दर वही है जिससे व्यक्ति चित में दृष्टिसिद्धिजनक नैतिक आनन्द की प्राप्ति हो । प्रकाश ही सौन्दर्य है । यह प्रकाश पवित्रता और आंतरिक शुद्धता का द्योतक है । जिस प्रकार हीरक प्रकाशित होता है और साथ ही अपने आलोक से दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करता है , वैसे ही जिस कला में नैतिकता का प्रकाशरूप सौन्दर्य है व उस सौन्दर्य को औरों तक प्रसारित करती है । जिस प्रकार सुन्दर परमपुरुष पूर्ण है उसी प्रकार सांसारिक सौन्दर्य की खोज भी पूर्णता में ही सकती है । समग्रता ही सौन्दर्य की जननी है ।
काण्ट भी नैतिकता और आध्यात्मिक में विश्वास रखते है । उन्होंने सौन्दर्य बौध की विलक्षणता का प्रतिपादन किया है । इन्द्रिय और अतीन्द्रिय का मिलन क्षेत्र ही सौन्दर्य का क्षेत्र है । जिस वस्तु से सभी को आनन्द नहीं मिलता वह कभी भी सुन्दर नहीं कही जा सकती है । निष्प्रयोजन होने के कारण यह व्यक्तिनिष्ठ होकर भी यह सर्वनिष्ठ हो जाता है । सौन्दर्यानन्द एक प्रकार का दर्शनानन्द है । काण्ट अन्तर्गत के साथ वहिर्जगत् के सामंजस्य को महत्व देते है । काण्ट सौन्दर्य बोध को प्रत्यक्ष ही नहीं परेक्ष ज्ञान से भी अलग मानते है ।
बनार्ड बोसाँके सुन्दर को ऐन्द्रिय का कल्पितरूप मे प्रकाशित वस्तुधर्म मानते है । सौन्दर्य की सृष्टि उनके विचार से विभेद में भी एक्य की धारणा के कारण होती है । बोसाँके ने आनन्द को सौन्दर्य का अपच्छेदक धर्म नहीं माना है । उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की आनन्दानुभूति और उसके कारणों में अन्तर होने के कारण आनन्द को सौन्दर्य का अवच्छेदक धर्म नहीं माना जा सकता । उनका विचार है कि सौन्दर्य भाग मे सृजन क्रिया कम हो जाती है । चिन्तन शक्ति प्रधानता ग्रहण कर लेती है । ज्ञान तथा कल्पना के योग से वस्तु की सृष्टि सौन्दर्यानुभूति जागृत कर पाती है । केवल प्राकृत वस्तु को सुन्दर नहीं कहा जा सकता । क्रोचे जहाँ केवल मानसिक व्यापार में ही सौन्दर्य के दर्शन करते है वहाँ बोसाँके आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये अनुरूप रूप की आवश्यकता के विश्वासी है । उन्होंने मनोयोग को तो आवश्यक माना ही है , साथ ही बाह्य वस्तु को भी गौणता प्रदान नहीं की है । क्रोचे जिस अखण्डता के कारण भाषा को भी अन्तः प्रकाशक मानते है , उसके सम्पन्नता में बोसाँके का कथन है कि शब्दार्थ जिसमें भाषा की सृष्टि होती है , प्रयोग तथा संस्कार दोनों पर निर्भर है । दोनों के प्रयोग से ही काव्य सुलभ सौन्दर्य की उपस्थिति होती है इस प्रकार बोसाँके क्रोचे की भाँति एकांगी दृष्टिकोण वाले न होकर सामंज्यवादी ठहरते हैं ।
हेगेल का विश्वास है कि कला स्वतः प्रतिभा व्यापार के द्वारा निरंतर नाना रूपों में प्रकट होती है । कला को हम बहिरंग साधनों द्वारा ही समझ सकते है हेगेल ने कला को आत्मा का चैतन्य धर्म माना है , अनुकरण नहीं उनके अनुसार कला के समान सप्राणता अन्य किसी में नहीं होती ।
हेगेल प्रकृति को भी जड़ न मानकर उसे चित्त का असीम प्रकाश मानते है । प्रकृति ही मनुष्य के मन में प्रसार पाती है और स्वतंत्र रूप ग्रहण करके कला - सृष्टि के रूप में उपस्थित हो जाती है । हेगेल प्रकृतिगत सौन्दर्य को कलागत सौन्दर्य की अपेक्षा हीन मानते है क्योंकि प्रकृति में न लो स्वतः आत्मप्रसात् की शक्ति है और न वह स्वतंत्र ही है । उनके अनुसार वास्तविक
सौन्दर्य व्यापकता और स्वतंत्रता में होता है । यह विशेषता कला में ही है । उसी में वास्तविक चिविलास है । कला के अंतर्गत हम उन्हीं वस्तुओं को ग्रहण कर सकते है जिनके आंतरिक स्वरूप व्यक्त होता है ।
सौन्दर्य तत्व के इस अन्वेषण के इतिहास का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट है कि आचार्य प्लेटो से हेगेल तक विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक रूपों में सौन्दर्य की शोध की गई है और भारतीय आलोचकों के अनुसार ही कभी बाह्य आकार प्रकार में सौन्दर्य खोजा गया , कभी प्रकृति में सौन्दर्य मान लिया गया है और कभी उस समस्त सृष्टि के पीछे निहित किसी अज्ञात शक्ति और चेतन विलास की खोज की गई है । कुछ विद्वान् मध्यस्थ बनकर बहिरन्तर के सामंजस्य में ही सौन्दर्य मानते है । कुछ ऐसे विचारक भी है जो सौन्दर्य को नितांत आध्यात्मिक स्वीकार नहीं करते । वे उपयोगिता आदि में ही सौन्दर्य देखते है । प्राय फ्रायड और मार्क्स सौन्दर्य की सामाजिक व्याख्या में विश्वास रखते है तो इलिएट का सिद्धांत व्यक्तिवादी भावना पर आधारित है ।
प्लेटो ने रेखा और वर्ण के सामंजस्य पर तो ध्यान दिया परन्तु समग्र वस्तु के आंतरिक सामंजस्य पर नहीं । आध्यात्मिक सौन्दर्य के साथ वह ऐहिक सौन्दर्य का संबंध स्थापित करने में असफल रहे है । अरस्तु ने इनसे आगे बढ़कर कला को नवीन सृष्टि के रूप में मानते हुये चित्तस्फूर्ति की ओर संकेत अवश्य किया परन्तु उनके विचार में भी यौक्तिकता का अभाव रहा ।
काण्ट ने अरस्तु से भी आगे निष्प्रयोजन आनन्द में सौन्दर्य की सिद्धि मानली और हीगेल तक आते - आते गोचर पदार्थों के भामक वैविध्य मूलवर्ती बुद्धिसंगत केन्द्रीय तत्व और भौतिक पदार्थों के समन्वय पर ध्यान दिया जाने लगा । क्रोचे ने सहजानुभूति या स्वयं प्रकाश ज्ञान पर बल देकर एकान्तिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया । लिप्स के अनुसार – हम किसी वस्तु में जितनी ही क्रियाशीलता के साथ लगते है और उसका आस्वादन करते है , उतना ही हमें सौन्दर्य का अनुभव होता है । जैसे हम किसी पक्षी को उड़ता देखकर स्वयं को ही उड़ता देखने लगते है और इसी में हमें सौन्दर्यानुभव होता है । एक मन का दूसरे मन के साथ एकत्व स्थापित कर लेना ही आत्मपरिक्षेपण है और उसी में अपना अन्तर खो कर आनन्द का अनुभव करते है । इसी में सुन्दरता है और या आनन्द ही सौन्दर्यानन्द है । लिप्स का सिद्धांत केवल व्यावहारात्मक इच्छा व्यापार को ही प्रस्तुत करता है , क्रोचे के वि ारात्मक अनुभव को नही । रस्किन का ईश्वरीय सत्ता के विकास में ही सौन्दर्य का दर्शन एक पूर्णता का सिद्धांत है । जिसमें पूर्ण ईश्वरीय सत्ता में ही सौन्दर्य माना गया है । सभी में उसी पूर्ण का ही प्रसाद मानने के कारण यह सिद्धांत सत्यम् , शिवम् , सुन्दरम् की भी प्रतिष्ठा करता है और उस स्थिति में सौन्दर्य को नैतिक मानने में कोई हानि नहीं है ।
फ्रायड कला को जीवन से असम्बंध करके देखना नहीं चाहते । उनकी दृष्टि में मानव - मस्तिष्क कुंठाओं की युद्धभूमि है और मानव के मानसिक विकास में यौन चेतना प्रत्येक स्थित में शैशव से ही विद्यमान रहती है । सौन्दर्य की उत्पत्ति का आधार ही यही यौन व्यापार ही है । इसमें अपने उपयोग के लिए वस्तु की काट - छाट कर उसे अपने अनुसार बना लेने की इच्छा का विकास होता है और तब हम उपयोगिता में ही सौन्दर्य देखने लगते है । इस प्रकार फ्रायड का दृष्टिकोण यौन व्यापार चलकर उपयोगितावाद में परिणत हो जाता है । मानव ने अपने आदिकाल से ही प्रकृति में यत्रतत्र अपनी उपादेयता के लक्षण पाकर उस में भी सौन्दर्य खोजना आरम्भ कर दिया किन्तु उपयोगिता में ही सौन्दर्य की प्रतिष्ठा मान लेने से सौन्दर्य केवल व्यक्तिगत रूचि सीमा में ही आवद्ध होकर रह जाता है । यदि यौन व्यापार में ही सौन्दर्य देखे तो फिर ऐसी कलाकृतियों को ही प्रतिष्ठा की जानी चाहिए थी , जिनसे मादक प्रेरणा मिल सकती हो । परन्तु सर्वमान्य यह है कि ललित कला से हमें एक मानसिक उदात्त आनन्द की उपलब्धि होती है ।
मार्क्स सौन्दर्य को सामाजिक या वस्तुगत मानते है । वे यह भी मानते है कि सौन्दर्यबोध को हमारा आर्थिक जीवन केवल प्रभावित ही नहीं करता बल्कि वह उसी का प्रतिबिम्ब है । इस धारणा में सौन्दर्य को सामाजिक मानकर मानव के व्यक्तिगत चिन्तन और मानसिक विकास की बिल्कुल ही उपेक्षा कर दी गई है । वास्तविकता यह है कि सामाजिक जीवन से भी पूर्व मनुष्य में ही नहीं मनुष्येत्तर जगत में भी सौन्दर्य की परख और सौन्दर्य की स्थिति रही है । सौन्दर्यबोध की प्रवृत्ति के विकास का पता तो किंचित मात्र लगाया भी जा सकता है लेकिन सौन्दर्य की उत्पत्ति का पता लगाना असम्भव है । सामाजिक जीवन में सूर्य और चन्द्र , कलकल निनादिनी सरिताओं और सुविकसित पुष्पों के सौन्दर्य को युगों से एकसा सराहा है । इससे स्पष्ट है कि सौन्दर्य सामाजिक नहीं अपितु वस्तुगत होता है और उसे ग्रहण करने की व्यक्ति की अपनी संस्कारगत एक प्रवृत्ति होती है ।
सौन्दर्य संबंधी विभिन्न विचारकों की अद्यावधि धारणायें निम्न प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है
यूनान के सौन्दर्यशास्त्री
1. सुकरात ' सुन्दर और शिव एक है अतः सुन्दर जीवन सापेक्ष ।
2. प्लेटो – “ सुन्दर , शिव और सत्य एक है । सुन्दर परम है और पूर्ण है । तथा सुन्दर के लिये नैतिक होना आवश्यक है । '
3. अरस्तु – ' सौन्दर्य आकांक्षा , वासना और उपयोगिता से ऊपर की वस्तु है । '
रोम के सौन्दर्यशास्त्री
1. प्लूटार्क – ‘ सौन्दर्य एक प्रकार की कलात्मक कुशलता है । '
2. प्लाटीनस ' ऊँची धारणा और तर्क का सम्मिश्रण सौन्दर्य है । पुनः ऊँची धारणा और तर्क के सम्मिश्रण को सौन्दर्य ही रूपविधान प्रदान करता है । अर्थात् सौन्दर्य पूर्णतः भावगत है , अल्पांश में भी वस्तुगत नही । इसलिये सौन्दर्य एक रहस्यात्मक सहजानुभूति है ।
जर्मन के सौन्दर्यशास्त्री
1. काण्ट - ‘ सौन्दर्य चिन्तनशील धारणा का आनन्द है इसका अस्तित्व वस्तुनिष्ठ नहीं , किन्तु इसका उद्देश्य शिवत्व का स्थापन है । '
2. गेटे — सौन्दर्य को समझना कठिन है कि वह तरल भंगुर भावात्मक नया सा कुछ है । आगे वह कहते है कि वही रचना सुन्दर हो जाती है जो अपने स्वाभाविक विकास की पराकाष्ठा पर होती है ।
3. शापेनहावर — ' इच्छाओं का सम्मूर्लन ही सौन्दर्य है । '
इग्लैण्ड के सौन्दर्याशास्त्री
1. शैफटसवरी ' सौन्दर्य और परम विभु एक है । ' 2.
2. टाँब्सरीड - ' सौन्दर्य आध्यामिक चैतन्य है । ' 3.
3. एडिसन – ' सौन्दर्य परिवेश और संगति का फल है । '
4. वर्क — वस्तु विशेष की वर्णगत चारूता , आंगिक कोमलता और उज्जवलता ही सौन्दर्य है । '
5. वेन — सौन्दर्य सोद्देश्य होता है । हमारा वह संवेग जो जीवन के प्रयोजनों से परे रहता है , सौन्दर्य कहलाता है । '
रूस के सौन्दर्याशास्त्री
1. बेलितकी — 'सौन्दर्य सामाजिक जीवन के जीवन्त यथार्थ का ऐसा प्रतिबिम्ब हे , जो हमें केवल आनन्द ही नहीं देता , प्रगतिशील होने की प्रेरणा भी देता है । '
2. क्रोचे — मानव के अंदर निहित सहजज्ञान की अभिव्यक्ति की पूर्णता ही सौन्दर्य है ।
उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त इतना तो स्पष्ट ही हो जाता है कि योरोप में सौन्दर्य की खोज में एक लम्बी परम्परा अवश्य दिखती है किन्तु सुन्दर का स्वरूप निर्धारित करने मे कोई सर्वमान्य ढंग से सफल नहीं हो सका है । अंत में गेटे के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि —
सौन्दर्य का स्वरूप निश्चित करना और समझना नहीं है वह एक तरल भंगुर और बमूर्त आभास सा है । जिसे परिभाषाओं की सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता है ।
बात यह है कि जब हम सौन्दर्य की परिभाषा पढने चलते है तो हम अपनी अनुभूति को टटोलने लगते है और अपनी अनुभूतियों को खोजते है तो स्वभावतः अपनी सीमाओं में घिरकर केवल व्यक्तिक धारणा ही प्रस्तुत कर पाते है । सुन्दर का संबंध हमारी अनुभूति से इतना अधिक है कि उस ओर बिना गये हम रह नहीं पाते । सभी की प्रतिभा व रूचि भिन्न ही होती है । अतः सबके विचार एकसे नहीं होने पाते । हमारी स्थिति सचमुच उन अन्धों की भाँति हो जाती है जो हाथी के भिन्न - भिन्न अंगों को टटोल कर उसका आकार प्रकार निर्धारित कर रहे थे और अंशतः सत्य कहकर भी उनमें से कोई पूर्ण सत्य नहीं कह सका । सौन्दर्य के संबंध में यह कथा पूर्णतया सत्य है और इसी प्रकार काव्य पर भी अक्षरशः घटित होती है ।