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काव्य में गृहीत सौन्दर्य और रसानुभूति


कवि कर्म की सार्थकता सौन्दर्य सृष्टि में है । सौन्दर्य एक अखण्ड वस्तु है , उसकी अनुभूति ही पराकाष्ठा को पहुँचकर रसनिष्पत्ति कहलाती है । सौन्दर्य तत्व का विश्लेषण करते समय सौन्दर्य के तीन रसों का उद्भावन होता है ।
1. संवेदना का सौन्दर्य
2. रूपगत सौन्दर्य और
3. अभिव्यंजनागत सौन्दर्य
अनेक सौन्दर्य - शास्त्रीयों द्वारा इन्हें भोगरूप और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य के नाम से अभिहित किया गया है । अनुभूति का एक अंश है संवेदना संवेदना इन्द्रियों द्वारा गृहीत होती है । रूप , रंग , स्पर्श , ध्वनि आदि संवेदन का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ही होता है । इन संवेदनाओं का भी अपना एक आनन्द है । आनन्द के हेतु होने के कारण ही रूप , रंग , रेखा शब्द आदि कला के उपादान तत्व माने जाते है । इस प्रकार संवेदना अथवा कला की उपादानुभूति सामग्री का भी अपना एक सौन्दर्य है । कलाकार इन उपादानों से एक रूप की सृष्टि करता है । यही कला का बाह्यस्वरूप यह शरीर है । कला के रूप का भी एक विशिष्ट सौन्दर्य है । इस पदार्थ एवं रूप के सौन्दर्य के अतिरिक्त सौन्दर्य का एक और प्रकार है , जिसे प्रतीयमान अर्थ अथवा ध्वनि सौन्दर्य कहते है ।
कलाकृति के सौन्दर्य का मूल हेतु अभिव्यंजना ही है । यही उसकी आत्मा है इस सौन्दर्यानुभूति का प्रधान कारण प्रतिमान कल्पना या भावना ही है । काव्य में होने वाली रसनिष्पत्रि भावना का ही विषय है , यह चर्वणारूप है । संवेदना एवं प्रत्यक्ष अथवा भोग एवं रूप भी इस अवस्था में चर्वणा के विषय बन जाते है । इनका पृथक अस्तित्व समाप्त हो जाता है । चर्वणा सौन्दर्यानुभूति की चरम पराकाष्ठा है जिसे पश्चिम का आचार्य अभिव्यंजना का सौन्दर्य मानता है ।
सौन्दर्य यद्यपि अखण्ड वस्तु है फिर भी शास्त्रीय ज्ञान के लिये सामग्री रूप एवं ध्वनि इन तीन तत्वों में विभाजन उपादेय है । यद्यपि सौन्दर्यानुभूति की अखण्ड स्थिति में इन तीनों का ही सहयोग अपेक्षित है । कभी सहृदय सामग्री के सौन्दर्य पर मुख्ध होता है , कभी रूप के तथा कभी ध्वनि के सौन्दर्य पर मंत्र मुग्ध हो जाता है । ये सभी स्तर सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करते है परन्तु इन तीनों में उत्तरोत्तर क्रम से सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य एवं उपयुक्ता की अधिकता पाई जाती है । अतः इनके सौन्दर्य को उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मानना असमीचीन न होगा । वास्तव में अभिव्यंजना का सौन्दर्य तो अधिकतर सब स्तरों के सौन्दर्य का प्राण ही है । इस ध्वनि तत्व के कारण ही संवेदना एवं रूप भी सुन्दर अथवा आनन्ददायक प्रतीत होते है । इस अवस्था में तीनों स्तरों का आनन्द एक अनुभूति में परिणत होकर अधिक तीव्र एवं स्थायी हो जाता है । आत्म विस्मृति का यही स्तर है ।
भारतीय आचार्यों ने शब्द के लघु से लघु अंश वर्ण , काकु , आदि एवं अर्थ का सम्बंध अलंकार , गुण , रीति , वक्रता , ध्वनि रस आदि सभी का काव्य तत्वों से माना है । ये तत्व सौन्दर्य भावना के विभिन्न स्वरूप ही है । इन सौन्दर्य तत्वों में से कुछ का सम्बन्ध काव्य के शरीर से तथा कुछ का सम्बन्ध काव्य की आत्मा से है । काव्य के प्रत्येक छोटे - बड़े तत्व के सौन्दर्य का मूल हेतु रस को ही माना गया है । रस के अभाव में अलंकार , गुण वक्रता , शब्द विन्यास , अर्थ नियोजन , प्रबंध योजना आदि सभी तत्व केवल प्राणहीन , आकार मात्र रह जाते है । भारतीय आचार्यों की दृष्टि से काव्य की चारूता , सौन्दर्य या रमणीयता रस ही है । रस सौन्दर्य है और सौन्दर्य ही रस है इस रूप में उस सौन्दर्य की उद्भावना हुई है , जो काव्य के सम्पूर्ण स्तरों पर विराजमान रहता है एवं स्वयं ही सब तत्वों का प्राणभूत बनकर उनके रूप में अभिव्यंजित होकर काव्य के भोग रूप एवं अभिव्यंजनागक सौन्दर्य में पूर्ण समन्वय स्थापित कर देता है । यह भारतीय सौन्दर्य दृष्टि की एक महत्वपूर्ण विशेषता है , जो सम्भवतः इस उत्कृष्टता के साथ अन्यत्र दुर्लभ है ।

भोग , रूप और अभिव्यक्ति -
प्रारम्भ में संस्कृत के साहित्य चिंतकों का ध्यान काव्य के उपदानभूत शब्द और अर्थ के सौन्दर्य पर ही गया था । उस समय इसी योग के सौन्दर्य को ही काव्य की आत्मा माना गया । शब्द और अर्थ में पृथक - पृथक सौन्दर्य की कल्पना वास्तव में भोग तत्व में ही सौन्दर्य देखना है । शब्द अर्थ ही तो वह सामग्री है जिससे काव्य के शरीर का निर्माण होता है । पर इस सौन्दर्य भावना के मूल में भी साहित्य भावना ही है । अंत में इनके सौन्दर्य का पर्यावसान भी उसी में हो गया । इसी प्रकार साहित्य भावना अपने से पूर्ववर्ती उपादानगत सौन्दर्य को अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचाती हुई तथा उस चारूता का अपने आप में ही अंतर्भाव करती हुई काव्य का शरीर अथवा व्यावर्तक तत्व तो आज भी माने जाते है ।
रस - निष्पत्ति स्वरूप विवेचना में आचार्यों ने न्याय , मीमांसा आदि अनेक दार्शनिक सिद्धांतों का आधार लिया है । काव्य में शब्द ओर अर्थ में से किसी एक का दूसरे की अपेक्षा अधिक महत्व समझने के कारण व्याकरण अथवा मीमांसकों में से किसी एक की ओर अधिक झुकाव हो रहा है । भामह , कुन्तक आदि आचार्यों का शब्द ओर अर्थ में से किसी एक सौन्दर्य को ही काव्य मान लेने का खण्डन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि प्रारम्भिक आचार्य ऐसा ही करते रहे । आचार्यों की इस प्रवृत्ति के ध्वंस विशेष साहित्य भावना को काव्य का प्राण मान लेने के बाद भी दृष्टिगत होते है । ध्वनि का काव्य लक्षण में अर्थ को तथा पंडितराज जगन्नाथ द्वारा शब्द को प्राधान्य देना इसके प्रमाण है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य चिंतन के प्रारम्भ में काव्य के उपादान शब्द और अर्थ के सौन्दर्य पर ही आचार्यों का अधिक ध्यान गया और यह स्वभाविक भी है परन्तु शब्द और अर्थ में से किसी एक को ही सौन्दर्य का प्रधान हेतु मानने का तात्पर्य उपादानगत सौन्दर्य पर भी अधूरी दृष्टि है । यही कारण है कि कुन्तक को शब्द और अर्थ में से एक सौन्दर्य को ही काव्य मानने बालों का खण्डन करना पड़ा । भामह ने भी अपने काव्य लक्षण में शब्द और अर्थ दोनों के साहित्य पर इसी कारण अधिक बल दिया है । माघ कवि को भी काव्य के लिये शब्द और अर्थ दोनों आवश्यक प्रतीत हुए।
" शब्दार्थों सत्कविरिय हृदयं विद्वानपेक्ष्ते''1 .......
सामग्री के सौन्दर्य को ही काव्य का सौन्दर्य मानने वाले आचार्यों की परम्परा भारतीय साहित्य शास्त्र के इतिहास में सुरक्षित न रह सकी । वह व्याकरण एवं मीमांसा के आचार्यों की परम्परा में अंतर्भूत हो गई । यह प्रारम्भिक बिखरा हुआ अपरिपक्व चिन्तन था । आचार्य भरत ने भी ऐसे आचार्यों का संकेत किया है भामक से कुन्तक तक के दण्डी , वामन प्रभृति सभी आचार्य देहवादी है । ये शब्द और अर्थ के साहित्य को ही काव्य का शरीर मानते है तथा वक्रता , गुण , अलंकार आदि को इसका वैशिष्ट । इन सौन्दर्य तत्वों का सम्बन्ध प्रधानतः काव्य के शरीर अथवा रूप से है । चिंतन का यह युग रूपगत सौन्दर्य को प्राधान्य देने वाला है । भामह का “ शब्दाथौ सहितौ काव्यं ” इस युग का सर्वमान्य तत्व है , मतभेद केवल वैशिष्ट्य निर्वाचन में ही है । काव्य की आत्मा को अलंकार गुण , रीति , वक्रोति किसी भी नाम से अभिहित किया हो पर शब्द अर्थ को काव्य शरीर व उपादान मानने में सभी एकमत है । इसी के साथ काव्य के उपादान एवं रूप में सौन्दर्य की उपादेयता काव्य के आत्मा के सौन्दर्य की अभिवृद्धि में है यह सिद्धांत भी मान लिया गया है ।
शब्द और अर्थ की सम्पृक्तता तथा दोनों के नित्य साहचर्य का सिद्धांत भारतीय आचार्यों ने निर्विवाद रूप से माना है ।
“ नित्यः शब्द नित्यः अर्थः नित्यः शब्दार्थसम्बन्धः "
महाकवि कालिदास ने स्वयं वाक् और अर्थ को शिव - शक्ति के समान ही समरस्य माना है । 1
यही समरस्य काव्य में पूर्णता को पहुँच जाता है तथा इसी का परिणाम रसनिष्पत्ति है । प्रत्येक शब्द में एक अर्थ की क्षमता तथा समुचित अर्थ देने की आकांक्षा है । उधर अर्थ भी किसी उपयुक्त शब्द के आकार में परिणत होने के लिए आतुर है । अर्थ शून्य शब्द और शब्दाभाव में अर्थ , भारतीय आचार्य कल्पना नहीं करना चाहता ।
शब्द में अपने अनुरूप अर्थ की व्यंजना की आकांक्षा है तो अर्थ में उपयुक्त माध्यम चुन लेने को आतुरता । इस अनुरूपता एवं संतुलन को प्राप्त कर लेने के लिए शब्द और अर्थ दोनो ही विकल है । यह अनुरूपता संतुलन एवं परस्पर स्पर्धता ही शब्द और अर्थ एवं उनके साहित्य का सौन्दर्य है । यह सौन्दर्य तत्व प्रत्येक उक्ति में विद्यमान है । शब्द और अर्थ के औचित्य की चरमसीमा इसलिए साहित्य के सौन्दर्य की पराकाष्ठा भी - काव्य ही है । काव्य में शब्द , अर्थ से तथा अर्थ शब्द से अधिक रमणीय हो जाने की घुडदौड़ में लगे है । ज्यों - ज्यों भावुक विचार करता है त्यों - त्यों उसे काव्य के शब्द और अर्थ एक दूसरे से अधिक रमणीय होते चले जाते है । काव्य की उक्ति में ही वस्तुत साहित्य भावना पूर्णतः मूर्तिमान हो पाती है । काव्य में शब्द और अर्थ दोनों ही अपनी रमणीयता साहित्य भावना को समर्पित कर देते है और इस प्रकार एक नवीन दिव्य आभा का जन्म होता है । यह दिव्य आभा ही काव्यगत सौन्दर्य है । इसका स्वरूप स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने कान्तासम्मित वाक्य से इसकी तुलना की है ।
शब्द और अर्थ के पूर्ण संतुलन की रमणीयता जो कान्तावाक्य में ही है क्योंकि वही शब्द और अर्थ गौण हो जाते है तथा ध्वनि व्यापार द्वारा साहित्य भावना में पर्यवसित हो जाते है । यह रमणीयता बुधिग्राह्य वस्तु नहीं है वह तो हृदय द्वारा ही अनुभूत होती है । इस काव्य पर ही सहृदय मुग्ध होता है ।
स्वर , राग , तार , काकु , व्यंग्य प्रकरण आदि में अपना - अपना एक विशेष सौन्दर्य है । ये शब्द और अर्थ के गुण है । काव्य उपादान शब्द और अर्थ का अपना एक प्रथक् सौन्दर्य है , पर काव्य का इससे एक भिन्न सौन्दर्य भी है । काव्य न केवल शब्द की रमणीयता है और न केवल अर्थ की । अपितु शब्दार्थ से भिन्न एक पृथक सत्ता वाली रमणीयता है । उसमे दोनों ही गौण हो जाते हैं तथा कवि व्यापार से उत्पन्न साहित्य का भाव प्रधान हो जाता है । अतः काव्य न तो केवल शब्दगत सौन्दर्य है और न केवल अर्थगत अपितु उसके साहित्य में सौन्दर्य है । “ सौन्दर्यलाध्यत्व ” अर्थात् सहृदय का आल्हाद कहा गया है । सहृदयश्लाध्य ही सौन्दर्य की प्रमुख कसौटी है । यही तत्व भारतीय चिन्तन के मूल आधार भूमि ही है । सहृदय के द्वारा रसानुभूति या रस की प्राप्ति ही काव्य की सफलता है । ठीक भी है , क्यों कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी वस्तु या कला में प्रवृत्त नहीं होता —

किसी भी कला या काव्य का प्रधान प्रयोजन प्रीति , आनन्द या रस है , किन्तु मात्र रसानुभूति ही काव्य का अंतिम उद्देश्य नहीं कहा जा सकता । नाट्शास्त्र में आचार्य भरत ने कला के उद्देश्य को स्पष्ट किया है । '
“न हि रसावृते कविदर्थ प्रवर्तते । "
" तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन ही नाट्य है । यह एक धर्मात्मा के लिये धर्म तथा कामी के लिए काम का उद्देश्य देता है । दुष्टों का निग्रह , क्लीवौ तथा कायरों मे पौरूष , अभिमानी तथा पराक्रमी में उत्साह का संचार करना ही नाट्य का प्रयोजन है । अज्ञानियों का प्रकाश , विद्वानों में वैदुष्य , धनवानों मे भोग , पीड़ितों को सहारा , अर्थ पीडितों के लिए धन तथा उदिग्न व्यक्ति को धैर्य प्रदान करना ही इसका लक्ष्य है । दुःख से मारे , भ्रम से कलान्त , शोक पीड़ित दीन - दुखियों को एक विश्रान्ति प्रदान करने वाला है ।
इस प्रकार आचार्य भरत के अनुसार नाट्य न केवल भावुक की सच्चिदानन्द को प्राप्ति कराता है बल्कि सम्पूर्ण सांसारिक कष्टों से भी मुक्ति प्रदान करता है । इस प्रकार भरत की कलादृष्टि लोकरन्जन के साथ - साथ लोकामगल की भावना से भी ओतप्रोत है तथा सौन्दर्य शिव से समन्वित है ।
वस्तुतः भारतीय विचार धारा की यही सबसे बड़ी विशेषता है जहाँ पाश्चात्य शास्त्री की पहुँच नहीं हो सकी है ।
नाट्यकला की अनुकृति में भी सौन्दर्य व्यापार ही समाविष्ट है । भरत ने नाट्य का विवेचन इस प्रकार किया है " भावों तथा अवस्थाओं का अनुकरण ही नाट्य है । लोक स्वभाव भाव एवं अवस्था का तथा अभिनय सौन्दर्य का प्रतीक है । " अभिनवगुप्त ने भी अभिनय को ही रससृष्टि का प्रधान माध्यम माना है ।
रसानुभूति – काव्य में रस के महत्व को तो सभी स्वीकार करते है । भरत के नाट्यशास्त्र मे नाट्य रस का विस्तृत विवेचन है । नाट्यशास्त्र के पश्चात् अग्निपुराण में भी रस का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है ।
अग्निपुराण के अनुसार भी वाणी का रस युक्त होना अनिवार्य है .... " त्याग के बिना लक्ष्मी के समान , रस के बिना . वाणी शोभा को नहीं पाती । "
इस अपार काव्य संसार में कवि ही एक प्रजापति है , जो अपनी रूचि के अनुसार विश्व का निर्माण करता है । 2
काव्य में यदि कवि श्रृंगारी होता है तो सम्पूर्ण जगत रसमय हो जाता है । वहीं अगर विरागी हुआ तो विश्व नीरस हो जाता है ।3
अग्निपुराण का सिद्धांत है – “ काव्य में वाग्वैदग्ध अर्थात् वचन चातुरी का चमत्कार रहने पर भी रस की उसका जीवित है । वाग्वेदग्ध प्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम – “ इस प्रकार की अग्निपुराण में रस को आत्मस्थानीय माना है । ध्वनि सम्प्रदाय के प्रधान संस्थापक एवं " काव्यस्यात्मा ध्वनि सिद्धांत के पोषक ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन भी रस ध्वनि को ही सर्वोत्कृष्ट मानते है । गुण , रीति , वृत्ति , अलंकार आदि की सार्थकता भी रसादि के उत्कर्षण होने में ही है । इसीलिए आनन्दवर्धन ने कहा है कि - " काव्य की आत्मा वहीं प्रतीयमान रसादि रूप अर्थ ही है । " इसी से तो आदि कवि बाल्मीकि का क्रौंच के वियोग से समुत्पन्न करूण रस का स्थायी भाव शोक श्लोक अर्थात् काव्य रूप में परिणत हुआ है । ( 1/5 )
काव्य में रसादि का प्राधान्य आनन्द को सर्वदा अभिप्रेत है परन्तु इनके मत में रस से भी अधिक प्राधान्य ध्वनि का है , क्योंकि ध्वनित होने पर ही रसादि चमत्कारक होता है ।
राजशेखर ने भी “ काव्य मीमासा ” में काव्य की आत्मा रस को ही माना है । ' इन्होंने सिद्धांत रूप में हि बस इतना बतलाया है कि शब्दार्थ शरीर वाले काव्य में आत्मा रस है ।
भट्टनायक ने भी अपने " हृदय दर्पण " में रस को ही काव्य की आत्मा माना है । ये ध्वनि के विरोधी है इन्होंने ध्वनि को अनिर्वचनीय माना है । इनके द्वारा वस्तु ध्वनि और अलंकार ध्वनि का सर्वथा खण्डन किया गया है । इन्होंने रसानुभूति में दर्शक के महत्व को विशेष रूप से स्वीकार किया है । ये न तो रस को उत्पन्न मानते है न उसकी प्रतीति स्वीकार करते है और न उसकी अभिव्यक्ति मानते है अपितु ये तीनों से विलक्षण रस की भुक्ति पर इनका विशेष आग्रह है । इन्होंने काव्य व्यापार के तीन रूप माने है अभिधा , भावकात्व और भोजकत्व । अथिधा के द्वारा शब्द अर्थ की प्रतीति कराता है । भावकत्व का अर्थ है साधारणी करण । इस व्यापार के बल पर नाट्य में अभिनेता पात्र अपने ऐतिहासिक तथा व्यक्तिगत निर्देष को छोड़कर सामान्य व्यक्ति के रूप में ही ग्रहण किया जाता है । भोजकत्व व्यापार के द्वारा दर्शक रस का भोग कराता है । इस अवसर पर दर्शक के हृदय में राजस व तामस भावों को सर्वथा या दबाकर सात्विक भाव से एकान्तिक उदय हो जाता है । सात्विक भाव उत्पन्न होने पर ही रसभुक्ति सम्भव है ।
भट्टतीत ने अपने “ काव्य कौस्तुभ " में रस को आनन्द स्वरूप होने के कारण आत्मरूप माना है और रससमुदायरूप को ही नाट्य बताया है । काव्य में भी जब रस प्रयोगत्व होता है तभी आस्वाद होता है ? " श्रव्यकाव्य में भी कवि ऐसा वर्णन करता है कि वर्णित विषय पाठक के सामने प्रत्यक्ष भाषित होने लगता है , तभी सहृदय पाठक रसास्वाद करते है ।
प्रतीहरिन्दुराज ने उदभट्ट के “ काव्यालंकार सार - संग्रह " की लाघुवृत्ति ( टीका ) में प्रतिपादनकरते हुए काव्य की आत्मा रस को ही माना है । यदयपि इन्दुराज भी अलंकारवादी भामह , उदभट् आदि के अनुयायी है तथापि उन्हें रसादि को रसवत् अलंकार रूप मानना अभीष्ट नहीं है इनके अनुसार " रस काव्य की आत्मा रूप में प्रतिष्ठित है और शब्द- अर्थ शरीर रूप मे । जैसे आत्मा से अधिष्ठित ही शरीर जीवित रहता है , वैसे ही रस से युक्त काव्य जीवित रह सकता है , वैसे ही काव्य की आत्मा रस है ।
" रसा हि काव्यस्यात्मत्वे नावस्थिताः शब्दार्थ च शरीर रूपतया । यथा हयात्मधिष्ठित शरीरं जीव नीति परिदृश्यते । तथा रसाधिष्ठितस्य काव्यस्य जीवदुपरतथा व्यपदेश क्रियते । तवाहुः ।
‘ रसाध्यधिष्ठितं काव्यं जीवद्रूपतथा यतः ।
कथ्यते तद्रसादीनां काव्यात्मत्वं व्य पस्थितम् ।।
अभिनवगुप्त ने अपनी ' नाट्यशास्त्र की टीका ' अभिनव भारती में , सभी विरोधी मतों का खण्डन करते हुये रस ध्वनि का संस्थापन किया है और बाद के मम्मट आदि आचार्यों को इन्हीं का मत मान्य हुआ । इनका मत अभिव्यक्तिवाद के नाम से जाना जाता है । रस की अलौकिकता और उसकी प्रतीयमानता के व्युतियुक्त विवेचन के कारण ही इनका सिद्धांत अमर है । गुण , अलंकार रीति , वृत्ति आदि को सार्थकता रस की उत्कृष्ट करने में ही है । जैसे निर्जीव शरीर में आभूषण नैरस्य उत्पन्न करता है वैसे ही रसहीन काव्य मे अलंकार व्यर्थ ही नहीं अपितु नैरस्य के उत्पादक है । इनके अनुसार रस ध्वनि ही काव्य का सर्वोत्कृष्ट रूप है ।
' व्यक्ति विवेक ' कार महिम भट्ट भी रस को ही काव्य की आत्मा मानते है । उनका कहना है कि विभावादि के द्वारा रसादि की अनुभूति होती है ।
भोजराज के ' सरस्वतीकाण्ठाभरण ' तथा श्रृंगार प्रकाश के अनुसार अभिमान यह अहंकार एक रस है जिससे अन्वित होने पर ही काव्य कमनीय होता है । रसित अर्थात् आस्वादित होने के कारण यह रस कहलाता है । अनुकूल वेदनीय होने के कारण दुःख का भी सुखत्वेन अभिमान किया जाता है । अतः यह अभिमानरूप है । रसिकों द्वारा अहंकार रूप में इसका ज्ञान होता है । अतः यह अहंकार शब्द से कहा जाता है और अंग अर्थात् उच्छृय , इसी में प्राप्त किया जाता है । अतः इसे श्रृंगार कहते है और तभी यदि कवि श्रृंगारी हुआ तो काव्य रस मय हो जाता है अन्यथा नीरसता आ जाती है ।
ध्वनि सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य मम्मट ने रस , वस्तु , अलंकाररूप त्रिविध अर्थ व्यङ्य को काव्य सर्वस्व मानते हुये भी गुण के निरूपण में रस का अस्तित्व स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है । '
रप्पक अपने ' अलंकार सर्वस्व ' में रसादि को ही काव्य का प्राण मानते है । ' साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ' ने रस का विवेचन करते हुये बताया है कि विभाव , अनुभाव तथा संचारी भाव से अभिव्यक्त सहृदयों के हृदय में वासना रूप में स्थित रसादिस्थायी भाव रसरूप में परिणत होता है ।
सहृदय के हृदय में अनादिकालीन जो वासना है , वही अपनी सामग्री को प्राप्त कर रस रूप में अभिव्यक्त होती है । दूध जैसे दही रूप में परिणत होता है जैसे ही रत्यादि का रस रूप में परिणत होना ही रस की अभिव्यक्ति है । दीपक से घट की अभिव्यक्ति की भाँति रसादि की अभिव्यक्ति नहीं होती है ।
रस गंगाधरकार ने कहा है कि समुचित और ललित रसना से परिपूर्ण मनोहर काव्य के द्वारा विभावादि जब प्रतिपादित होते है तो सहृदय के हृदय में प्रवेश कर जाते है । इस तरह सहृदय प्रमाता अनादिकालीन वासनारूप रत्यादि स्थाई भाव का जब प्रकाशमय वास्तविक आनन्द के साथ प्रत्यक्ष करने लगते है जब यह रत्यादि रस कहलाता है ।
इस प्रकार जगन्नाथ ने “ रसों वै स " इत्यादि श्रुति को रत्यादि भाव - विषयक आवरण रहित आत्म चैतन्य को ही रस माना है । वेदान्त् सिद्धांत के अनुसार रस को शुद्ध आत्मचैतन्यरूप माना गया है ।
अन्य कलाओं की भांति काव्य भी सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यक्ति है । सच देखा जाये तो काव्य की अनुभूति , अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति के साधन किसी भी दृष्टि से क्यों न देखें , वह तो सौन्दर्य ही सौन्दर्य है । काव्य का क्षेत्र ही सौन्दर्य का क्षेत्र है , सौन्दर्य व्यापार का क्षेत्र है । दार्शनिक क्षेत्र में जो सत् है , धार्मिक क्षेत्र में वही शिवम् है और काव्य के क्षेत्र में वहीं सुन्दरम् है ।
‘ सौन्दर्य ' सृष्टि का मूल है और आनन्द उससे प्राप्त सौरभ मानव का एक मात्र जीवनोदेह रूप , जिसमें निमग्न होकर वह उस उद्देश्य को ही भुला बैठता है , तदाकार हो जाता है , इसे मोह कहिये , मुक्ति कहिये , कैवल्य कहिये , किसी भी नाम से पुकारिये और काव्यानुशीलन द्वारा यह ' जीवन मुक्ति ' इसी लोक में , इसी शरीर से सम्भव है परन्तु सौन्दर्य को निरखने और परखने तथा उसमें तदाकार होने की दृष्टि दूसरी है , इसमें निमग्न और अवगाहन का प्रकार ही दूसरा है ।
सौन्दर्य के भव्य रूपों के साक्षात्कार से आत्मविमोर एवं आनन्द विह्वल कवि उसकी अभिव्यक्ति हेतु आकुल एवं व्याकुल हो . माँ शारदेय की शरण लेता है तभी उसकी कूचिंका से काव्य सौन्दर्य के शत् - शत् भव्यातिभव्य रूपों की सृष्टि है । साहित्य और सौन्दर्य का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । काव्य का ताना - वाना सौन्दर्य के विभिन्न तत्वों से बुना है । काव्य संसार की सृष्टि सौन्दर्य से ही होती है , उसी से लालित पालित होती है , उसी से हृष्ट पुष्ट होती है , उसी से पोषक तत्व ग्रहण करती है , उसी में श्वाँस प्रश्वाँस लेती है , जीवन - यापन करती है और अन्ततः उसी में विलीन हो जाती है ।
सौन्दर्य मौन किन्तु मादकभरा निमंत्रण है जो सरस हृदय कवि का व्यापार है । पुष्प में जो पराग है , प्रभाकर में जो प्रकाश है , चंद में जो शीतलता है , वही साहित्य में सौन्दर्य है । पुष्पपराग विहीन व्यर्थ है , प्रभाकर प्रकाशविहीन एवं चन्द्रमा शीतलता विहीन निस्सार है , उसी भाँति साहित्य सौन्दर्य विहीन होकर निर्जीव सा है । पुष्प का सौन्दर्य केवल उसकी लाली में नहीं कल्कि उसके सौन्दर्य में है । केवल शतदल की लाली पर मुग्ध होने वाला कवि साहित्य सरिता के कगार पर विचरण करने वाले उस नाविक सा है जो महज डूब जाने के भय से किनारे पर बैठ जाता है अथवा उस विलासी सा है जो नारी का सौन्दर्य केवल उसके कच - कुक्षों में मानकर उसकी प्राप्ति के लिये अपना जीवन न्यौछावर कर देता है । जिस प्रकार संस्कृति आचरण को सुन्दरता का पर्याय है , संगीत स्वर एवं नाद की सुन्दरता का नाम है , चित्रकला रंग और दृश्य के सौन्दर्य की दृष्टि है उसी प्रकार साहित्य कला , विचारों एवं भावनाओं की सुन्दर शब्दमय अभिव्यंजना का दूसरा नाम है । यही कारण है कि इस कला में सत्यं शिवं के प्रश्न पर मतान्तर होने पर भी सुन्दरम् में कोई विरोध नहीं है । सभी साहित्य मनीषी भी इस प्रश्न पर एक मत है कि साहित्य में सुन्दरम् एक अनिवार्य गुण है । सौन्दर्य से अछूता काव्य अपूर्णता का द्योतक है । यही कारण है कि भारतभूमि पर लिखे गये प्राचीन साहित्यवेदों में भी सौन्दर्य समाहित है बाल्मीकि रामायण में भी सौन्दर्य अपने सजीव रूप में चित्रित है । ' 4
कालिदास के काव्य में भी विशुद्ध सौन्दर्य का चित्रण है जहाँ वासना का रंचमात्र भी प्रवेश नही । अभिज्ञान - शाकुन्तलम् की नायिका का सौन्दर्य अतुलनीय है – “ अव्याज मनोहर वपुः । वह तपोवन की वनश्री और अमृतमयी पारिजातलता है । वल्कल पहनकर भी उसकी शोभा में माधुर्य है । 5 ' अनिद् य सौन्दर्य है , नैसर्गिक सुषमा है । इस सौन्दर्य सुषमा के सम्बन्ध में सुन्दरम् के कवि रवीन्द्र के अनुसार -
' यह है सारे काव्य को एक लोक से दूसरे लोक में ले जाना , यह है प्रेम को स्नभाव सौन्दर्य के देश से मंगल सौन्दर्य के अक्षय धाम में पहुँचाना । 6
निसंदेह सौन्दर्य कोई क्रय नहीं कर सकता । वह इतना कीमती है फिर भी सौन्दर्य का सच्चा पिपाषु उसे सरलता से प्राप्त कर लेता है क्योंकि विशुद्ध सौन्दर्य के दर्शन हेतु उदात्त भावनाओं की आवश्यकता होती है । अनुदात्त या कुत्सित तत्व उसमें बाधक होते है । कीट्स ने गहरी निंद्रा में सोई हुई प्रेमिका के सौन्दर्य का बड़ा ही मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है । '
सौन्दर्य का क्या ही मनोरम चित्रण है - “ प्रणयानुभूति में सोई हुई नवयुवती ऐसी शोभा दे रही है , मानो यह एक ऐसा कुसुमित पाटल प्रसून है जो निमीलित होकर पुनः कली में परिणत हो गया हो । खिला गुलाब पुनः मंद होकर कलिका बन गया हो । वह प्रेमिका नव योवन के समस्त मादक सौन्दर्य एवं मसृणता को समेट कर अर्धनग्न अवस्था में सोई हुई है । " कवि की कल्पना उसके प्राणों के मधु में निमज्जित हो उठती है और वह सुन्दर पाटल प्रसूनों एवं मुकुलों से स्पर्धा करने लगती है । एक असुन्दर या सामानय वस्तु भी कभी कल्पना की आँच में पिघलकर परिष्कृत हो विशुध्व देदीप्यमान स्वर्ण बन जाती है । कवि वर्णित काव्य सौन्दर्य तो ऐसा चित्रण है जिसमें जीवित को मारने की शक्ति है तथा मरे हुये में नये जीवन को संचारित करने की क्षमता भी है ।
यह सौन्दर्य प्रतिमा मंत्रमुग्ध संगीत है एवं स्वर्गीय सुख का आनन्द है । हिन्दी के मूर्धचन्य कवि श्रीपंत ने ' आँसू की बालिका ' में सौन्दर्य का अद्वितीय चित्र अंकित किया है । 7
विश्व के किसी भी कोने का साहित्य उठा लीजिए , उसमें सौन्दर्य चित्रण अवश्य हुआ , होगा क्योंकि सौन्दर्य एवं काव्यगत रसानुभूति के संदर्भ में कुछ विद्वानों के विचारों को दृष्टिगत कर लेना अनुचित न होगा ।
प्रो . ए.सी. शास्त्री के अनुसार – पूर्व में जिसे हम रस कहते है वही पश्चिम में सौन्दर्य के नाम से पुकारा जाता है । जब सौन्दर्य का अर्थ रस ग्रहण किया जाता है तो इसका तात्पर्य हुआ कि सौन्दर्य की अनुभूति एक अतीन्द्रिय अनुभूति है । यह आत्मा के अस्तित्व एवं चैतन्य के पूर्ण एवं अखण्ड रूप की आनन्दानुभूति है । अतः रस सौन्दर्य की अनुभूति का आधार है । जो भी सुन्दर है वह इसलिये सुन्दर है क्योकि उसका मूलाधार रस है ।
डॉ . कान्तिचन्द्र पाण्डेय के अनुसार - ‘ सौन्दर्यशास्त्र के संबंध में यह रस सौन्दर्यत्मक वस्तु को सूचित करता है । इसक अर्थ अत्यंत गंभीर एवं शास्त्रीय है किन्तु शास्त्रीय अर्थ में भी इसका मूल अर्थ आस्वाद की ऐसी वस्तु है जो ऐन्द्रियक न होकर सौन्दर्यात्मक हो ।
डॉ . नगेन्द्र — ने कहा है कि भरत सूत्र के व्याख्याता आचार्यों के विवेचन के फलस्वरूप रस का स्वरूप क्रमशः विषयीगत होता गया और वह आस्वादय से आस्वाद हो गया । इस अर्थ परिवर्तन का दायित्व अभिनवगुप्त पर है । उनके अनुसार रस का अर्थ है आनन्द और आनन्द विषयगत न होकर आत्मगत ही होता है ।
अन्ततः रस नाटक या काव्य के माध्यम से प्रायः प्रेषक की विशिष्ट अनुभूति का नाम है ।
डॉ . सुरेन्द्र वारलिंगे का मत रस तो सौन्दर्य की प्रतिमा है सौन्दर्य नहीं है । इसी कारण रस और सौन्दर्य शब्द एक दूसरे के पूरक है और कला के लिये सौन्दर्य का ध्येय निर्धारित करते समय रस सिद्धांत से आँखें नहीं मूदी जा सकती है । 8
वारलिंगे ने स्पष्ट घोषणा की है कि आजतक जिसे रस सिद्धांत समझा गया है वह रससिद्धांत न होकर आनन्द सिद्धांत है । इस आनन्द सिद्धांत को त्यागकर हमें रस सिद्धांत को स्वीकार करना चाहिए ।
प्राचीन परम्परा में आचार्य भरत ने भोज्य पदार्थों के समकक्ष नाट्य रस को स्थान देते हुये उसे आस्वाद्य तत्व माना । जिस प्रकार भिन्न मिर्च मसालों के संयोग से किसी भी भोज्य पदार्थ को स्वादिष्ट बना दिया जाता है उसी प्रकार विभावादि तत्वों के मेल से स्थायी भाव को भी रसात्मक रूप में प्रस्ततु कर दिया जाता है । इस दृष्टि से रस स्थायी भाव का वह स्वादिष्ट रूप है जो नाटक के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है ।
परवर्ती युग में रस को नाटक तक ही सीमित न रखकर काव्य संगीत आदि अन्य कलाओं के संदर्भ में भी देखा गया । नाटक , काव्य या कला के आस्वादन से हमारे मन पर जो प्रभाव पड़ता है उसकी अनुभूमि को ही भारतीय आचार्यों ने रस माना है । अर्थात् जिस विशिष्ट गुण के कारण कोई कला हमें प्रभावित या आकर्षित करती है उसी को कला विवेचन के संदर्भ में सौन्दर्य कहा गया है । कला का यह गुण मानव की इन्द्रियों को ही नहीं अपितु मन और बुद्धि को भी आकर्षित करता है । इस दृष्टि से कला कृति के उन सब गुणों को समन्वित रूप में सौन्दर्य कहा जाता है जो सामाजिक हो आकर्षित , प्रभावित , उद्वेलित या आनन्दित करते है , जबकि इस सौन्दर्य के आस्वाद से प्राप्त अनुभूति , जो प्रायः आल्हादक या आनन्दरूप होती है रस कहलाती है ।
अतः रस सौन्दर्य का पर्याय न होकर सौन्दर्य की अनुभूति है जिसे सौन्दर्य शास्त्र के क्षेत्र में सौन्दर्यानुभूति कहा गया है ।
काव्यगत रस अलौकिक होता है । अलौकिक आनन्द की प्राप्ति के कारण ही रस को ब्रह्मानन्द सहोदार माना गया है । श्रृंगार रस को रस - राज कहा गया है । कालिदास के काव्य में भी सर्वत्र श्रृंगार रस की ही प्रधानता है । श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही रूपों को कवि ने बड़ी खूबी के साथ चित्रित किया है । क्योंकि संयोग श्रृंगार का अधूरा तथा कच्चा माना गया है । वियोग के अभाव में संयोग पुष्टि को प्राप्त नहीं होता —
" न बिना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमष्नुते
संस्कृत के कवि ने किसी विरही से पूछा कि तुम इतने दुखी क्यों होते हो ? तुम चाहो तो मैं प्रिय से तुम्हारा संगम करा सकता हूँ । तुम संगम या विरह किसी एक को चुन लो । उसने निर्भय होकर स्पष्ट उत्तर दिया “ संगम और विरह में से यदि मुझे कोई एक चुनना हो तो संगम की अपेक्षा मैं विरह को ही अच्छा मानता हूँ , क्योंकि संगम के समय तो वह केवल एक ही होती है किन्तु विरह में तो यह सम्पूर्ण त्रिभुवन ही प्रियामय प्रतीत होने लगता है । "
अतः संयोग श्रृंगार की पुष्टि हेतु विप्रलम्भ श्रृंगार आवश्यक है इसी कारण कालिदास के काव्यों में श्रृंगार के दोनों ही रूपों का ताँता सा लगा है । अभिज्ञान शाकुन्तलम् में वर्णित संयोग व विप्रलम्भ श्रृंगार हर सहृदयों को रसमग्न कर देता है । - प्रेमासक्त शकुन्तला की व्याकुलता अधिक बढ़ गई है । संखियों ने लता भवन में उसे पुष्प शय्या पर लिटाया तथा शीतलता प्रदान करने वाले अनेक उपचार किये , पर सब निरर्थक । राजा दुष्यन्त लतामण्डप के बाहर स्थित है । बाहर से ही शकुन्तला एवं सखियों एवं सम्बन्धित वार्तालाप को श्रवण करते हुए अन्दर , प्रविष्ट होते है । उन्हें सहसा आया देखकर शकुन्तला उनके स्वागतार्थ खड़ी होने लगती है , यह देखकर राजा जिनका संचालन करने से पुष्प शय्या दलमल गयी है और मृणाल का कंकण भी मर्दित हो गया है विशेष करके जिससे गुरूतरसन्ताप अनुभूत होता है ऐसे आपके अंग लोकाचार का पालन करने में समर्थ नहीं है ।
उचित अवसर पाकर प्रियम्बदा राजा से कहती है " यह हमारी प्रिय सखी शकुन्तला आपके ही उद्देश्य से कामदेव के द्वारा इस अवस्था को पहुँचाई गई है । अतः आप इसकी जीवन रक्षा करें । "
दुष्यन्त के द्वारा यह कहे जाने पर कि - " प्रार्थना तो दोनों ही ओर से एकसी ही है । शकुन्तला हृदय की गहराई जानने के उद्देश्य से कहती है सखिना अन्तःपुर के वियोग से उत्कण्ठित राजर्षि से इस प्रकार अनुरोध करना उचित नहीं है । इसके प्रत्युत्तर में कहा गया राजा दुष्यन्त का यह कथन दृष्टिगत है ।
हे हृदय में निवास करने वाली यदि मात्र तुम्हारे में लगे हुए हमारे मन को तुम किसी दूसरे में निरूपित करोगी तो हे खंजन नयने कामवाण से मारा हुआ मैं और भी मारा जाऊँगा ।
शकुन्तला जब लतामण्डप से बाहर आने का प्रयास करती है । उसके गिरे हुए मृणालवलय को वक्षस्थल से लगाकर दुष्यन्त पूर्ण शांति का अनुभव करते है । यह देख शकुन्तला प्रतिनिवृत्त होती है । दोनो प्रस्तर खण्ड पर बैठ जाते है । दुष्यन्त मृणालवलय को शकुन्तला के हाथ में बाँधते है । शकुन्तला आनन्द का अनुभव करती है । प्रेमालाप के मध्य ही दुष्यंत की ओर से विवाह विषयक प्रस्ताव उपस्थित होता है । कुछ समयोपरान्त राजा दो अंगुलियों से शकुन्तला का मुख ऊपर उठाकर कहते है – “ आज से पूर्व कभी दन्तक्षत न किये जाने से कोमल , प्रियतमा के ये ओष्ठ , मनोहर स्पन्दन करके मानो मुझ प्यासे को पीने के लिये अनुमति दे रहे है । "
शकुन्तला के द्वारा यह कहे जाने पर कि “ मैंने आपका कोई उपकार नहीं किया यह सोचकर मुझे लज्जा आती है । दुष्यंत कहते है कि " हे सुन्दरी और क्या उपकार करना चाहती हो ।
विक्रमोर्वशीयम् में उर्वशी के अनुपम सौन्दर्य को देखकर पुरूरवा प्रथम दर्शन में ही मोहित हो जाता है और कहता है- " निश्चित कामदेव ही इसका सृष्टा रहा होगा यह ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हो सकती।
इसके पश्चात् प्रथम स्पर्श सुख ही मानो कामभावना का बीजारोपण कर देता है । राजा कहता है इस रथ के हिलने से जो इस चक्रनितम्बा के कंधे से हमारे कन्धे का स्पर्श हो गया है , उससे हमारे रोंगटे खड़े हो गये ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारे शरीर में काम के अंकुर ही उग आये हो । '
कालिदास द्वारा वर्णित संभोग श्रृंगार के समान ही वियोग श्रृंगार भी पाठकों को रसलीन किये बिना नहीं रहता । उनके नायक - नायिकाओं का वियोग वर्णन अपनी चरमावस्था को पहुँचा हुआ प्रतीत होता है । मेघदूत तो विरहीहृदय की ही गाथा है । जिसमें नायक के मुख से निस्सरित उद्गारों द्वारा ही दोनों पक्षों की विरह व्यथा का ज्ञान हो जाता है । विरही यक्ष चेतन – अचेतन के भेद ज्ञान को भूलकर मेघ को ही संदेशवाहक बना लेता है । निश्चित ही कामी पुरुष चेतन , अचेतन का भेद करने में स्वभाव से ही कृपण होते है । 10
विक्रमोर्वशीयम् का नायक पुरूखा भी वियोगवस्था में इसी स्थिति की प्राप्ति हो जाता है । वह भी उर्वशी के वियोग में मेघ को ही अपनी प्रिया का हरण करने वाला राक्षस समझकर कह उठता है अरे दुरात्मा ठहर , मेरी प्रियतमा को कहाँ ले जा रहा है ? अरे यह पर्वत शिखर से आकाश में उड़कर हम पर वार्णों की वृष्टि कर रहा है , कुछ सोचने पर राजा को ज्ञात होता है कि यह राक्षस नहीं मेघ है ।
अरे यह तो नवीन मेघ ऊपर की ओर उठ रहा है , घमण्डी निशाचर नहीं और यह दूर तक खींचा हुआ इन्द्रधनुष है न कि राक्षस का धनुष । यह धारावृष्टि हो रही है , वर्णों की वर्षा नहीं । कसौटी पर सोने के सदृश यह विद्युत है , मेरी प्रिया उर्वशी नहीं । 11
नायक पुरूरवा पुनः सोचता है कि उर्वशी कहीं नदी के रूप में परिणत तो नहीं हो गई है । “ अवश्य ही उर्वशी मेरे अपराधों को न सह सकने के कारण बार - बार स्मरण करती हुई नदी के रूप में परिणत हो गई है । तरंगे ही उसकी टेड़ी भौहें हैं कलरव करते हुए पक्षीगण ही उसका कटिसूत्र है , क्रोध से खिसके हुए अपने फेन रूपी वस्त्रांचल को समेटती हुई वह चली जा रही है । 12
दूसरे ही क्षण उसे विचार आता है कि नहीं मेरी प्रियतमा मुझे इस प्रकार छोड़कर नहीं जा सकती । वियोगावस्था में भी परस्पर का यह विश्वास ही तो कवि के वियोग वर्णन को सामान्य धरातल से ऊँचा उठा देता है । राजा नदी को सन्बोधन कर कहता है । - “ कथं तृष्णीमेवास्ते ( विचिन्त्य ) अथवा परमार्थ सरिदेवेषा । न खलुवंषी पुरूखासमपहाय समुद्राभिसारणी भविष्यति ।
“ अर्थात् हे नदी बतलाओ तो तुमने इतना प्रेम करने वाले सदा मधुरभाषी और स्नेह में कमी आने की बात कभी न सोचने वाले इस प्रेमी में कौन सा ऐसा तुच्छ दोष पाया है कि जिससे तुम इस दास को इस प्रकार से त्याग रही हो । अरे यह चुप क्यों है ? अथवा सत्यतः यह नदी ही होगी क्योंकि यदि यह उर्वशी होती तो पुरूरवा को छोड़कर समुद्र की ओर जाने के लिये कभी उत्सकुक न होती । "
वास्तविकता तो यह है कि कालिदास ने अपने सभी नायक नायिकाओं को यथार्थ प्रेम के स्वरूप तक पहुँचाने के लिये वियोग को एक आवश्यक शर्त माना है । वियोग पक्ष की यही अनिवार्यता उनके काव्य मे एक अनुठा सौन्दर्य उत्पन्न कर देती है । यही कारण है कि कोई भी सहृदय , नायक नायिका के वियोगजनित दुःख के साथ दुःख का अनुभव करते हुए भी रसोदधि मे गोते लगाये बिना नहीं रह सकता ।
राज हंसों की कोक में प्रियतमा के बिछुओं की ध्वनि का आभास करने वाला पुरूरवा , मानसरोवर जाने को उत्सुक राजहंसो से कहता है “ हे हंस यदि तुमने ऐसी बाँकी चितवन वाली सुन्दरी मेरी प्रिया को इस सरोवर के किनारे पर नहीं देखा है , तो चोर यही बतलाओ कि तुमने उसकी मद इठलाती सुन्दर चाल को कहाँ प्राप्त कर लिया । " 13
अभिज्ञान शाकुन्तलम् मे भी चतुर्थ अंक में शकुन्तला की विदा के समय कण्व ऋषि की मानसिक अवस्था का चित्रण अत्यन्त मर्मस्पर्शी शब्दों में उपस्थित किया गया है । वे कहते है – “ आज मेरी प्रिय पुत्री शकुन्तला चली जाएगी , यह सोचते ही विषाद ने आकर मेरे हृदर पर अधिकार कर लिया है । आँसुओं को रोकता हूँ तो वह आकर कण्ठ की आवाज को रोक लेते है और चिंता के कारण आँखों की शक्ति भी कुण्तित हो जाती है । जब वन में निवास करने वाले मुझ जैसे तपस्वी का स्नेह के कारण इस प्रकार की विकलता है तो फिर गृहस्थ लोग कन्या के प्रथम वियोग के असह्य दुःख से क्यों न दुःखी होते होगें । 14
इसी प्रकार शकुन्तला के तीव्र वियोग में राजा के मनोगत भावों को महाकवि ने अनेक सुन्दर शब्द चित्रों द्वारा अंकित किया है । प्रेम के प्रथम आवेग में ही विवाह के बंधन सूत्र में आवद्ध हो जाने वाले नायक - नायिका को सच्चे प्रेम की वास्तविक रसानुभूति कराने हेतु वियोग की अग्नि में तपाकर उन्हें यह पाठ पढाना ही कवि का ध्येय है कि —
“ एकान्तं मिलन भली - भाँति परीक्षा कर लेने के बाद ही करना चाहिये , अन्यथा जिसके हृदय को भली - भाँति नहीं पहचाना , उसके प्रेम का अंत बैर में ही होता है । " 15
दुष्यंत और शकुन्तला का प्रेम भी ऐसे ही दो अज्ञातहृदयों का ही प्रेम हे , इसीलिये दोनों को महान कष्ट भोगना पड़ता है , क्योंकि परस्पर एक दूसरे के हृदयों को भलीभाँति न पहचानने वाले प्रेमियों के पश्चाताप एवं वियोग की भयंकर अग्नि में अपनी हृदय शुद्धि करनी पड़ती है , तभी वे प्रेम के वास्तविक स्वरूप तक पहुँच पाते है । अतः यह उक्ति कि – “ न बिना विप्रलम्भेन संभोग : पुष्टिमरनुते ” नितान्त सात्य है ।
शकुन्तला के वियोग में व्याकुल दुष्यन्त पूर्व वृतान्त का स्मरण कर विदूषक से कहते है कि " कि मेरे द्वारा परित्यक्त होकर अपने घर वालों के साथ जब वह जाने लगी , उस समय पिता के समान कण्व के शिष्य शीर्गरव ने उससे ऊँचे स्वर में कहा था - " ठहर " , उस पर उसने रूककर मुझ निष्ठुर प्रकृति वाले पति की ओर फिर एक बार अपनी अश्रु कलुषित दृष्टि डाली थी , विषैले बाण के समान आज भी वह मुझे जला रही है ।
राजा पुनः पश्चाताप करता हुआ कहता है कि हे मित्र ! वह जो शकुन्तला का और मेरा मिलन हुआ था , वह स्वप्न था , माया थी , मेरी बुद्धि का भ्रम था या मेरे पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य का एकमात्र वही पल था । कुछ कहा नहीं जाता । वह सम्मिलित सुख तो चला ही गया अब फिर वापिस नहीं आयेगा । इसीकारण उस विषय में जितनी आशाएं की जा रही है , वे सब , आशा का एक उच्च शिखर से पतन ही माने जायेगें ।
करूणरस — श्रृंगार रस के साथ ही कालिदास के ग्रंथों में कुछ अन्य रसों का भी चित्रण यंत्र - तंत्र मिलता है । करूण रस का चित्रण अभि0 शा0 के चतुर्थ अंक में शकुन्तला के पति गृह जाते समय स्पष्ट रूप से हमारे समक्ष आता है । कन्या को प्रथम बार उसके पतिगृह भेजने के अवसर पर प्रत्येक कुटुम्बीजन के हृदय में एक असाधारण मानसिक व्यथा उत्पन्न होती है । उसका अनुभव महर्षि कण्व की उक्ति में ही किया जा सकता है । 16
वात्सल्य रस कालिदास श्रृंगार रस का पर्यावसान वात्सल्य में ही मानते हैं । वात्सल्य भाव कवि द्वारा वर्णित प्रत्येक प्रेम व्यापार के आदि और अंत में अवश्य आता है । नायिका पहले माता - पिता के उमड़ते हुए वात्सल्य का विषय बनती है और वाद में मातृत्व का वरदान पाकर धन्य हो जाती है । इनके प्रति प्रत्येक प्रेम व्यापार की योजना में वात्सल्य स्नेह के कुछ न कुछ छींटे अवश्य आ जाते हैं । वात्सल्य रस का अनूठा चित्रण अभिज्ञान - शाकुन्तलं के भरत वर्णन में मिलता है । जहाँ दुष्यंत बतलाते है कि “ निष्प्रयोजन ही नन्ही दतुलियों को दिखाने वाले तुतलाते अव्यक्तमनोहर वाणी बोलते हुए बालकों को गोद में लेकर शरीर मे संलग्न धूलि से मिलन होने वाले लोग धन्य है ।
भयानक रस — अभिज्ञान शाकुन्तलम् के प्रथम अंक मे प्राप्त दृश्य में ही भयानक रस का मार्मिक चित्रण किया गया है । दुष्यंत के वार्णों के डर से भयभीत होकर आगे - आगे हरिण तेजी से दौड़ रहा है और पीछे - पीछे रथ। रथ को देखने के निमित्त अपनी गर्दन मोड़कर पीछे की ओर देख रहा है तथा कहीं उसके विकसित मुख से अर्धकवलित दर्भ गिर - गिर कर मार्ग में बिखर रही है । भय के कारण वह इतने वेग से छलागें मार मारकर दौड़ रहा है कि पृथ्वी पर कम तथा आकाश में अधिक गमन कर रहा है । 17
वीर रस – उपर्युक्त दृश्य में भयानक रस के साथ ही आखेट के लिये राजा दुष्यंत के उत्साह का भी मुख्यरूप से अस्वाद होता है अतः यह दृश्य वीर रस प्रधान भी है ।
अद्भुत रस - अभि0 श0 पंचम अंक में किसी अदृश्य मूर्ति द्वारा शकुन्तला के उड़ा ले जाने के समाचार में अद्भुत रस के दर्शन होते है ।
हास्य रस - कालिदास की रचनाओं में यत्र - तत्र हास्य रस का भी पुट दिखाई देता है । हास्य रस की योजना करने वाला मुख्य पात्र विदूषक उनके प्रत्येक नाटक में विद्यमान है । विदूषकों के कथोपकथन बड़े सूक्ष्म किन्तु व्यंग्य प्रधान है । मालविकाग्निमित्रम् में विदूषक कौशिकी को “ पीठमर्दिका " कहकर उसकी खिल्ली उड़ाता है । गणदास और हरिदत्त की लड़ाई को मेंढोंकी लड़ाई बतलाता है । परन्तु विदूषक को सर्वाधिक चिंता लड्डुओं की है और सरस्वती की भेंट में चढ़े लड्डुओं को पचाते हुए गणदास से ईर्ष्या करता है ।
विक्रमोवर्शीयम का विदूषक भी व्यंग्य व हास्यप्रधान उक्तियों का प्रयोग करने में पूर्णदक्ष है । औशीनरी के द्वारा उर्वशी के भूर्जपत्र लेख के पकड़े जाने पर राजाविदूषक से धीमे से बचने का कुछ बहाना पूछता है । उस समय की विदूषक की उक्ति बड़ी ही सुन्दर है । वह कहता है । “ चुराई वस्तु के साथ पकड़ा गया चोर क्या उत्तर दे सकता है ।
अभि0श0 में भी हास्य रस के अनेक उदाहरण है जो कि विदूषक की व्यंव्य व हास्य युक्त अनुपम उपमानों तथा संवाद की स्वाभाविक शैली से भरे पड़े है । माधव शकुन्तला के प्रति राजा का प्रेम वैसा ही समझता है जैसे पिण्डखजूर से संतुष्ट हुए व्यक्ति की इमली खाने की अभिलाशा ।
इस प्रकार हम देखते है कि कालिदास के काव्य मे सभी प्रकार के रसों का अनूठा सम्बन्ध व समन्वय उपस्थित हो गया है ।
वास्तव में कालिदास की सौन्दर्य चेतना बड़ी सूक्ष्म तथा परिष्कृत है । उनकी दृष्टि बाह्य रूप की चकोचौध से झपकती नहीं किन्तु उसे भेदकर भीतर चली जाती है उसके लिये रूप माधुरी वह घर है जो व्यक्ति के प्राक्तन पुण्यों का परिणाम है , किन्तु यदि उसके पीछे सुन्दर हृदय नही तो वह अपूर्ण ही है । हृदय का सौन्दर्य—निष्पाद हाव भाव , मधुर बोलचाल तथा साधु व्यवहार में झलका करता है । कालिदास ने जिन पात्रों की सृष्टि की है वे बाहर भीतर दोनों तरफ से सुन्दर है । कवि ने उनके उस सौन्दर्य चित्रण के लिये जिस कथावस्तु , कथा , कथनशैली , भाव व्यंजना , वाक्य रचना एवं गुण तथा अलंकारों का प्रयोग किया है वे भी सर्वात्मना रसाप्लावित है और यही उसकी बड़ी विशेषता है ।


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