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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 1


कन्‍हर पद माल

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

दिनांक- 16-4-97

पत्र श्री 1008 श्री बाबा रामदास करह धाम, मुरैना

श्री सीताराम जी—

करह धाम

5-1-97

भक्‍तवर पिछोरवासी जनता जनार्दन

सप्रेम हरि स्‍मरण-

हमारे राम चार वर्ष की अवस्‍था से चार वर्ष पिछोर में रहे वहीं विद्या का आरम्‍भ हुआ। दो बार श्री कालिन्‍द्री पर यज्ञ में जनता जनार्दन की सेवा का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ। पहली बार रघुराज सिंह थानेदार के द्वारा दूसरी बार केवटों के द्वारा विशाल सत्‍संग लाभ प्राप्‍त हुआ।

श्रद्धेय 1008 श्री कन्‍हर दास जी उनके कृपा पात्र श्रद्धेय श्री मनहर दास जी दोनों संतों की महिमा बचपन से मेरे मन में थी। श्री राम गोपाल तिवारी भावुक, श्री अनन्‍तराम गुप्‍त एवं श्री रामवली सिंह चंदेल उनके प्रयास से आज दोनों महापुरूषों की पाण्‍डुलिपि की फोटो कॉपी कराके इन्‍होंने दर्शन कराये, हृदय को बड़ी प्रसन्‍नता हुई।।

सभी प्रेमी, जितना भी साहित्‍य प्राप्‍त हो सके प्रयास करके इसे छपवाने का उत्‍साह से कार्य करें। संतों का चरित्र निर्मल दर्पण है उसमें अपना मुख देखते हैं तो काला कलूटा मालूम पड़ता है। इसमें हमारे राम, जो साहित्‍य होगा इसमें प्रकाशित करने का सहयोग देंगे।

भक्‍त, भक्ति, भगवन्‍त पदानुरागी भक्‍तों से प्रार्थना है कि इस कार्य को शीघ्र से शीघ्र सम्‍पन्‍न करें जिससे पिछोर एवं आस-पास के क्षेत्र का यश बढ़ेगा।

बाबा रामदास

करह धाम, मुरैना

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी

सन्‍त मनहर दास कृत

श्री गुरू – परम्‍परा

जन मन राम चरन सुखरासी

प्रेमदास स्‍वामी निसिवासर कह-कह गुन हरषासी।

तिनके शिष्‍य भये लक्ष्‍मन वर राम ध्‍यान उस ल्‍यासी।।

तिनके दयाराम गुन निधि भये भक्‍त गुरून की आसी।।

तिनके मानदास गुन जुत भये रामचरन रति पासी।

तिनकी कृपा सुदृष्टि भये ते कन्‍हर वरन राम गुनगासी।।

सन्‍त कन्‍हर जीवन चरित्र

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।

गुरू महिमा

सन्‍त मनहर दास कृत

चौ.- कोई गान करत कर दीना, कोई सिंधु चुगावत मीना।

विर्ले स्‍याम राम आराधे, बिरले साधु सरोदय साधे।।

परमहंस डारे मृग छाला, ध्‍यान मानसी मनकर माला।

जोई मागे ताको सोई देवे, निशि दिन सिया राम पद सेवे।।

गई ग्‍वालियर खबर बहोरी, लगी सदा सुमरन से डोरी।

कन्‍हर दास भये एक साधू, भाव भक्ति में अगम अगाधू।।

सिद्धि सुनी जीवाजी आये, बुद्धि विवेक तेज तनु छाये।

सब सिपाह द्वारे पर ठाड़ो, ज्‍यौं असाढ़ में लिखत असाड़ी।।

दोहा—स्‍वामी कन्‍हर दास की, महिमा अमित अपार।

कर जोरें राजा खड़े, लखे न आंखि उधार।।1।।

सनद तपोनिधि मन अनुमानी, ठाड़े रहे जोर युग पानी।

गदगद गिरा दूवरि बल बैना, बोलेहु नृप डर बोल सके ना।।

कहो कहां श्री कन्‍हर स्‍वामी, जानत हो उर अंतरजामी।

बैठन कहां सुनहु गुरू ग्‍यानी, भोग करत गई बीत जवानी।।

भूपति कहा हमहि बैठारी, पुत्र होय निज नाम निकारो।

श्री गुरूदेव भूप सन भाखा, पूरन होय आप अभिलाखा।।

कहि नृप निश्‍चय मनहि हमारे, अब तब आये सरन तुम्‍हारे।

जाके नहिं मन गुरू परतीती, आई गई भरी भई रीती।।

बारह मास भजन मह बौता, सुमरत रहेउ राम अरू सीता।

निज कर करी राम की सेवा, अपण कद दूध दधि मेवा।।

लगो न भोग चिटी को चूगा, मौती तजत उठायो मूंगा।

राम कृष्‍ण को जन्‍म समैया, भरि-भरि अंजलि उठै रूपैया।।

माल पुआ दुइ दुइ मन पूरी, सरस रसोई सजीवन मूरी।

छप्‍पन भोग छत्‍तीसो व्‍यंजन, नित नव होत क्षुधा दुख भजन।।

आम आमला घरे मुरब्‍बा, कर्म कुकर्म करी नहि हब्‍बा।

दुखी दीन दुज देखा ताहू, गऊ दान दीनों सब काहू।।

खबर मिली सुत भूपति, पायो, दौरत दूत बुलावन आयो।

हय गज पीनस सेज समारी, करो गुरू लश्‍कर की त्‍यारी।।

दोहा- गये गुरू के साय में, सेवक भुसूर संत।

जिम उड़गन में चंद्रमा, कन्‍हर दास महंत।।2।।

अति सम्‍मान महीपत कीन्‍हो, सहित रानि चरणोदक लीन्‍हो।

गुरू दक्षिणा लई दई राजा, परति पांय पुन पातक भाजा।।

विप्र गढ़ूका गुलाब ठाकुर, रहित प्रपंच रहित वा ऊपर।

कारागार से ताहि, छुटायो, मेख मार विधि रेख मिटायो।।

दफा न देखी कही दरोगा, कारागार जुर्म केहि भोगा।

भूप कहा दे छोड़ विषेखी, स्‍वामी वचन दफा सी देखी।

पठा पयादे शीघ्र बुलायो, दर्शन करत दौरतहि आयो।

छुये सरोज चरण जेहि वेरा, गुरू कर कमल शीस पर फेरा।।

गुरू कही येसी मति करियो, भूल कुमारग पांव न छरियो।

चिरंजीव नृप पांयपे डारे, दै असीस गुरू गाम पधारे।।

आय पिछोर बिचारन लागे, बोलेहु वचन मधुर रस पागे।

आस पास बैठे द्विज आई, सुनहू सखा हमरे मन भाई।।

गुरू को नहि भंडारा, कीन्‍हों, जानहि जगत कर्म को हीनों।

सिद्धी से सामान मगायो, लडुअन से भंडार भरायो।।

गुरू की महिमा केहि विधि गाऊ, उपमा लेत देत सकुचाऊं।

गुरू ब्रम्‍हा गुरू विष्‍णु बखाने, वेद महेश विदित जगजाने।।

लिखी पत्रिका कलम मंगाई, जानहि कौन जुगुति पहुंचाई।

जंगी ज्‍वान द्वारे रहे ठाड़े, दुइ तलवार म्‍यान से काढ़े।।

दोहा- जीवाजी महाराज तब, थे कलकत्‍ता खास।

रात भरे महु भोर ही, परी पलंग पर पास।।3।।

चिट्ठी चीन्‍ह चकित जीवाजी, भयो भरोस भूप भय भाजी।

पगी पियूख छलन से छूछी, पकरि पीठ पहिरा पर पूछी।।

कहो कौन ऐसो आज आयो, पत्री परी पता नहिं पायो।

आये राम कि तीनों भ्राता, और कौन सेवक सुख दाता।।

यक्ष दक्षणी भैरव, भूता, आये किधौ सियावर दूता।

घारा सीस देव सरि धारे, बूझि बहुत जीवाजी हारे।।

ज्‍वानन कहा सुनहू महाराजा, आवत जात लखौ नहिं भाजा।

सोबहू सजग राखि हुसियारी, पुर पिछोर की करी त्‍यारी।।।

गये गुरू हम देख न पाये, चढ़े रेल दो दिन में आये।

भूपति भवन भरे लखि मोदक, पद पखार पायो पादोदक।।

ताही समय भक्‍त सब आबा, गुद्व द्वारा नैपाल पठाबा।

कही गुरू इच्‍छा क्‍या कहिये, घृत हमरे तूमा भर चहिये।।

भरन लगे गुरूजी के चेला, इन्‍द्रजाल खेलो खुद खेला।

जब चितयो तब देखो खाली, गुरू आये सुमरत वनमाली।।

निज गिलास लाये घृत भरके, ध्‍यान धनुषधारी को धरके।

तूमा भरे न टूटे धारा, अति अनंद देखत संसारा।।

हरे न हार टरे नहिं टारे, मानहु मुनि मनोज मतवारे।

दोहा—साष्‍टांग तेहि डंडवत, गुरू कन्‍हर कहैं कीन्‍ह।

सुनि आये दर्शन लगे, चरण चिन्‍ह हम चीन्‍ह।।4।।

इत लड़ुअन की उठी पहारी, गाढ़ी भरि-भरि लेत अगारी।

विन पूछे बिन कहे गुरू के, माल सुधा सम मिले मरूके।।

जाकों पीठ देत जो आगें, सो अवश्‍य नर अधम अभागे।

पौआ-पौआ वधे न पौआ, भाट जुरे सब विनहि वुलौआ।

मैदा शंकर घटो न वेसन, सो विख्‍यात विदेशहु देशन।।

दुई-दुई लाड़ू दुइ-दुइ खुर्मा, गैर होय या हो कुलवर्मा।

कोई विमुख जान नहिं पावे, चार धाम से जो कोई आवे।।

अवधि पुरी की जुरी जमातें, घेर-घेर बुलवाई बरातें।

नगर पांति कीन्‍ही श्री स्‍वामी, निंदा करहि सो नमक हरामी।

सिंधु तीर निज गाम के गंगा, करि अस्‍नान होत मन चंगा।

कैथोदा दूसरो लिधोरा, जिन जिन सुना दूर से दौरा।।

जितनी चुन गई मीन मिठाई, नहिं नरप‍ति के देत दिखाई।

और कौन दुनिया में दूजा, हित में करी जियाजी पूजा।।

फुर वरदान दियो गुरू देवा, सोसुत करहि संत की सेवा।

माधवराव नाम महराजा, जिसने करे मनोहर काजा।।

होत सुवन जैसे के तैसे, सो कहि सको कहां तक कैसे।

जो नहिं सुमरत गुरू गोविन्‍दा, हांसी नगर नगर धिक निन्‍दा।।

गुरू बड़े मानेहु त्रिलोका, करामात कवि कहि कहू कोका।

दोहा—गुरू ब्रम्‍हा गुरू विष्‍णु जी, श्री गुरूदेव महेश।

कहा कहों मुख एक से, वर्ण सके नहिं शेष।।5।।

गये ग्‍वालियर नृप जीवाजी, औरहु कहों गुरू महिमा जी।

फूल बाग हर सदन बनाये, राजारानि देखि सुख पाये।।

रहे तहा कुछ दिन श्री स्‍वामी, वलमें विपुल मनुज मंहनामी।

एक दिना पुत्रहि राजा के, घेरो घोर पवन ने आके।।

पुतरी फिरत लखी जेहि वेरा, गुरू गुरू कहि सब घर टेरा।

सुनि आवाज आये पुनि पल में, ज्‍यौं मुरारि द्रोपति के दल में।।

गुरू आये कैसे लगि अन्‍टा, जैसें टूटि परागज घन्‍टा।

देत भभूत भजी भय भारी, प्रभूदित भये पिता महंतारी।

नाम सुअन सोई रज्‍जू राजा, गीता गाय वजावत बाजा।।

सदा कहे गुरू गुरू गुरू गुरूजी, आयिकर आस सियावर पूजी।

फूल बाग की सुनहु सजावट, एकसा ग्रीष्‍म सरदरू, आपट।।

और चहूं दिसि कोटि सुहावन, बस्‍तीवर पिछोर पुर पावन।

नाना तरू फल फूल सुहायें, निजकर मनहु मनोज लगाये।।

चौक चांदनी चारू चदोवा, त्रिविधि सुगंधि चंदन उचोवा।

अति सुंदर द्वादसहु द्वारा, दांये सोहत, पवन कुमारा।।

बाग में बोले विविध विहंगा, नरवर चतुर न कोई लफंगा।

कहों कहो तक सकों न गाई, जो देखे सो जाय लुभाई।।

दोहा—सुन्‍दर सोभा कवि कहे, विविध वृक्ष फल-फूल।

कमलासन सियाराम जी, लखि विरंचि मन भूल।।6।।

कालिंदी फिर ताल खुदाये, रूप्‍या सहस पचीस लगाये।

करी सदा नीनन पर दाया, चार धाम से साधू धाया।।

चारहु घाट धरे निज नामा, भर्त सत्रुहन लछिमन रामा।

चारू चौतरा रहे चुड़ौली, चहुं दिशि चाल पुरा मह फेली।।

गुरू भभूत देते जहां जाति, फिरे रोय सिर धुन चिल्‍लाती।

नि‍कसन देत न सरवर पानी, मानत नाहिं मजूरन जानो।।

एक दिना मिल कही मजूरन, स्‍वामी करहि सिद्धी सम्‍पूरण।

मोसे कहो सकल समुझाई, कौन कर्म योन यह पाई।।

कहो गुरू जी ने सुन गोली, पूछत निडर कहां मति डोली।

जाको चहे न दशरथ लाला, ताको मृत्‍यु होत अकाला।।

डांकिन डसे फसे पर घाते, तरू ते गिरे मरे निजहाते।

फांसी फिरग छूत या छलमें, कूप बावरी डूबे जल में।

सुमरत नाहि सियावर दूता, भजत भूत येते भव भूता।।

सिया सती हरि हर मन माही, जैसे प्रीत सुमरत नर नाही।

सुमरत राम जानुकी अम्‍बा, भरो तुर्त जल सौ गज लम्‍बा।।

वादर बूंद न परी बरोबर, सयन समय सुचि ललित सरोवर।

देखत चले नगर नर नारी, देह गेह सब सुरति विसारी।।

दोहा- इक जवर जसोदी जानकी, जन्‍म जानकी जाम।

जगत गुरू जगदीश ने, धरो जानकी नाम।।7।।

औरो कथा कहों सुखदाई, सुनियो हरि जन ध्‍यान लगाई।

दंत वक्र की रियासत दतिया, भूप भमानी सिंह सुमतिया।।

मति निर्मल अगाध जिमिरेवा, करत सदा संतन की सेवा।

तहां वसत एक वणिक सुचेता, वाकी बहू सताये प्रेता।

अन्‍न खाय नहिं पानी पीवे, बोलहु कौन यतन सों जीवे।

धनी सहित अरू सब घर वारे, भये कठिन दुख देखि दुखारे।।

एक दिन आई सीस सोइ खेला, आयो जुरि मकान पर मेला।

कहो कोंन तुम आये ऊपर, पटकी प‍करि पलंग से भूपर।।

कही एक सियाने नर प्रेता, दिन नहिं चैन रैन दुख देता।

जंत्र मंत्र चेतायो सियाने, तेहित पटकि दीन खिसियाने।।

कोई पीठ करहु या पूजा, सुन सत मान उपाय न दूजा।

नगर पिछोर प्रेम पुर बस्‍ती, संत निहंग मदन की मस्‍ती।।

सरल सुभाव सुमति सुचि साधू, नैम प्रेम में अगम अगाधू।

उनकी लावहि सीथ प्रसादी, नहिं तो करहु वाम वरवादी।।

जो चाहहु दारा की दम को, तो उच्छिष्‍ट खवाबहु हमको।

आयो वणिक पूछि गुरू देवा, भली-भांति कीन्‍हीं सब सेवा।।

पेंड़ा पाय दीन्‍ह गुरू अर्धा, कही वणिक पूरण भई सर्धा।

तब ज‍ब जल्‍दी जाय खवावों, दुख हट कर सुख भयेउ सवायो।।

दोहा—निसदिन मंगल शुभसदन, अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि।

जीवन चरण चरित्र चित, भयेउ गुरूजी सिद्धि।।8।।

काया कौमिल अविचल अस्‍था, चारि पवारथ तुरीय अवस्‍था।

किये गुरू पुनि चालिस चेला, रचो रंग मनहर अलबेला।।

हरे शिष्‍य धन सोक न हरही, सो गुरू घोर नर्क मह पर ही।

जिनके नाहि वचन विश्‍वासा, गुरूहि विसारी आनि की आशा।।

जन्‍म वृथा तिनको जग माहीं, जैसे स्‍वांति सीप महं नाहीं।

गुरू विष्‍णु सिव शिवा विधाता, गुरू देव देवी पितु माता।।

मन मस्‍तान मगन मद मातो, और नाहि काहू सन नातो।

सवा सहस रचदई पदमाला, कृपा करी दशरथ के लाला।।।

नाना भांति भजन पर भांति, राग मल्‍हार झूलन बरसाती।

सारग देश विलावलई मन, चतुर अताइन तुर्ते लियी मन।।

बारह खरी आदि अन्‍ता खर, विशद विवेक विरत की वाखर।

लैद फाग धमारहु रसिया, रति के सहित मदन मन वसिया।।

सोरठ सिंधु कान्‍हरो होरी, बहुत रची कुछ रचो न थोरी।

गजल रेखता कवित विवेका, अगणित कहेंउ ऐक से ऐका।।

छन्‍द कुन्‍डली बारह मासी, कही गुरू ने राम उपासी।

गुरू की निंदा करे जो कोई, सात जन्‍म चमगादर होई।।

जो नर करे गुरू की निन्‍दा, तापर कोप करहि गोविन्‍दा।

गुरू गोविन्‍द जगत में दोई, तीजा होई कहहि कब कोई।।

जाको जी गुरू गुरू गुरू में, वाको काल अंगूठा चूमे।

गुरू महिमा को सुनहि जो गावे, अन्‍त समय पर्म पद पावे।।

करि पूजन रामायन गावे, बैठि वराशन भजन बनावे।

ताको नाम धरो पदमाला, कृपा करी दशरथ के लाला।।

दोहा—स्‍वामी कन्‍हर दास की, अद्भुत सगुण स्‍वरूप।

मूरित के दर्शन करै, चकित होहि नर भूप।।

जगन्‍नाथ जी से जब आये, गुरू गुरू के दर्शन पाये।

राम निवास दूर से देखा, करन लगे तेरह से लेखा।

करी दंडवत गुरू गुरू से, चितये नहिं निरखे रूख रूसे।

दियो खर्च धन मन महं जांची, कन्‍हर कहोवात सब सांची।।

धन धर गये सो दीन उजारी, दूनो लाइक धरसि अगारी।

हुए प्रसन्‍म स्‍वामी तब बोले, स्‍वप्‍ने तेरो धर्म न डोले।।

राव बहोरन जन गुन ग्‍याता, चढ़े रेल दो दिन में आता।

सजहु समाज धौलपुर जाना, पद पखार पादोदक पाना।।

बजे समूह सुरन के डंका, आये अ‍वधि फतेकर लंगा।

चारो युग की लिखी है लीला, घोड़ा अश्‍वमेध कह ढीला।।

प्रेमदास को रचो अखाड़ो, निरमोहियन निशाननहिं गाड़ी।

लड़े लडंत प्रेम के पट्ठा, जानहि जन सांची उगठट्ठा।।

दुइ दुइ व्‍याह करे बिन जाने, चुटिया मूछ पकरि गहि ताने।

वेधो वान मच्‍छ नभ पारथ, स्‍वारथ रचो न रचो अकारथ।

बीस चार अवतार लिखाओ, ना जानहि धन कहां से आयो।

चकित भये लखिपुर नरनारी,दिन-दिन ग्‍यान भक्ति अधिकारी।।

जप तप कीन्‍ह कसी निज काया, पन्‍द्रह बीस यंत्र चेताया।

सम्‍वत् उनइस सौ ननोतीसा, नित नव नैम प्रेम तुलसी सा।।

चैत्र सुक्‍ल नौंमी रवि वारा, दर्शन करन जुरा संसारा।

अभिजित योग समय मध्‍याना, लै पंचामृत प्रान पयाना।

गरूड़ पुरान सारश्रुति सोधा, त्रिया कर्म कीन्‍हो कुल प्रोधा।।

दोहा- तीस रागनी राग छै: रचिपदमाला ग्रन्‍थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कंथ।।9।।

गुरू समस्‍त महिमा जिये, वर्ष एक सौ आठ।

चारहू फल करतल रहे, करे अठोत्‍तर पाठ।।10।।

सोरठा—श्री गुरू कन्‍हर सांच, मन्‍हर के मन में बसे।

हरिजन हर्षे वांच, अमित अखाड़ा प्रेम का।।

करी रियासत जांच, श्री माधव महाराज ने।

नम्‍बर नौ सौ पांच, झांकी युगल किशोर की।।

छितुरी तहां तरू ताल, दास मनोहर मन हरन।

शुभ वामन की साल-कही कथा गुरू सप्‍तमी।।

दोहा- कहि वक्‍ता श्रोता सुनहु, गुरू कह करहु प्रणाम।

अपने-अपने सुख भवन, करहु जाय विश्राम।।11।।

इति श्री गुरू महिमा जीवन चरित्र सम्‍पूर्ण सुभम्

स्‍वामी मन्‍हर दास जी कृत

तिथि वैशाष कृष्‍ण 1 गुरूवार सम्‍वत् 1965 वि.